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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


सर्यू की गठरी दारोगा साहब के हवाले करने के बाद हेलासिंह और मुन्दर लोहगढ़ी में एक स्थान पर बैठ गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। दोनों में धीरे-धीरे इस तरह बातें होने लगीं-

मुन्दर० : दारोगा साहब ने आपको यहाँ पर देख कर पूछा नहीं कि आप यहाँ किस काम के वास्ते आये हैं? उन्हें कुछ शक जरूर हुआ होगा।

हेला० : नहीं, भला यह उन्हें क्या खाक पता लग सकता है कि हम लोग यहाँ तिलिस्मी किताब छिपाने के लिए आये थे! मगर अब यह बताओ कि तुमने क्या करने का निश्चय किया। इतना झगड़ा, तरद्दुद जो कुछ किया गया उसका नतीजा भी कुछ निकलेगा कि नहीं?

मुन्दर० : आपका मतलब भूतनाथ वाले मामले से ही है या कुछ और?

हेला० : हाँ उसी विषय में कह रहा हूँ, तुम्हारा कहना था कि अगर एक हफ्ते की मोहलत मिल जाय तो तुम भूतनाथ से बचने की तर्कीब निकाल सकती हो!

मुन्दर० : जी हाँ, मैंने जरूर कहा था।

हेला० : तो अब तो तुम्हारे मन की बात हो गई। लोहगढ़ी की ताली ऐसी जगह छिपा दी गई कि जहाँ मौत को भी पता न लगे और तुमको भी मैंने छिपने का ऐसा स्थान बता दिया जहाँ भूतनाथ के पीर नहीं पहुँच सकते। अब तुम क्या चाहती हो?

मुन्दर० : बस तो फिर मैं भी अपना काम करने को तैयार हूँ। यह तो आपको विश्वास है न कि यहाँ मेरे काम में विघ्न डालने वाला कोई नहीं आवेगा?

हेला० : अच्छी तरह! जमानिया के राजा के और मेरे अलावे इस लोहगढ़ी का पूरा हाल सिर्फ दो ही आदमी जानते थे और वे दोनों ही मौत के मुँह में चले गये। अब....

मुन्दर० : कौन दो आदमी?

हेला० : एक तो भैयाराजा और दूसरा एक पुजारी जिसे तुम नहीं जानती, बस ये ही दो यहाँ का पूरा भेद जानते थे। इनके बाद अब मुझे ही सबसे अधिक इस जगह का हाल मालूम है, दारोगा साहब भी कुछ जानते जरूर हैं मगर ज्यादा नहीं और न वे उन जगहों में जा ही सकते हैं जहाँ से होते हुए हम लोग अभी-अभी चले आ रहे हैं।

मुन्दर० : और वह शैतान जो प्रभाकरसिंह को पकड़ ले गया?

हेला० : (शैतान की याद से काँप कर) उसके बारे मे मैं कुछ नहीं कह सकता! मुझे तो वह कोई तिलिस्मी आसेब जान पड़ता है। (काँप कर) ओफ। क्या विकराल सूरत थी।

मुन्दर० : (उसकी याद से घबड़ा कर) मुझे तो यही डर लगता है कि वह आकर कहीं मुझे न सतायें। अब भी उसकी सूरत याद कर के रोमांच हो जाता है।

हेला० : नहीं, यह उम्मीद मुझे नहीं है कि वह फिर दिखाई पड़ेगा। अब जो मैं सोचता हूँ तो ऐसा जान पड़ता है कि वह कोई आसेब था जो तिलिस्म की हिफाजत के लिए मुकर्रर होगा। प्रभाकरसिंह गैर आदमी थे, तिलिस्म में किसी तरह घुस आये थे।

उन्हें वह पकड़ ले गया और अब तक मार-खपा के छुट्टी किये होगा, अस्तु इस बला से भी नेजात मिल गई। हम लोग जानकार आदमी हैं, हमारा वह कुछ न करेगा, फिर मैं तो यहाँ का दीवान रह चुका हूँ, मुझे तिलिस्म के मामलों सब तरह का हक भी है तुम्हें इस तरफ से डरने की कुछ जरूरत नहीं।

इत्यादि बातें कह हेलासिंह ने मुन्दर का डर कम किया और समझा-बुझा कर उसे शान्त करने के बाद पूछा, ‘‘तो अब तुम्हारा क्या विचार है और मुझे क्या करने को कहती हो?’’

मुन्दर० : आप अब सीधे अपने घर चले जायें और मैं अपनी फिक्र में लगती हूँ अगर भूतनाथ आवे तो किसी तरह हीला-हवाला करके पाँच-सात रोज बिता दें। अगर मेरी कारीगरी काम कर गई तो दुबारा उसको शायद आपके पास पुनः आने की हिम्मत ही न पड़ेगी।

हेला० : आखिर मुझे भी तो कुछ बताओ कि तुमने क्या सोचा है और क्या करना चाहती हो?

मुन्दर० : काम पूरा हो जाने पर मैं सब कुछ बता दूँगी मगर अभी कुछ न कहूँगी।

हेला० : खैर मर्जी तुम्हारी, जो जी में आवे करो, मगर जो कुछ करो खूब समझ-बूझ कर करो। ऐसा कोई काम न होना चाहिये जिसमें भूतनाथ नाराज हो जाय और न ऐसी ही कोई कार्रवाई होनी चाहिये जिसमें दारोगा साहब को बुरा मानने का मौका मिले क्योंकि तुम्हारे बारे में जो कुछ कार्रवाई वे कर रहे हैं उसमें किसी तरह का विघ्न पड़ने से नतीजा बहुत खराब निकलेगा।

मुन्दर० : नहीं नहीं, मैं सब तरह से होशियार रहूँगी, आप बेफिक्र रहिये,

इतना कह मुन्दर ने अपने कपड़ों के अन्दर से ऐयारी का बटुआ निकाला तथा एक लपेटा हुआ पुलिन्दा भी बाहर किया जिसे अब तक अपने कपड़ों में छिपाये हुए थी हेलासिंह ने पुलिन्दे को देख कर ताज्जुब से पूछा, ‘‘यह क्या चीज है ;’’

वह बोली, ‘‘बहुत ही काम की एक चीज जो बन्दरों वाले बंगले के अन्दर से मुझे मिली है’’, हेलासिंह ने उस पुलिन्दे को खोल कर देखा। यह एक तस्वीर थी जिसका पूरा हाल पाठक जानते हैं क्योंकि यह वही थी जिसे मेघराज के बंगले में भूतनाथ ने देखा और देखते ही बदहवास हो गया था या जिससे उसकी काली करतूत का हाल प्रकट होता था, अर्थात जिसमें उसके द्वारा दयाराम के मारे जाने का दृश्य बना हुआ था। (१. देखिए भूतनाथ नौवाँ भाग, नौवाँ बयान।)

इसमें एक छत पर खड़े कई आदमी दिखाये गये थे जिनमें भूतनाथ, दलीपशाह, शम्भू, राजसिंह वगैरह साफ पहिचाने जाते थे। भूतनाथ के सामने खाली हाथ दयाराम खड़े थे और भूतनाथ के हाथ का खंजर दयाराम के कलेजे के पार होना ही चाहता था।

हेलासिंह को इस घटना का हाल बखूबी मालूम था अस्तु कुछ देर तक गौर के साथ इस तस्वीर को देखने के बाद उसने कुछ ताज्जुब के साथ मुन्दर से पूछा। ‘‘इसमें तो भूतनाथ के द्वारा दयाराम के मारे जाने का हाल दिखाया गया है, यह क्या तुमने बनाई है?’’

मुन्दर० : नहीं, उस बन्दरों वाले बंगले में यह तस्वीर टंगी थी और अपने काम की समझ में इसे साथ लेती आई हूँ।

हेला० : (ताज्जुब से) बन्दरों वाले बंगले में यह तस्वीर टंगी थी! भला वहाँ यह कैसे आई?

मुन्दर० : सो तो मैं नहीं कह सकती। एक चौखट में जड़ी थी जिस पर लाल पर्दा पड़ा था। काट कर निकाल लाई।

हेलासिंह यह सुन कर कुछ फिक्र में पड़ गया और इधर मुन्दर भी किसी सोच में पड़ गई। मगर थोड़ी ही देर बाद वह हेलासिंह से बोली। ‘‘चालिए अब इस जगह से बाहर निकलना चाहिए,’’

दोनों आदमी उठे और लोहगढ़ी के बाहर चले। हेलासिंह ने उसके कई दरवाजों का भेद मुन्दर को समझा दिया बल्कि उसके हाथ से खुलवा और बन्द करवा कर उसकी तर्कीब मुन्दर के जेहन में अच्छी तरह बैठा दी।

दोनों आदमी लोहगढ़ी के बाहर निकले मगर फाटक पर पहुँचते ही यकायक हेलासिंह चौंक पड़ा क्योंकि उसकी निगाह लहू के एक बड़े-से थक्के पर पड़ी जो दरवाजे के बाहर ठीक सामने ही पड़ा हुआ था और अभी एकदम ताजा था। हेलासिंह के साथ ही मुन्दर की निगाह भी उस पर पड़ी और उसका चेहरा डर से पीला हो गया।

खून की एक पतली लकीर उस जगह से चल कर पास की एक झाड़ी तक गई हुई थी। अपने कलेजे को मजबूत किए हुए हेलासिंह उस झाड़ी के पास पहुँचा। सामने ही बिना सिर की लाश पड़ी दिखाई दी।

ज्यादा गौर करने की जरूरत न पड़ी और एक निगाह ने बता दिया कि यह उसका वही नौकर है जो सर्यू की गठरी लेकर दारोगा साहब के रथ तक पहुँचाने के लिए गया था, मुन्दर ने डरी हुई आवाज में कहा, ‘‘हैं, इसका खून किसने किया!’’

हेला० : (अफसोस और डर के साथ) कुछ समझ में नहीं आता! क्या मैं यह मान लूँ कि दारोगा साहब ने जिनके हवाले मैंने सर्यू को किया था इसकी जान ली है!

मुन्दर० : नहीं नहीं, कभी नहीं हो सकता, यह कुछ और ही बात है और इसके सर का गायब होना बताता है कि जरूर इस बेचारे की जान किसी और ही कारण से गई है। खैर फिर इसका पता लगाया जाएगा, इस वक्त यहाँ से चले चलना ही ठीक है।

दोनों आदमी टीले से नीचे उतरे और दो तरफ को हो गये। हेलासिंह जमानिया की तरफ रवाना हुआ और मुन्दर ने काशी का रास्ता लिया, इस समय हम मुन्दर के साथ चलते और देखते हैं कि वह कहाँ जाती या क्या करती है।

हेलासिंह से अलग हो टीले से उतर मुन्दर सीधी उस तरफ को रवाना हुई जिधर अजायबघर की इमारत थी। जिस समय वह उससे कुछ दूर थी उसने देखा कि उसके नीचे से बहने वाले के किनारे पत्थर की चट्टान पर कोई आदमी सिर झुकाये बैठा है। इसे देखते ही मुन्दर के चेहरे से प्रसन्नता प्रकट होने लगी। वह लपकती हुई उसके पीछे जा पहुँची और नखरे के साथ उस मर्द की आँखें बन्द कर ली।

मुलायम हाथों को पकड़ मुन्दर को अपनी तरफ खींचते हुए उस नौजवान ने कहा, ‘‘बारे तुम किसी तरह आई तो सही! मैं तो सुबह से राह देखता-देखता एकदम परेशान हो चुका था और अब निराश होकर यहाँ से लौट जाने वाला था!’’

मुन्दर उसके बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘क्या बताऊँ ऐसी झंझट में पड़ गई कि किसी तरह निकासी ही नहीं हुई! बड़ी मुश्किल से इस वक्त आध घण्टे की मोहलत लेकर आई हूँ, ।यह तो कहो कि तुम्हें मेरी चीठी मिल गई और तुम आ गए, नहीं तो मुझे कहीं बैरंग वापस लौटना पड़ता तो बड़ा ही दुःख होता।’’ इस नौजवान को हमारे पाठक बखूबी पहिचानते हैं।

यह वही आदमी है जिससे मुन्दर उस समय बातें कर रही थी जब हेलासिंह ने अचानक पहुँच कर इनके आनन्द में विघ्न डाला था1। मुन्दर की बात सुन इसने कहा, ‘‘नहीं, तुम्हारी लौंड़ी बड़ी होशियारी के साथ मेरे घर आई थी। मुझसे मिलकर उसने इस प्रकार तुम्हारा पत्र दिया कि किसी को कुछ भी पता न लगने पाया, मगर यह तो बताओ कि आज मामूल के खिलाफ मैं तुम्हें इस तरह जंगल-मैदानों की हवा खातें क्यों देख रहा हूँ, तुम्हारे पिता तो एक सायत के लिए तुम्हें पर्दे के बाहर नहीं आने देते थे?’’

मुन्दर० : हाँ। कुछ ऐसा ही सबब हो गया। किसी काम से वे वहाँ से थोड़ी दूर पर अपने एक मकान में आये और वहाँ कुछ जरूरी काम कर रहे हैं, सुहावने जंगल की सैर करने का बहाना करके मैंने उनसे छुट्टी ली और यहाँ चली आई हूँ।

कुछ देर तक दोनों प्रेमियों में इस तरह की बातें होती रहीं जिस तरह की मनचले आशिकों और माशूकों में होती है। इसके बाद मुन्दर ने इस तरह का भाव बना कर, मानों यह बात अचानक ही उसे खयाल आ गई हो, उस नौजवान से पूछा, ‘‘हाँ खूब याद आया, उस बात का तुमने कुछ पता लगाया जिसके बारें में उस दिन जिक्र हो रहा था।

मुन्दर० : अजी वहीं भुवनमोहिनी वाली बात! जिसके बारे में उस दिन तुमने कहा था कि उसका किस्सा बड़ा ही विचित्र है, मगर तुम्हें हाल मालूम नहीं!

नौज० : हाँ मैंने उसके बारे में पता लगाया था।

मुन्दर० : क्या पता लगा, मुझसे कहो जरा मैं भी सुनूँ!

नौज० : वह बड़ा ही दर्दनाक हाल है, तुम सुन कर दुःखी हो जाओगी।

मुन्दर० : तब तो मैं जरूर सुनूँगी, तुम बताओ।

कुछ इधर-उधर करने के बाद नौजवान ने इस तरह कहना शुरू किया :-

‘‘भुवनमोहिनी एक बड़ी ही खूबसूरत और नाजुक लड़की थी जिसके पिता राजा बीरेन्द्रसिंह के रिश्तेदारों में थे। जमानिया में ससुराल होने के कारण वह ज्यादातर वहीं रहा करती थी, जिस सबब से कभी-कभी महाराज गिरधरसिंह के महल में भी उसका आना-जाना हुआ करता था।

‘‘न-जाने किस तरह जमानिया की बड़ी महारानी अर्थात महाराज गिरधरसिंह की रानी को यह शक हो गया कि महाराज भुवनमोहिनी को चाहते हैं, मै नहीं कह सकता कि इस बात में कोई सच्चाई भी थी या नहीं पर यह जरूर था कि कई कारणों से महारानी का यह शक पक्का ही होता गया।

‘‘डाह बड़ी बुरी चीज है और खास कर औरतों की। महारानी चाहे जैसी ही अच्छी औरत क्यों न हों, पर इस बात ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि जैसे भी हो भुननमोहिनी को जमानिया से निकाल ही देंगी, महाराज पर दबाव डाल कर उन्होंने उसके पति को, जिसका नाम कामेश्वर था, कहीं दूसरी जगह भेजवा दिया, पर कुछ कारण ऐसे आ पड़े कि जिससे थोड़े ही दिनों बाद महाराज को फिर उसे जमानिया बुला लेना पड़ा।

उसके साथ-साथ भुवनमोहिनी भी आ गई और फिर महारानी की आँखों में काँटे की तरह गड़ने लगी। होत-होते यहाँ तक हुआ कि महारानी उसकी जानी दुश्मन हो गईं और उसे जान से मरवा देने का विचार करने लगीं। सुनने में आया है कि किसी से उन्होंने उसे जहर दिलवाने की कोशिश भी की मगर सफल न हुई, अवश्य ही यह खबर कहाँ तक सच है कहा नहीं जा सकता।

‘‘उन दिनों गदाधरसिंह नाम के एक ऐयार का बहुत नाम फैला हुआ था। वह आजकल कहाँ है और मर गया या जीता भी है यह कुछ नहीं कहा जा सकता परन्तु उन दिनों वह रणधीरसिंह के यहाँ नौकर था और प्रायः उन्हीं के काम-काज से जमानिया भी आया-जाया करता था। कहा जाता है कि महारानी को किसी तरह उसकी चालाकी और होशियार का पता लगा। उन्होंने अपने दुश्मन को दूर करने की इच्छा से उसी गदाधरसिंह को अपना विश्वासपात्र बनाया और बहुत रुपयों का लालच देकर उसके सुपुर्द यह काम किया कि वह भुवनमोहिनी को इस तरह खपा डाले कि किसी को कानोकान खबर न हो कि वह कहाँ गई या क्या हुई।

न-जाने गदाधरसिंह की कोई कार्रवाई थी या उसकी मौत ही आ गई थी। सुना जाता है कि इसके कुछ ही दिन बाद भुवनमोहिनी को साँप ने काट लिया और वह मर गई।

ठीक-ठीक क्या बात थी इसका कुछ पता नहीं लगता। कुछ लोगों का कहना है कि गदाधरसिंह ने दारोगा साहब की सहायता से यह कार्रवाई की और भुवनमोहिनी को जहर देकर शोर कर दिया कि इसे साँप ने काट लिया, कुछ का कहना है कि इसमें चुनार के राजा शिवदत्त की भी कुछ साजिश थी, मगर असल बात क्या थी इसका कुछ ठीक-ठीक सुराग अब तक नहीं लगा, हाँ उस समय यह बात जरूर उड़ी थी कि बड़ी महारानी ने भूतनाथ को बहुत रूपया-पैसा दिया बल्कि उसे अपने दरबार का ऐयार भी बनाना चाहा था मगर वह राजी नहीं हुआ।

गदाधरसिंह ने जरूरत पड़ने पर उनका हुक्म बजा लाने की रजामन्दी तो दिखाई मगर दरबारी ऐयार होना यह कारण बता कर अस्वीकार किया कि वह खुद एक रियासत का (रणधीरसिंह का) नौकर है और बिना उनकी आज्ञा पाये दूसरे दरबार की नौकरी नहीं कर सकता। खैर जो कुछ हुआ हो और भुवनमोहिनी की मौत मे गदाधरसिंह का कोई हाथ रहा हो या न रहा हो, इसमें शक नहीं कि इस काम के लिए गदाधरसिंह ने भरपूर दौलत महारानी से पाई।

‘‘संक्षेप में यही वह हाल है जो भुवनमोहिनी के बारे में मुझे मालूम हुआ है। मैंने यह भी सुना है कि इस सम्बन्ध में भुवनमोहिनी का पति कामेश्वर राजा बीरेन्द्रसिंह के पास शिकायत लेकर पहुँचा और उन्हें भी किसी तरह विश्वास हो गया कि भुवनमोहिनी अपनी मौत से नहीं मरी बल्कि किसी दुर्घटना ने उसकी जान ली जिसका नतीजा यह निकला कि उन्होंने ऐयारों को इसका पता लगाने का हुक्म दिया, मगर इस सम्बन्ध में पूरा-पूरा हाल अभी मुझे नहीं मालूम हुआ। सिर्फ इतना पता लगा है कि भूतनाथ को अपनी जान का खौफ हो गया और वह तभी से छिपता फिरता है।

मगर इसके साथ यह भी जरूर है कि इस मामले में दारोगा साहब, जैपालसिंह और महाराज शिवदत्त का भी हाथ था। अगर और कुछ नहीं तो कम-से-कम इस घटना को तो वे लोग बखूबी जानते ही थे।’’

इतना कह उस नौजवान ने कहा, ‘‘लो बस जो कुछ मुझे मालूम हुआ वह सब मैंने बता दिया-अब तो खुश हुई!’’ मुस्कुराते हुए उस नौजवान ने अपने कपड़ों के अन्दर से एक पीतल की सन्दूकड़ी तथा एक तस्वीर निकाल मुन्दर के आगे रख दी और कहा, ‘‘लीजिए वह भी हाजिर है। और कुछ हुक्म!’’

मुन्दर ने वह तस्वीर उठा ली और एक नजर खूब गौर से देख कर अपने कपड़ों में छिपाती हुई बोली, ‘‘बस और कुछ नहीं, अब मैं समझ गई कि तुम जरूर मुझे सच्चे दिल से चाहते हो!’’

इतना कह उसने वह पीतल की सन्दूकड़ी उठाई और उसे खोलने का उद्योग किया मगर बन्द पाकर बोली, ‘‘क्या इसी में वे कागजात हैं? मगर यह तो बड़ी मजबूती से बन्द है, खुलेगी कैसे!’’

नौज० : क्या करूँ इसकी ताली बहुत कोशिश करके भी मैं पा न सका लेकिन अगर मौका लगा तो बहुत जल्द हाजिर करूँगा। इस बीच में अगर कोई दूसरी ताली लगा कर तुम इसे खोल सको तो बेहतर ही है।

मुन्दर० : अच्छा मैं इसे खोलने का उद्योग करूँगी मगर तुम ताली लाने का भी खयाल रखना।

नौव० : बहुत अच्छा, अब तो तुम्हारे मन की सब बातें हो गईं। मैंने अपना वादा पूरा किया, अब तुम भी अपना वादा पूरा करो!!

मुन्दर० : हाँ हाँ, मुझे भी तुम झूठी न पाओगे! परसों रात को तुम मेरे घर आओ, उसी मामूली रास्ते से!

नौज० : (कुछ उदासी से) परसों! और आज क्यों नहीं? इतने दिनों से बराबर तुम वादे करती और मुझे टरकाती आई हो!

मुन्दर० : नहीं नहीं, अब की जरूर अपना वादा पूरा करूँगी। आज हम लोग घर जा ही नहीं रहे हैं, और अब मैं चलूँगी, एक तो बहुत देर हो गई है और फिर कहीं घूमते-फिरते मेरे पिता अगर यहाँ आ गये और हम लोगों को देख लिया तो किसी तरह जिन्दा न छोड़ेंगे।

यह कहती हुई मुन्दर उठ खड़ी हुई। लाचार वह नौजवान भी उठा, दोनों में कुछ मामूली बातें हुईं जो ऐसे अवसरों पर दो प्रेमियों में होती हैं, और तब वे अलग-अलग हो गये। नौजवान ने पूरब तरफ का रास्ता लिया और मुन्दर ने पश्चिम का। अभी दस ही पाँच कदम आगे बढ़ा होगा कि वह नौजवान पलटा और बोला, ‘‘हाँ सुनो तो।’’ मुन्दर ने रुक कर पूछा, ‘‘क्यों क्या है?’’ उसने पास आकर अपना हाथ आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘वह तस्वीर तो तुम साथ ही ले चली!

वह मुझे वापस कर दो जिसमें फिर ठिकाने रख दूँ।’’

मुन्दर ने एक कटाक्ष फेंक कर कहा, ‘‘अब वह तस्वीर वापस न मिलेगी, मैं उसे अपने ही पास रक्खूँगी।’’

नौज० : (घबड़ा कर) नहीं नहीं, ऐसा करने का खयाल भी न करना नहीं तो गजब हो जायगा। सन्दूकड़ी तुम भले ले जाओ क्योंकि वह जिस कोठरी में रहती है वह कभी कभी ही खुलती है मगर यह तस्वीर तो मुझे वापस कर ही दो क्योंकि यह अगर गायब पाई जाएगी तो उसको तुरंत मुझ पर शक हो जायगा क्योंकि मैं ही खोद-खोदकर उससे भुवनमोहिनी का हाल पूछा करता था। तुम जानती हो कि मैं हर तरह से उसके अधीन हूँ, उसे किसी तरह से भी नाराज करने का नतीजा मेरे हक में अच्छा न होगा तुमने सिर्फ एक बार देखने के लिए तस्वीर माँगी थी सो देख ली, अब वापस कर दो तो मैं ले जाकर फिर जहाँ की तहाँ रख दूँ।

मुन्दर० : नहीं, अब इसे मैं न दूँगी, अगर तुम पर कोई शक करे तो कुछ बहाना कर देना, यह मैं तुम्हारी यादगार की तरह अपने पास रक्खूँगी।

नौज० : (जिसका चेहरा पीला पड़ गया था) परमेश्वर के लिए ऐसा न करो! इस तस्वीर का गायब होना बहुत जल्द प्रकट हो जाएगा और तब मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। वह बड़ा ही क्रोधी आदमी है और...

मुन्दर० : (उदास मुँह बना कर) बस-बस, मैं जान गई कि तुम्हारा प्रेम झूठा और बनावटी है! दूसरों के गुस्से का जितना तुम्हें खयाल है उससे आधा भी अगर मेरी खुशी का खयाल होता तो कभी ऐसी मामूली बात के लिए मेरी बेकदरी न करते!

कहते-कहते मुन्दर की बड़ी-बड़ी आँखों से बेहिसाब आँसू निकल कर उसका आँचल तर करने लगे। अब भला उस नौजवान की क्या ताब थी कि एक मामूली तस्वीर के लिये जिद्द कर सके। मुन्दर के पास जाकर उसने अपने दुपट्टे से उसके आँसू पोंछे और कहा, ‘‘अच्छा-अच्छा जाने दो। जब तुम्हारी यही इच्छा है तो फिर तस्वीर रक्खे रहो। जो कुछ मुझ पर बीतेगी मैं झेल लूँगा पर तुम्हें किसी तरह से नाखुश न करूँगा।’’

जैसे बरसते हुए बादलों में बिजली चमक जाती है उसी तरह मुन्दर के चेहरे पर हँसी दौड़ गई। उसने खुश होकर उस नौजवान के गले में अपनी बाँहे डाल दीं और कहा, ‘‘बस अब मुझे विश्वास हो गया कि तुम सचमुच मुझे सच्चे दिल से प्यार करते हो!’’

जब वह नौजवान कुछ दूर निकल गया तो मुन्दर ने तुच्छता के साथ उसकी तरफ उँगली मटका कर कहा, ‘‘गधे, भला तू क्या समझेगा कि इस तस्वीर और इस भेद को पाने के लिए ही मुन्दर ने तुझसे प्रेम का स्वांग रचा था!’’

मगर दोनों में से किसी को भी कुछ पता न था कि जहाँ पर बैठ इन दोनों ने बातें की थीं उसके पास ही एक घनी झाड़ी के अन्दर छिपे हुए एक आदमी ने इन दोनों की बातें बखूबी सुन ली हैं।

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