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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


प्रभाकरसिंह को यकीन हो गया कि जिस औरत को उन शैतानों के हाथ में पड़ा हुआ देख रहे हैं वह मालती ही है। यह सोचते ही उनका गुस्सा भड़क उठा और वे तलवार के कब्जे पर हाथ रख उस तरफ लपके मगर उसी समय किसी ने पीछे से आकर उनके मोढे पर हाथ रख दिया जिससे वे यकायक चौंक पड़े। घूम कर देखा तो मालती! वे ताज्जुब से बोले, ‘‘हैं, तुम यहाँ!

मैंने तो समझा था कि तुम उन शैतानों के कब्जे में पड़ गई हो और इसीलिए तुम्हें छुड़ाने के खयाल से ही उधर जा रहा था!’’ मालती यह सुन बोली, ‘‘यही मैंने भी सोचा और इसी से आपको होशियार किया। मैं तो उसी समय से आपके साथ हूँ जब से आप इधर को चले। मुझे अकेले वहाँ रहते डर लगा अस्तु मैं भी आपके पीछे-पीछे चल पड़ी। वह कोई दूसरी ही औरत है जिसे वे सब ला रहे हैं!’’

दोनों एक पेड़ की आड़ में हो गये और देखने लगे।

कि अब वे शैतान किधर जाते या क्या करते हैं, उस छटपटाती हुई औरत को लिए वे लोग सीधे इधर ही आ रहे थे कि यकायक रुक गये जब उन्होंने देखा कि जिस मूरत को वे लोग पेड़ से उतार कर जमीन पर रख गये थे उसके सिर में से आग का एक बड़ा लुक उठा और आसमान की तरफ चला। प्रभाकरसिंह का भी ख्याल उस रोशनी की तरफ गया और जैसे ही वे घूमे उन्होंने देखा कि उस पुतली के सिर में से पुनः एक बार वैसा ही हुआ।

आग की पहली लबर को दूर से देखते ही वे सब शैतान रुक गये। जब दूसरी और तीसरी बार भी ऐसा हुआ तो वे सब के सब घबरा गये और एक के मुँह से निकला, ‘‘भागों भागों भागों, मालूम होता है तिलिस्म तोड़ने वाला यहाँ पहुँच गया!’’ उसके ऐसा कहने के साथ ही वे सब उस औरत को लिये जिधर से आये थे उधर ही को बेतहाशा भाग गये।

अब मालती और प्रभाकरसिंह के चित्त को कुछ शान्ति पहुँची, वे दोनों लौट कर उसी मूरत के पास चले गये और उससे थोड़ी दूर हट एक साफ जगह देख बैठ कर आपस में बातें करने लगे। थोड़ी-थोड़ी देर पर उस मूरत के सर से वैसी ही आग की लपटें उठती थीं और आसमान में जाकर गायब हो जाती थीं पर प्रभाकरसिंह को इस पर कोई आश्चर्य न था क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा होने ही वाला था।

लगभग दो घड़ी तक इसी तरह गुजर गई, इसके बाद यकायक उस मूरत के सिर से इस तरह की लपट निकलने लगीं जैसी अनार या फुलझड़ी के जलने पर उसके अन्दर से निकलती हैं। लगभग पाँच मिनट तक यह लपट निकलती रही और इसे देख कर प्रभाकरसिंह मालती को लिये अपनी जगह से हट कुछ दूर जाकर खड़े हो गये।

वे यहाँ से हटे ही थे कि यकायक उसी समय एक इतनी जोर की आवाज हुई कि जिसने कानों के पर्दे फाड़ दिये। मालूम हुआ मानों पचासों तोपों पर एक साथ बत्ती रख दी गई हो, भयानक आवाज ने इन दोनों का सर घूमा दिया और ये अपने हाथों से अपने-अपने कानों को बन्द कर वहीं बैठ गये। थोड़ी देर में जब सन्नाटा हुआ तो दोनों उठे और उस मूरत की तरफ चले।

पास पहुँचने पर देखा कि उस मूरत का कहीं नामनिशान भी नहीं है और जहाँ वह थी उसके सामने की तरफ जमीन में एक रास्ता दिखाई पड़ रहा है जिसके अन्दर उतर जाने के लिए पतली सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, ये लोग खुशी-खुशी नीचे उतर गये। बारह डंडा सीढ़ियाँ उतर जाने के बाद सुरंग दिखाई पड़ी जिसके अंदर अन्धकार था। अपने पास से सामान निकाल कर प्रभाकरसिंह ने रोशनी की और दोनों उस सुरंग के अन्दर घुसे।

यह सुरंग बहुत ही लम्बी और इधर-उधर घूमती-फिरती न-जाने कहाँ तक गई हुए थी कि तय करने में इन लोगों को बहुत समय लग गया साथ ही ये गर्मी से बहुत परेशान हो गये क्योंकि इस सुरंग में साफ हवा आने वाले मोखे बहुत दूर-दूर पर थे जिससे यहाँ की हवा गर्म और कुछ भारी मालूम पड़ती थी। आखिर किसी तरह सुरंग खतम हुई और इन लोगों ने अपने को एक छोटे दालान में पाया जिसके सामने एक खूबसूरत बाग दिखाई पड़ रहा था। शाम का वक्त हो गया और सूरज डूबना ही चाहता था।

इस बाग को एक निगाह देखते ही मालती ने इसे पहिचान लिया क्योंकि यह वही जगह थी जहाँ इन्द्रदेव का साथ छूटने पर उसने अपने को होश में पाया था। वह लोहे वाला ऊँचा खम्भा और उसके ऊपर वाली बारहदरी जिसमें वह कैद थी सामने दिखाई पड़ रही थी। उसने यह बात प्रभाकरसिंह से कही और उस ऊँची गोल बारहदरी की तरफ दिखा कर बोली, ‘‘यह वही गोल बारहदरी है जिसमें इन्द्रदेवजी से अलग होने पर मैंने अपने को पाया था!’’

प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘और मेरी समझ में शायद यही वह जगह भी है जिसका जिक्र तिलिस्मी किताब में घूमने वाली बारहदरी के नाम से किया गया है, मगर यह बारहदरी घूमती-फिरती तो कुछ भी नहीं, खैर जो कुछ होगा देखा जायगा। अब आज की रात तो इसी दालान में काटनी चाहिए क्योंकि एक तो इस लम्बे सफर ने हमें एकदम थका दिया है दूसरे संध्या भी हो चली है, अब कुछ काम करने का वक्त नहीं रहा।’’ प्रभाकरसिंह और मालती ने उसी दालान को अपना डेरा समझा और जरूरी कामों से निपटने की फिक्र में लगे। खोजने से बाग में एक छोटी बावली मिल गई जिसके साफ पानी में इन लोगों ने मुँह-हाथ धोया और पीकर प्यास दूर करने के बाद आवश्यक कामों की फिक्र में लगे।

प्रभाकरसिंह ने स्नान कर संध्या-पूजा की और तब मालती के लाये हुए कुछ फलों से अपनी भूख शान्त कर उसी बारहदरी में अपना दुपट्टा बिछा कर लेट रहे। मालती ने भी उनसे कुछ हट कर अपना आसन लगाया। दोनों थके हुए थे इससे जल्दी ही नींद आ गई।

वह रात उन लोगों ने निर्विघ्न काटी और दूसरे दिन सूर्योदय के पहिले नित्य कर्म से निश्चिन्त हो गये। प्रभाकरसिंह ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़कर मालती को सुनाने लगे।

यह काम आधे घण्टे तक जारी रहा और आज जो कुछ करना था उसकी कार्रवाई जब अच्छी तरह प्रभाकरसिंह के जेहन में बैठ गई तथा मालती भी समझ चुकी तो प्रभाकरसिंह ने किताब बन्द करके जेब में रक्खी और अपना तिलिस्मी डण्डा सम्भाल उठ खड़े हुए। आगे-आगे प्रभाकरसिंह और उनके पीछे मालती वहाँ से उठ कर उसी गोल बारहदरी के पास पहुँचे।

जैसाकि हम पहले लिख आये हैं यह बारहदरी कोई बीस हाथ ऊँचे एक लोहे के खम्भे पर बनी हुई थी जो मोटाई में पाँच हाथ से किसी तरह कम न होगा। यह लोहे का खंभा सब तरफ से एकदम चिकना और साफ था और इसमें कहीं भी कोई दरवाजा या रास्ता दिखाई नहीं पड़ता था तथा इसी के ऊपर वह काले पत्थर की बाहरदरी थी जिसमें मालती ने अपने को पाया था। हम यह भी लिख आये हैं कि इस बारहदरी के ऊपर की तरफ एक घरहरा–सा बना हुआ था जिस पर किसी धातु का बना एक उकाब बैठा हुआ था।

प्रभाकरसिंह ने इस खम्भे के पूरब तरफ जाकर उसकी जड़ से पाँच हाथ जमीन नापी और अपने तिलिस्मी डण्डे की नोक से यहाँ की जमीन खोदनी शुरू की। जमीन बहुत सख्त थी और वह डंडा इस लायक नहीं था कि उससे मिट्टी खोदने का काम लिया जा सकता फिर भी अपने उद्योग और आधे घण्टे की मेहनत से प्रभाकरसिंह ने वहाँ हाथ भर लम्बा-चौड़ा और करीब दो हाथ गहरा एक गड्ढा कर डाला।

तब वे उसी गढ़े में उतर गए और पैरों से उसकी सतह में कुछ खोजने लगे। खोजते-खोजते एक कोने में उनके पैर से कोई चीज अड़ी और उन्होंने झुक कर उसे देखा।

पत्थर की सिल्ली नजर आई जिसके बीच में लगी कड़ी पकड़ उन्होंने उठाया। देखा तो नीचे एक छोटी सी जगह है जिसके अन्दर लगभग एक बालिश्त लम्बी सोने की एक ताली रक्खी हुई है, प्रसन्न होकर वह ताली उठा ली और देख-भाल कर मालती के हाथ में दे दी, इसके बाद गड्ढे के बाहर निकल आये।

अब दोनों पुनः उस खम्भे के पास पहुँचे। पूरब तरफ, खंभे की जड़ में जहाँ से नाप कर उन्होंने गढ़ा खोदा था, प्रभाकरसिंह गौर से देखने लगे। देखते-देखते एक जगह कुछ लिखा हुआ मिला जो धूल-मिट्टी से ढका होने के कारण सहज में पढ़ा नहीं जाता था। कुशल इतनी ही थी कि उस खंभे का लोहा कुछ ऐसा था कि जमाना गुजर जाने पर भी उसमें कहीं जंग का नाम-निशान न था अस्तु थोड़ी मेहनत में ही प्रभाकरसिंह ने उतनी जगह साफ कर ली और गौर से पढ़ कर देखा यह लिखा हुआ थाः-

ऊपर - दो हाथ सात अंगुल

बाएं - एक बालिश्त पाँच अंगुल

× - दाब, खोल।

कुछ देर तक प्रभाकरसिंह इस लिखावट पर गौर करते रहे इसके बाद मालती से बोले, ‘‘इसका आशय यह जान पड़ता है कि इस जगह से दो हाथ सात अंगुल ऊपर और वहाँ से एक बित्ता पाँच अंगुल बाईं तरफ नाप कर दबाने से रास्ता खुल जायगा।’’

ऐसा ही किया गया। प्रभाकरसिंह ने खंभे की जड़ से दो हाथ सात अंगुल ऊपर नापा और तब उस जगह से बाएं हाथ की तरफ एक बित्ता और पाँच अंगुल नाप कर उस जगह को अंगूठे से दबाया, उन्हें उम्मीद थी कि ऐसा करने से कोई रास्ता प्रकट हो जायगा परन्तु कुछ भी न हुआ।

पुनः नापा और फिर दबाया परन्तु कोई नतीजा न निकला, ताज्जुब के साथ उन्होंने पुनः उस लिखावट को पढ़ा और फिर उद्योग किया मगर नतीजा कुछ न निकला। वे कुछ ताज्जुब और निराशा के साथ अलग हट कर सोचने लगे कि यह क्या मामला है।

इसी समय मालती ने कहा, ‘‘ठहरिये जरा मैं तो उद्योग कर के देखूँ!’’ उसने अपने हाथ से उसी तरह नापा और उस जगह को अगूँठे से दबाया तुरन्त ही एक खटके की आवाज हुई उस जगह से लोहे का एक छोटा-सा टुकड़ा पीछे हट गया और वहाँ ताली लगाने लायक एक छेद दिखाई पड़ने लगा। मालती ने वही सोने की चाभी उस छेद में डाल घुमाया। एक हलकी आवाज हुई और सामने का कुछ भाग हट कर किवाड़ के पल्ले की तरह एक बगल को घूम गया।

अन्दर जाने के लिये पतली सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं जिन पर खुशी-खुशी आगे-आगे मालती और पीछे-पीछे प्रभाकरसिंह रवाना हुए। इनके भीतर जाते ही वह दरवाजा आप-से-आप इस तरह बन्द हो गया कि कहीं कोई निशान तक बाकी न रहा।

चक्करदार सीढ़िया चढ़ती हुई मालती बोली, ‘‘उस दिन मैं इन्ही सीढ़ियों की राह नीचे उतरी थी और इस दरवाजे को खोलने के लिए मुझे एक साँप के फन को दबाना पड़ा था। कौन ठिकाना यहाँ से बाहर होते समय फिर हम लोगों को वही कार्रवाई करनी पड़े।’’ प्रभाकरसिंह यह सुन बोले, ‘‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि तिलिस्मी किताब के कथनानुसार यही बारहदरी हम लोगों को ‘रत्न-मंडप’ तक पहुँचावेगी।’’

दोनों आदमी उस बारहदरी के ऊपर पहुँचे। यहाँ के फर्श में लाल रंग के चौकोर पत्थर जड़े हुए थे जिनमें बीच-बीच में जगह-जगह सुफेद पत्थर के कमल भी बने हुए थे।

प्रभाकरसिंह ने इधर-उधर देखा और कुछ गिन-गिना कर एक कमल के पास जाकर बोले, ‘‘यही कमल मालूम होता है।’’ मालती बोली, ‘‘जरूर यही है।’’ जिसे सुन प्रभाकरसिंह ने उसे अपने अंगूठे से दबाया जिसके साथ ही ऊपर की तरफ से एक खटके की आवाज आई।

सिर उठा कर देखा तो बारहदरी की छत में एक छेद दिखाई पड़ा जो हाथ भर से कुछ बड़ा ही होगा प्रभाकरसिंह यह देख बोले, ‘‘लो रास्ता तो बन गया, अब ऊपर पहुँचना चाहिए, मैं जमीन पर बैठ जाता हूँ तुम मेरे कन्धे पर खड़ी हो जाओ। मैं खड़ा होकर तुम्हें उस छेद तक पहुँचा दूँगा। तुम वहाँ पहुँच मुझे जरा सहायता देना, मैं ऊपर पहुँच जाऊँगा।’’

मालती ने कुछ संकोच के साथ कहा, ‘‘भला मैं आपके ऊपर पैर कैसे रख सकती हूँ!’’ जिसे सुन प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘ओह! यह सब फजूल बातें हैं, जरूरत पड़ने पर सभी कुछ करना पड़ता है!’’ मगर मालती ने इसे मंजूर न किया, आखिर प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘अच्छा तो तुम यहाँ आकर खड़ी होओ, मैं तुम्हें उठा कर वहाँ तक पहुँचाये देता हूँ!’’

इसमें शक नहीं कि प्रभाकरसिंह के बदन में ताकत भरपूर थी। जिस तरह कोई नौजवान किसी बच्चे को उठा लेता है उसी तरह उन्होंने मालती को दोनों हाथों से थोड़े ही उद्योग से उसे ऊपर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँच उसने अपनी चादर का एक सिरा ऊपर किसी चीज से बाँध बाकी भाग नीचे लटका दिया जिससे बात-की-बात में प्रभाकरसिंह भी ऊपर दिखाई देने लगे।

इस बारहदरी की छत ऊपर की तरफ से महराबदार बनी हुई थी और उसके बीचोबीच में करीब दो हाथ ऊँची एक लाट ऊपर की तरफ को उठ गई थी जिसके सिरे पर किसी धातु की एक उकाब की मूरत बनी हुई थी। प्रभाकरसिंह ने अपने कमर से कमरबन्द खोलते हुए कहा, ‘‘लो अब अपने को इस लाट से बाँधो और उकाब की गरदन उमेठो।’’

दोनों ने अपने को उस लाट के साथ खूब कस कर बाँध लिया और इसके बाद प्रभाकरसिंह ने हाथ ऊँचा कर उस उकाब की गर्दन को जोर से बाईं तरफ को उमेठ दिया, उमेठने के साथ ही उसके मुँह से एक तरह की चीख की आवाज निकली और साथ ही उसके पंख बड़े जोर से हिले। इसी समय प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ कि वह बारहदरी धीरे-धीरे घूमने लगी है।

बारहदरी के घूमने की तेजी क्षण-क्षण में बढ़ने लगी, कुछ ही देर बाद वह कुम्हार के चाक की तरह फिरने लग गई।

अगर इस समय नीचे से कोई इस बारहदरी को देखता तो जान जाता कि वह लोहे का खंभा जिस पर यह बारहदरी बनी हुई थी नहीं घूम रहा है बल्कि केवल उस बारहदरी के ऊपर वाली लाट ही घूम रही है जिसकी तेजी इतनी ज्यादे थी कि अगर प्रभाकरसिंह और मालती अपने को लाट के साथ बाँध न लिए होते तो जरूर छिटक कर दूर जा गिरते और जान से हाथ धोते।

घूमने की तेजी धीरे-धीरे बढ़ने लगी यहाँ तक कि प्रभाकरसिंह और मालती के सर में चक्कर आने लगे और अन्त में दोनों ही बेहोश हो गये।

जिस समय प्रभाकरसिंह होश में आए उन्होंने अपने को एक विचित्र ही जगह में पाया। उन्होंने देखा कि वे एक ऐसे कमरे में है जिसमें ऊपर-नीचे अगल-बगल चारों तरफ शीशे जड़े हुए हैं यहाँ तक कि जिसका फर्श भी शीशे ही का है, चारों तरफ कहीं कोई आला-आलमारी, खिड़की-मोखा या दरवाजे का नाम-निशान न था। इसकी छत भी एकदम चिकनी और एक बहुत ही बड़े शीशे के टुकड़े की बनी हुई जान पड़ती थी और चारों तरफ की दीवारें भी शीशे की थीं जिसमें कहीं भी जोड़ या दरार मालूम नहीं पड़ता था।

प्रभाकरसिंह ताज्जुब के साथ देखने लगे कि वह उस विचित्र कमरे में क्योंकर आ पहुँचे, मगर उसी समय उनका ध्यान मालती पर गया जो उनके पास ही बेहोश पड़ी थी मगर अब कुछ-कुछ चैतन्य हो रही थी। प्रभाकरसिंह की कोशिश से वह भी शीघ्र ही होश में आकर उठ बैठी और ताज्जुब के साथ अपने चारों तरफ देखने लगी।

कुछ देर तक वे चुपचाप रहे क्योंकि घूमने वाली बारहदरी की बदौलत दोनों ही के सिर में बेहिसाब चक्कर अभी तक आ रहे थे मगर जब धीरे-धीरे यह बात दूर हुई तो प्रभाकरसिंह ने मालती से कहा, ‘‘मालूम होता है कि हम लोग उसी ‘शीशमहल’ में आ पहुँचे हैं जिसका जिक्र तिलिस्मी किताब में है’’

मालती ने चारों तरफ ताज्जुब से देखते हुए कहा, ‘‘जी हाँ, यहाँ हम लोगों को अपने उद्योग से आगे जाने के लिए रास्ता पैदा करना पड़ेगा और बाहर होकर उस शेर पर काबू करना पड़ेगा जो हमें रत्न-मण्डप के दरवाजे तक पहुँचावेगा।

मगर ताज्जुब की बात यह है कि यहाँ इस बात का भी पता नहीं लग रहा है कि हम इस जगह पहुँचे किस तरह? चारों तरफ शीशा है जो बिल्कुल एक टुकड़ा जान पड़ता है। कहीं भी कोई जोड़ या निशान नहीं है।’’

प्रभा० : यही तो मैं सोच रहा हूँ। आखिर हम लोग यहाँ किसी रास्ते ही से तो आए होंगे? और जब उस घूमने वाली बारहदरी ने यहाँ तक हमें पहुँचाने के लिए रास्ता पैदा कर लिया तो हम लोग भी जरूर जाने के लिए रास्ता पैदा कर सकते हैं। अच्छा अब कोशिश करनी चाहिए, बैठे रहने से काम न चलेगा।

प्रभाकरसिंह उठे और इस फिक्र में चारों तरफ घूमने लगे कि शायद कहीं कोई दरवाजा, छेद या सूराख या पेंच-पुर्जा ऐसा दिख जाय जिसके जरिए इस कमरे से बाहर हुआ जा सके। मालती ने भी उनका साथ दिया और दोनों आदमी खूब गौर से सब तरफ देखते हुए उस कमरे-भर में घूमने लगे। मगर एक-एक चप्पा जमीन पर खूब बारीकी से देख जाने पर भी कहीं ऐसी जगह न पाई गई जहाँ यह संदेह भी किया जा सकता कि यहाँ से आगे निकल जाने का कोई रास्ता है अथवा यहाँ पर उद्योग कोई रास्ता पैदा कर सकेगा। आखिर हारकर दोनों आदमी एक जगह खड़े हो गए और बातचीत करने लगे।

मालती० : यहाँ तो कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता!

प्रभा० : बेशक, मगर रास्ता है भी जरूर, नहीं तो उस बारहदरी से यहाँ तक हम लोग पहुँचते ही क्योंकर?

मालती० : सो तो हई है! और फिर तिलिस्मी किताब भी साफ कह रही है कि इस जगह से आगे निकल जाने का रास्ता हम लोगों को खुद पैदा कर लेना होगा।

प्रभा० : एक बात है, अगर इस कमरे में साफ हवा के आने की कोई राह न होती तो यहाँ की हवा एकदम खराब हो जाती। मगर वैसा नहीं है और इसी से विश्वास करना पड़ता है कि यहाँ साफ हवा के आने-जाने के लिए कोई-न-कोई रास्ता जरूर बना हुआ है।

मालती० : बेशक यह बात तो आपने ठीक सोची। मेरा ख्याल है कि अगर कमरे के छत की हम लोग जाँच कर सकें तो वहाँ कोई-न-कोई सूराख जरूर मिलेगा!

प्रभा० : इसकी छत कितनी ऊँची है इसका तो कुछ पता ही नहीं लगता। सब तरफ शीशा ही शीशा होने से इतनी परछाइयाँ चारों तरफ पड़ रही हैं कि कुछ ठीक मालूम नहीं पड़ता।

प्रभाकरसिंह इस कमरे के छत की ऊँचाई जाँचने का उद्योग करने लगे। उन्होंने अपने दुपट्टे को लुपेट लुपाट कर उसका एक गेंद सा बनाया और छत की तरफ फेंका। उनके सिर से लगभग दो हाथ की ऊँचाई तक जाकर ही वह छत के साथ टकरा गया, मगर ताज्जुब की बात यह थी कि छत से टकरा कर वह दुपट्टा नीचे की तरफ वापस नहीं लौटा बल्कि उसी जगह चिपका रह गया।

प्रभाकरसिंह के साथ ही साथ मालती ने भी इस बात को ताज्जुब के साथ देखा और कहा,‘‘ यह क्या मामला है? क्या इस कमरे की छत में भी कोई विशेषता है?’’ प्रभाकरसिंह ने अपना कमरबन्द जो वहीं पड़ा था उठाया और उसे भी छत की तरफ फेंका, दुपट्टे की तरह वह भी जाकर चिपक गया। दोनों बड़े आश्चर्य और कौतूहल के साथ सोचने लगे कि आखिर यह क्या बात है मगर देर तक ख्याल दौड़ाने पर भी सिवाय इसके और कुछ न सोच सके कि इसकी छत में लासे की तरह कोई चीज लगी है जो चीज को चिपका रखती है और या फिर उसमें चुम्बक की तरह का ऐसा गुण है जो हर एक चीज को खींच रखने की सामर्थ्य रखता है।

आखिर प्रभाकरसिंह से न रहा गया, उन्होंने अपने दोनों हाथों की हथेलियाँ ऊपर की तरफ कीं और जोर से ऊपर को उछले, उनके हाथ उस कमरे की छत से जा लड़े और ताज्जुब की बात थी कि उस दुपट्टे और कमरबन्द की तरह उनके हाथ भी इस तरह वहाँ चिपक गये कि वे लौट कर नीचे न गिरे बल्कि उसी तरह हाथों के जरिए छत के साथ झूलने लगे।

प्रभाकरसिंह के मुँह से ताज्जुब की एक आवाज निकल गई और वे अपने हाथ उस छत से छु़ड़ाने के लिए उद्योग करने लगे। उन्होंने झटके दिए, नीचे को कूदने के लिए जोर लगाया, हाथों को ऐंठा और जोर लगा कर छत से छुड़ा लेना चाहा, मगर उनकी ये सभी कोशिशें बेकार गईं उनके हाथ उस तिलिस्मी छत के साथ कुछ इस तरह चिपक गये थे कि जान पड़ता था मानो अब वहाँ से छूटेंगे ही नहीं वे पाँव फटकारने और नीचे को झटके मारने लगे मगर सब बेकार हुआ।

केवल यही नहीं, मालती और प्रभाकरसिंह को और भी ताज्जुब हुआ जब उन्होंने देखा कि छत धीरे-धीरे ऊँची हो रही है। प्रभाकरसिंह के पैर जो कमरे के फर्श से पहिले कोई दो हाथ ऊँचे पर थे धीरे-धीरे वे तीन हाथ ऊँचें हुए, चार हाथ हुए। पाँच हाथ और इसी तरह पर ऊँचे होते-होते देखते ही देखते बहुत ही ज्यादा ऊँचाई पर जा पहुँचे।

वे ही प्रभाकरसिंह जो पहिले हाथ छुड़ाने का उद्योग कर रहे थे अब यह सोच कर डरने लगे कि अगर इस समय उस छत ने उनके हाथ छोड़ दिये तो इतने ऊँचे से गिर कर उनकी हड्डी-पसली टूट जायगी। वे डर और आशंका के साथ अपनी इस भयानक हालत को बेबसी के साथ देखने लगे और उनसे बहुत नीचे खड़ी मालती भी घबराहट और परेशानी के साथ उनकी इस खतरनाक अवस्था को देखने लगी।

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