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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


श्यामा के मकान से निकल कर भूतनाथ सीधे अपने मकान अर्थात नानक की माँ जहाँ रहती थी उधर को रवाना हुआ।

भूतनाथ ने रामदेई के लिए काशी में जो मकान ठीक किया हुआ था उसमें वह बहुत ही इज्जत और शान के साथ रहती थी। खूब आलीशान मकान, जरूरत बल्कि ऐश की सभी चीजों से अच्छी तरह सजा हुआ था दरवाजे पर नौकर-चाकर और पहरेदारों तथा घर में लौंडियों की भी कमी न थी और सरसरी निगाह से देखने पर यही जान पड़ता कि यह किसी अमीर या ओहदेदार का मकान है, इतना जरूर था कि वह मकान कुछ गली के अन्दर पड़ता था।

मगर यह भी भूतनाथ की इच्छानुसार ही था जो अपना यहाँ आना-जाना बहुत गुप्त रखता था। साधारण रीति से वहाँ के अड़ोसी-पड़ोसी यही जानते थे कि वह किसी रियासत का कोई ऊँचा ओहदेदार है और नौकरी से छुट्टी लेकर कभी-कभी आ जाता है। इस बात का पता कि वह ऐयार है और ऐयार भी कौन? भयानक और नामी ऐयार गदाधरसिंह, बहुत कम आदमियों को मालूम था। भूतनाथ का लड़का नानक इसी मकान में रहा करता था और यहाँ उसकी पढ़ाई-लिखाई और हिफाजत का बहुत अच्छा इन्तजाम था।

जब कभी रामदेई को भूतनाथ अपने साथ लामाघाटी या किसी दूसरी जगह ले जाता था तो नानक उस समय अकेला ही इस मकान में रहता था क्योंकि एक तो नानक होशियार हो गया था दूसरे भूतनाथ अपने असली भेदों को उस पर प्रकट होने देना नहीं चाहता था।

श्यामा के मकान से निकल भूतनाथ इस मकान में पहुँचा जहाँ रामदेई राह देख रही थी। उसने इसे बड़ी खातिरदारी के साथ लिया और सफर का हालचाल तथा इतने दिन गायब रहने का सबब पूछा जिसके जवाब में भूतनाथ ने कोई बनावटी बात गढ़ कर सुना दी और यह भी कहा कि किसी जरूरी काम से रोहतासगढ़ जा रहा है सिर्फ उससे मिलने ही यहाँ आया है।

रात के समय जब भूतनाथ भोजन इत्यादि से निवृत्त होकर लेटा तो रामदेई उसके पाँव दबाने लगी। साथ ही साथ दोनों में बातचीत भी होने लगी।

राम० : आपने उस विषय में क्या किया जिसके लिए वादा किया था कि काशी जाऊँगा तो जरूर पूरा करूँगा।

भूत० : वह क्या?

राम० : वही तिलिस्मी किताब! आपने कहा था कि इस बार वह किताब लाकर तिलिस्म की सैर जरूर करा देंगे।

भूत० : ठीक है, मुझे याद आया, मैं वादा कर चुका हूँ, तो उस काम को पूरा तो करूँगा ही, मगर एक बार फिर मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम इस फेर में मत पड़ो। तिलिस्मी मामलों में दखल देना हमारे-तुम्हारे ऐसे मामूली आदमियों का काम नहीं है। वह बड़ी भयानक जगह होती है और वहाँ कदम-कदम पर जान जोखिम रहती है। अभी इसी दफे मैं जरा-सा चूक गया और ऐसी तवालत में पड़ गया कि बस जान जाने में कुछ ही कसर रह गई थी!

राम० : (चौंक कर) सो क्या! आप किसी मुसीबत में पड़ गये थे?

भूत० : हाँ, कुछ पूछो नहीं, जमानिया से यहाँ आने के रास्ते ही में एक कूआँ पड़ता है जिस पर मैं अक्सर सुस्ताने और जल पीने के लिए रुक जाया करता हूं।

मुझे कुछ भी पता न था कि उस कूएँ को तिलिस्म से कोई सरोकार है पर इस बार मालूम हो गया कि बात ऐसी ही है।

राम० : (आश्चर्य से) क्या हुआ जरा मैं तो सुनूँ?

भूतनाथ ने बात टालनी चाही परन्तु रामदेई ने इतनी जिद्द की कि कुछ उलटफेर के साथ उसने इस तरह वह हाल सुनाना शुरू कियाः-

भूत० : यहाँ से जमानिया के रास्ते पर वह कूआँ बहुत ही बड़ा और आलीशान है और उसमें अथाह पानी है, पानी मीठा भी बहुत है और आस-पास पेड़ों की घनी छाया होने के कारण मुसाफिर अक्सर खास कर गर्मियों में कुछ घण्टे वहाँ काटा करते हैं जिससे कभी-कभी अच्छी चहल-पहल हो जाती है। इस बार मैं उस जगह पहुँचा तो रात हो गई थी। मेरी तबीयत हुई कि रात इसी कूएँ पर बिताऊँ और खतरनाक जंगल को सुबह होने पर काटूँ। यही सोच मैं उस कूएँ की तरफ बढ़ा मगर कुछ दूर ही था कि गाने की आवाज सुन पड़ी और देखा तो मालूम हुआ कि कूएं की जगत पर एक औरत बैठी गा रही है।

राम० : (ताज्जुब से) औरत!

भूत० : हाँ।

राम० : (कौतूहल से) अच्छा तब?

भूत० : मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि रात के वक्त इस सूनसान भयानक जंगल में अकेले बैठी बेडर गाने वाली वह कौन है, और उसे देखने के विचार से मैं कुछ नजदीक होकर एक पेड़ की आड़ में हो गया।

यकायक वह अपनी जगह से उठी और कुएँ के पास जा अन्दर झाँक कर बोली, ‘‘कूपदेव मुझे पानी तो पिलाओ!!’’ इतना कहने के साथ ही उस कूएँ के अन्दर से एक हाथ निकला जिस पर पानी से भरा हुआ एक चाँदी का कटोरा रक्खा था।

राम० : हैं, यह आप क्या कह रहे हैं!!

भूत० : मैं बहुत ठीक कह रहा हूँ, उस औरत का हुक्म पाते ही उस कूएँ में से एक हाथ पानी लिए हुए निकल पड़ा।

राम० : बड़े ताज्जुब की बात है! अच्छा तब?।

भूत० : पानी पीकर वह औरत फिर अपने ठिकाने आ बैठी गाने लगी।

मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ, यहाँ तक कि मैं अपने को रोक न सका और उससे कुछ पूछने के इरादे से उसके पास जा पहुँचा।

राम० : (मुस्करा कर) सच कहिए, क्या वह औरत खूबसूरत थी?

भूत० : (हँस कर) हाँ, बड़ी ही खूबसूरत और नौजवान भी! यही कोई पैंतालीस बरस की!

राम० : ओह, अच्छा तब क्या हुआ?

भूत० : मगर मुझे पास आते देखते ही वह उठ खड़ी और चिल्ला कर कूएँ में कूद गई।

राम० : हैं! फिर!!

भूत० : मुझे यह देख और ताज्जुब हुआ। मैं कूएँ में झाँक कर देखने लगा कि यह औरत क्या अपनी जान देने के लिए उसमें कूद गई है या उसके अन्दर कहीं कोई सुरंग या छिपी जगह है, मगर मेरे ताज्जुब का कोई हद्द न रहा जब मैंने देखा कि कूआँ सूखा पड़ा है और नीचे जमीन तक दिखाई पड़ रही है। मुझसे यह देखा न गया और मैं कमन्द लगा कर कूएँ में उतर गया। भीतर उतर के देखता क्या हूँ कि सतह के पास इधर-उधर कितनी ही सुरंगें बनी हुई हैं।

राम० : (आश्चर्य से ) कूएँ में सुरंगें!!

भूत० : हाँ, और मैं उसमें से एक के अन्दर घुस गया, घुसने के साथ ही पीछे का दरवाजा बन्द हो गया और मैं उस जगह कैद हो गया।

राम० : राम राम!! तब क्या हुआ? आप कैसे छूटें?

भूत० : मैं आगे की तरफ बढ़ा और बहुत दूर जाने के बाद एक मकान में पहुँचा। वहाँ एक बाबाजी से मुलाकात हुई, उन्होंने बड़ी कृपा कर मुझे उस जगह से बाहर निकाला नहीं तो कोई उम्मीद जीते बाहर आने की न थी।

राम० : ओफ ओह, यह तो बड़े ताज्जुब की बात आपने सुनाई, मैं तो सुन कर डर गई! मगर क्या इससे आप समझते हैं कि वह कुआँ भी कोई तिलिस्मी है?

भूत० : यदि तिलिस्म नहीं तो तिलिस्म से कोई-न-कोई सरोकार तो उससे जरूर ही है क्योंकि बाहर निकलने के बाद पुनः लौट कर जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा फिर पहिले की तरह अथाह पानी भरा है, आखिर मैं पुनः कभी उस कूएँ पर न जाने की कसम खाके वहाँ से हटा और सीधा तुम्हारे पास चला आ रहा हूँ।

भूतनाथ ने बहुत कुछ उलट-फेर के साथ जो किस्सा रामदेई को सुनाया उससे उसे यकीन था कि तिलिस्म देखने का उसका विचार बदल जायगा मगर असर इसका उलटा ही हुआ। रामदेई के मन में तिलिस्म देखने की अभिलाषा और भी जाग उठी और उसने निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो एक बार तिलिस्म की सैर जरूर ही करूँगी। वह बोली, ‘‘राजा बीरेन्द्रसिंह के पास जो किताब है वह भी तो किसी तिलिस्म का ही हाल-चाल बताती है?’’

भूत० : सुनने में तो यही आता है कि राजा साहब को चुनार का तिलिस्म तोड़ने पर यह किताब हाथ लगी थी और उसमें किसी दूसरे बहुत ही भयानक और विचित्र तिलिस्म का हाल लिखा हुआ है।

रामदेई० : ऐसा? तब तो आप मुझे जरूर ही एक बार उसे दिखा दीजिए!!

भूत० : अरे! अभी न मैंने तुम्हें सुनाया कि तिलिस्म कैसी भयानक जगह होती है और फिर तुम वही बात कहती हो?

राम० : (जिद्द के साथ) नहीं नहीं, आपकी बातें सुन कर तो मेरा शौक और भी बढ़ गया! अब आप जैसे भी हो सके मुझे तिलिस्म दिखा ही दीजिए, मैं बिना देखे न मानूँगी!!

भूतनाथ ने तरह-तरह की बातें कह कर रामदेई का मन इस तरफ से हटाना चाहा मगर वह तो एकदम ही मचल गई और बच्चों की तरह जिद्द कर बैठी कि चाहे जो भी हो तिलिस्म देखूँगी ही, आखिर जब उसने रोना शुरू कर दिया तो भूतनाथ अपने को सम्हाल न सका क्योंकि इसमें शक नहीं कि वह रामदेई को बहुत ही ज्यादा प्यार करता था और कोई भी आदमी, खास करके जो अपने को बहादुर लगाता हो अपनी प्रेयसी के आँसू बर्दाश्त नहीं कर सकता फिर भूतनाथ तो अपने को सिर्फ बहादुर ही नहीं परले सिरे का ऐयार भी मानता था।

उसने रामदेई को समझाने की कोशिश की पर उसने झुँझला कर भूतनाथ का हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘जाइये हटिये! मैं समझ गई कि आप कितने बहादुर और कैसे नामी ऐयार हैं! अपने मुँह मियाँ मिट्ठू तो सभी बना करते हैं, लेकिन कुछ करके दिखाने वाला मुश्किल निकलता है। आपकी ऐयारी की हद्द बस मैं जान गई। जाइए, जाइए, औरतों के हाथ की मार खाइये और दारोगा की गालियाँ सुनिये।

मेरी भला आप क्यों सुनेंगे? मैंने गलती की जो आपकी इस प्रतिज्ञा पर विश्वास किया कि ‘मैं जरूर वह किताब लाकर तुम्हें तिलिस्म की सैर कराऊँगा’, मैं जान गई कि राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के डर के मारे आप वह किताब नहीं लाते!!’’

इतना सुनते ही भूतनाथ तैश में आ गया क्योंकि वह सब कुछ बर्दाश्त कर सकता था मगर अपनी ऐयारी में बट्टा या बहादुरी में कलंक लगना नहीं बर्दाश्त कर सकता था। रामदेई की बात सुन वह दमक उठा और चमककर बोला, ‘‘जब तुम यह समझती हो कि मैं डर के सबब से या बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का खौफ खाकर वह किताब नहीं ला रहा हूँ तो लो, अब जैसे होगा वैसे मैं उसे तुम्हारे हाथ में लेकर दम लूँगा।’’

रामदेई ने खुशी के भाव को छिपाते हुए कहा, ‘‘जाइए-जाइए, आपकी बात पर अब मैं यकीन नहीं करती! आप रोज ऐसे ही झूठे वादे करके मुझे फुसला दिया करते हैं!’’

भूत० : नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ कि वह किताब तुम्हारे हाथ में लाकर दे ही दूँगा और उसके बाद अगर तुम्हारी तबीयत तिलिस्म की सैर करने की हुई तो वह भी करा दूँगा!!

रामदेई : (खुशी के साथ) क्या तुम सच कहते हो?

भूत० : हाँ, तुम्हारी कसम सच कहता हूं।

रामदेई : (नखरे से) मेरी कसम क्यों खाते हो, क्या मैं कुछ फिजूल की आई हुई हूँ!

अगर सचमुच ही अपना वादा पूरा करना है तो अपना खंजर हाथ में लेकर खाओ तब मुझे विश्वास हो,--नहीं तो मैं आपकी कसमों पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं करने की! आप दुर्गा की शपथ खाइए और यह भी कि कितने दिन के अन्दर यह काम करेंगे?

भूत० : अब तुम मुझसे दुर्गा की कसम तो न खिलवाओ, पर मैं तुमसे कहता हूँ कि जरूर अपना वादा पूरा करूँगा।

राम० : (सिर हिलाकर) मैं मानती ही नहीं, यह आप उससे कहिए जिसे आप पर विश्वास हो!!

आखिर रामदेई की जिद्द से लाचार भूतनाथ को उसी समय उसके कहे मुताबिक खंजर हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि वह एक महीने के अंदर बीरेन्द्रसिंह के महल से तिलिस्मी किताब (रिक्तगन्थ) लाकर रामदेई को तिलिस्म की सैर करा देगा। तब रामदेई का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया और इसके बाद दोनों में दूसरे तरह की बातें होने लगीं।

दूसरे दिन दो घंटा सूरज डूबने के बाद भूतनाथ अपने घर से बाहर निकला और श्यामा के मकान की तरफ रवाना हुआ, मगर इस समय इतने तरह के खयालात उसके मन में चल रहे थे और उनमें वह इस कदर डूबा हुआ था कि वह किधर जा रहा है इसकी भी उसे होश न थी। फिर भी वह ठीक रास्ते पर था और थोड़ी देर बाद जब उसने गौर के साथ चारों तरफ निगाह की तो अपने को उस तिरमुहानी पर पाया जहाँ से एक पतली गली सीधी श्यामा के मकान के पास निकल गई थी।

भूतनाथ उस गली में घुसा मगर मुश्किल से दस ही बारह कदम रक्खे होंगे कि इसे मालूम हो गया कि वह गली में अकेला नहीं है बल्कि उसके आगे आगे दो आदमी और भी चले जा रहे हैं। चूँकि इस गली में दिनरात के वक्त भी मुसाफिरों और चलने वालों का अभाव ही रहता था, क्योंकि इसमें मकान ज्यादा न थे, इसलिए भूतनाथ कौतूहल के साथ सोचने लगा कि ये लोग कौन हैं और किस जगह या किस आदमी की खोज में हैं। मगर उसको बहुत ताज्जुब हुआ जब उसने देखा कि ये आदमी ठीक उसी मकान के नीचे जाकर खड़े हो गए जो श्यामा का था और जिसमें वह पिछले कई दिन श्यामा के साथ काट चुका था।

तुरंत ही भूतनाथ के शक्की दिमाग में तरह-तरह के खयाल दौड़ने लगे और वह आगे बढ़कर उन लोगों के पास पहुँचने के बजाय पीछे हटकर एक तरफ आड़ में हो गया और गौर से इन दोनों की कैफियत देखने लगा। जहाँ पर वह था वहाँ से उन दोनों की बातचीच तो सुनायी नहीं पड़ सकती थी मगर वे लोग जो कुछ करते वह साफ दिखाई पड़ सकता था क्योंकि एक खुली खिड़की की राह आती हुई रोशनी उन दोनों ही पर पड़ रही थी।

भूतनाथ के सामने ही उन आदमियों में से एक ने एक ऊपर खिड़की की तरफ इशारा करके कुछ बताया और दूसरे ने उसे सुन अपने जेब से एक सीटी निकालकर होंठों से लगाई मगर बजाने न पाया था कि पहले आदमी ने हाथ बढ़ाकर सीटी उसके मुँह पर से हटा दी और कान में कुछ कहकर अपने हाथ की कोई चीज उसे दिखलाई। दोनों में कुछ बातें हुईं और तब वह चीज श्यामा वाले मकान के दरवाजे के अन्दर डाल वे दोनों पीछे की तरफ लौट पड़े।

भूतनाथ को उनकी कार्रवाई पर बहुत ताज्जुब हुआ और वह इस फिक्र में पड़ गया कि इस बात का पता लगाए कि ये दोनों आदमी कौन हैं और श्यामा के मकान पर क्या करने आये या क्या कर चले हैं। अस्तु जैसे वे दोनों उसके बगल से गुजरे उसने आगे बढ़ कर एक-एक कलाई उन दोनों ही की पकड़ ली और डपट के पूछा ‘‘ तुम लोग कौन हो और उस दरवाजे पर खड़े क्या कर रहे थे?’

यकायक भूतनाथ को सामने देख एक दफे तो वे घबड़ा गये मगर फौरन ही अपने पर काबू कर एक ने कड़े स्वर से कहा, ‘‘हम लोग कोई हों तुम्हें इससे क्या मतलब! तुम हमसे जवाब तलब करने वाले कौन?’’

भूतनाथ ने कड़े स्वर में कहा, ‘‘मेरा नाम गदाधरसिंह है और मैं तुम दोनों का असली हाल जाने बिना किसी तरह तुम्हें छोड़ नहीं सकता।’’

भूतनाथ को उम्मीद थी कि उसका नाम सुनते ही ये दोनों डर जायेंगे और नर्म पड़ कर सब हाल सुना देंगे मगर उन पर इसका असर उलटा ही हुआ। इसकी बात सुनते ही वे दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े और एक ने कहा, ‘‘ओहो, गदाधरसिंह तुम्हीं हो! तब तो हम लोग बड़ी खुशी से अपना हाल सुनावेगें क्योंकि तुम्हीं को खोजते हुए तो यहाँ तक आए ही थे!’’

भूत० : (कुछ ताज्जुब से) अच्छा तो बताओ तुम कौन हो?

एक० : अच्छा सुनो, लेकिन डरना नहीं। हिम्मत के साथ सुनना, मैं अपना परिचय तुम्हें देता हूँ। मैं वह अँधेरी रात हूँ जिसमें भयानक काम किये जाते हैं, मैं वह जहर से बुझी कटार हूँ जिससे रिश्तेदारों का खून किया जाता है, मैं वह भयानक दगा हूँ जिसकी मदद से दोस्त मौत के घाट उतारे जाते हैं और मैं वह काला साँप हूँ।

दूसरा० : (पहिले को रोककर) अब मुझे भी अपना कुछ परिचय दे लेने दो! सुनो गदाधरसिंह! मैं वह जमींदोज कोठरी हूँ जिसमें दोस्त और रिश्तेदार मार डालने के बाद दफना दिये जाते हैं। मैं वह दौलत हूँ जो ऐसे दुष्कर्म करके मिलती है, मैं वह हीरे का कंठा हूँ जो बेकसूरों की जान लेने पर...

पहिला० : (दूसरे को रोक कर) और मैं वह दिल का दाग हूँ जो इन कामों का फल है, मैं वह नरक की आग हूँ जो इन दुष्कर्मों का इनाम है, और मैं वह काली परछाई हूँ जो ऐसा काम करने वालों का साथ घड़ी भर के लिए भी नहीं छोड़ती।

भूत० : (ताज्जुब के साथ, जिसके साथ कुछ घबराहट और बेचैनी भी मिली हुई मालूम होती थी) आखिर इन पहेलियों का मतलब क्या है? तुम लोग साफ क्यों नहीं बताते कि तुम कौन हो!

दूसरा० : क्या तुम्हें अभी तक नहीं मालूम हुआ कि हम लोग कौन हैं! अच्छा तो मैं और भी साफ तौर पर परिचय देता हूँ। क्या तुम्हें उस जगह की याद है जहाँ भयानक नरपिशाच की मूरत बैठी हुई थी? क्या तुम्हें वह चिल्लाहट याद है जो मासूम औरत के लाचार गले से निकली थी? और क्या तुम्हें वह गुप्त रास्ता याद है जो इस खून के बाद हमेशा के लिए बन्द कर दिया गया?

भूत० : (जिसकी आवाज से साफ जान पड़ता था कि घबड़ा गया है) मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि यह क्या बेसिर-पैर की बातें तुम कर रहे हो और इनके कहने का नतीजा क्या है?

पहिला० : बेसिर-पैर की बातें? क्या वह तलवार फजूल थी जिससे उस बेचारी की गरदन काटी गई? क्या वह हीरे का कंठा फजूल था जिसे यह काम करके तुमने पाया, क्या वे कई लाख के तोड़े फजूल थे जो रवाना होते वक्त तुम्हारी सवारी के साथ कर दिये थे? या क्या वह अँगूठी फजूल थी जिसका नग किसी मरने वाले के खून की तरह लाल था।

भूत० : (जिसकी बेचैनी और बदहवासी बढ़ती जा रही थी) मालूम होता है कि तुम लोग किसी गुप्त घटना की तरफ इशारा कर रहे हो! मगर खैर, मैं यह सब दास्तान सुनना नहीं चाहता बल्कि तुम्हारे नाम जानना और सूरतें देखना चाहता हूँ।

दूसरा० : अच्छा पहिले मैं अपना नाम सुनाता हूँ, मगर देखो जरा सम्हले रहना, घबड़ा न जाना! मेरी नाम सेठ चंचलदास है! है, यह तुम्हारी क्या हालत हो रही है! तुम काँप क्यों रहे हो?

पहिला० : और मेरा नाम सुनोगे? मुझे लोग कहते है...

भूतनाथ की तरफ झुक कर धीरे से उस आदमी ने न-जाने क्या कह दिया कि भूतनाथ एकदम ही चिहुंक पड़ा, दूसरे ही क्षण उसकी यह हालत हो गई कि काटों तो बदन से लहू न निकले, एकदम सकते की-सी हालत में खड़ा वह नीचा सिर किए न-जाने क्या सोचने लगा वे दोनों आदमी उसकी यह हालत देख मुस्कुराने और कुछ देर चुप रहने बाद बोले-

एक० : क्यों गदाधरसिंह तुम चुप क्यों हो गए? क्या कुछ सोच रहे हो?

दूसरा : या किसी गुजरे हुए जमाने की याद ने तुम्हारा सिर नीचा कर दिया है।

भूतनाथ ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, ‘‘ तुम लोग चाहे कोई भी हो मगर इसमें शक नहीं कि वह भयानक भेद जिसे मैं बरसों से अपने दिल के अन्दर छिपाए हुए था किसी तरह पर तुम लोगों को मालूम हो गया है, लेकिन खैर, गदाधरसिंह मुर्दा नहीं हो गया है, अभी उसमें अपने दुश्मनों से बदला लेने की ताकत है। अभी भी उसके हाथ मजबूत हैं, अभी भी उसमें तुम लोगों को अपने काबू में कर लेने की ताकत है। (डपट कर) सच बताओ कि तुम कौन हो और यह भेद तुम पर कैसे प्रकट हुआ?’’

एक० : (हँस कर) हम इतना कह गये और तुम यह भी जान न सके कि हम कौन हैं! अच्छा मैं अपना और कुछ परिचय तुम्हें देता हूँ, भयानक रात एकदम काले बादलों से ढंकी हुई थी जिस समय वह सांढ़नी सवार उस बेचारी औरत को लेकर...

भूत० : (डरता हुआ मगर डाँट कर) चुप रहो, व्यर्थ की बकवाद न करो, तुम अपना असली नाम बताओ और सूरत मुझे दिखाओ, ठहरो मैं रोशनी करता हूँ।

दूसरा० : तुम तकलीफ न करो, हम लोग खुद ही अपनी शक्ल तुम्हें दिखाया चाहते हैं ताकि तुम्हें अपने पिछले पाप याद आ जायँ और मरने के पहिले तुम जान जाओ कि बुरे कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है।

कहते हुए उस आदमी ने अपने कपड़ों के अन्दर हाथ डाला। भूतनाथ चौकन्ना हुआ कि शायद वह कोई हथियार निकाल कर उस पर वार करे और इसीलिए उसका भी हाथ अपने खंजर पर गया, मगर ऐसा न हुआ। उस आदमी ने अपनी कमर से सामान निकाल कर एक मोमबत्ती बाली जिसकी काँपती हुई रोशनी उनके चेहरों पर पड़ी जिन पर नकाबें पड़ी हुई थीं। उन दोनों ने भूतनाथ को कोई सवाल करने का मौका न दिया। रोशनी होने के साथ ही एक ने अपने चेहरे की नकाब हटाई और भूतनाथ से कहा, ‘‘लो पहिले मेरी सूरत देखो!’’

भूतनाथ ने ताज्जुब और गौर की निगाह उसके चेहरे पर डाली और इसके साथ ही झिझक कर दो कदम पीछे हट गया। टूटे-फूटे रूप में ये शब्द उसके मुँह से निकले, ‘हैं! तुम यहाँ! तब क्या सचमुच ही वह गुप्त भेद प्रकट हो गया! नहीं नहीं, जरूर मेरी आँखें मुझे धोखा दे रही हैं! तुम्हें मरे बरसों हो गए! तुम यहाँ कैसे आ सकते हो!!’’

भूतनाथ ने दोनों हाथों से अपनी आँखें बन्द कर लीं और पीछे हट कर दीवार के साथ लग गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया था, बदन काँप रहा था और वह लम्बी साँसे ले रहा था। उसकी हालत देख उन दोनों आदमियों ने एक-दूसरे की तरफ देख इशारे में कुछ बात की और तब वह दूसरा आदमी बोला, ‘‘लो होशियार हो जाओ, अब मैं अपनी सूरत दिखाता हूँ।’’

भूतनाथ ने अपने काँपते हुए हाथों को हिला कर कहा, ‘‘नहीं-नहीं, अब मैं कोई सूरत देखना नहीं चाहता! मैं समझ गया कि तुम कौन हो!’’

परन्तु वह आदमी बोला। ‘‘नहीं सो नहीं होगा, जब तुमने मेरे साथी की सूरत देखी है तो मेरी भी देखनी होगी! लो सम्भलो!’’कह कर उसने भी अपने चेहरे पर की नकाब अलग कर दी। उस पहिले आदमी की सूरत ने तो भूतनाथ को बदहवास कर ही दिया था अब इस दूसरी शक्ल ने उसके रहे-सहे होशहवास भी गुम कर दिए। घबराहट में भरे हुए ये दो-चार शब्द उसके मुँह से निकले-‘‘हैं! तुम भी जिन्दा हो? तब.... क्या सचमुच..  मेरी.... ओफ!.... अब मैं कहीं का .... हाय....।’’ और तब बेहोश होकर उसी जगह गिर गया।

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