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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


बाबाजी (दारोगा साहब) की कृपा से नागर अब ऊँचे दर्जे की रंडियों में गिनी जाने लगी है। बाजार का बैठना एक तरह पर उसने बिल्कुल ही छोड़ दिया है। उस पुराने मकान को भी उसने छोड़ दिया है और एक दूसरे आलीशान मकान में डेरा जमाये हुए है, जिसमें आने-जाने के कई दरवाजे हैं जो तरह-तरह के काम में आते हैं क्योंकि चाहे दारोगा साहब को यही विश्वास हो कि नागर उनके सिवाय और किसी की शक्ल नहीं देखती पर नागर के पुराने प्रेमी लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं और इसी से मौके-बेमौके कोई-न-कोई उसके सुन्दर सजे हुए कमरे में नजर आता ही रहता है। धूर्ता नागर भी अपनी आमदनी बन्द करना पसन्द न करके खास प्रेमियों और उभरते हुए नौजवानों पर अपनी कृपा बनाये ही रखती है और दिल्लगी तो यह है कि उसमें से हर एक यही समझता है कि नागर उसी की है, उसी की रहेगी, और जो कुछ उससे पाती है उसी से अपना खर्चा चलाती हुई किसी दूसरे की तरफ झाँकती भी नहीं।

यह सोच कर वे लोग और भी उल्लू बनते हैं और उसकी तरह-तरह की बेढ़ब फरमाइशों को खुशी से पूरा करते हैं।

रात पहर भर के लगभग जा चुकी होगी। अपने मकान की छत पर नागर एक ऊँची गद्दी पर मसनद के सहारे अधलेटी-सी पड़ी हुई है। उसके सामने एक छोटा सितार है जिसकी तारों को वह कभी-कभी छेड़ देती है। सुन्दर चाँदनी चारों ओर छिटकी हुई है, ठण्डी हवा के झोंके नीचे बाग में से नाजुक फूलों की खुशबू लिए ऊपर पहुँचते हैं और नागर के दिमाग को मुअत्तर करते हैं पर उसकी आकृति से मालूम होता है कि वह इस समय किसी चिन्ता में डूबी हुई है और उसका मन किसी दूसरी ही दुनिया में चक्कर लगा रहा है।

कुछ देर बाद एक लम्बी साँस लेकर उसने मानों चिन्ता के बोझ को कुछ देर के लिए दूर किया और सितार उठा कर कुछ गुनगुनाना शुरू किया। नागर गाती बहुत ही अच्छा थी और उसका गला भी बड़ा ही सुरीला था। अस्तु इस चाँदनी रात के सन्नाटे में सितार के मधुर स्वर के साथ उसके मनोहर गाने ने अजीब ही असर पैदा करना शुरू किया।

सड़क पर जाते हुए एक नौजवान सवार के कानों में दर्द भरे गले की एक तान पड़ी जिसने उसे बेचैन कर दिया। उसने घोड़े की लगाम खींची और कुछ देर के लिए रुककर सुनने लगा, पर नागर का गाना सुनने के लिए कुछ देर के लिए भी ठिठकना गजब था। उस नौजवान के दिल ने उसे इजाजत न दी कि घोड़े को तेज करे और अपने रास्ते पर बढ़ जाय। वह घोड़े से उतर पड़ा और नागर के मकान के फाटक पर पहुँच उसके नौकरों से कुछ कहा।

एक लौंडी दौड़ी हुई गई और नागर के पास पहुँच कान में कुछ बोली। लौंडी की बात सुनते ही नागर चौंक पड़ी, सितार उसके हाथ से छूट गया और उसके चेहरे से उत्कंठा के साथ-साथ एक तरह की प्रसन्नता प्रकट होने लगी, जिसने थोड़ी देर के लिए उसके गालों को गुलाबी कर दिया।

उसने लौंडी से कुछ पूछा और अनुकूल उत्तर पा मुस्कुरा उठी। लौंडी चली गई और नागर एक अलमारी के पास पहुँची जिसमें बहुत से चित्र रक्खे हुए थे। उनमें से खोज कर एक तस्वीर उसने उठा ली और उसे लिए अपनी जगह पर आ बैठी। तस्वीर सामने रख ली और सितार उठा पुन: गाना शुरू कर दिया।

थोड़ी देर बाद लौंड़ी उस नौजवान को लिये हुए वहीं आ पहुँची जहाँ नागर बैठी हुई थी। नौजवान की सूरत देखते ही नागर मानों चिँहुक-सी उठी, सितार हाथ से छोड़ दिया और और बदहवास की सी तरह बन आँखें मलती हुई नौजवान की सूरत देखने लगी। मगर यह हालत भी उसकी देर तक न रही, शीघ्र ही मानो उसने अपने इस दोस्त को पहिचान लिया और एक चीख मार कर अपनी जगह से उठ उसके गले से जा चिपटी।

नागर की लौंडी यह अवस्था देख विचित्र तरह से मुस्कराती हुई छत के नीचे उतर गई और वह नौजवान नागर को दम-दिलासा देता हुआ उसकी गद्दी पर ले आया जहाँ दोनों बैठ गये। नागर की आँखों से आँसू गिर कर उसके आँचल को तर कर रहे थे। नौजवान ने अपने दुपट्टे से उन्हें पोंछा और उसे अपने कलेजे से लगा मीठी-मीठी और मन लुभाने वाली बातें करने लगा जो ऐसे मौके पर अक्सर वफादार आशिक अपनी बेवफा रंडियों से किया करते हैं।

कुछ देर बाद नागर ने अपने को चैतन्य किया और दोनों हाथों से नौजवान का चेहरा चन्द्रमा की तरफ घुमा बड़े प्यार की निगाहों से उसे देखती हुई बोली, ‘‘आज मेरी किस आह ने तुम्हारे दिल पर असर किया जो यह भोली सूरत देखने को मिली!’’

नौज० : (हँस कर) शुक्र है कि तुम्हें अपने आशिकों से इतनी फुरसत तो मिली कि तुम्हारे दिल ने इस दिलजले को याद किया!

नागर : (बिगड़ कर और नौजवान से दूर हट कर) जाओ जाओ! महीनों बाद तो सूरत दिखलाई है और आते ही जली-कटी बातें सुनाने लगे! सच कहा है कि मर्दों को दर्द नहीं होता!

नौज० : (नागर को पास खींच कर और उसके गले में हाथ डाल कर) यह तुम साफ झूठ बोल रही हो। भला कहो तो सही इस बीच में कितनी बार इस गरीब की याद तुम्हें आई थी?

नागर : जी एक दफे नहीं। बस अब तो खुश हो!

इतने ही में नागर की निगाह उस तस्वीर पर पड़ी जो कुछ ही देर पहिले उस अलमारी से निकाल सामने रक्खी थी। उसने उसे हटा कर गद्दी के नीचे छिपाने के लिए हाथ बढ़ाया पर उसी समय नौजवान ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘यह किस भाग्यवान की तस्वीर रख छोड़ी है, जरा मैं भी तो देखूँ।’’

नागर : (हाथ झटक कर और तस्वीर गद्दी के नीचे दबा कर) होगी किसी की, तुम्हें मतलब!

नौज० : तो भी, अगर बतला दोगी तो क्या कोई हर्ज होगा!

नागर : जी हाँ बहुत बड़ा।

नौज० : क्या?

नागर : तस्वीर देख कर तुम उस बेवफा का नाम पूछोगे और नाम लेने से मेरे कलेजे की आग बाहर निकल पड़ेगी जिससे तुम जल जाओगे।

नौज० : वाह! तब तो अद्भुत तस्वीर किसी अजायबघर में रखने लायक है, मैं इसे जरूर देखूँगा।

इतना कह कर नागर के रोकने पर भी नौजवान ने हाथ बढ़ा कर वह तस्वीर निकाल ली और चन्द्रमा की रोशनी में उसे देखा। एक खूबसूरत नौजवान की तस्वीर थी जिसके नीचे लिखा था ‘श्यामलाल’।

तस्वीर देखते ही और यह जानते ही यह उसी की तस्वीर है नौजवान मुस्कुरा उठा और तस्वीर दूर फेंक नागर को अपनी तरफ खेंच कलेजे से लगता हुआ बोला, ‘‘भला यह तो बताओ इस समय मेरी तस्वीर सामने रख तुम क्या कर रही थीं!’’

नागर : (श्यामलाल के गले में हाथ डाल कर) तुम्हारी कसम सच कहती हूँ आज तुम्हारी याद ने मुझे बेतरह सता रक्खा था। लाख दिल को समझती थी पर वह कम्बख्त मानती ही न थी। लाचार जब कुछ बस न चला तो तुम्हारी तस्वीर सामने रख अपने मचलते हुए दिल को फुसलाने की कोशिश कर रही थी, जब तुम नजर आये। इतना कह कर नागर ने शर्मा कर श्यामलाल की गोद में मुँह छिपा लिया और श्यामलाल ने उसके इस प्रेम का बदला भरपूर चुका दिया। कुछ देर इसी तरह की चहल में गुजर गई और तब फिर यों बातें होने लगीं–श्याम० : क्यों नागर! अब तुमने काशी एकदम ही छोड़ दी?

नागर : इधर बहुत दिनों से तो वहाँ जाना नहीं हुआ पर अब...

श्याम० : अब क्या?

नागर : अब पुन: जाने का विचार कर रही हूँ।

श्याम० : जरूर जाना चाहिए क्योंकि ‘मोतीजान’१ की अब भी वहाँ कदर और खोज है। (१. काशी के बाजार में बहुत दिनों तक मोतीजान के नाम से मशहूर थी और वहाँ इसने बहुत से अमीरों को अपने जाल में फँसा कर चौपट किया था।)

‘मोतीजान’ नाम सुन नागर ने शर्मा कर सिर झुका लिया और कहा, ‘‘बस इसी से तो मैं और भी वहाँ जाते हिचकती हूँ क्योंकि जब मेरे पुराने दोस्त ही इस तरह मेरी खिल्ली उड़ाते हैं तो..."

कहते-कहते नागर रुक गई क्योंकि उसी समय सीढ़ी पर से धमधमाहट की आवाज मालूम हुई जिससे पता लगा कि कोई ऊपर को आ रहा है। नागर श्यामलाल के पास से कुछ हट गई और उसी समय उसकी लौंडी ने वहाँ पहुँच कर एक लिफाफा उसके हाथ में दिया तथा कान में धीरे से कुछ कहा। बात सुन नागर एक बार कुछ चिहुँक-सी गई पर तुरन्त ही उसने अपने को सम्हाला और कुछ टेढ़ी निगाह से लौंडी की तरफ देख कर बोली, ‘‘मैंने उसी को समय कह दिया था कि चाहे कोई रईस हो इस समय इत्तिला न की जाय!’’

लौंडी : जी बहुत बड़ा रईस बल्कि राजा है...

नागर : बस चुप रह, कह दे आज मुलाकात नहीं हो सकती, तबीयत ठीक नहीं है।

लौंडी : जो हुक्म, खैर यह चीठी तो पढ़ ली जाय जो उन्होंने दी है।

नागर : कम्बख्तों के चीठी-पुर्जों से तो मैं और भी परेशान हूँ, खैर ला रोशनी।

लौंडी कुछ दूर पर रक्खा हुआ शमदान उठा लाई और नागर ने वह लिफाफा खोला।

श्यामलाल ने देखा कि चीठी पढ़ते समय नागर के चेहरे से डर और तरद्दुद जाहिर होने लगा और वह कुछ काँप सी गई, पर बड़ी कोशिश से उसने अपना भाव बदला और चीठी बन्द कर बनावटी क्रोध के साथ बोली, ‘‘मूओं को अपने इश्क-मुहब्बत से ही छुट्टी नहीं मिलती। जा, उसे विदा कर दे।’’

नागर ने चीठी दूर फेंक दी और लौंडी शमादान पुन: दूर रख कर नीचे उतर गई। नागर ने आलस्य के साथ अँगड़ाई लेते हुए श्यामलाल के गले में हाथ डाल दिया और कहा, ‘‘इन कम्बख्तों के मारे तो मैं बेतरह परेशान हूँ।’’

श्याम० : क्यों कौन था? यह चीठी किसकी है?

नागर : था एक कम्बख्त, पर इस समय क्या तुम्हें छोड़ सकती हूँ! इतने दिनों के बाद तो न जाने कौन-सा पुण्य उदय हुआ कि तुम्हारी शक्ल दिखाई दी और सो भी कुछ यह उम्मीद नहीं कि फिर कब...

श्याम० : नहीं अब मैं बराबर आया करूँगा।

नागर : धन्य भाग्य! क्या कहूँ अगर मुझे खर्च की तकलीफ न होती तो मैं तुम्हारे सिवाय और किसी का मुँह भी न देखती पर लाचारी के सबब सब कुछ करना पड़ता है।

श्याम० : तुम्हें और खर्च की तकलीफ!

नागर : हाँ, यह कम्बख्त शहर बड़ा ही कंजूस है। जब से यहाँ आई अपना ही खा रही हूँ, इसी से तो पुन: काशी जाने का विचार कर रही हूँ।

श्याम० : (अपने गले से सिकरी निकाल कर देता हुआ) लो इसे रक्खो।

नागर : क्यों सो क्यों?

श्याम० : मैं देता हूँ।

नागर : वाह जी, तुमने मुझे ऐसा कंगाल समझ रक्खा है कि इतने दिनों के बाद मुलाकात होने पर भी...

श्याम० : नहीं नहीं, सो बात नहीं है, यह तो मैं तुम्हें खर्च के लिए देता हूँ।

नागर के बहुत कुछ इनकार करने पर भी श्यामलाल ने सिकरी जबर्दस्ती उसके गले में डाल दी और बहुत बड़ी कसम देकर मुँह बन्द कर दिया। कुछ देर तक पुन: चुहल होती रही और तब श्यामलाल ने जाने की इच्छा प्रकट की।

नागर : अजी बैठो, अभी कहाँ जाओगे!

श्याम० : जाने का दिल तो नहीं करता पर क्या करूँ आज सुबह का ही निकला हूँ, अभी तक भोजन क्या एक घूँट जल तक नहीं पिया है, अब घर जाऊँगा तब...

नागर : क्यों क्या यहाँ सब इन्तजाम नहीं हो सकता। मैं अभी भोजन मँगवाती हूँ। स्नान इत्यादि हुआ है या नहीं?

श्याम० : नहीं, अभी कुछ नहीं हुआ, रुकने से तकलीफ होगी, तुम बस केवल एक गिलास जल मँगवा दो और मुझे इजाजत दो।

लाचारी की मुद्रा दिखाती हुई नागर ‘‘खैर जैसी तुम्हारी इच्छा’’ कहती हुई जल मँगवाने के लिए उठ खड़ी हुई, बल्कि स्वयं ही लेने के लिए नीचे उतर गई। उसके जाते ही श्यामलाल झपट कर उठा और वह लिफाफा जिसे नागर ने दूर फेंक दिया था उठा कर शमादान के पास पहुँचा, चीठी निकाल ली और जल्दी-जल्दी पढ़ा। यह लिखा हुआ था :--

‘‘वह काम हो गया। तुम इसी समय रवाना हो जाओ और ‘रामदेई’ बन कर भूतनाथ के पास पहुँचो। सिवाय उसके और कोई वह काम नहीं कर सकता। सवारी जाती है, साधोराम तुम्हारी मदद पर रहेगा।’’

बस इतना ही उस कागज का मजमून था जिसे श्यामलाल फुर्ती से पढ़ गया और तब लिफाफा जहाँ पढ़ा था वहाँ वैसे ही रख कर पुन: अपनी जगह पर आ बैठा, साथ ही साथ सोचने लगा—

‘‘नागर ने तो कहा था कि यह उसके किसी आशिक की चीठी है पर यह तो कोई दूसरा ही मामला है! रंडियाँ भी कैसी होती हैं! यह चीठी लिखी किसकी है?

नीचे किसी का नाम नहीं है पर अक्षर पहिचाने हुए-से मालूम होते हैं। मुझे तो यह दारोगा साहब कि लिखावट मालूम होती है। हां ठीक है, बेशक उन्हीं की लिखावट है। मगर नागर रामदेई की सूरत क्यों बनेगी और भूतनाथ से क्या काम निकलने की आशा है? इसका पता लगाना चाहिए, इसमें अवश्य कोई गूढ़ भेद है।’’

इसी समय नागर अपने नाजुक हाथों में जल से भरा गिलास और कुछ मीठा लिए वहाँ पहुँची। श्यामलाल ने आते ही देखा कि आते ही उसकी पहिली निगाह उसी चीठी की तरफ गई मगर उसे अपनी जगह पर ज्यों-का-त्यों पड़ा पा उसे संतोष हुआ और वह श्यामलाल के पास पहुँची। श्यामलाल ने केवल जल पी लिया और बाकी चीजों को छोड़ उठ खड़ा हुआ।

बनावटी मुहब्बत की बातें करती हुई नागर उसके साथ-साथ नीचे तक आई और सब तरह-तरह के वादे करा और कर उसने श्यामलाल को विदा किया। फाटक पर पहुँच कर श्यामलाल ने देखा कि एक रथ और आठ सवार वहाँ मौजूद हैं जो पहिले दिखाई नहीं पड़े थे। वह समझ गया कि यही वह सवारी है जिसका जिक्र चीठी में किया गया है। एक निगाह उस तरफ डाल श्यामलाल अपने घोड़े पर सवार हुआ और पूरब की सड़क पर रवाना हो गया।

थोड़ी दूर जाने के बाद एक चौराहे पर पहुँच श्यामलाल ने घोड़ा रोका उसको देखते ही उसके दो साथी जो कहीं छिपे हुए थे निकल आए जिन्हें देख श्यामलाल घोड़े से उतर पड़ा और किनारे जा कुछ बातें करने लगा। कुछ समय के बाद बातचीत खत्म हुई, श्यामलाल पुन: घोड़े पर सवार हो पूरब की ओर रवाना हो गया, तथा उसके दोनों साथी नागर के मकान की तरफ लौट आए।

इसके लगभग घड़ी ही भर के बाद नागर अपनी एक लौंडी को साथ लिए मकान के बाहर निकली और उसी रथ पर सवार हो गई। हुक्म पाते ही रथ तेजी से काशी की ओर रवाना हुआ और वे सवार पीछे-पीछे जाने लगे। श्यामलाल के दोनों साथियों ने भी रथ का पीछा किया और छिपे-छिपे साथ जाने लगे।

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