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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


अब हम थोड़ा सा हाल मालती का लिखना चाहते हैं। पाठकों को याद होगा कि महाराज गिरधरसिंह को खोजते हुए जाकर उसे इन्द्रदेव ने लोहगढ़ी में पाया था और वहाँ से किसी हिफाजत की जगह में भेज स्वयं दूसरे फेर में पड़ गये थे। (१. देखिए बारहवाँ भाग, चौथा बयान।)

इन्द्रदेव ने मालती को एक काले पत्थर की एक चौकी पर बैठा दिया और कोई खटका दबाया जिसके साथ ही वह चौकी तेजी के साथ जमीन में धंस गई। झटके के कारण मालती की आँखें बन्द हो गईं और उसने मजबूती से उसी चौकी को थाम लिया। कुछ देर तक वह चौकी उसी तरफ नीचे धँसती रही पर इसके बाद एक झटके के साथ रुकी और तब आगे की तरफ बढ़ने लगी।

अब मालती ने आँखें खोलीं मगर उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ा क्योंकि चारों तरफ इतना घना अन्धकार था कि हाथ को हाथ दिखाई न पड़ता था। धीरे-धीरे चौकी की तेजी बढ़ने लगी और साथ ही ठंडी हवा के कड़े झोंके बदन में लग कर उसे कंपाने लगे पर उसी समय उसे मालूम हुआ, चौकी की सतह गर्म हो रही है।

वास्तव में यही बात थी और कुछ ही देर बाद चौकी इतनी गर्म हो गई कि हवा के ठण्डे झोंकों से लगने वाली सर्दी का असर बहुत कुछ दूर हो गया। एक घड़ी से ऊपर समय तक वह चौकी उसी तेजी से चलती रही। इसके बाद धीरे-धीरे उसकी चाल कम होने लगी और ऐसा मालूम हुआ मानों वह ऊपर की तरफ ढालुई जमीन पर चढ़ रही है। साथ ही मालती को सामने की तरफ कुछ ऊँचाई पर मगर कुछ दूर चाँदनी भी मालूम पड़ी जिससे उसे गुमान हुआ कि अब उसका सफर पूरा हुआ चाहता है।

हुआ भी ऐसा ही और थोड़ी देर और चलने के बाद वह इमारत थी और सामने की तरफ एक खुशनुमा बाग नजर आ रहा था। मालती चौकी पर से उतर पड़ी और उसके उतरते ही वह चौकी जिधर से आई थी उधर ही तेजी के साथ लौट गई।

कुछ देर तक मालती वहीं खड़ी रही। इसके बाद वह इस दालान से बाहर निकली और चारों तरफ घूम-फिर कर देखने लगी कि वह किस स्थान में है। ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ एक खुशनुमा मैदान नजर आया जो लगभग चार सौ गज के लम्बा और इससे कुछ कम चौड़ा होगा।

चारों तरफ की पहाड़ियों पर स्थान-स्थान में सुन्दर बंगले और मकान बने हुए थे जिनमें एक वक्त पर सैकड़ों आदमियों का गुजारा हो सकता था। एक तरफ से एक नाला भी गिर रहा था जिसका साफ निर्मल जल छोटी-छोटी बहुत-सी नालियों के जरिये उस समूचे मैदान में फैल कर जमीन को तर बनाये हुए था और बचा हुआ पानी एक गड्ढे में गिर कर न मालूम कहाँ गायब हो जाता था।

इस मनोहर स्थान को हमारे पाठक बखूबी जानते हैं क्योंकि यह वही तिलिस्मी घाटी है जिसमें प्रभाकरसिंह, दयाराम, इन्दुमति, जमना, सरस्वती, दिवाकर सिंह आदि रहते थे तथा यहीं आकर भूतनाथ ने (नकली) जमना और सरस्वती का खून किया था। (१. देखिये भूतनाथ आठवाँ भाग, अन्तिम बयान।)

बहुत देर तक मालती इस अनूठे स्थान को गौर और ताज्जुब से देखती रही और तब अपने स्थान से हटकर इधर-उधर घूमने-फिरने और यह जानने की चेष्टा में पड़ी कि इस अद्भुत स्थान में कोई रहता भी हैं या नहीं। चारों तरफ की इमारतों, कमरों और बंगलों में घूमते हुए मालती ने घंटों बिता दिये पर उसे किसी भी आदमी की सूरत दिखाई न पड़ी। बहुत-सी जगहें तो बन्द थीं मगर कुछ जो खुली थीं वहाँ अच्छी तरह घूम-फिर कर मालती ने निश्चय कर लिया कि अपने रहने और रात काटने के लिए कोई जगह निश्चय कर ले।

चारों तरफ देख-भाल कर उसने एक छोटा बंगला, जो सबसे अलग एक कोने में कुछ ऊँचाई पर बना हुआ था। अपने रहने के लिए पसन्द किया और उसी में अपना डेरा जमाया क्योंकि वहाँ मालती को अपने जरूरत की सभी चीजें-- पलंग, बिछावन, कपड़े बरतन आदि मिल गये तथा एक कोठरी में कुछ अन्न आदि भी पाया जिसकी सहायता से वह कुछ दिन बिना तरद्दुद और तकलीफ के काट सकती थी।

मालती को विश्वास था कि इन्द्रदेव शीघ्र ही उससे मिलने के लिए यहाँ आवेंगे पर जब कई दिन बीत गये और कोई उसकी खबर लेने न आया तो उसे ताज्जुब और कुछ डर भी मालूम हुआ। वह समझ गई कि इन्द्रदेव किसी-न-किसी तरद्दुद में पड़ गये नहीं तो अवश्य मेरी सुध लेने आते।

इस खयाल ने उसे चिन्ता में डाल दिया मगर फिर भी उसने उस स्थान के बाहर जाने का विचार न किया और वहीं कुछ समय और काटने का निश्चय किया। मालती बड़े ही कड़े कलेजे की और हिम्मतवर औरत थी क्योंकि तरह-तरह की और मुसीबतों ने उसे मजबूत कर दिया था, इसी से वह इतने बड़े स्थान पर अकेली रह सकी नहीं तो इसमें कोई शक नहीं कि यदि किसी दूसरी औरत को इस प्रकार वहाँ रहना पड़ता तो जरूर घबरा जाती और वहाँ से निकल भागने की चेष्टा करती।

कई दिन तक वहाँ रह कर मालती ने उस जगह की अच्छी तरह से सैर कर ली और सब जगह घूम-फिर कर एक मकान को अच्छी तरह देख डाला। मगर दो बातों का पता वह कुछ भी न लगा सकी। एक तो वहाँ से बाहर निकलने का रास्ता उसे मालूम न हो सका दूसरे पूरब और उत्तर के कोने में बने हुए उस चौकोर और सुन्दर बंगले में वह न जा सकी जो सबसे ऊँचे स्थान पर बना हुआ था और जिस पर दो ओर मालती की घनी लता चढ़ी हुई थी।

इस बंगले के ऊपर सामने की तरफ शायद किसी धातु के आठ बन्दर बने हुए थे जो प्राय: कभी-कभी इधर-उधर हिलते और तरह-तरह की भाव-भंगी किया करते थे जिसे देख उसका ताज्जुब बढ़ गया था और वह इस बात के जानने की फिक्र में पड़ी हुई थी कि इन नकली जानवरों में हरकत क्यों और कैसे आती है।

पर बहुत कोशिश करने पर भी वह न तो उस बंगले के अंदर जा सकी थी और न इस भेद का पता लगा सकी थी। हाँ, इतना जरूर जान गई थी कि इस बात का कोई कारण जरूर है और वह बंगला कुछ गूढ़ भेदों को खजाना अवश्य है।

रात पहर भर से कुछ अधिक जा चुकी है, अभी-अभी निकलने वाले चन्द्रदेव की किरणें पेड़ों की चोटियों पर ही विराज रही हैं। अपने मकान की छत पर बैठी हुई मालती तरह-तरह की बातें सोच रही है। आज उसे इस स्थान में आये हफ्ते के ऊपर हो चुके हैं। इस बीच में उससे न तो इन्द्रदेव से ही मुलाकात हुई और न किसी और ही आदमी की सूरत दिखलाई पड़ती है और वह इस समय यही सोच रही है कि अब क्या करना और किस तरह इस जगह के बाहर निकलना चाहिए।

वह यह सोच कर डरती भी है कि शायद इस जगह के बाहर होना उसके हक में अच्छा न हो, वह दुश्मनों के फंदे में न पड़ जाय, या इन्द्रदेव ही उसके इस काम पर खफा न हों, और इन्हीं बातों को सोचकर वह बाहर निकलने का खयाल छोड़ देती है, पर उसे जब यह ख्याल आता है कि शायद इन्द्रदेव ही किसी मुसीबत में न पड़ गये हों, तो वह बाहर निकलने और बन पड़े तो इस बात का पता लगाने अथवा इन्द्रदेव की मदद करने को भी बेचैन हो जाती है।

इस तरह की उधेड़बुन में पड़ी तरह-तरह की बातें सोचती हुई वह एकदम बेचैन हो गई और तबीयत बहलाने की नीयत से उठ कर छत पर इधर से उधर टहलने लगी। चन्द्रदेव कुछ ऊँचे उठ चुके थे और उस स्थान के चारों तरफ की पहाड़ियों पर बने हुए बंगलों को उनकी सफेद किरणों ने रौशन करना शुरू कर दिया था। मालती की निगाह उस पूरब तरफ वाले बंगले के ऊपर पड़ी जिसके विषय में बहुत दफे आश्चर्य कर चुकी थी और जिसके ऊपर वाले बन्दरों की बदौलत उसका नाम बन्दरों वाला बंगला रख दिया था।

इस समय वह बंगला उससे बहुत दूर पड़ता था, दूसरे चन्द्रमा की रोशनी भी इतनी तेज न थी कि वहाँ की सब चीजें दिखाई पड़ सकें, फिर भी उसे कुछ ऐसी बात नजर आई जिसने उसे चौंका दिया। उसने देखा कि उन बन्दरों की चाल-ढाल में जो रात को प्राय: हिलते-डोलते न थे कुछ विशेषता आ गई है। सब के सब बन्दर एक ही स्थान पर आकर इकट्ठे हो गये हैं और उनकी आँखों से बहुत ही तेज चमक निकल रही हैं।

मालती ने उन बन्दरों को उछलते-कूंदते और हरकत करते हुए तो बहुत दफे देखा था और वह इसे एक मामूली बात समझने लगी थी पर इस तरह उनकी आँखों से रोशनी निकलते उसने आज तक कभी नहीं देखा था, अस्तु यह एक नई बात देख उसे ताज्जुब मालूम हुआ और वह कौतूहल के साथ उस तरफ देखने लगी।

धीरे-धीरे उन बन्दरों के आँखों की रोशनी बढ़ने लगी आखिर इतनी बढ़ी कि इतनी दूर से भी उन पर आँखें ठहराना कठिन हो गया। इसके साथ ही मालती ने देखा कि उस छत पर न जाने कहाँ से एक औरत आ पहुँची है और इधर-उधर घूम रही है। अब मालती का कलेजा धड़का। इस निर्जन स्थान में किसी बाहरी आदमी, विशेष कर औरत के आने का उसे स्वप्न में भी गुमान नहीं हो सकता था।

अस्तु उसे कुछ रंग-कुरंग मालूम हुआ और यह जानने की नीयत से कि यह कौन औरत है वह बंगले से सटी हुई एक दूसरी छत पर चली गई जो कुछ ज्यादा ऊँची थी तब जिसके चारों तरफ वाली ऊँची कनाती दीवार में इस ढंग के मोखे बने हुए थे कि भीतर का आदमी सब तरफ देख सकता था, परन्तु उस पर किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। यहीँ से छिपकर मालती उस औरत की तरफ देखने लगी।

वह औरत कुछ देर तक तो इधर-उधर घूम-फिर कर देखती रही और तब बन्दरों के पास पहुँचे उनके सिरों पर हाथ रख कर कुछ करने लगी। उसने क्या किया यह तो मालती इतनी दूर से देख-समझ न सकी पर यह उसने अवश्य देखा कि उन बन्दरों की आँखों से निकलने वाली रोशनी सब इकट्ठी होकर सामने के एक दूसरे बंगले पर पड़ने लगी है जो पहाड़ी पर से गिरते हुए नाले के ऊपर पुल की तरह पर बना हुआ था।

यह रोशनी इतनी तेज और साफ थी कि उस बंगले की हर एक चीज; जो चन्द्रमा के पहाड़ों की आड़ में अब तक अन्धकार में था, अब साफ दिखाई पड़ने लगी और एक-एक कोना निगाहों के सामने आ गया। इतना काम कर वह औरत वहाँ से हट दूसरी तरफ चली गई और घूमती हुई निगाहों की ओट हो गई।

इसी समय नहर के ऊपर वाले बंगले की तरफ से दो-तीन बार बहुत जोर से धम्माके की आवाज आई। मालती का ध्यान उधर ही को चला गया और उसे तेज रोशनी की सहायता से जो उन बन्दरों की आँखों से निकलती हुई सीधी उधर ही को पड़ रही थी उसने देखा कि बंगले के बीचोंबीच वाले कमरे का दरवाजा खुला और दो आदमी जो एक भारी गठरी उठाये हुए थे निकल कर बाहर के दालान में आये। इसी समय बगल की एक कोठरी में से निकल कर वह औरत भी उनके पास जा पहुँची जिसे कुछ देर पहिले सामने वाले बंगले की छत पर मालती ने देखा था।

तीनों बाहर के बरामदे में आ गए और वहीं जमीन पर बैठ कुछ करने लगे। मालती बड़े गौर के साथ देखने लगी कि वे क्या करते हैं परन्तु दूरी के कारण कुछ समझ में न आया। आखिर उसका जी न माना और वह अपनी जगह से उठ उस कमरे के नीचे उतरी, एक काली चादर से अपना बदन अच्छी तरह ढक कर पेड़ों की आड़ देती हुई वह बड़ी होशियारी के साथ उस बंगले की तरफ बढ़ी।

आधे से ज्यादा रास्ता मालती ने तय न किया होगा कि उसने उन दो आदमियों को उस बंगले के बाहर निकल कर पहाड़ी के नीचे उतरते और अपनी ही तरफ आते देखा। वह बड़ी गठरी उन दोनों हाथों में थी और पीछे-पीछे वह औरत फावड़ा आदि जमीन जमीन खोदने के कुछ औजार लिए चली आ रही थी। यह देख मालती डर कर घने पेड़ों की आड़ में हो गई और वहीं से देखने लगी कि ये सब क्या करते हैं।

गठरी लिये वे दोनों आदमी सीधे उसी बन्दरों वाले बंगले की तरफ बढ़े और मालती को गुमान हुआ कि ये उसी में जायेंगे, पर ऐसा न हुआ। मकान की सीढ़ियों के पास पहुँच उन्होंने गठरी जमीन पर रख दी और बात करने लगे। पेड़ों की आड़ लेती हुई मालती पाँव दबाये धीरे-धीरे उधर ही को बढ़ी और उन लोगों से इतनी दूर जा पहुँची कि जहाँ बातचीत तो स्पष्ट नहीं सुन सकती थी पर जो कुछ वे करते उसे बाखूबी देख सकती थी।

बंगले की सीढ़ी के दोनों तरफ संगमर्मर के कमर बराबर ऊँचे चबूतरों पर काले पत्थर की पुतलियों बनी हुई थीं जिनके हाथों में रोशनी रखने की जगहें बनी हुई थी।

वे दोनों आदमी इन्हीं में से बाईं तरफ चबूतरे के पास पहुँचे और उस औरत के हाथ से फर्मा आदि ले उन्होंने वहाँ की जमीन खोदना शुरू किया। लगभग आधे घण्टे की मेहनत में वहाँ कमर से गहरा गड्ढा हो गया। अब खोदना बन्द किया और एक आदमी उस गड्ढे में उतर गया। उसने क्या किया यह तो मालती देख न सकी पर थोड़ी देर बाद एक हल्की आवाज के हाथ उस चबूतरे का एक तरफ का पत्थर हट गया और वहाँ एक अलमारी की जगह दिखाई पड़ने लगी।

उन लोगों ने वह गठरी उठाकर उसी चबूतरे के अन्दर डाल दी, वह पत्थर पुन: ज्यों-का-त्यों अपने ठिकाने आ गया, और वह आदमी भी गड्ढे के बाहर निकल आये। सभी ने मिलकर गड्ढे को पाट कर बराबर कर दिया और तब वह औरत एक तरफ तथा वे दोनों आदमी दूसरी तरफ चले गये। थोड़ी देर बाद मालती ने इन दोनों आदमियों को पुन: उस नाले के ऊपर वाले बंगले में पाया और उस औरत को बन्दरों वाले बंगले की छत पर देखा। इसी समय उन बन्दरों की आँखों से निकलने वाली चमक बन्द हो गई और वह औरत तथा दोनों आदमी भी गायब हो गये।

बहुत देर तक मालती उन लोगों के लौटने की राह देखती रही पर जब उसे विश्वास हो गया कि वे चले गये तो वह अपनी छिपने वाली जगह के बाहर निकली और चारों तरफ अच्छी तरह घूम-फिर कर देखने के बाद उसने निश्चय कर लिया कि वे लोग जो इस विचित्र प्रकार से वहाँ मौजूद हुए थे अब नहीं हैं, उसे वह जानने का बड़ा कौतूहल लगा हुआ था कि उन लोगों की उस गठरी में क्या था जिसे वे उस चबूतरे के अन्दर छिपा गये हैं और वह कोशिश करके उस गठरी का हाल जानना चाहती थी-- पर साथ ही यह सोच कर डरती भी थी कि अगर उनमें सो कोई आ गया तो वह बड़ी मुसीबत में पड़ेगी। अस्तु बहुत कुछ सोच-विचार कर उसने रात बिता देना ही मुनासिब समझा और अपने रहने वाले बंगले में चली गई।

वह रात उसने जागने और टोह लेने में बिता दी और सवेरा होते ही जरूरी काम से निपट जमीन खोदने का सामान लिए उस स्थान पर पहुँची। जिस जगह रात को उन दोनों आदमियों ने खोदा था वहीं मालती ने भी खोदना शुरु किया। वहाँ की मिट्टी एक दफे खोदी जा चुकने के कारण बहुत कड़ी न थी अस्तु मालती को ज्यादा तकलीफ न हुई और वह सहज ही में कमर तक खोद गई।

उस समय उसे मालूम हुआ कि आगे खोदना असम्भव है क्योंकि नीचे पत्थर का फर्श निकल आया। मालती ने खोदना बन्द कर दिया और जमीन की मिट्टी हाथ से साफ कर देखने लगी कि चबूतरे को खोलने की क्या तरकीब हो सकती है। यकायक उसका हाथ एक छोटे से मुट्ठे पर पड़ा जो किसी धातु का बना हुआ नीचे के फर्श में जड़ा हुआ था। उसने उस मुट्ठे को ऐंठना और घुमाना शुरू किया। घूमा तो वह नहीं मगर ऊपर की तरफ कुछ उठता हुआ-सा नजर आया। अस्तु मालती ने जोर लगाकर उसे अपनी तरफ खेंचा।

लगभग एक बालिश्त के वह खिंच आया और इसके साथ ही चबूतरे की दीवार वाला पत्थर किवाड़ के पल्ले की तरह खुल कर जमीन के साथ लग गया। खुशी-खुशी मालती गड्ढे के बाहर निकल आई और उस चबूतरे के पास पहुँच कर देखने लगी कि उसमें क्या है।

अन्दर एक गठरी नजर आई जिसे मालती ने बाहर निकाला और खोला : कुछ कपड़े और बहुत से कागज पत्रों को हटाने पर चांदी का हाथ भर लम्बा और एक बालिश्त चौड़ा तथा उतना ही ऊँचा एक डिब्बा निकाला जिस पर जगह-जगह मुहर की हुई थी। और तलाश करने पर एक कागज का मुट्ठा जो जन्मपत्री की तरह लपेटा हुआ था, निकला और तीन-चार छोटी-छोटी किताबें दिखाई पड़ीं जो रोजनामचे की तरह पर थीं। सबसे नीचे से एक भुजाली और दो खंजर निकले जिन पर जंग चढ़ा हुआ था और जो बहुत पुराने मालूम होते थे। बस इसके अलावे उस गठरी में और कुछ न था।

मालती ने यह सब सामान पुन: गठरी में बाँधा और उस चबूतरे को ज्यों का त्यों बन्द कर तथा गड्ढा पाट कर वह गठरी उठाए अपने रहने वाले बँगले पर आ गई। यहाँ भी उसने ठहरना पसन्द न किया और दरवाजा बन्द करती हुई वह सीधी छत पर चली गई जहाँ बैठ कर वह पुन: उन चीजों की जाँच-पड़ताल करने लगी। उन कपड़ों तथा कागजों को तो उसने अलग रख दिया और वह मुट्ठा खोल कर देखने लगी जो सिलसिलेवार कई चीठियों को जोड़ कर बना हुआ मालूम होता था। इन्हें मालती सरसरी निगाह से पढ़ गई। न मालूम उसमें क्या लिखा हुआ था जिस पर वह कुछ देर के लिए गौर में पड़ गई। इसके बाद उसने उस रोजनामचे में से एक को उठा लिया और देखने लगी। पहिला पृष्ठ देखते ही चौंक पड़ी और बड़े गौर के साथ उसने पढ़ना शुरू किया।

एक-एक करके मालती सभी रोजनामचे को पढ़ गई। पढ़ते समय उसके चेहरे से तरह-तरह के भाव प्रकट होते थे। कभी आश्चर्य, कभी क्रोध, कभी घृणा, कभी दु:ख, कभी प्रसन्नता, उसके चेहरे पर दिखाई पड़ती थी। कभी-कभी उसके मुँह से बेतहाशा कई शब्द निकल कर उसके दिल के भाव को भी प्रकट कर देते थे।

आखिर एक-एक करके वह सभी किताबें पढ़ गई और तब सिर पर हाथ रख किसी गम्भीर चिन्ता में डूब गई, कई घड़ी के बाद जब उसके होश ठिकाने हुए, उसने आप ही आप कहा, ‘‘यह तो बड़े काम की चीज मिल गई पर मालूम नहीं वह इन्हें यहाँ क्यों रख गया! क्या सम्भव है कि....’’ कुछ देर के लिए वह पुन: चिन्ता में डूब गई और बोली, ‘‘यदि इन चीजों को चाचाजी एक बार देख पाते तो बड़ा ही काम निकलता।’’ मालती के मुँह से यह बात निकली ही थी, कि सीढ़ियों पर से कुछ धमधमाहट की आवाज आई और यकायक इन्द्रदेव ने वहाँ पहुँच कर पूछा, ‘‘क्यों बेटी, मुझे क्यों याद कर रही है?’’

इन्द्रदेव की सूरत देखते ही मालती चीख मारकर दौड़ी और उनके पैरों पर गिर पड़ी। उसकी आँखों से बेतहाशा निकलते हुए आँसुओं ने इन्द्रदेव का पैर धोना शुरू किया।

उन्होंने बड़े प्यार से उठा कर उसका सिर सूँघा और आशीर्वाद देकर कहा, ‘‘बेटी, तुझे देख मुझे बड़ी ही प्रसन्नता हुई- खास कर इसीलिए कि मैं तुझे मरा हुआ समझता था। तिस पर भी मैं जब यह सोचता था कि तेरे हाथ से एक बहुत बड़ा काम होने वाला है तो ताज्जुब करता था कि वह कैसे होगा, पर उस दिन तुझे जीता-जागता अपने सामने पा मेरा संदेह दूर हो गया।

फिर भी यह देखकर कि दुश्मनों के जाल चारों तरफ फैले हुए हैं मैं यह निश्चय करने के लिए कि तू वास्तव में मालती ही है तेरे मुँह से कोई गुप्त बात सुनना चाहता हूँ जिसे तेरे सिवाय और कोई न जानता हो और जिसे सुन कर मुझे विश्वास हो जाय कि तू वास्तव में मालती ही हैं।’’

मालती : चाचाजी, (क्योंकि वह इन्द्रदेव को चाचा ही कह कर पुकारती थी) यह विश्वास दिलाने के लिए कि मैं मालती ही हूँ मैं आपको यह बात कह सकती हूँ।

जो कई बरस हुए खास बाग वाले गुम्बज पर आपने भुवनमोहिनी से कही थी और जिसे सुन चाचा...

इन्द्रदेव : बस-बस, मुझे मालूम हो गया कि तू मालती ही है। और यह विश्वास दिलाने के लिए कि मैं भी वास्तव में इन्द्रदेव ही हूँ तुझे लाल बाबा की समाधि वाला हाल बता सकता हूँ। अच्छा तू अब यह बता कि ये कई दिन तूने किस तरह काटे और यह कागजात और कपड़े वगैरह कैसे हैं जिन्हें तू इस समय इतने गौर से देख रही थी कि मेरे कई बार आवाज देने पर तूने बंगले के दरवाजा न खोला और लाचार मुझे दूसरी ही राह से यहाँ आना पड़ा!

मालती : (कुछ शर्मा कर) ये बड़ी ही काम की चीजें मुझे यकायक मिल गईं जो इतनी कीमती हैं कि मैं कुछ कह नहीं सकती। इन्हीं को मैं देख रही थी और चाहती थी कि इस समय आपके दर्शन हो जाते तो आपको दिखाती और मतलब पूछती। मैं अभी आपको इनके पाने का किस्सा बताती हूँ।

यद्यपि यहाँ की छत मालती की बदौलत बहुत ही साफ थी फिर भी इज्जत के ख्याल से मालती नीचे से एक कम्बल ले आई जिस पर इन्द्रदेव बैठ गये। मालती सामने बैठ गई और बहुत ही संक्षेप में रात का हाल कह उसने उन सब चीजों को इन्द्रदेव के आगे बढ़ा दिया। सबसे पहिले इन्द्रदेव ने वह चाँदी का डिब्बा उठा लिया और उसे गौर से देखते हुए कहा, ‘‘अगर मेरी याददाश्त मुझे धोखा नहीं दे रही है तो इस डिब्बे में एक ऐसी नायाब चीज है जिसके लिए मैं बहुत परेशान था और हर तरह की तर्कीब करके भी जिसके पाने में मैं असफल हुआ था।’’

कुछ देर तक इन्द्रदेव गौर से उस डिब्बे को देखते रहे तब धीरे से ‘‘बेशक वही है’’ कहकर उन्होंने उसे उठाया और जोर से जमीन पर पटक दिया, पटकने के साथ ही उसका ऊपरी हिस्सा दो टुकड़े होकर दोनों तरफ को खुल गया और भीतर भोजपत्र पर लिखी हुई एक छोटी सी पुस्तक जिसकी जिल्द चाँदी की थी- तथा सोने की एक चाभी दिखाई देने लगी। खुशी की एक चीख मार इन्द्रदेव ने दोनों चीजों को उठा लिया और अपनी छाती से लगा खुशी भरी आवाज में बोले, ‘‘बेटी मालती, इस चीज को पाने पर मैं अपने को और तुझे भी मुबारकबाद देता हूँ। इसी पुस्तक और चाभी के बिना मैं परेशान था और सोचता था कि सिद्धों और विद्वानों की लिखी बातें क्योंकर पूरी होंगी जिनके होने का वक्त आ ही नहीं गया बल्कि बीता जा रहा है।’’

मालती : (ताज्जुब से) आखिर यह अनमोल चीज क्या है?

इन्द्र० : यह चाभी तो लोहगढ़ी के खजाने की है और यह उसके तिलिस्म का हाल बताने वाली पुस्तक है।

मालती : (खुश होकर) क्या इन्हीं चीजों की मदद से लोहगढ़ी की तिलिस्म टूटेगा?

इन्द्र० : हाँ।

मालती : और इन्हीं की मदद से मैं अपनी जमना, सरस्वती तथा और कई रिश्तेदारों के देख सकूँगी।

इन्द्र० : हाँ।

मालती : वाह वाह-- तब तो यह वह अनमोल चीज है जिसके लिए मैंने महीनों कोशिश की और अपनी जान जोखिम में डाली। इसका आप से आप हाथ में जाना सूचित करता है कि अब हम लोगों की मुसीबत की घड़ी बीत चुकी है।

इन्द्र० : यद्यपि मैं यह बिल्कुल नहीं जानता कि तुझे जमना, सरस्वती आदि के हाल का पता क्योंकर लगा अथवा तूने इन चीजों के पाने की क्या-क्या कोशिश की फिर भी मैं इतना कह सकता हूँ कि ये चीजें उस लोहगढ़ी के तिलिस्म को खोलने और तोड़ने का जरिया है और इन्हीं के बिना मैं अपने कई प्रेमियों से बिछड़ा हुआ था।

मालती : मैं अपना सब हाल आपसे अभी बयान करूँगी मगर इसके पहिले मैं ये कुछ कागजात और किताब आपको और भी दिखाऊँगी जो इसी गठरी में से निकले हैं और जिनसे बहुत से भेद प्रकट होते हैं।

इतना कह मालती ने वे सब कागज और रोजनामचे भी इन्द्रदेव के आगे बढ़ा दिये और उन्होंने गौर के साथ उन्हें देखना शुरू किया।

उन्हें पढ़ते हुए इन्द्रदेव की भी वही हालत हो गई जो मालती की हुई थी अर्थात् कभी क्रोध, कभी दु:ख, कभी घृणा और कभी प्रसन्नता ने उनके चेहरे पर प्रकट होकर उनके दिल का प्रभाव जाहिर कर दिया। वे बहुत देर तक उन कागजों को देखते रहे और जब हर एक कागज को पढ़ डाला तो एक लम्बी साँस लेकर बोले, ‘‘ये सब कागज मेरे लिये जवाहिरात से भी बढ़कर कीमती हैं और इनसे दुष्टों को दण्ड देने में बड़ी सहायता मिलेगी। मैं इनका पूरा मतलब तुझे बताऊँगा जिसे शायद तूने समझा न होगा। मगर इसके पहिले मैं यह चाहता हूँ कि तू अपना हाल मुझे पूरा सुना जा!’’

‘‘जो आज्ञा,’’ कह कर मालती ने अपना हाल कहने के लिये मुँह खोला ही था कि यकायक एक बड़े भारी धम्माके की आवाज ने उसे चौंका दिया और वह घबड़ा कर इधर-उधर देखने लगी। इन्द्रदेव भी चौंककर उठ खड़े हुए और तुरंत ही उनकी निगाह उस बँगले पर गई जिसे हम बन्दरों वाले बँगले के नाम से पुकार आये हैं।

इन्होंने देखा कि वे बनावटी बन्दर इस समय बड़ी बेचैनी के साथ इधर-उधर उछल-कूद रहे हैं और उनके पीछे की तरफ छत पर कई आदमी दिखाई पड़ रहे हैं जो बार-बार इसी तरफ देखते हुए आपस में बातें कर रहे हैं। इन्द्रदेव ने मालती से कहा, ‘‘बेटी, रंग-कुरंग नजर आते हैं। मालूम नहीं वे आदमी कौन हैं और यहाँ...’’

इन्द्रदेव की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि जाने किधर से एक गोला आकर उसी छत पर गिरा जिस पर ये दोनों खड़े थे। गोला गिरते ही फूट गया और उसमें से बहुत ज्यादा धूआं निकला जिसने इन्द्रदेव और मालती को चारों तरफ से घेर लिया। आँख और नाक में धूआं लगते ही इन्द्रदेव समझ गये कि यह जहरीला है और इस बात की बात में बेहोश कर देने का असर रखता है।

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