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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


अर्जुनसिंह को अपने मकान में छोड़ इन्द्रदेव एक तेज घोड़े पर सवार होकर लोहगढ़ी की तरह रवाना हुए। संध्या होने में कुछ ही देर रह गई थी जब वे वहाँ पहुँचे और घोड़े को पेड़ों की एक झुरमुट में बाँधने के बाद लोहगढ़ी की तरफ बढे। टीले पर पहुँच मामूली तर्कीब से रास्ता खोला और इमारत के अन्दर चले।

शीघ्र ही इन्द्रदेव उस बीच वाले लोहे के बने मकान के पास जा पहुँचे जिसके कमरे और कोठरियों की छानबीन करने पर उन्हें यह निश्चय हो गया कि प्रभाकरसिंह या सर्यू यहाँ नहीं है, अस्तु अब वे उस सुरंग में घुसे जहाँ से तिलिस्म के अन्दर अथवा उस घाटी में जाने का रास्ता था जिसका हाल हम ऊपर कई जगह लिख आये हैं। हम नहीं कह सकते कि ऐसा करने से उनका असल अभिप्राय क्या था क्योंकि इतना तो वे बखूबी समझते ही थे कि प्रभाकरसिंह लोहगढ़ी के तिलिस्म का हाल बिल्कुल नहीं जानते और इसीलिए सर्यू को लेकर उनके तिलिस्म के अन्दर चले जाने की सम्भावना बहुत ही कम है।

पहिले के सब दरवाजे तो मामूली तरह पर खुलते चले गए मगर जब इन्द्रदेव आखिरी दरवाजे पर पहुँचे जिसके खुलने से तिलिस्मी घाटी सामने दिखाई पड़ती थी तो वह दरवाजा मामूली तरकीब करने से न खुला। ताज्जुब के साथ पुनः उद्योग किया मगर फिर भी जब रास्ता न खुला तो इन्द्रदेव पीछे हट ताज्जुब के साथ सोचने लगे कि यह क्या मामला है और दरवाजा क्यों नहीं खुल रहा है।

बहुत कुछ सोचा मगर इसके सिवाय और कुछ समझ में न आया कि किसी ने भीतर से कोई तरकीब कर दी है जिससे दरवाजा नहीं खुलता। कुछ सोचते हुए इन्द्रदेव वहाँ से वापस लौटे। वे एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ एक तिरमुहानी की तरह पर रास्ता था अर्थात एक नया रास्ता दाहिनी तरफ को निकल गया था। इन्द्रदेव इसमें घुसे।

पाठक इसको बखूबी जानते हैं क्योंकि यह वही था जिसकी राह हेलासिंह सर्यू को ले भागा था, जिसमें प्रभाकरसिंह ने उसका पीछा किया था, अथवा जहाँ से एक बाग में पहुँच तिलिस्मी शैतान से उन सभों की भेंट हुई थी।

ताज्जुब की बात थी कि पहिले रास्ते की तरह उस सुरंग के बीच में पड़ने वाले भी और सब दरवाजे तो खुलते चले गये मगर जब आखिरी अर्थात वह दरवाजा मिला जिसे खोलने पर वह बाग मिलता था जिसमें तिलिस्मी शैतान और प्रभाकरसिंह की लड़ाई हुई थी तो वह दरवाजा भी इन्द्रदेव के खोले न खुला।

कई तरह की तर्कीब की मगर कोई असर न हुआ और इन्द्रदेव को विश्वास कर लेना पड़ा कि लोहगढ़ी के तिलिस्म के अन्दर जाने के लिए इस समय कोई तर्कीब नहीं हो सकती। वे कुछ ताज्जुब के साथ यह कहते हुए पीछे की तरफ लौटे, ‘‘यह क्या मामला है? इसका तो दो ही सबब हो सकता है- या तो भीतर से सब दरवाजों को बन्द कर देने की कोई तर्कीब की गई है और-या फिर-यह तिलिस्म टूट रहा है!’’

आखिरी बात कहते-कहते इन्द्रदेव कुछ गौर में पड़ गये और स्पष्ट स्वर में उनके मुँह से निकला, ‘‘क्या यही बात तो नहीं है! इस तिलिस्म की उम्र समाप्त तो हो ही चली थी। कौन ठिकाना मालती और प्रभाकरसिंह....!’’

यकायक वे रुक गये क्योंकि उन्हें ऐसा जान पड़ा मानों कोई उस सुरंग में आ रहा है। उन्होंने आहट पर गौर किया और अन्दाज से पता लगाया कि दो आदमी आपुस में धीरे-धीरे बातें करते इसी तरफ को आ रहे है। ये लोग कौन है, यह जानने के विचार से इन्द्रदेव का इरादा हुआ कि कहीं आड़ में छिप कर इन्हें देखना चाहिए पर उस पतली सुरंग मे आड़ या छिपने की जगह हो ही कहाँ सकती थी।

फिर भी इधर-उधर देखते-देखने यकायक उन्हें कोई बात याद आ गई और वे अपनी जगह से पीछे हटे। दस-बारह कदम लौट जाने बाद दाहिनी तरफ की दीवार में एक छोटा ताक दिखाई पड़ा जिसमें कोई मूरत बैठाई हुई थी। इन्द्रदेव ने उस मूरत के साथ कुछ किया जिससे बगल की दीवार की एक पटिया घूम कर पीछे हट गई और एक तंग रास्ता दिखाई पड़ने लगा।

इन्द्रदेव उसी में घुस गये और तुरन्त ही वह रास्ता बन्द हो गया। जिस जगह अब वे थे वह एक बहुत ही छोटी कोठरी थी जिसमें मुश्किल के पाँच-छः आदमी खड़े हो सकते थे मगर यहाँ की दीवार में दो-एक छेद इस तरह के बने हुए थे जिनकी राह बाहर सुरंग का हाल देखा जा सकता था। इन्द्रदेव इन्हीं छेदों की राह बाहर की आहट लेने लगे। ये छेद इतनी कारीगरी से बने हुए थे कि सुरंग से आने-जाने वालों को इनका गुमान भी नहीं हो सकता था।

थोड़ी देर बाद बातचीत की आवाज ने इन्द्रदेव पर प्रकट कर दिया कि ये आने वाली दो औरतें हैं जो आपुस में बातें करती हुई धीरे-धीरे चली आ रही हैं। इन्द्रदेव ने उनकी आवाज पर गौर करके उन्हें पहिचानना चाहा परन्तु ऐसा न कर सके क्योंकि स्वर पहिचाना हुआ न था, सूरत देख कर पहिचानना चाहा मगर वह भी न हो सका क्योंकि दोनों के चेहरों पर नकाबें पड़ी हुई थीं। हाँ उनकी बात-चीत का जो अंश इन्द्रदेव के कान में पड़ा वह ताज्जुब दिलाने वाला जरूर था।

उनमें से एक ने कहा, ‘‘भूतनाथ की सारी ऐयारी भूल जायगी और वह भी याद करेगा कि किसी से वास्ता पड़ा था!’’ जिसके जवाब में दूसरी ने कहा, ‘‘इसमें क्या शक है? उसका यह जो भेद हम लोगों को मालूम हुआ है उसके जरिये हम लोग उसे अच्छी तरह नचा सकती हैं!’’

इतना कहती हुई दोनों आगे बढ़ गईं और इन्द्रदेव उनकी बातों के इतने टुकड़े पर गौर करते हुए सोचने लगे कि ये दोनों कौन हो सकती हैं, खैर देखना चाहिए तिलिस्म के अन्दर जाती हैं या मेरी तरह वापस लौटती हैं। मगर जब मैं तिलिस्म में न जा सका तब इनका चले जाना ताज्जुब की ही बात होगी।

इन्द्रदेव का खयाल ठीक निकला और थोड़ी देर बाद वे दोनों वापस लौटती दिखाई पड़ीं। सुरंग वाले दरवाजे के न खुलने के सम्बन्ध में दोनों में आश्चर्य की बातें हो रही थीं। इन्द्रदेव ने यह मौका अच्छा समझा और जब वे उस जगह से कुछ आगे बढ़ गई जहाँ वे छिपे हुए थे तो ये बाहर निकल आये और उस जगह को बन्द कर दबे पाँव धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे जाने लगे।

उनकी बातचीत का जो अंश सुनाई पड़ता था उसे गौर के साथ सुनते भी जाते थे। यद्यपि साफ तो नहीं सुनाई पड़ता था क्योंकि फासला ज्यादे था और वे दोनों बातें भी धीरे-धीरे कर रही थीं फिर भी जो कुछ सुनाई पड़ जाता था वह भी इन्द्रदेव को चौंका देने के लिए काफी था।

एक० : खैर कोई हर्ज नहीं, इतने ही से हम लोग भूतनाथ को वह तमाशा दिखा देंगी कि वह भी याद करेगा।

दूसरी० : लेकिन इतना समझे रहो कि यह काम है बड़ा खतरनाक! अगर उसे जरा भी मालूम हो गया कि इस पर्दे के भीतर हम दोनों छिपी हुई हैं तो वह हमें कदापि जिन्दा न छोड़ेगा।

एक० : (लापरवाही से) अजी अपने उस पुराने पाप के बारे में दो बातों को सुनते ही तो वह अधमरा हो जायगा, तुम्हारा ख्याल कहां है! और फिर हम लोग सब तरह से होशियार रहेंगी, कुछ सहज में थोड़ी ही उसके कब्जे में आ जायंगी! क्या बताऊँ जो कागजात घाटी में गाड़ आई हूँ वे कहीं मिल जाते तो इसी समय सब बखेड़ा तय हो जाता और एक ही बार में भूतनाथ हम लोगों का गुलाम बन जाता मगर कम्बख्त दरवाजा ही नहीं खुला!!

दूसरी० : आखिर उन कागजों में था क्या सो भी तो कुछ बताओ?

पहिली ने इसके जवाब में झुक कर जो कुछ कहा उसे इन्द्रदेव बिल्कुल सुन न सके मगर इतना जरूर जान गये कि वह कोई बहुत गूढ़ बात थी क्योंकि उसे सुनते ही वह दूसरी औरत चौंक पड़ी और ताज्जुब के साथ बोली, ‘‘क्या तुम ठीक कह रही हो?’’ इसके जवाब में उसने कहा, ‘‘हाँ बिल्कुल ठीक!’’ और तब दोनों की बातचीत बन्द हो गई क्योंकि सुरंग का मुहाना आ गया था और उस जगह का दरवाजा खोलने में वह पहिली औरत लग गई थी।

दरवाजा खोल कर वे दोनों औरतें बाहर निकल गईं और लोहगढी के ऊपर वाली इमारत के एक दालान में जा बैठीं, छिपते और उनकी निगाहों से बचते हुए इन्द्रदेव भी सुरंग के बाहर निकले और उस दालान के बगल वाली एक कोठरी में जा पहुँचे क्योंकि इन्हें बड़ा कौतूहल यह जानने का हो रहा था कि वास्तव में ये दोनों कौन हैं और भूतनाथ से इन्हें क्या दुश्मनी है।

मगर उनका कौतूहल ताज्जुब में बदल गया जब उन्होंने इन दोनों की सूरतें देखीं क्योंकि इस समय दोनों ही ने अपनी-अपनी नकाबें उलट दी थीं और अपने पास से सामान निकाल सूरतों पर रंग भरने का उद्योग कर रही थीं। इन दोनों की असली सूरतें देखते ही इन्द्रदेव पहिचान गये कि इनमें से एक तो शेरअलीखाँ की लड़की गौहर है और दूसरी हेलासिंह की बेटी मुन्दर। उनके मुँह से ताज्जुब के साथ निकल गया, ‘‘अरे, ये दोनों शैतान की बच्चियाँ यहां!!’’

मगर इसके साथ ही उनके मन में और भी बहुत-सी बातें घूम गईं। उन्हें याद आया कि मालती ने जो तिलिस्मी किताब जमीन में गाड़ी जाती देखी और बाद में निकाली थी तथा उसके साथ जो बहुत-से कागजात भी पाये थे उनके गाड़ने वाले दो मर्द और एक औरत थे। वे समझ गए कि हो न हो वह काम हेलासिंह और मुन्दर का ही होगा, इसके साथ ही उनकी विचार-प्रणाली का ढंग भी बदल गया और वे कुछ नई बातें सोचने लगे।

इसी बीच मुन्दर और गौहर जो इस बात से बिल्कुल बेखबर थीं कि उनके पास ही में कोई छिपा खड़ा उनकी सब कार्रवाई देख-सुन रहा है, अपनी सूरत बदलने में मशगूल थीं। उन दोनों ही के सामने एक-एक तस्वीर और एक-एक शीशा था और वे शीशे में देख-देख अपनी शक्ल उन्हीं तस्वीरों जैसी बना रही थीं, मगर वे शक्लें क्या थीं यह आड़ में पड़ने तथा मुँह दूसरी तरफ घूमा रहने के कारण इन्द्रदेव देख नहीं सकते थे।

लगभग आधे घण्टे तक वे दोनों इस काम में लगी रहीं, इसके बाद जब उनके मन मुताबिक शक्लें बन गईं तो दोनों ने सूरत बदलने का सामान बटोरकर किनारे किया और उन कपड़ों की मदद से अपनी पोशाक बदलना शुरू किया जो वे साथ लायी थीं। उस समय इन्द्रदेव को एक झलक उनके बदले हुए चेहरों की दिखाई पड़ी।

मुन्दर की सूरत एक कमसिन और नाजुक औरत की थी और गौहर एक अधेड़ मर्द बनी हुई थी। साथ ही जान पड़ता है कि इन सूरतों को भी इन्द्रदेव पहिचानते थे क्योंकि देखते ही वे चौंक कर बोल उठे। ‘‘हैं, मुन्दर और भुवनमोहिनी के रूप में? तब क्या यह भेद भी प्रकट हो गया? अब गई बेचारे भूतनाथ की जान।’’

तरह-तरह की न-जाने कितनी ही बातें बिजली की तेजी से इन्द्रदेव के दिमाग में दौड़ गईं, मगर इसके साथ ही न-जाने कौन एक पुरानी याददाश्त उनकी आँखें भर लाई और, चेहरा उदास हो गया।

इधर-जल्दी-जल्दी इन दोनों ने अपनी पौशाकें बदलीं। चेहरे पर नकाबें लगाईं और कुछ जरूरी सामान कमर में छिपा चलने के लिए तैयार हो गईं। आगे-आगे वे दोनों और पीछे-पीछे इन्द्रदेव लोहगढ़ी के बाहर निकले।

इन्द्रदेव कहाँ जाते अथवा क्या करते हैं इसका ध्यान छोड़ हम थोड़ी देर के लिए इन दोनों कम्बख्तों के पीछे चलते और देखते हैं कि ये कहाँ जाती और क्या कहती हैं।

लोहगढ़ी से निकल आपस में धीरे-धीरे बातें करती हुई गौहर और मुन्दर उस रास्ते से काशी जी की तरफ रवाना हुई जो इन्द्रदेव के कैलाश-भवन के पास से होता हुआ पहाड़ के ऊपर ही ऊपर सीधा चला गया था और जिसकी कई शाखें शिवदत्तगढ़, चुनारगढ़ और रोहतासगढ़ आदि को भी निकल गई थीं, राह में एक जगह पहुँच कर कुछ देर के लिए मुन्दर रुकी क्योंकि इस जगह एक पहाड़ी गुफा में उसने घोड़ा तथा कुछ सामान छिपा रक्खा था।

मुन्दर ने उस गुफा में पहुँच कर, जो बहुत ही लम्बी-चौड़ी और पहाड़ के अन्दर दूर तक चली गई थी और जिसकी ऊँचाई भी काफी थी, अपना घोड़ा उसके अन्दर से निकाला, अपने पास वाला कुछ सामान जिसकी जरूरत न समझी उस गुफा में पत्थरों के ढोंको के बीच में छिपाया, और तब उसी घोड़े पर सवार हो दोनों रवाना हुईं और काशीजी पहुँची, वहाँ पहुँच कर भूतनाथ से किस तरह उनकी मुलाकात हुई अथवा क्योंकर उनकी बातें सुन और सूरत देख भूतनाथ बदहवास हो गया यह हम ऊपर लिख आये हैं, इसलिए अब उसके आगे का हाल लिखते हैं।

भूतनाथ को डर और घबराहट से बेहोश होते देख मुन्दर और गौहर ने प्रसन्नता की निगाह एक-दूसरे पर डाली और तब यह निश्चय कर लेने के बाद कि कोई उनकी कार्रवाई देख तो नहीं रहा है उन दोनों ने भूतनाथ के बटुए की तलाशी लेनी शुरू की।दवाओं की शीशियों और तरह-तरह के कीमती मसालों से भरी हुई डिबियों की तरफ तो उन्होंने निगाह भी न की हाँ उन बहुत-से कागजों और चीठियों को उन्होंने जरूर गौर के साथ जाँचना शुरू किया जो उसके बटुए में थीं।

मगर यकायक उनके काम में विघ्न पड़ गया जब उन्होंने कई आदमियों के उस गली के अन्दर घुसने की आहट पाई। अपना काम बन्द कर लाचार उन दोनों को उठना पड़ा। भूतनाथ के कागजात बटुए के अन्दर डाल बटुआ ज्यों-का-त्यों उसकी कमर में बाँधने के बाद मुश्किल से उन दोनों को इतना समय मिला कि वहाँ से हट अपने को कहीं छिपा सकें। हम नहीं कह सकते कि भूतनाथ के कागजों में से कुछ इन लोगों ने निकाले भी या नहीं, समय ही इसका हाल बता सकता है।

ये आने वाले भूतनाथ के कई नौकर तथा शार्गिद थे जिन्हें श्यामा के मकान पर काम करने के लिए गुप्त रीति से भूतनाथ ने ठीक किया था। अपने मालिक को इस तरह बीच रास्ते में बेहोश पड़े पा ये चौंक पड़े उसे होश में लाने का उद्योग करने लगे। थोड़ी ही कोशिश में भूतनाथ चैतन्य होकर उठ बैठा और साथ ही उसके आदमियों ने पूछना शुरू किया- ‘‘यह क्या मामला है? आप इस तरह बेहोश यहाँ क्यों पड़े थे? क्या कोई दुर्घटना हो गई?’’ इत्यादि, मगर भूतनाथ ने किसी भी बातों का जवाब पीछे पूछना, पहिले यह बताओ कि यहाँ से दो आदमियों को भागते हुए तुम लोगों ने देखा?’’ भूतनाथ के एक शागिर्द ने कहा, ‘‘मुझे कुछ झलक-सी लगी थी कि कोई आदमी (उँगली से दिखा कर) उस गली में गया है पर ठीक-ठीक नहीं कह सकता!’’ सुनते ही भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और बोला।

‘‘अच्छा मैं उन की टोह लगाता हूँ, तुम लोग भी इधर-उधर फैल जाओ और कहीं भी सफेद पोशाक पहिरे दो नकाबपोशों को देखो तो पकड़ कर इसी मकान में लाओ।’’ भूतनाथ ने श्यामा के मकान की तरफ इशारा किया और तब केवल उस आदमी को अपने साथ ले जिसने उन दोनों के भागने का निशान बताया था वह उस गली में घुस गया। उसके बाकी आदमी भी चारों तरफ फैल गये और उन नकाबपोशों को गिरफ्तार करने की कोशिश करने लगे।

गली पार कर चुकने के बाद सड़क मिली और यहाँ कर भूतनाथ को मालूम हो गया कि अभी कुछ ही देर पहिले इस जगह एक घोड़ा जरूर बँधा हुआ था।

उसे विश्वास हो गया कि वे दोनों नकाबपोश भी जरूर इसी घोड़े पर सवार होकर भागे हैं क्योंकि मिट्टी पर एक घोड़े के तेज टापों के निशान पड़े हुए थे जो सरपट दौड़ कर निकला था।

इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ दौड़ने में बहुत ही तेज था। लगभग कोस भर जाते-जाते उनके कानों में घोड़े के टापों की आवाजें पड़ने लगीं और थोड़ी ही और जाने बाद उन दोनों नकाबपोशों की एक झलक उसने देख ली जो उस एक ही घोड़े पर सवार तेजी से बढ़े जा रहे थे। भूतनाथ के शागिर्द ने पूछा, ‘‘मेरे पास पथरकला मौजूद है, कहिए तो इन लोगों पर निशाना लगाऊँ?’’

मगर वह बोला। ‘‘अभी नहीं आगे चल कर अगर जरूरत पड़ी तो वैसा किया जायगा। लेकिन यदि सम्भव हो तो मैं उन्हें बिना चोट पहुँचायें ही पकड़ना चाहता हूँ!’’ मन-ही-मन दोनों को गिरफ्तार करने की तर्कीब सोचता हुआ भूतनाथ उनके पीछे-पीछे जाने लगा और इस बात की तरफ उसने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि आसमान पर काले बादल छा रहे हैं जो न-जाने कब फट पड़ेंगे।

मगर उन दोनों नकाबपोशों की निगाह इस तरफ जरूर थी। हवा की तेजी और बढ़ते बादलों को चारों तरफ से घिरे आते देख एक ने दूसरे से कहा, ‘‘बादल तेजी से इकट्ठे हो रहें हैं, हम लोगों को जल्दी अपने ठिकाने पहुँच जाना चाहिए नहीं तो भीगना पड़ेगा।’’ दूसरे ने यह सुन कर कहा, ‘‘हाँ मैं भी इसे देख रही हूँ। मगर अभी लोहगढ़ी बहुत दूर है और पानी आने में कुछ भी देर नहीं मालूम पड़ती।’’

इसके साथ ही उसने घोड़े को एड़ लगाकर उसकी चाल तेज की।

लगभग कोस-भर और जाते-जाते पानी की बूँदे गिरने लग गईं। एक बोली, ‘‘पानी बढ़ेगा!’’ दूसरी ने कहा, ‘‘तब कहीं आड़ खोजनी चाहिए,’’ पहली बोली, ‘‘हम लोग हैं कहाँ पर?’’

दूसरी ने गौर करके कहा, ‘‘वह जगह यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है जहाँ मैं इस घोड़े को बांधती हूँ और उसी गुफा में हम लोगों को भी आड़ मिलेगी।’’इतना कह उसने घोड़े का मुँह घुमाया और धीरे-धीरे–क्योंकि अब अंधेरा बहुत हो गया था और रास्ता दिखाई देना कठिन हो रहा था, दोनों उस पहाड़ी की तरफ जाने लगीं जिधर एक गुफा के अन्दर से मुन्दर ने यह घोड़ा खोला था।

पल-पल में पानी की तेज और हवा की सनसनाहट बढ़ती जाती थी जिससे इन दोनों को रास्ता खोजने में जिस प्रकार तकलीफ बढ़ रही थी उसी प्रकार भूतनाथ के लिए इनका पीछा करना सहज हो रहा था बल्कि उसने अब इनको गिरफ्तार करने की एक तर्कीब भी सोच निकाली थी।

बिजली की चमक में रास्ता देखती और गुफा की टोह लेती हुई मुन्दर उस जगह के पास पहुँच घोड़े से उतरी और उसकी लगाम पकड़े दोनों धीरे-धीरे उस गुफा की तरफ बढ़ीं।

बिजली की चमक से भूतनाथ ने उस गुफा को देखा और समझ गया कि इसी में ये दोनों अब डेरा लगावेंगी, अस्तु ऐयारी करने की फिक्र में वह अपने साथी को लिए कुछ दूर हट गया और कोई आड़ की जगह तलाश करने लगा।

मुन्दर और गौहर उस गुफा के पास जा पहुँची परन्तु यकायक उनके कानों में किसी तरह की आहट पहुँची। मुन्दर ने गौहर का हाथ पकड़ लिया और एक तरफ आड़ में होती हुई बोली। ‘‘सखी, मुझे संदेह होता है कि इस जगह और भी कोई आदमी है! कहीं हमारा पीछा तो नहीं हो रहा है?’’ गौहर ने गौर से चारों तरफ की आहट ली मगर उसे कुछ सुनाई न पड़ा और वह बोली, ‘‘मुझे तो कुछ नहीं पता लगता। फिर इस आँधी-पानी में कौन हमारा पीछा करने ही लगा है!’’

कुछ देर तक दोनों चुप रहीं और फिर कोई आहट न पाकर दोनों गुफा की तरफ लौटीं मगर धूर्ता मुन्दर ने घोड़े की लगाम एक डाल के साथ अटका उसे उसी जगह छोड़ दिया क्योंकि उसने सोचा कि अगर सचमुच कोई उनका पीछा कर रहा है तो घोड़ा बाहर ही रहना ठीक रहेगा, तब उसने गौहर का हाथ पकड़ लिया और चौकन्नी होकर सब तरह की आहट लेती हुई गुफा की तरफ बढ़ी उसी समय पानी तेजी से बरसने लगा और चारों तरफ अंधेरी और भी बढ़ गई।

गुफा के मुहाने पर रुक कर थोड़ी देर आहट लेने के बाद जब मुन्दर को उसके अन्दर किसी के होने का गुमान न हुआ तो वह भीतर घुसी और गौहर उसके पीछे-पीछे चली।

पन्द्रह-बीस कदम से ज्यादा गई होंगी कि अचानक अन्दर की तरफ से कोई आवाज सुन चौंक पड़ीं और मुन्दर ने धीरे से कहा–

‘‘सखी, मुझे तो शक होता है कि इस गुफा में जरूर कोई है, ’’ गौहर बोली, ‘‘और मुझे भी, लेकिन तब क्या करें, लौटें?’’ ‘‘यही मुनासिब जान पड़ता है।’’

कहती हुई मुन्दर पीछे को घूमी मगर यकायक फिर रुक गई क्योंकि उसी समय गुफा के मुहाने की तरफ से चुटकी बजने की तरह आवाज सुनाई पड़ी। उसने घबड़ा कर गौहर से कहा, ‘‘मालूम होता है हम दोनों तरफ से घिर गये हैं। जरूर गुफा के बाहर भी कोई आदमी है जिसने यह चुटकी बजाई!’’

गौहर जवाब में कुछ कहा ही चाहती थी कि यकायक गुफा के अन्दर से आती हुई एक रोशनी की तरफ उसकी नजर गई और डरते हुए उसने मुन्दर का ध्यान उधर दिलाया। रोशनी क्षण-क्षण में बढ़ती जा रही थी जिससे गुमान होता था कि कोई रोशनी लिए हुए इधर ही को आ रहा है। मुन्दर ने देखते ही कहा, ‘‘अपनी छुरी निकाल लो और होशियार हो जाओ। सम्भव है यह हमारा कोई दुश्मन हो!’’

इसके साथ ही वह दीवार के साथ चिपक गईं और अपने हाथ में छुरी को मजबूती से पकड़े रहने पर भी काँपते हुए कलेजे के साथ उस आने वाले का इन्तजार करने लगीं क्योंकि लाख हिम्मतवर होने पर भी आखिर वह जनाना और कमसिन ही तो थी।

रोशनी पास आई। अन्दाज से मालूम हुआ कि गुफा के अन्दर से किसी मोड़ के दूसरी तरफ वह रोशनी लिए हुए आने वाला पहुँच गया है। मुन्दर ने छुरी वाला हाथ ऊँचा किया और उसी समय वह शकल सामने आई जो रोशनी लिए हुए थी। मगर वह कोई आदमी न था जो रोशनी लिए हुए आ रहा था बल्कि मनुष्य की हड्डियों का एक भयानक ढाँचा था जिसके बदन पर चमड़े का नाम-निशान भी न था और जिसके खुले हुए जबड़े के बड़े-बड़े दाँत डर पैदा करने वाली हँसी हँस रहे थे। इस भयानक मूरत के एक हाथ में तो एक टूटी हुई तलवार थी और दूसरे हाथ में वह एक दीया लिए हुए था जिसकी टिमटिमाती हुई रोशनी में वह भयानक नर-कंकाल और भी डरावना मालूम हो रहा था।

इस खौफनाक आसेब को देखते ही मुन्दर और गौहर का तो यह हाल हो गया कि काटो तो बदन से लहू न निकले। उस पर वार करना तो दूर उनके छुरे हाथ से छूट खनखानाते हुए जमीन पर गिर पड़े और दोनों चीखती हुई गुफा के बाहर भागीं। यह देखते ही उस हड्डियों के ढांचे के मुँह से एक भयावनी हँसी निकली जिससे वह गुफा एकदम गूँज उठी। भागने वालियाँ और भी तेजी से भागी और उसी समय उस नर-कंकाल ने अपने हाथ का दीया जमीन पर गिरा दिया जिससे गुफा में फिर अँधेरा छा गया।

अँधेरे ही में ठोकरें खाती हुई मुन्दर और गौहर धड़कते हुए कलेजे के साथ गुफा के बाहर निकलीं मगर दूर न जा सकीं। गुफा के बाहर दो मजबूत आदमी ख़ड़े थे जिन्होंने उन्हें कस कर पकड़ लिया, उनके बचे हुए होश-हवास भी जाते रहे और वे चीखें मारकर बेहोश हो गईं।

भूतनाथ तेरहवें भाग के सातवें बयान में हमने इस घटना का हाल लिखा है, इससे पाठक यह तो समझ ही गए होंगे कि जिन दो आदमियों को घनश्याम और रामू आदि ने पकड़ा था और शिवदत्तगढ़ की तरफ ले भागे थे वे ये ही दोनों गौहर और मुन्दर थीं, घनश्याम और रामू वगैरह कौन थे यह हम यहाँ न बतावेगें। उनका हाल आगे चलकर पाठकों को आप ही मालूम हो जाएगा।

जिस समय ये लोग उन दोनों को उठा ले भागे उसी समय अपने शागिर्द को लिए भूतनाथ उस जगह पहुँचा मगर उसे कुछ देर हो गई थी। जिससे उसका शिकार दूसरे के हाथों में पड़ चुका था। वह बोल उठा, ‘‘ मुझे देर हो गई जिससे काम बिगड़ गया। खैर कोई हर्ज नहीं, क्या कोई भागकर भूतनाथ से बच सकता है!!’’

कुछ देर भूतनाथ वहीं खड़ा इस बात पर गौर करता रहा कि वे दोनों नकाबपोश कौन हो सकते हैं और जो लोग उन्हें पकड़ ले गए वे भी कहाँ के आदमी होंगे, मगर उसके दिमाग ने कुछ काम न किया, लाचार वह वहाँ से हटा और कुछ सोचता-विचारता इन्द्रदेव के कैलाश-भवन की तरफ रवाना हुआ। उसकी वहाँ उनसे जो कुछ बातें हुईं वह हम ऊपर लिख आए हैं।

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