मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 5 भूतनाथ - खण्ड 5देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण
पाँचवाँ बयान
दोपहर का समय है, चारों ओर टनटनाती हुई धूप पड़ी रही है, पर उस छोटे-से बागीचे में उसकी तकलीफ कुछ भी मालूम नहीं होती जिसमें हम अपने पाठकों को ले चलते हैं, एक आम के पेड़ के नीचे प्रभाकरसिंह बैठे हुए हैं उनकी सूरत से परेशानी और बदहवासी टपक रही है और आकृति से मालूम होता है मानों वे बहुत थके हुए हैं या कहीं बहुत दूर का सफर करते हुए आ रहे हैं, रह-रह कर वे ठंडी साँसे लेते हुए अपने चारों तरफ देखते हैं और तब दुपट्टे से हवा करके उस पसीने को दूर करना चाहते हैं जो उनके चेहरे पर आया हुआ हैं क्योंकि इस समय हवा एक-दम बन्द है।
आखिर कुछ देर बाद उनकी थकावट कम हुई और वे मन ही मन बोले। ‘‘ओफ, कैसी मुसीबत में फँस गया था। जरा-सी भूल भी तिलिस्म में कैसा गजब ढा देती है घंटों बदहवास रहा, कोसो की धूल छाननी पड़ी, और मालती से भी हाथ धोया। न-मालूम वह बेचारी इस समय कहाँ है या क्या कर रही है? इसमें शक नहीं कि इस तरह यकायक मेरे गायब हो जाने से वह बेतरह घबड़ाई होगी और परेशानी में पड़ के न-जाने क्या कर बैठे।
कहीं मेरी तरह वह भी कोई गलती कर गई तो बुरी मुसीबत में पड़ेगी। जैसे हो तुरन्त उसके पास पहुँचना चाहिए, बारे तिलिस्मी किताब मेरे पास मौजूद है नहीं तो और भी आफत आती। अब देखना चाहिये यह कौन-सी जगह है और यहाँ से निकलने की क्या तदबीर हो सकती है।’’
प्रभाकरसिंह ने अपने कपड़े टटोल कर तिलिस्मी किताब निकाली और उसे खोल कर एक जगह पढ़ने लगे। बारीक अक्षरों में यह लिखा हुआ था-
‘‘जब इस बात को तीन पहर बीत जायँ तो तुम पुनः उस कोठरी में जाओ, मगर खबरदार, तीन पहर के पहिले कदापि उधर जाने का नाम भी न लेना नहीं तो बहुत बड़ी मुसीबत में पड़ोगे....।’’
यह पढ़ मन ही मन प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘सो तो देख लिया, अब यह देखना चाहिए कि उस मुसीबत से छूटने का भी कोई उपाय है या नहीं?’’ वे आगे पढ़ने लगे यह लिखा था-
‘‘तीन पहर के बाद जब उस कोठरी मे जाओगे तो देखोगे कि कोठरी में धूआँ बिल्कुल नहीं है और वह शेर की मूरत जमीन पर गिरी हुई है, शेर के चारों तरफ एक तरह की बारीक-बारीक काली धूल पड़ी होगी, उसे उठा लेना और रख छोड़ना, आगे उसकी जरूरत पड़ेगी। धूल हटने पर जमीन पर चारों तरफ बारीक-बारीक लकीरें बनी हुई दिखाई देंगी।
उन लकीरों से जहाँ एक अष्टकोंण यंत्र बना हुआ देखो, उस जगह को अपने अँगूठे से जोर से दबाना। एक छोटा-सा गड्हा बन जायेगा। उसमें तिलिस्मी हथियार की नोक डालते ही आगे जाने के लिये रास्ता निकल आवेगा।
यह रास्ता तुम्हें एक बगीचे में पहुँचावेगा जहाँ से उस रत्न-मण्डप में जाने का रास्ता मिलेगा जिसका हाल पहिले लिख चुके हैं, वहाँ ही कहीं तुम्हें वह मूर्ति मिलेगी। जिस तरह से हो उसे खोजना और मिल जाने पर वही काली धूल जो पहिली कोठरी में मिली है पानी में सान कर उस पर लेप कर देना। दो घण्टे बाद एक आवाज होगी मूर्ति गायब हो जायगी और उसकी जगह एक रास्ता दिखाई पड़ेगा जो तुम्हें घूमने वाली बारहदरी में पहुँचावेगा।’’
प्रभाकरसिंह ने किताब पढ़ना बन्द कर के व्यग्रता के साथ कहा, ‘‘यह सब तो ठीक है मगर इस समय जहाँ मैं हूँ वहाँ का तो कुछ हाल इस में हई नहीं है, जाने किस जगह आ गया हूँ कि यहाँ से बाहर निकलने की कोई तर्कीब ही नहीं दिखाई देती। जब तक यहाँ से न निकलूँगा आगे की कार्रवाई कैसे करूँगा? खैर एक दफे घूम-फिर कर देखूँ शायद कोई रास्ता बाहर जाने का दिख जाय।’’
प्रभाकरसिंह ने किताब बन्द कर जेब में रक्खा और उठकर बागीचे में चारों तरफ चक्कर लगाने लगे। इमारत के किस्म की उस बाग में कोई चीज न थी। केवल घने और ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से वह छोटा बाग भरा हुआ था चारों तरफ ऊँची-ऊँची चारदीवारी थी, प्रभाकरसिंह उसी चारदीवारी के साथ-साथ घूमने लगे छोटे से बाग का चक्कर लगाने में देर ही कितनी लगती थी? देखते-देखते चारों तरफ घूम-फिर कर जहाँ के तहाँ पहुँच गये और काम कुछ भी न निकला।
न तो कहीं कोई खिड़की, दरवाजा या रास्ता बाग के बाहर होने का दिखाई पड़ा और न कहीं कोई ऐसी जगह ही दिखाई दी जहाँ किसी तरह पर यह शक किया जा सकता कि यहाँ पर कोई गुप्त दरवाजा या राह होगी। बेचैनी के साथ फिर एक जगह खड़े हो गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
आखिर अपने सामने एक ऊँचे इमली के पेड़ को देख कर उन्हें खयाल हुआ कि इसके ऊपर चढ़ कर देखना चाहिए, शायद कहीं कुछ दिखाई पड़ जाय, बिना कुछ विलम्ब किये वे उस दरख्त के पास पहुँचे और उस पर चढ़ने का उद्योग करने लगे। जमीन से लगभग चार हाथ की ऊँचाई पर एक मोटी सूखी हुई डाली दिखाई पड़ी जो दूर तक एक तरफ को चली गई थी। उसे दोनों हाथों से मजबूत पकड़ा और झटका देकर ऊपर चढ़ गये।
ताज्जुब की बात थी कि प्रभाकरसिंह का बोझ उस पर पड़ते ही वह डाल इस तरह नीचे को झुकने लगी मानो वह कोई लचीली टहनी हो। देखते-देखते उसका अगला सिरा जमीन के साथ आकर सट गया। उसी समय एक तरह की आवाज हुई और साथ ही पेड़ की जड़ के पास एक ऐसा रास्ता दिखाई पड़ने लगा जिसके अन्दर आदमी बखूबी जा सकता था। प्रभाकरसिंह यह देखते ही प्रसन्न होकर बोल उठे, ‘‘बारे कोई रास्ता दिखाई तो पड़ा!
मुमकिन है कि इस बाग के बाहर होने की यह राह हो!’’ वे खुशी-खुशी उस डाल पर से कूद पड़े और उस दरवाजे की तरफ बढ़े मगर उनकी खुशी थोड़ी देर की ही थी। प्रभाकरसिंह का बोझ हटते ही वह डाल फिर धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठने लगी। यहाँ तक कि जैसे ही प्रभाकरसिंह उस दरवाजे के पास तक पहुँचे वैसे ही वह अपने ठिकाने पहुँच गई और उसी समय एक आवाज के साथ वह रास्ता भी गायब हो गया। पुनः पहिले की तरह उस पेड़ के चारों तरफ की जमीन बराबर नजर आने लगी।
प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा, ‘‘मालूम होता है यह डाल जब तक झुकी रहेगी तभी तक यह दरवाजा भी खुला रहेगा, अच्छा फिर से तो देखूँ,’’ पहिले की तरह उन्होंने फिर उस डाल को पकड़ा, मगर इस बार चढ़े नहीं सिर्फ अपना पूरा बोझ उस पर डाल कर लटक गये। डाल फिर नीचे को झुक गई और साथ ही पेड़ की जड़ में फिर पहिले की तरह वही दरवाजा दिखाई देने लगा। मगर पहिले ही की तरह इस बार भी जैसे ही डाल छोड़ प्रभाकरसिंह जमीन पर आए वैसे ही डाल ऊँची होने लगी और जब तक उस दरवाजे के पास पहुँचे तब तक दरवाजा भी पुनः गायब हो गया।
‘‘जब तक डाल झुकी न रहेगी कोई काम न होगा’’ कह कर प्रभाकरसिंह वहाँ से हटे और इधर-उधर घूम कर थोड़ी ही देर में कई छोटे बड़े पत्थरों के ढोंके उठा लाये जिनकी वहाँ कमी न थी। एक तरह की जंगली लता से जो वहीं पेड़ों पर चढ़ी उन्हें मिल गई उन्होंने इन पत्थरों को एक मैं बांधा और तब डाल पर अपना बोझा डाल उसे नीचे किया, इस डाल के साथ उन्होंने उन पत्थरों को बाँधा और तब उसे छोड़ अलग हो गए डाल ऊपर तो उठी मगर थोड़ी ही उठ कर रह गई क्योंकि उन पत्थरों ने उसे उठने न दिया।
वह दरवाजा भी खुला रह गया, अब प्रसन्नचित्त प्रभाकरसिंह उस दरवाजे के पास पहुँचे और उसमे झाँक कर देखने लगे। पाँच-छ: डण्डा सीढ़ियाँ नीचे को गई दिखाई दीं जिनके अंत में पत्थर का पक्का फर्श दिखाई पड़ रहा था। भीतर बहुत अंधकार भी न था और थोड़ी-थोडी हवा भी आ रही थी जिससे विश्वास होता था कि जरूर यहाँ से किसी तरह निकल जाने का रास्ता है आखिर कुछ सोच-विचार के बाद प्रभाकरसिंह ने इसमें उतरने का निश्चय किया, अपना सामान टटोला, तिलिस्मी किताब सम्हाली, तिलिस्मी डण्डा हाथ में लिया, और तब सीढ़ी पर पैर रक्खा।
एक-एक करके वे सब सीढ़ियाँ उतर गए। उन्हें डर था शायद किसी खतरे से उनकी मुलाकात हो पर ऐसा कुछ न हुआ। नीचे पहुँच उन्होंने एक लम्बी-चौड़ी जगह में अपने को पाया जहाँ से कई सुरंगें कई ओर को गई हुई थीं। इन सुरंगों में किसी तरह के दरवाजे लगे हुए न थे और प्रायः सभी के दूसरों सिरों पर चाँदना दिखाई पड़ता था।
प्रभाकरसिंह एक-एक करके सब सुरंगों के सामने से घूम आये और सोच-विचार कर एक के अन्दर उन्होंने पैर रक्खा, बहुत जल्दी उन्होंने उसे पार किया और तब एक लम्बे-चौड़े बाग में अपने को पाया जिसमें चारों तरफ तरह-तरह की इमारतें बनी हुई थीं। मगर यहाँ पहुँचते ही उनके मुँह से ताज्जुब के साथ निकल गया। ‘‘हैं, यह तो वही जगह है जहाँ तक तिलिस्म तोड़ते हुए हम दोनों पहुँच चुके थे और जहाँ एक बहुत मामूली-सी गलती कर जाने से मुझे इतने तरद्दुद में पड़ना पड़ा।’’
हमारे पाठक भी इस बाग को भूले न होंगे, यह वही बाग है जहाँ दारोगा और जैपाल का पीछा करती हुई कला पहुँची थी और शेरों वाले कमरे में पहुँच कर तिलिस्म में फँस गई थी अथवा जिसका हाल हम चौदहवें भाग के छठवें बयान में लिख आये है। इस समय वह शेरों वाली बारहदरी प्रभाकरसिंह के ठीक सामने की तरफ थी तथा वह ऊँचा बुर्ज बाईं तरफ दिखाई पड़ रहा था जिसकी राह दारोगा और जैपाल इस जगह के बाहर हुए थे। १ (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, सातवाँ बयान।)
इस जगह पहुँच प्रभाकरसिंह ने सन्तोष के साथ कहा, ‘‘बारे किसी तरह ठिकाने तो पहुँचे! अब देखना चाहिए मालती से मुलाकात होती है या नहीं!’’
वे सीधे बीच वाले बड़े कमरे की तरफ बढ़े जिसे हम शेरों वाले कमरे के नाम से पुकारते आये हैं मगर अभी कमरे के पास नहीं पहुँचे थे कि बगल से आवाज आई -‘‘ठहरिये!’’ प्रभाकरसिंह चौंक कर रुक गये और उधर देखते ही मालती पर निगाह पड़ी जो बदहवाद और घबराई हुई आकर यह कहती हुई इनके पैरो पर गिर पड़ी, ‘‘ नाथ, आप कहाँ चले गये थे!’’
प्रभाकरसिंह ने मालती को उठाया और दम-दिलासा देते हुए कहा, ‘‘कहीं भी नहीं, बस एक तिलिस्मी चक्कर में पड़ गया था! कहीं तुम्हें तो कोई तकलीफ नहीं हुई?’’
मालती० : शारीरिक कष्ट तो कोई भी नहीं हुआ मगर मानसिक चिन्ता के मारे सुबह से व्याकुल घूम रही हूँ, तरह-तरह के खयाल मन में दौड़ते थे कि न-जाने आप कहाँ चले गए या किस मुसीबत में पड़ गये। इस बाग का कोना-कोना छान डाला। एक-एक कोठरी और एक-एक पेड़ के नीचे देख डाला। मगर आपका पता नहीं। आप आखिर चले कहाँ गए थे और यह आपकी हालत क्या है? मालूम होता है मानों कोसों का चक्कर मारते हुए आ रहे है, मुँह एकदम सूख गया है। पैरों पर गर्द पड़ी हुई है, क्या कहीं दूर से आ रहे हैं?
प्रभा० : बस कुछ पूछो मत कि कहाँ से आ रहा हूँ। ऐसी मुसीबत में पड़ा कि जी ही जानता है। कुछ सुस्ता लूँ तो तुम्हें सुनाऊँ।
मालती० : बहुत अच्छी बात है, उस तरफ नहर के किनारे चलिये, हाथ-मुँह धोइये, और कुछ फल जो मैंने तोड़े हैं खाकर सुस्ताइये।
मालती प्रभाकरसिंह को लेकर नाले के किनारे आई जहाँ उन्होंने अपना हाथ मुँह धोया और कुछ जल पीकर फल खाया, इसके बाद वे अपना हाल इस तरह सुनाने लगे:-
‘तुम्हें याद होगा कि तिलिस्मी किताब में यह लिखा हुआ था कि उत्तर की सात नम्बर वाली कोठरी में घुसो। उसमें सिंहासन पर बैठे हुए शेर की मूरत बनी है।
कोठरी के बीचोबीच में कत्थई रंग का जो पत्थर जड़ा है उसे उखाड़ कर जल्दी से कोठरी के बाहर ले आओ क्योंकि इस कोठरी में एक घड़ी से ज्यादा रहने वाले की जान बचना कठिन है।’’
मालती० : ठीक है, मुझे बखूबी याद है, हम लोगों को वह पत्थर उखाड़ने में शायद देर हो गई थी क्योंकि उस बनावटी शेर ने गुर्राना शुरू किया था परन्तु उसी समय हम लोग वह पत्थर उखाड़ कर बाहर निकल आये। इसके बाद तिलिस्मी किताब में बताई तरकीब से उस पत्थर को घिस कर आधी रात के समय उसका लेप शेर के बदन पर करके हम लोग शेरों वाले कमरे के बाहर निकल आये थे और रात एक दालान में काटी, पर वहीं नींद खुलने पर मैंने आपको गायब पाया।
प्रभाकर० : ठीक है, अब मैं तुम्हें सुनाता हूँ कि मै कहाँ गायब हो गया था। किसी तरह की आवाज सुन मेरी नींद बहुत सुबह ही खुल गई। तुम उस समय गहरी नींद में पड़ी हुई थीं इसीलिए मैंने तुम्हें नहीं जगाया मगर उठकर गौर करने लगा कि यह आवाज किधर से आ रही है। शेरों वाले कमरे में से उस आवाज के आने का सन्देह मुझे हुआ और मैं उसी तरफ चला। जब मैं उसके पास पहुँचा तो देखा क्या कि बीच वाले सिंहासन के चारों तरफ वाले शेर अपनी जगह से उठ खड़े हुए हैं और गुर्राहट की आवाज करते हुए उस सिंहासन के चारों तरफ घूम रहे हैं। यद्यपि मैं बखूबी जानता था कि ये असली नहीं हैं फिर भी उस समय की उनकी भावभंगी और चाल-ढाल बिलकुल ऐसी थी कि उन्हें असली मान लेने का मन करता था।
मैं उनकी इस कार्रवाई को कौतूहल और कुछ डर के साथ देख रहा था कि यकायक उसी कोठरी के अन्दर से जिसके भीतर वालें शेरों की गुर्राहट को सुन इन बाहर वाले शेरों ने भी अजीब ढंग से गुर्राना और सिर हिलाना शुरू किया, साथ ही धीरे-धीरे वे उस कोठरी के दरवाजे की तरफ भी बढ़ने लगे, मैं इस कार्रवाई को देख इतना विस्मित हुआ कि कुछ ख्याल न रहा और कमरे के अन्दर घुस कर देखना चाहा कि अब क्या होता है। मेरा कमरे में घुसना था कि उन शेरों ने अपना रूख पलटा और बड़े गुस्से से मेरी तरफ झपटे मैंने कमरे के बाहर निकलना चाहा मगर ऐसा मालूम होने लगा मानों मेरे पाँव जमीन ने पकड़ लिये हों, मैं नहीं कह सकता कि इसका क्या सबब था, शायद वहाँ की जमीन की यह तासीर हो कि मैं कोशिश करके भी अपने पाँव उठा न सकता था।
इसके बाद ही उन चारों शेरों ने मुझ पर हमला किया और उनके सिरों पर बैठे हुए उकाब भी पंख फटफटा कर बड़े भयानक रूप से मुझ पर झपटे। इसके साथ ही मेरे पैरों में एक तरह की झुनझुनी-सी चढ़ने लगी, मैं बेहोश हो गया, और कुछ ही क्षण बाद मुझे तनोबदन की सुध न रही। मैं नहीं कह सकता कि इसके बाद क्या हुआ अथवा किस रास्ते से वहाँ पहुँचा पर होश आने पर मैंने अपने को एक वीरान मैदान में पाया जिसके छोर का कुछ पता न लगता था।
घण्टों तक इधर से उधर खाक छानता रहा, धूप के मारे तबीयत परेशान हो गई, प्यास के सबब से गला चटकने लगा।। आखिर घण्टों टक्कर मारने के बाद एक छोटे बगीचे की दीवार नजर आई। किसी तरह उसके अन्दर पहुँचा और वहीं से अब यहाँ आ रहा हूँ इतनी परेशानी और तकलीफ उठाई कि महीनों याद रहेगी।
मालती० : (अफसोस के साथ) यह तिलिस्म का मुकाम है जहाँ जरा-सी चूक बहुत बड़ा नुकसान पहुँचा सकती है। तिलिस्मी किताब में साफ लिखा था कि शेर के बदन पर लेप लगाने के बाद तीन पहर तक उस तरफ जाने का नाम भी न लेना खैर किसी तरह आप सही-सलामत पहुँच तो गए ‘मुझे तो आपके विषय में इतनी गहरी चिन्ता हो गई थी कि जिसका नाम नहीं! अब उठिये और जहाँ तक जल्दी हो जरूरी कामों से निश्चिन्त होइए क्योंकि तिलिस्म तोड़ने के काम में शीघ्र ही लग जाना उचित है।
दो घण्टे के अन्दर ही सब कामों से फारिग होकर प्रभाकरसिंह मालती को लिए उसी शेरों वाले कमरे में जा पहुँचे, पहिले बाहर वाले दालान में खडे़ होकर भीतर झांका। देखा कि सब शेर अपनी-अपनी जगह पर ज्यों-के-त्यों बैठे हैं।
प्रभाकरसिंह ने मालती से कहा, ‘‘इस वक्त इनको देख कर यह गुमान करना भी कठिन है कि रात को ये ही ऐसे सजीव हो गये थे कि देखने में डर मालूम होता था।’’ और तब कमरे के अन्दर पैर रक्खा।
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस बड़े कमरे के एक तरफ तो खुला दालान जिसकी राह बगीचे से इस कमरे में आने का रास्ता था और बाकी तीनों तरफ दस-दस कोठरियाँ बनी हुई थीं।
और बड़े कमरे से बाहर के दालान में जाने के लिए भी दस दरवाजे एक ही रंग-ढंग के बने हुए थे। इन दोनों के कमरे के अन्दर घुसते ही इस कमरे के दालान की तरफ पड़ने वाले दसों दरवाजे घड़ाधड़ बन्द हो गए मगर दोनों ने उस पर कुछ भी ध्यान न दिया और सीधे उत्तर तरफ की एक कोठरी के पास पहुँचे जिसके दरवाजे के ऊपर सात का अंक बना हुआ था। यह दरवाजा इस समय बन्द था मगर हाथ से धक्का देते ही खुल गया और दोनों बेधड़क कोठरी के भीतर घुस गये, यहाँ पर हम यह भी बता देना चाहते हैं कि यह वही कोठरी थी जिसके अन्दर पहुँच कर दयाराम, जमना और सरस्वती तिलिस्म में फँस गये थे१ परन्तु इस समय इस कोठरी की हालत कुछ विचित्र ही हो रही थी। (१. देखिए भूतनाथ चौदहवाँ भाग, छठवाँ बयान)
जमीन पर चारों तरफ एक तरह की काली धूल फैली हुई थी और दीवारें भी इस तरह काली हो रही थीं मानों बहुत दिनों से धुआँ खा रही हो। उस शेर की मूरत टूटी-फूटी जमीन पर पड़ी हुई थी और साथ ही छोटी हो गई सी भी जान पड़ती थी मानों उसका काफी अंश जल या झड़ गया हो, एक अजीब गन्ध उस कोठरी में फैली हुई थी जो कुछ-कुछ धूप या लोहवान की तरह थी।
प्रभाकरसिंह और मालती ने उस शेर की मूरत के टुकड़ों को उठा एक किनारे कर दिया और तब वहाँ जमीन पर फैली हुई वह काली धूल इकट्ठा करके एक कपड़े में बाँध ली। इसके बाद बड़े गौर से दोनों उस अष्टकोण यन्त्र को खोजने लगे जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था।
कोठरी की जमीन चारों तरफ पतली बारीक लकीरों से भरी हुई थी जिसके बीच में से उस अष्टकोण यन्त्र को खोज निकालना बहुत सहज काम न था विशेष कर इसलिए कि बाहर वाले कमरे के दालान की तरफ पड़ने वाले सब दरवाजे बन्द हो गए थे और वहाँ सिर्फ उन कई रोशनदानों की रोशनी रह गई थी।
जो छत के पास दीवार में बने हुए थे, फिर भी आखिर खोजते-खोजते एक कोने के पास मालती को वह अष्टकोण यन्त्र मिल ही गया और उसने प्रभाकरसिंह को दिखाया, प्रभाकरसिंह ने उसे अंगूठे से दबाया, एक छोटा-सा गड्ढा वहाँ हो गया जिसमें किताब में बताई तरकीब के अनुसार प्रभाकरसिंह ने अपने तिलिस्मी डण्डे की नोक डाल दी, साथ ही एक खटके की आवाज आई और बगल की दीवार में एक रास्ता बन गया आगे-आगे प्रभाकरसिंह और पीछे-पीछे मालती इस रास्ते पर चल पड़े जो एक लम्बी सुरंग तरह का था।
लगभग पाँच सौ कदम जाने के बाद वह सुरंग बाईं तरफ को घूमी और तब अचानक बन्द हो गई आगे जाने का रास्ता न था, सामने की तरफ भी वैसी ही चिकनी दीवार मालूम पड़ती थी जैसी दोनों तरफ अब तक मिलती आई थी, ताज्जुब करते हुए दोनों रुक गये क्योंकि तिलिस्मी किताब के कथनानुसार इस सुरंग की राह उन्हें एक बगीचे में पहुँचना चाहिए था जहाँ से वे रत्न-मण्डप तक पहुँचते।
थोड़ी देर तक दोनों गौर करते रहे इसके बाद मालती ने कहा, ‘‘मालूम होता है आगे जाने के लिए हम लोगों को अपने उद्योग से कोई रास्ता पैदा करना पड़ेगा।’’
प्रभाकर० : बेशक ऐसा ही है और मैं समझता हूँ कि शायद इसीलिए यह मूरत यहाँ बनी हुई है।
दीवार के बीचोबीच एक आला था जिस पर किसी धातु की बनी हुई लगभग हाथ भर लम्बी एक स्त्री की मूरत रक्खी हुई थी। मूरत का भाव यह था कि उसके कन्धे पर एक गगरी थी जिसे वह एक हाथ से पकड़े हुए थी और दूसरे हाथ से अपने पैर मैं लिपटी हुई एक लता को अलग कर रही थी।
प्रभाकरसिंह के कहने से मालती का ध्यान भी इस मूरत पर गया और दोनों ही गौर से उसे इस नीयत से देखने जाँचने और ठोकने-पीटने लगे कि शायद उसके जरिए आगे कोई रास्ता पैदा हो सके।
प्रभाकरसिंह उस मूरत की जाँच देर तक करते रहे मगर दबाने-उठाने-ऐंठने-झुकाने आदि का कुछ भी असर उस पर होता हुआ न देख कुछ निराश से हो चले उस समय मालती ने कहा, ‘‘ठहरिये मुझे एक बात का ख्याल आता है, जरा मैं देखू।’’
प्रभाकरसिंह एक बगल हो गए और मालती उस मूरत के पास गई। उसने एक बार गौर से मूरत के पैर में लिपटी हुई लता को देखा और तब कहा, ‘‘यह औरत अपने पैरों में लिपटी यह लता दूर कर रही है और अन्दाज से मालूम होता है कि यह लता मूरत के अंग का हिस्सा अर्थात, इसके साथ ही खोद कर नहीं बनी है बल्कि अलग से पैर में लिपटी हुई है।
देखना चाहिए कि कोशिश करने से यह पैर से अलग होती है या नहीं और अलग होती है तो इसका क्या असर पड़ता है।’’
मालती ने इतना कह लता का एक सिरा पकड़ कर जोर से खींचा वह पैर से अलग होने लगी, दो-तीन बार घुमाने और खींचने से वह बल खाकर पैर से अलग हो गई। इसके साथ ही खटके की आवाज हुई और एक तरफ एक दरवाजा दिखाई पड़ने लगा जिसके दूसरी तरफ चाँदना नजर आ रहा था।
खुशी-खुशी प्रभाकरसिंह और मालती ने इस दरवाजे के अन्दर पैर रक्खा और अपने को एक खुशनुमा बाग में पाया। इनके सुरंग के बाहर होते ही वह दरवाजा आप से आप पुनः बन्द हो गया।
यह सुन्दर बाग एक छोटी नहर की बदौलत जो एक तरफ से आकर घूमती-फिरती दूसरी तरफ से बाहर हो गई थी खूब हरा-भरा बना हुआ था। बाग के बीचोबीच पतली-पतली चकाबू की तरह पेंच खाई हुई रविशें बनी हुई थीं जिन पर काला और सुफेद पत्थर खूबसूरती के साथ जड़ा हुआ था और बीचोंबीच के फौवारे की शोभा तो खूब ही बढ़ी-चढ़ी थी जो इन रविशों के बीच संगमर्मर का बना हुआ था और जिसकी बारीक टोटियों से निकला हुआ पानी बहुत ऊपर जाकर इस तरह फैल जाता था कि उस पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें उसे इन्द्रधनुष के रंग से रंग कर विचित्र शोभा पैदा कर रही थीं,
इन रविशों के बाद चारों तरफ क्या था यह साफ जान नहीं पड़ता था, मगर इसके काफी पीछे हटकर तरह-तरह की इमारतों का ऊपरी हिस्सा जरूर दिखाई पड़ रहा था जिससे गुमान होता था कि इस बाग में इमारतें बहुतायत से हैं, प्रभाकरसिंह को यह जगह कुछ ऐसी भाई कि वे तिलिस्म का काम थोड़ी देर के लिए भूल गए और रविशों पर टहलते हुए उस फौवारे के पास जा पहुँचे। मालती भी उनके पीछे वहीं पहुँची।
प्रभाकर० : यह छोटा सा नजरबाग बहुत ही खूबसूरत मालूम पड़ता है।
मालती० : सफाई देखिये कैसी है, मालूम होता है कोई अभी झाडू देकर गया है!
प्रभाकर० : ऐसा जान पड़ता है मानो इसमें कई माली हों जो बराबर काम किया करते हों। यह देखो मेंहदी की टट्टी किस सफाई से काटी गई है कि हरी दीवार का धोखा होता है। यह बिना माली के नहीं हो सकता, मेंहदी अगर अपनी हालत पर छोड़ दी जाय तो जल्द ही बेकाबू होकर खराब मालूम होने लगती है।
मालती० : मगर तिलिस्म के अन्दर आदमी कहाँ से आ सकते हैं?
प्रभाकर० : यह ताज्जुब मुझे भी है। मगर देखो तो वह क्या चीज है!
मालती० : कहाँ?
प्रभाकर० : वह मेंहदी की टट्टी के पास। लतामण्डप के बगल में! अब गायब हो गई, वह देखो फिर दिखाई पड़ी!
मालती० : (देख कर और डर कर) हाँ ठीक है, मैं पहिचान गई, यह उस तिलिस्मी शैतान की पीठ है। जिस समय उस बाग में आप उससे लड़ रहे थे तो मैंने उसकी पीठ को गौर से देखा था। तिलिस्मी शैतान के सामने का भाग तो हड्डियो के ढाँचे की तरह है पर पीठ वाला भाग दूर से देखने से ऐसा ही जान पड़ता है।
मगर मालूम होता है अभी तक उसे हम लोगों के आने की खबर नहीं लगी है! हम लोगों को कहीं छिपकर अपनी जान बचानी चाहिए, अगर वह कम्बख्त हमें देख लेगा तो फिर हमारी सब उम्मीदों का खात्मा ही समझिए। मौका समझ प्रभाकरसिंह ने भी यही मुनासिब समझा कि अपने को तिलिस्मी शैतान की निगाहों से बचावें। फौवारे से कुछ दूर हट कर चारों कोनों पर चार लतामण्डल बने हुए थे जिनमें से एक के पास वह तिलिस्मी शैतान भी खड़ा था।
प्रभाकरसिंह मालती के साथ दबे पाँव हट कर अपने पीछे वाले लतामण्डप की आड़ में हो गये और पत्तियों की ओट से देखने लगे कि वह शैतान क्या कर रहा है थोड़ी ही देर में मालूम हो गया कि वह इस समय माली का काम कर रहा है अर्थात, उस मेंहदी की टट्टी को काट-छाँट कर दुरूस्त कर रहा है। मालती ने धीरे से कहा, ‘‘मालूम होता है कि यह बाग ही इन शैतानों के रहने की जगह है और इन्हीं की बदौलत यह इतना साफ बना रहता है।’’
प्रभा० : शायद ऐसा ही हो लेकिन तब इस हालत में जहाँ तक जल्दी हो हम लोगों को उस मूर्ति का पता लगा लेना चाहिए जिसका हाल तिलिस्मी किताब में लिखा है और उस काली धूल का उस पर लेप चढ़ा रास्ता पैदा कर तुरंत इस बाग के बाहर भी हो जाना चाहिए।
मालती० : बेशक, मगर मुझे डर है कि यह शैतान इस काम में बाधा देगा, दूसरे इसके मौजूदगी में हम लोग किस तरह बेखबर घूम-फिर कर उस मूर्ति का पता ही लगा सकते हैं!
प्रभा० : यही तरद्दुद मुझे भी है, मगर जो भी हो वह काम तो करना ही होगा।
मालती० : मगर देखिए तो, वह उस दरवाजे से निकलकर एक दूसरा शैतान आ रहा है, और उसके पीछे-पीछे और भी दो दिखाई देते हैं! मालूम होता है जिन चार शैतानों को हम लोगों ने उस पहिले दिन एक बाग में देखा था वे यही रहते हैं।
प्रभा० : शायद ऐसा ही हो लेकिन अगर ऐसा है तो हम लोगों का काम बहुत ही कठिन हो जाएगा!
मालती० : (चौंक और डरकर) लीजिए वे लोग तो इधर ही आ रहे है। अब क्या होगा!
प्रभाकरसिंह ने देखा कि एक-एक करके और तीन शैतान मेंहदी की टट्टी में बनी एक राह से इसी ओर आ गए और तब उस तरफ बढ़े जिधर लतामण्डप के पीछे ये दोनों छिपे खड़े थे। बात की बात में चारों उस जगह के पास पहुँच गये बल्कि उस लतामण्डप के दरवाजे पर खड़े होकर कुछ बातें करने लगे जिसकी आड़ में दोनों खड़े थे।
मालती का बदन तो इस तरह काँप रहा था मानों उसे जूड़ी आ गई और प्रभाकरसिंह भी मन ही मन सोच रहे थे कि एक शैतान से लड़ कर मैं जक उठा चुका हूँ, अब इन चार से किसी तरह जान बचाना सम्भव नहीं, परन्तु फिर भी हिम्मत के साथ उन्होंने अपने होश-हवास पर काबू किया और गौर से उन चारों की बातें सुनने लगे।
एक शैतान० : क्या तुम्हें ठीक खबर लगी है कि तिलिस्म तोड़ने वाला यहाँ आ पहुँचा है?
दूसरा० : हाँ, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
तीसरा० : तब हम लोगों को क्या करना चाहिए?
चौथा० : करना क्या चाहिए, जैसे हो उसका पता लगाना और गिरफ्तार कर लेना चाहिए। अगर ऐसा न किया जायगा तो वह जरूर इस तिलिस्म को तोड़ डालेगा और हम लोग बेमौत मारे जायेंगे।
तीसरा० : उसको पकड़ने की क्या तर्कीब हो सकती है? इतने बड़े तिलिस्म में उसका पता लगेगा ही क्योंकर?
दूसरा० : उसे यहाँ आये ज्यादे देर नहीं हुई है, अभी तक इस बाग के बाहर न हुआ होगा। हम लोगों को सबसे पहिले यहाँ से बाहर होने के कुल दरवाजे बन्द कर देने चाहिये और तब उसकी खोज शुरू करनी चाहिये।
पहिला० : मगर इसके पहिले क्या यह मुनासिब न होगा कि उस मूरत को कहीं छिपा दें जिसके जरिये वह आगे जा सकता है?
सब० : हाँ हाँ, यह तो बहुत ठीक है, ऐसा ही करना चाहिये!!
तुरन्त ही वे चारों शैतान पूरब की ओर बढ़े उनके हटते ही प्रभाकरसिंह भी जो बड़े गौर से उनकी बातें सुन रहे थे अपनी जगह से हटे और लतामण्डप के बाहर की तरफ चले, मालती ने यह देखते ही रोका और पूछा। ‘‘आप चले कहाँ?’’
प्रभाकर० : इन शैतानों का पीछा करके इस बात का पता लगाने कि वह मूरत कहाँ है और ये कम्बख्त उसे किस तरह या कहाँ छिपाते हैं।
मालती० : (डर कर) नहीं नहीं, आप उन कम्बख्तों के पीछे न जायं, कौन ठिकाना वे सब देख लें तो फिर लेने के देने पड़ जायेंगे!
प्रभा० : नहीं नहीं, अगर इस तरह डरा करेगें तो हम लोग कोई काम नहीं कर सकेंगे। आखिर उस मूरत का पता लगाना भी तो जरूरी है। तुम घबराओ नहीं, मैं बड़ी होशियारी से उनका पीछा करूँगा, तुम चुपचाप इसी जगह रहो, मैं बहुत जल्द वापस आता हूँ। कहते हुए प्रभाकरसिंह आगे बढ़े और दबे उन चारों शैतानों के पीछे हो लिये जो आपस में कुछ बातें करते हुए दूर निकल गये थे।
मेंहदी की टट्टी को पार कर वे चारों शैतान बाई तरफ घूमे जिधर बहुत-से फलों के पेड़ों ने एक छोटा जंगल-सा बनाया हुआ था जो कितनी दूर तक फैला है इसका पता नहीं लगता था। इस जंगल में चारों तरफ बीसों ही पगडंडियाँ निकल गई थीं जिन्होंने आपस में एक-दूसरे को काटते हुए एक तरह का चकाबू-सा बना रक्खा था, चारों शैतान इन्हीं में से एक पर जाने लगे।
यद्यपि प्रभाकरसिंह को इस बात का डर था कि अगर उन पर किसी की निगाह पड़ जायगी तो मुश्किल होगी और इसी डर से जहाँ तक होता था वे अपने को पेड़ों और झाड़ियों की आड़ में बचाते और छिपाते हुए जा रहे थे पर उन शैतानों को इनके होने का कुछ भी भी गुमान न था और वे बड़ी बेफिकी के साथ आपुस में बातें करते हुए चले जा रहे थे।
लगभग एक घड़ी तक प्रभाकरसिंह उन शैतानों का पीछा करते चले गये, इस बीच में उन्होंने इतनी पगडंडियाँ पार कीं और इतने मोड़ घूमे कि अगर ठीक-ठीक पूछा जाय तो वे इतना भी नहीं बता सकते थे कि जिस जगह से वे रवाना हुए थे वह अब उनके किस तरफ है।
उन्हें खुद भी इस बात पर सन्देह होने लगा कि अब वे लौट कर मालती के पास पहुँच सकेंगे या नहीं, वे यह सब सोच ही रहे थे कि इसी समय उन्हें एक बरगद के बहुत ही पुराने पेड़ की दूर तक फैली हुई डालें दिखाई पड़ीं जिनके नीचे और जगहों की बनिस्बत कुछ ज्यादे अंधकार था। चारों शैतान यहीं आकर रुक गये और कुछ बातें करने लगे। पेड़ों की आड़ देते हुए कदम दबाये प्रभाकरसिंह भी उनके पास हो गये और उनकी बातें सुनने लगे।
एक० : लो आ तो गये।
दूसरा० : बस फुर्ती करो, दो आदमी पेड़ पर चढ़ जाओ और इस मूरत के गले से रस्सी अलग करके इसे लटका दो, बस हम लोग नीचे से सम्भाल लेंगे और तब कहीं ले जाकर छिपा देंगे। फिर देखेंगे तिलिस्म तोड़ने वाला कैसे इस बाग के बाहर होता है।
तीसरा० : हाँ ठीक है, जब मूर्ति ही छिपा दी जायगी तो बाहर निकलने का रास्ता कैसे पैदा होगा? अच्छा तो बस काम शुरू करो।
दो शैतान तो पेड़ पर चढ़ गये और दो उस बड़ की एक मोटी डाल के नीचे जाकर खड़े हो गये जो प्रभाकरसिंह के छिपने की जगह से कुछ दूर पर थी। गौर करने पर प्रभाकरसिंह ने देखा कि एक मोटी डाल के साथ एक बड़ी आदमकद मूर्ति लटक रही है।
एक तो वहाँ अन्धकार था, दूसरे बहुत पुरानी हो जाने के कारण उसका रंग साफ प्रकट नहीं होने पाता था इससे प्रभाकरसिंह स्पष्ट रूप से जान न सके कि मूरत का भाव क्या है परन्तु समझ पड़ा कि वह किसी औरत की मूरत है जिसके गले में फाँसी की तरह एक रस्सी पड़ी हुई है, इस रस्सी का दूसरा सिरा ऊपर की डाल से बँधा हुआ था और वह मूरत जमीन से चार-पाँच हाथ ऊँचे कुछ-कुछ इस तरह पर लटक रही थी मानों इसे फाँसी दे दी गई हो। इस मूरत को वहाँ देख प्रभाकरसिंह को प्रसन्नता हुई क्योंकि उस तिलिस्मी किताब में इस मूरत का जिक्र था और इसी की सहायता से वे बाग के बाहर हो सकते थे, परन्तु इस समय उन शैतानों के मुँह से यह सुन कर कि वे इस मूरत को कहीं उठा ले जायेंगे।
उनकी चिन्ता बढ़ गई थी, फिर भी वे कर ही क्या सकते थे? एक ही शैतान से लड़ कर वे जिस तरह का जक उठा चुके थे उसे याद करके इकट्ठे इन चार शैतानों का मुकाबला करना उन्हें आत्महत्या की चेष्टा करना प्रतीत होता था। वे लाचारी की मुद्रा से खड़े होकर देखने लगे कि चारों अब क्या करते है।
उन चारों शैतानों ने मिल-जुल कर उस मूरत को डाल से अलग किया और पेड़ के तने के साथ लगा कर खड़ा कर दिया। मालूम होता है कि वह मूरत बहुत ही भारी थी क्योंकि सिर्फ इतना ही काम करके वह चारों एक बगल खड़े हो गये और सुस्ताने लगे।
थोड़ी देर बाद एक ने कहा, ‘‘अब चलो इसे उठा कर कहीं छिपा भी दें ताकि इस बखेड़े से छुट्टी मिले।’’
दूसरा यह सुन बोला, ‘‘हाँ सो तो करेंगे ही, मगर मुझे एक बात सूझी है।’’
उसने धीरे से कोई बात कही जिसके सुनते ही सबके सब बोल उठे, ‘‘ठीक है ठीक है, बस ऐसा ही करो! उसे यहाँ लाकर इसी पेड़ के साथ फाँसी पर लटका दो और तब इस मूरत को उठा ले जाओ। जब तिलिस्म तोड़ने वाला आवेगा तो उसे पता लगेगा कि बिना समझे-बूझे तिलिस्मी मामलों में दखल देने वालों की क्या दशा होती है!’’
इतना कहते और जोश के साथ कुछ बातें करते हुए वे चारों शैतान जिधर से आये थे उधर ही को चले गये, प्रभाकरसिंह को मौका मिला, लपक कर वे उस मूर्ति के पास पहुँचे और उसे गौर से देखने लगे, देखते ही उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही मूर्ति है जिसका हाल तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ है, किताब खोलकर उन्होंने कुछ देखा और तब बन्द कर जेब के हवाले करने के बाद बोले, ‘‘अब वह काली राख इस पर मल करके ही यहाँ से हटना चाहिए। कौन जाने कब वे कम्बख्त यहाँ आ पहुँचे और इसे यहाँ से कहीं गायब कर दें।’’
यहाँ से थोड़ी दूर पर नाला बहता हुआ दिखाई पड़ रहा था। प्रभाकरसिंह उसके किनारे जा और शेर वाले कमरे से बटोरी धूल को उसके पानी में सान गीले आटे-सा बना कर ले आये। इस आटे को उन्होंने इस मूरत के तमाम बदन पर लेप कर दिया और तब सन्तोष के साथ बोले, ‘‘अब दो घंटे की मोहलत है, चलूँ मालती को भी ले आऊं!’’
यकायक प्रभाकरसिंह के कान में किसी औरत के चीखने की आवाज पहुँची जिसने उन्हें घबरा दिया। वे ताज्जुब से चारों तरफ देखने लगे। पुनः चीख की आवाज आई और इस बार प्रभाकरसिंह के मुँह से निकल गया, ‘हैं, यह तो मालती की आवाज मालूम पड़ती है!
वह किसी मुसीबत में गिरफ्तार तो नहीं हो गई?’’
पुनः एक चीख की आवाज आई, अब प्रभाकरसिंह बर्दाश्त न कर सके, यहाँ से हटे और आवाज की सीध पर गौर करते हुए पश्चिम तरफ को रवाना हुए। थोड़ी ही दूर गए होंगे कि सामने से चारों शैतान आते हुए दिखाई पड़े। इस समय वे एक औरत को उठाये हुए थे जो उनके हाथों से छूटने के लिए छटपटा और चिल्ला रही थी।
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