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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


सिद्धजी बने हुए प्रभाकरसिंह ने इन्द्रदेव की स्त्री सर्यू को दुष्ट दारोगा के पंजे से छुड़ा लिया और उसी के रथ पर बैठ चले गये।

उस समय दारोगा बहुत ही प्रसन्न था और यह सोच-सोच किस्मत को सराह रहा था कि जब ईश्वर ने दया करके बाबा मस्तनाथ को भेज दिया है और पुन: कल आकर वे उस तिलिस्म का भेद बताने को भी कह गए हैं तो उसकी किस्मत फिरा ही चाहती है और ताज्जुब नहीं कि एक सप्ताह के अन्दर ही वह लोहगढ़ी और उसके बड़े भारी खजाने का मालिक बन जाय।

इस विचार ने उसे यहाँ तक प्रसन्न किया था कि उसकी तकलीफ बहुत कम हो गई और वह बाबाजी को दरवाजे तक पहुँचा कर अपने पलंग पर नहीं गया बल्कि उस कोठरी में चला जिसमें मनोरमा और नागर बैठी हुई ताज्जुब से उन विचित्र सिद्धजी और उनके अद्भुत डण्डे का जिक्र कर रही थीं। दारोगा को देखते ही दोनों उठ खड़ी हुईं।

मनोरमा ने उसे सहारा दे अपने बगल में गद्दी पर बैठाया और नागर ने कई तकिये ढासने और सहारे के लिए उसके चारों तरफ लगा दिये। दारोगा के बैठते ही मनोरमा ने पूछा, ‘‘ये बाबाजी कौन थे जिनकी आपने इतनी इज्जत की?’’

दारोगा : ये बड़े भारी तपस्वी और प्रतापी सिद्ध पुरुष हैं।

मैंने और इन्द्रदेव ने जिन ब्रह्मचारीजी से शिक्षा पाई है ये उनके गुरुभाई हैं और हम लोग इन्हें भी गुरु ही मानते और पूजते हैं आज कितने ही बरसों बाद इन्होंने दर्शन दिये हैं। ये बड़े भारी योगी हैं, इनकी सामर्थ्य का हाल सुनोगी तो ताज्जुब करोगी।

नागर : क्या हम लोगों ने देखा नहीं! उनके डण्डे की ताकत देख मुझे तो गश आ गया!!

मनो० : हाँ, आप पर जब उन्होंने क्रोध किया तो उनके डण्डे से किस प्रकार आग निकलने लगी! इतना मोटा पर्दा छूते ही भस्म हो गया। आपने अच्छा किया जो उनका क्रोध अपने ऊपर नहीं लिया नहीं तो न जाने क्या आफत आ जाती।

दारोगा : ओफ! ये अपना डण्डा जरा सा छुला भर देते तो मेरा खातमा हो जाता। यही देख कर मैंने सर्यू को धीरे से उनके हवाले कर दिया।

नागर : मगर अब इन्द्रदेव को आप क्या कह कर समझाइयेगा? वे जब सुनेंगे कि आपने उनकी स्त्री को कैद कर रखा था तो बड़े ही क्रोधित होंगे!

मनो० : तो इसके लिए ये क्या करते! इन्द्रदेव के क्रोध को देखते या गुरुजी के क्रोध से भस्म होते!

दारोगा : अरे इन्द्रदेव को मैं समझा लूंगा, वह बेवकूफ है क्या चीज?

नागर : आप ही तो कई बार कह चुके हैं कि ‘दुनिया में मैं किसी से डरता हूँ तो एक इन्द्रदेव से’ और अब कहते हैं कि वे वह क्या चीज हैं?

दारोगा : बेशक इन्द्रदेव है बड़ा बलवान पर यदि बाबा मस्तनाथ हमारी मदद पर मुस्तैद हो जायँ तो कुछ नहीं कर सकता। अगर गुरुजी ने अपने दोनों वादे पूरे कर दिए तो इन्द्रदेव ऐसे हजारों मेरे तलवे चाटा करेंगे?

मनोरमा : दोनों वादे कौन? एक तो लोहगढ़ी वाला!

दारोगा : और दूसरा गदाधरसिंह के विषय में! वह कम्बख्त भी आजकल बुरी तरह से मेरे पीछे पड़ गया है।

इन्द्रदेव ने उस पर न जाने कैसा जादू कर दिया है कि वह बिल्कुल उन्हीं के कहने में आ गया है, और बर्बाद कर देने की खुली धमकी देता है, अगर वह कम्बख्त किसी तरह मेरे काबू में आ जाय तो मैं दुनिया में अपने बराबर किसी को न समझूँ।

नागर : मैं भी उस शैतान से बड़ा डरती हूँ। उसके सामने अपनी जुबान हिलाने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।

दारोगा : क्या बताऊँ, मुझे तो बार-बार यह भी शक होता है कि उस गुप्त सभा में लूट-पाट मचाने वाला और कलमदान लूट ले जाने वाला भी वही शख्स है।

मनो० : (चौंक कर) हैं, क्या ऐसा हो सकता है? मगर यह शक आपको क्योंकर हुआ?

दारोगा : अब दिल ही तो है, क्या बताऊँ कि कैसे शक हुआ। मगर मुझे दृढ़ निश्चय है कि वही उन सब आफतों की जड़ है।

मनो० : लेकिन अगर ऐसा ही है और वही कलमदान लूट कर ले गया है तो बड़ी आफत मचावेगा। उसने उस कलमदान को खोले बिना कदापि न छोड़ा होगा, और इस हालत में उस सभा का सारा भेद उसे जरूर मालूम हो गया होगा। आज हो या कल वह आपका भण्डाफोड़ किये बिना कभी न छोड़ेगा।

दारोगा : बेशक यही बात है और यही सोचकर तो मैं अधमूआ होता जा रहा हूँ। अगर गुरुजी की कृपा से वह वश में न हुआ तो फिर मेरा मरण ही समझना चाहिए।

नागर : गुरुजी वादा तो कर गये हैं कि तीन दिन के भीतर वह आपके पैरों पर लोटता दिखाई देगा।

दारोगा : हाँ, बेशक कह गये हैं और आज तक उन्होंने कभी झूठ कहा ही नहीं, जो कुछ जिससे वादा किया है जरूर पूरा किया! मुझे तो पूरा विश्वास है कि शीघ्र ही गदाधरसिंह मेरे कब्जे में आ जायेगा।

नागर : (मनोरमा की तरफ देख कर) इन्होंने कोशिश तो बहुत की पर वह अभी तक कब्जे में नहीं आया।

मनो० : क्या बतावें, कम्बख्त ऐसा धूर्त है कि जल्दी उसे किसी की बात पर विश्वास ही नहीं होता। फिर भी मैंने आशा नहीं छोड़ी है। अबकी बार अगर पुन: आया तो दूसरा चकमा दूँगी।

दारोगा : अजी मैं तो समझता हूँ अब तुम्हें मेहनत करने और कैदी बनने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, बाबाजी के कहे पर मुझे विश्वास है, वे जरूर अपना कहा पूरा करेंगे।

मनो० : फिर भी आपको कोशिश से न चूकना चाहिए। कल मुझे पुन: उसे कुएँ में जाना है अस्तु मैंने जो कुछ कहा है उसका इन्तजाम करा रक्खें। देखूँगी वह कम्बख्त कैसे नहीं मेरे जाल में फँसता !

दारोगा : हाँ, एक बार फिर तो कह जाओ कि तुम्हें किस-किस सामान और बन्दोबस्त की जरूरत थी। बाबा मस्तनाथ के आ जाने से वह जिक्र अधूरा ही रह गया।

मनोरमा ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि बाहर दरवाजे पर से चुटकी बजाने की आवाज आई। इशारा पाकर नागर बाहर गई और कुछ ही देर में वापस आकर बोली, ‘‘लौंडी कहती है कि गदाधरसिंह आये हैं और किसी बहुत ही जरूरी काम से इसी समय मिलना चाहते हैं। नौकरों ने कहा भी कि इस समय आप मिल नहीं सकते पर वह किसी तरह नहीं टलते। (हँसकर) आपके सिद्धजी का मंत्र मालूम होता है काम कर गया!

दारोगा : बेशक! अच्छा मैं बाहर कमरे में जाता हूँ। लौंडी से कहो उसे लावे, और तुम दोनों अन्दर चली जाओ।

इतना कह दारोगा उठ खड़ा हुआ। नागर और मनोरमा ने उसे सहारा दे उसके कमरे में पलंग पर पहुँचा दिया और तब उसकी आज्ञानुसार वे दोनों वहाँ से हट गईं। थोड़ी ही देर बाद एक लौंडी के पीछे भूतनाथ उस जगह पहुँचा।

दारोगा ने लौंडी से चले जाने को कहा और हाथ से अपने पलंग के बगल में रक्खी हुई एक चौकी पर बैठने का इशारा करते भूतनाथ से कहा, ‘‘आओ जी मेरे दोस्त भूतनाथ-- तुम तो ईद का चाँद हो रहे हो। भला किसी तरह तुम्हें अपने इस मुसीबतजदे दोस्त की याद तो आई!’’

भूतनाथ दोरागा की बताई हुई चौकी पर बैठ गया और इसकी अवस्था देख नकली सहानुभूति दिखाता हुआ पूछने लगा, ‘‘यह क्या दारोगा साहब-- आप तो बिल्कुल जख्मी हो रहे हैं! कहीं किसी से लड़ाई हो गई क्या?’’

दारोगा : क्या बताऊँ दोस्त, मेरी तो किस्मत ही खराब हो गई है। उस दिन तीन मंजिल ऊपर की छत से नीचे चौक में आ गिरा। घंटों बेहोश रहा, सेरों खून निकल गया, बदन भर में पचासों टाँके लगाये गए और अब यह हालत है कि हिलना-डुलना मुश्किल है, मगर तुम मेरे दोस्त ऐसे बेमुरौवत निकले कि एक बार पूछने भी नहीं आये कि तुम्हारा लंगोटिया दोस्त मरा कि जीता है!

भूत० : क्या बताऊँ मुझे यह खबर लगी तो जरूर थी कि आपकी तबीयत खराब है पर यह मुझे बिल्कुल मालूम नहीं था कि आप छत से गिर गये हैं। मुझसे किसी ने कहा कि जमानिया के बाहर किसी से लड़ाई हो गई जिसमें आप जख्मी हुए हैं। मैंने यह भी सुना कि आपके दुश्मन आपको चुटीला कर भाग गये और आप उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

आज कई दिन से मैं सोच रहा था कि आपसे मिलूँ पर समय न मिलने के कारण आ न सका। मैंने यह भी सुना था कि आपको गहरी चोट नहीं आई हैं इससे कुछ निश्चिन्त-सा भी रहा पर आज तो मैं देखता हूँ कि आपकी बुरी हालत है! बेशक आपके दुश्मनों ने आपसे बुरी तरह बदला लिया!

दारोगा : (कुछ सहम कर) नहीं-नहीं, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं हुई, मुझे गिर जाने के कारण ही चोट आई।

भूत० : खैर जो कुछ हो, अच्छा यह बताइये अब तबियत कैसी है?

दारोगा : बहुत कुछ सुधर गई है, घाव भर गए हैं और तब दो-चार रोज में चलने-फिरने लायक भी हो जाऊँगा, वैद्यजी की दवा से ताकत आ रही है फिर भी अभी महीनों घर से बाहर निकलने का मौका न आवेगा।

भूत० : ईश्वर को धन्यवाद है कि इतनी गहरी चोट से भी आपको उसने बचा लिया।

दारोगा : मगर तुम अपना हाल तो बताओ कि इतने दिन किधर रहे और क्या करते रहे? आज मुद्दतों के बाद तुम्हारी सूरत दिखाई पड़ी है। भूत० : क्या बताऊँ, मैं बड़ी बुरी झंझट में पड़ गया था।

दारोगा : झंझट! कैसी झंझट, क्या मैं उसका हाल सुन सकता हूँ?

भूत० : हाँ हाँ, क्यों नहीं आप ही तो उसके कर्ता-धर्ता हैं। आप ही को सुनाने तो मैं इस समय आया ही हूँ!

दारोगा : मेरे कारण झंझट! यह विचित्र बात कैसी?

भूत० : मैं अभी आपको बताता हूँ मगर पहिले यह कहिए कि किसी जगह से कोई छिप कर हम लोगों की बातें तो सुन नहीं सकता?

दारोगा : क्यों क्या कोई गुप्त बात है?

भूत० : बेशक ऐसा ही है और वह बात भी ऐसी है कि दूसरों के कानों तक चली जाएगी तो मेरी तो नहीं पर आपकी बड़ी खराबी हो जायगी।

दारोगा : (डर कर) आखिर बात क्या है? कुछ मालूम भी तो हो, आप तो बेतरह डरा रहे हैं।

भूत० : डर की बात कुछ भी नहीं है, और जो कुछ है सो भी मैं कह देता हूँ। मुझे पता लगा है कि आपने अपने दोस्त इन्द्रदेव की लड़की और स्त्री इन्दिरा और सर्यू को अपने मनहूस मकान में बन्द कर रक्खा है और दोस्ती तथा गुरुभाई के रिश्ते का खूब बर्ताव कर रहे हैं।

दारोगा : (काँप कर) इन्दिरा और सर्यू को मैंने बन्द कर रक्खा है! भला यह किसने तुमसे कह दिया!! और उन दोनों से मुझसे मतलब ही क्या?

भूत० : सिर्फ इतना ही कि आप उनकी जान लेने पर तुल गए हैं और चाहते हैं कि किसी तरह गोपालसिंह भी आपके चंगुल में फँस जाय तो आप निष्कंटक हो जायँ और बेखटके जमानिया पर हुकूमत करें।

दारोगा : आज तुमने भांग तो नहीं पी ली है! किस तरह बहकी-बहकी बातें कर रहे हो! भला अपने मालिक गोपालसिंह और उनके दोस्त इन्द्रदेव के साथ मैं किसी किस्म की बुराई करने का खयाल भी मन में ला सकता हूँ?

भूत० : (हँस कर) ख्याल लाना तो दूर आप वैसा कर चुके हैं, कर रहे हैं और जल्दी ही आपकी कमर तोड़ न दी गई तो तब तक करते-करते रहेंगे जब तक इनमें से कोई भी जीता-जागता रहेगा।

दारोगा : (बिगड़कर) बस बस, अपनी जुबान सम्हालो? तुम बेतरह बहक रहे हो! अगर मुझे तुम्हारी दोस्ती का खयाल न होता तो मैं अभी तुम्हें अपने मकान से बाहर निकल जाने को कहता!

भूत० : क्या खूब, आपको और दोस्ती का ख्याल! यह तो उसे सुनाइए जो आपकी नस-नस से वाकिफ न हो। कुछ दोस्ती आपने दामोदरसिंह के साथ अदा की, कुछ राजा गिरधरसिंह का नमक अदा किया, अब कुछ इन्द्रदेव, गोपालसिंह और मेरे साथ दोस्ती का दम भर रहे हैं। आप ऐसे दोस्त और नमकख्वार जिसे मिल जायें उनके लिए इस दुनिया में शेर-चीतों की मांद भी उतनी डरावनी नहीं जितनी आपकी दोस्ती और नमकख्वारी! काले साँप के साथ खेलना और बिच्छुओं को छाती पर रखना भी उतना ही भयानक नहीं जितना आपका साथ करना!

भूतनाथ की बेतुकी बातें सुन दारोगा घबड़ा गया और डर कर उसका मुँह देखने लगा। इस समय उसके चेहरे पर तरह-तरह का रंग आता और जाता था। इतना तो वह जरूर समझ गया कि भूतनाथ को उसके किसी गुप्त भेद का पता लग गया है पर वह कौन-सा भेद है और कितना हाल उस पर प्रकट हुआ है यह उसे बिल्कुल ही नहीं मालूम था अतएव बड़ी घबराहट के साथ भूतनाथ का मुँह देखने लगा।

भूत० : आप मेरा मुँह क्या देख रहे हैं दारोगा साहब! जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह बहुत ठीक है और मैं इसे बहुत जल्द साबित कर दूँगा कि दामोदरसिंह की जान लेने वाले आप ही हैं, महारानी को मारने वाले आप ही हैं, महाराज गिरधर सिंह की हत्या करने वाले आप ही हैं। अपने दोस्त इन्द्रदेव की लड़की और स्त्री की जान पर वार करने वाले आप ही हैं, गोपालसिंह को कैद करने वाले आप ही हैं और इन्द्रदेव को गिरफ्तार कराने वाले आप ही हैं! केवल यह नहीं बल्कि उस गुप्त कमेटी के कर्ताधर्ता भी आप ही हैं जिसकी मदद से आप बहुत कुछ कर चुके और अभी बहुत कुछ कर गुजरने की आशा रखते हैं। लीजिए देखिए और कागजों को पढ़िए।

इतना कह कर भूतनाथ ने अपने बटुए में से बहुत-से कागज निकाल कर दारोगा के सामने फेंक दिये और गरज कर कहा, ‘‘ दारोगा साहब! आपकी गुप्त सभा से सर्यू वाला कलमदान लूट ले जाने वाला मैं ही हूँ, मैंने ही इन्दिरा को आपके इस मकान से निकाला है, मैंने ही सर्यू और इन्द्रदेव की जान बचाई और मैं ही आपको कैदखाने की अँधेरी कोठरी में भेजने के लिए यमदूत की तरह आपकी खोपड़ी पर आ मौजूद हुआ हूँ। लीजिए देखिए इन कागजों को पढ़िए और मौत से लड़ने के लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि आपके यहाँ से निकल कर मैं सीधा गोपालसिंह के पास जाऊँगा और वह कलमदान उनके आगे रख आपकी काली करतूतों का भंडा फोड़ूँगा!!’’

भूतनाथ की ये बातें सुनते ही और उन कागजों पर एक निगाह डालते ही दारोगा की तो यह हालत हो गई कि काटो तो बदन में खून नहीं! उसे मालूम हो गया कि भूतनाथ ने उसका वह गुप्त भेद जिसे वह जान से ज्यादा छिपा कर रक्खे हुआ था जान लिया और अब कुछ ही समय बाद उसे कैदखाने की कोठरी नसीब हुआ चाहती है।

मौत की भयानक सूरत तरह-तरह डरावनी शक्लों में से उसकी आँखों के सामने फिरने लगी और वह यहाँ तक बदहवास हो गया कि उसके मुँह से आवाज तक निकलनी असम्भव हो गई। वह पागलों की तरह सिर्फ भूतनाथ की सूरत देखने लग गया।

भूत० : आप मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं! इन कागजों को देखिए और अपनी आखिरी घड़ी का इन्तजार कीजिए। समझ लीजिए कि आपके पापों का घड़ा फूट गया और अब आप किसी तरह बच नहीं सकते।आप विश्वास रक्खें कि गोपालसिंह अपने पिता और इन्द्रदेव अपने ससुर के खूनी की जान इस तकलीफ के साथ लेंगे कि खूँखार जानवरों को भी आपकी हालत देख कर रहम न आवेगा और आप की लाश पर कौवे और चील भी नफरत की निगाह डालेंगे।

भूतनाथ की बातों ने मौत की डरावनी सूरत दारोगा की आँखों के सामने खड़ी कर दी और वह इस तरह उसकी सूरत देखने लगा जैसे घोर जंगल की लताओं में सींग फँस जाने के कारण बारहसिंघा अपने पीछे झपटने वाले शेर को देखता है। कुछ देर बाद वह आपसे आप ही पागलों की तरह टूटे-फूटे शब्दों में कहने लगा–‘‘सब फजूल... इन्द्रदेव की प्यारी इन्दिरा... महाराज गिरधरसिंह की मौत... मेरे बहुत ही... दामोदरसिंह का खून... मेरी जान का ग्राहक... अब तो... बुरी तरह फँस... मगर... तब क्यों नहीं...’’

इतना कहते-कहते दारोगा रुक गया और कुछ सोचते हुए उसने एक छिपी निगाह भूतनाथ पर डाली जो इस प्रकार को देख रहा जिस तरह कि कोई व्याध अपने जाल में फंसी हिरनी को देखता है। दारोगा कुछ देर तक उसी तरह देखता रहा, तब बोला, ‘‘खैर तो अब मैं जान गया कि तुम मुझे सब तरह से चौपट करने के लिए तैयार हो गए हो।’’

भूत० : दारोगा साहब--आपको मैं नहीं बल्कि कर्म चौपट कर रहे हैं और उन्हें ही आप इसके लिए सराहिये, मैं तो सिर्फ अपने दोस्त का हित करने के विचार से इस झगड़े में पड़ गया हूँ।

दारोगा : और वह दोस्त इन्द्रदेव है!

भूत० : जो कोई भी हो।

दारोगा : जो कोई क्या, बेशक इन्द्रदेव ही होगा जो मेरा गुरुभाई होने का दम भरता है और हर बात में दोस्ती जाहिर करने को मरा जाता है।

भूत० : जी वह इन्द्रदेव नहीं, बल्कि वह इन्द्रदेव कहिए, जिसकी स्त्री और लड़की आपकी बदौलत कैदखाने से बढ़ कर मुसीबतों में पड़ी हुई थी और जिसके ससुर और न जाने कितने रिश्तेदार आपकी बदौलत मौत की तकलीफ उठा चुके और उठा रहे हैं।

दारोगा : खैर तुम ऐसा ही कहो, झूठ और फरेब का तो जवाब ही क्या हो सकता है।

भूत० : (गुस्से से) मैं झूठ कह रहा हूँ? क्या सामने पड़े हुए कागज आपको दिखाई नहीं पड़ रहे हैं या आप इन्हें अपनी सच्चरित्रता का विज्ञापन समझ कर...

दारोगा भूतनाथ से बातें भी करता जा रहा था और साथ ही छिपे-छिपे अपने पलंग के सिरहाने की तरफ हाथ बढ़ाकर कुछ करता भी जा रहा था। भूतनाथ की बात खतम नहीं हुई थी कि यकायक कमरे के बगल की किसी कोठरी में से एक घंटे के बजने की आवाज आने लगी।

भूतनाथ आवाज सुनते ही चौकन्ना हो गया और फुर्ती से अपनी जगह से उठने लगा मगर उसी समय पीछे का एक दरवाजा खुला और उसमें से काली पोशाक पहिने दो आदमी झपटते हुए वहाँ आ पहुँचे। इन दोनों का डील और कद देखने ही से मालूम होता था कि ये बड़े ही मजबूत, दिलेर और बहादुर हैं और साथ ही इनकी काली पोशाक और नकाब के अन्दर से चमकती हुई खूंखार आँखों तथा हाथ की तलवारों ने इन्हें बड़ा ही डरावना बना रक्खा था। ये दोनों आते ही भेड़ियों की तरह भूतनाथ पर टूट पड़े और उसी समय दारोगा ने वह शमादान जो पलंग के सिरहाने की तरफ जल रहा था हाथ के धक्के से जमीन पर गिरा बुझा दिया जिससे उस कमरे में घोर अन्धकार छा गया।

दारोगा की इस अचानक की कार्रवाई और नकाबपोशों के इस तरह यकायक आ टूटने से एक बार तो भूतनाथ घबड़ा गया पर तुरन्त ही उसने अपने होश-हवास ठिकाने किये और उछल कर अपनी जगह से हट दूसरी तरफ चला गया। उसी समय बड़े जोर से धम्माके की आवाज हुई जिसकी आहट से भूतनाथ को मालूम हो गया कि कमरे की जमीन का उतना हिस्सा जहाँ वह बैठा था मय चौकी के जमीन के अन्दर धस गया है और उसी चौकी के गिरने का वह भयानक धम्माका है। आवाज बहुत ही गहराई से आती हुई मालूम होती थी जिससे उसको यह भी गुमान हुआ कि वह चौकी शायद किसी कुएँ या ऐसी ही किसी जगह में जा गिरी है।

उसने अपने बच जाने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया और तब तुरन्त ही जेब से सीटी निकाल कर बजाई। जवाब में पास ही कहीं से तीन बार सीटी बजाने की आवाज आई जिसे भूतनाथ ने प्रसन्नता से सुना और समझ लिया कि उसके तीन शागिर्द भी उस जगह पहुँच चुके हैं। एक सायत का भी विलम्ब न करके उसने अपने बटुए में से एक छोटा-सा गेंद निकाला और उसे जोर से जमीन पर पटका।

भारी आवाज के साथ वह गेंद फट गया और उसमें से इतनी चमक और तेजी से आँखों में चकाचौंध पैदा करने तथा देर तक टिकने वाली रोशनी ने पैदा होकर कमरे भर में उजाला कर दिया। रोशनी होते ही कमरे में एक अजीब दृश्य दिखाई पड़ा।

दारोगा साहब कमरे के एक कोने में जमीन पर गिरे हुए थे और भूतनाथ का एक शागिर्द खंजर लिए उनकी छाती पर सवार था। उन दोनों नकाबपोशों से जिन्होंने भूतनाथ पर हमला किया था एक तो बेहोश पड़ा हुआ था और दूसरे को उनके दो शागिर्द जमीन पर दबाये कमन्द से हाथ-पाँव बांध रहे थे।

अपने शागिर्द की यह तेजी और फुर्ती देख भूतनाथ बड़ा ही खुश हुआ और जोर से बोल उठा, ‘‘शाबाश!’’ उसी समय उसके दो साथी और उस कमरे में आ पहुँचे जिनकी मदद से वह दूसरा नकाबपोश भी तुरन्त बेकार कर दिया गया। उस समय भूतनाथ दारोगा के पास गया और उससे बोला, ‘‘बाबाजी, आपने कारीगरी तो बहुत की थी पर काम कुछ न बना! अब आपको मालूम हो गया कि भूतनाथ दुश्मन के घर में अकेला या बेपरवाह होकर नहीं आता। कहिए अब आपके साथ क्या सलूक किया जाय?’’

दारोगा के मुंह से डर के मारे कोई आवाज नहीं निकल रही थी। वह अपने मौत की घड़ी नजदीक जान आँखें बन्द किये हुए मानो उसकी आखिरी साँसे गिन रहा था। डर के मारे उसका बदन इस तरह काँप रहा था कि वह अपनी जिन्दगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो चुका है। भूतनाथ ने पुन: पूछा, ‘‘क्यों दारोगा साहब, बोलते क्यों नहीं! कहिए अब मैं आपके साथ क्या सलूक करूँ और आपके इन मददगारों की क्या गति बनाई जाय! (हँस कर) क्यों न आपको इसी हालत में राजा गोपालसिंह के पास उठा ले चलूँ!’’

यह बात सुनते ही दारोगा काँप उठा और आँखें खोलकर बड़ी करुणा की दृष्टि से भूतनाथ की तरफ देखने लगा। भूतनाथ ने अपने शागिर्द को उसके ऊपर से हट जाने का इशारा किया और आप दारोगा के सामने जा खड़ा हुआ क्योंकि उसके ढंग से मालूम होता था कि वह कुछ कहना चाहता था पर डर के मारे उसके मुँह से आवाज नहीं निकल रही है।

इतने ही में बाहर दरवाजे तरफ रोशनी दिखाई दी और शोरगुल की आवाज आई। इस कमरे में जो कुछ काण्ड मच गया था उसकी खबर मनोरमा और नागर को लग गई थी और घर के नौकरों को भी इस लड़ाई-झगड़े का पता लग गया था, अस्तु कई आदमी दरवाजे पर पहुँच कर कमरे के अन्दर की विचित्र अवस्था और अपने मालिक का अद्भुत हाल देख रहे थे।

उन्हें वहाँ मौजूद पा दारोगा ने जबरन अपने होश-हवास ठिकाने किये और धीमी आवाज में भूतनाथ से कहा, ‘‘भूतनाथ, जो कुछ मैंने किया उसके लिए मैं माफी माँगता हूँ और तुम्हारे गुलाम की तरह तुमसे कहता हूँ कि मेरे नौकरों के सामने अब मुझको और जलील न करो। तुम जो कुछ कहो मैं करने को तैयार हूँ मगर इस समय मेरी इज्जत रख लो!’’

भूतनाथ दारोगा का मतलब समझ गया। वह खुद भी नहीं चाहता था कि इतने आदमियों के सामने कुछ कहे या करे। सब कुछ होने पर भी वह अच्छी तरह समझता था कि दारोगा के सैकड़ों नौकर और सिपाहियों से भरे हुए इस भयानक और विचित्र मकान में वह खतरे से खाली नहीं है अस्तु कुछ सोच-विचार कर उसने धीरे-से दारोगा से कहा, ‘‘मैं खुद नहीं चाहता था कि आपकी किसी तरह पर बेइज्जती करता या तकलीफ पहुँचाता मगर खुद आप ही ने अपनी करनी से यह सामान पैदा कर लिया। खैर अब उठिये, अपने इन आदमियों को बिदा कीजिये और ठंडे दिल से बातें समझिये।’’

हाथ का सहारा देकर भूतनाथ ने दारोगा को उठाया और मदद लेकर पलंग पर ला बैठाया। दारोगा ने आँख से इशारा किया और तब भूतनाथ से कहा, ‘‘मेरे दोस्त! तुम्हारी मैं किस तरह तारीफ करूँ, तुमने इस समय मेरी जान बचा ली है! (अपने नौकरों और आदमियों की तरफ देख कर) मेरे दोस्त भूतनाथ और इनके शागिर्दों ने अभी मेरी जान (दोनों नकाबपोशों की तरफ दिखाकर) इन हरामजादों से बचाई है। यहाँ का शोरगुल इन्हीं कम्बख्तों के कारण था।

(भूतनाथ से) दोस्त! अब तुम अपने आदमियों को हुक्म दो कि कमीनों को इसी गढ़े में फेंक दे, तब हम लोग दूसरी जगह चल कर बातें करेंगे।’’ जिस जगह चौकी पर भूतनाथ बैठा हुआ था वहाँ एक भयानक अँधेरा गढ़ा अभी तक दिखाई पड़ रहा था। भूतनाथ का इशारा पा उसके शागिर्दों ने दोनों स्याहपोशों को बारी-बारी से उसी गढ़े में फेंक दिया जिसमें से उनके चिल्लाने की आवाज आने लगी। दारोगा के पलंग के पीछे दीवार के साथ एक अलमारी थी जिसमें चाँदी के दो मुट्ठे लगे हुए थे। दारोगा ने पीछे झुककर मुट्ठों को जोर से घुमा दिया, साथ ही कमरे की सतह का वह हिस्सा जहाँ पर भूतनाथ बैठा था पुन: ज्यों-का-त्यों अपनी जगह पर आकर इस तरह बैठ गया कि बहुत गौर करने पर भी यह मालूम न हो सकता था कि यहाँ कोई ऐसा भेद है।

दारोगा ने भूतनाथ से कहा, ‘‘आओ हम लोग एकान्त में चलकर बातें करें।’’ और उसके सिर हिला कर मंजूर करने पर वह दूसरे कमरे की तरफ बढ़ा और नौकरों को हुक्म देता गया, ‘‘इस कमरे को साफ कर दो।’’

भूतनाथ के शागिर्द भी भूतनाथ का इशारा पा इधर-उधर हो गये अर्थात् जिस तरह पहिले वे कहीं छिपे हुए थे वैसे ही पुन: उस शैतान के आँत की तरह वाले मकान में कहीं गायब हो गये। दारोगा भूतनाथ को एक बिल्कुल ही एकान्त जगह में ले गया और वहाँ कमरे का दरवाजा बन्द कर उससे बातें करने लगा।

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