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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


तिलिस्मी शैतान जिस समय प्रभाकरसिंह और मालती को लेकर चला गया तो वहाँ सन्नाटा हो गया। सिर्फ सर्यू बेहोश और बदहवास अकेली उसी जगह पड़ी रह गई।

शैतान को गये देर हो गई और उसके लौट आने का डर कम हो गया तो धीरे-धीरे हेलासिंह उन पेड़ों की झुरमुट के बाहर निकला जिसके अन्दर वह प्रभाकरसिंह की तलवार के डर से भागकर जान बचाने के लिये छिप गया था।

डरता और उस भयानक शैतान के डर से अभी तक काँपता हुआ धीरे-धीरे चारों तरफ देखता-भालता उस दालान की तरफ बढ़ा जिधर सर्यू पड़ी हुई थी। वहाँ पहुँच कर उसने निश्चय कर लिया कि सर्यू अभी तक बेहोश है और किसी गैर की निगाहें उस पर पड़ नहीं रही हैं तो उसका डर कुछ दूर हुआ और उसने जेब से एक सीटी निकाल किसी खास इशारे के साथ मगर बहुत धीरे-धीरे बजानी शुरू की।

इस सीटी की आवाज सुनते ही मुन्दर भी, जो कहीं छिपी हुई थी, आड़ से निकलकर वहाँ आ पहुँची और थोड़ी ही देर बाद हेलासिंह का वह आदमी भी आ गया जो प्रभाकरसिंह को जाते देख डरकर भाग गया था। ये तीनों बेईमान सर्यू के चारों तरफ खड़े हो गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये।

ज्यादा देर करने का मौका न था और उस तिलिस्मी शैतान का भी डर मौजूद था अस्तु यही निश्चय किया गया कि सर्यू की गठरी बांध कर यहाँ से ले चला जाय और लोहगढ़ी में पहुँचकर तब आगे की कार्रवाई स्थिर की जाय। चूँकि प्रभाकरसिंह को इन लोगों के सामने ही तिलिस्मी शैतान उठा ले गया था अस्तु उनका डर दूर हो चुका था और किसी अन्य दुश्मन का खयाल न था अस्तु इन लोगों ने सर्यू को उठा लिया और बेफिक्री के साथ उसी सुरंग की राह लोहगढ़ी की तरफ लौटे।

लगभग आधी सुरंग ये तय कर चुके होंगे कि सामने से किसी के पैरों की आहट सुना पड़ी। डर के मारे इन लोगों का कलेजा बाँसों उछलने लगा और सब के सब वहीं ठिठक गये क्योंकि तिलिस्मी शैतान का डर इनकी नस-नस में समा गया था, मगर थोड़ी ही देर बाद जब सिर्फ एक नकाबपोश को सामने की तरफ से आते देखा तो डर कुछ कम हुआ। मुन्दर और उस आदमी को सर्यू के साथ वहीं छोड़ हिम्मत के साथ तलवार हाथ में लिये हेलासिंह आगे बढ़ गया और उसने नकाबपोश के पास पहुँचकर, जो खुद भी इन लोगों को अपने सामने पा ठिठक गया था, डपटकर कहा, ‘‘तुम कौन हो और यहाँ किसलिये आये हो?’’

हेलासिंह की बात सुनते ही वह नकाबपोश बोला, ‘‘क्या मैं अपने दोस्त हेलासिंह की आवाज सुन रहा हूँ?’’ और तब उसने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी। नकाब हटते ही जमानिया के दारोगा साहब सामने खड़े दिखाई पड़े। हेलासिंह ने उन्हें देख कर कुछ सकुचाकर कहा, ‘‘वाह वाह, दारोगा साहब हैं! आप यहाँ कैसे आ गये!!’’

दारोगा : मैं एक बहुत बड़े तरद्दुद में पड़कर यहाँ आया हूँ पर उसका हाल कहने के पहिले यह जानना चाहता हूँ कि आपको यहाँ क्यों देख रहा हूँ और वे दोनों कौन हैं जिन्हें उस जगह छोड़ आप आगे बढ़ आये हैं!

हेला० : वे दोनों मेरे नौकर हैं; मैं यहाँ एक बहुत जरूरी काम से आया था और उसे पूरा कर अब वापस आ रहा हूँ।

दारोगा : एक गठरी भी मैं आपके आदमी के सर पर देख रहा हूँ और अगर मेरी आँखें धोखा नहीं दे रही हैं तो उसमें जरूर कोई आदमी बँधा हुआ है। क्या मैं जान सकता हूँ कि वह कौन है?

यह सवाल सुन हेलासिंह कुछ तरद्दुद में पड़ गया। वह इस बात को जाहिर नहीं करना चाहता था कि उसमें सर्यू है मगर इसे छिपाते भी डरता था क्योंकि अगर दारोगा साहब देखना चाहते हों तो वह किसी तरह उन्हें रोक न सकता था। दारोगा साहब से अपना बहुत बड़ा काम निकलने की उसे उम्मीद थी इसलिए वह उन्हें किसी तरह भी नाराज नहीं करना चाहता था, आखिर उसने कहा, ‘‘गठरी में सर्यू बन्द है।’’

सर्यू का नाम सुनते ही दारोगा चौंक पड़ा और बोला, ‘‘हैं सर्यू! वह यहाँ कैसे आ गई?’’

हेला० : कैसे आई यह तो मैं नहीं कह सकता मगर उसके साथ प्रभाकरसिंह भी थे। वे जब एक शैतान से लड़कर गिरफ्तार हो गये तो मैं यह सोचकर सर्यू को उठा लाया कि या तो इन्द्रदेव के हवाले कर दूँगा या आपके, यों वह इस तिलिस्म में भूख-प्यास से मर जाती।

दारोगा :प्रभाकरसिंह इसके साथ थे और वे किसी शैतान से लड़कर गिरफ्तार हो गये! मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो! मगर खैर जो कुछ भी हो मेरे दोस्त, तुमने यह बहुत अच्छा किया कि इसे यहाँ ले आये। इसके अपने कब्जे से निकल जाने से मैं बड़ी सख्त परेशानी की हालत में घर के बाहर निकला था। इसे मेरे हवाले करो ताकि मैं इसे ऐसे ठिकाने भेज दूँ कि इसकी महक का भी किसी को पता न लगे और इसकी बदौलत मुझ पर और तुम पर जो आफत आने वाली है वह दूर हो।

हेला० : (ताज्जुब से) क्या इसके छूट जाने से हम लोगों पर कुछ आफत आ सकती है?

दारोगा : ओफ, कुछ आफत! अजी इतनी बड़ी कि हम दोनों का दुनिया में किसी को मुँह दिखाना मुश्किल हो जायेगा!

क्या तुमको नहीं मालूम कि यह कम्बख्त न सिर्फ उस कलमदान को खोलकर उसके अन्दर वाले सब कागजात पढ़ चुकी है जिसमें हमारी सभा का गुप्त भेद लिखा है बल्कि इसे वह समूचा हाल भी मालूम है जो तुम्हारी लड़की मुन्दर की शादी के बारे में....

हेला० : (घबड़ाकर) क्या वे सब बातें भी इसे मालूम हैं?

दारोगा : पूरी तरह से, इसीलिये तो मुझे इसको गिरफ्तार करना पड़ा था, खैर अब आइये देरी न कीजिए, भूतनाथ भी इस कम्बख्त की फिराक में घूम रहा है और किसी तरह उसे इसकी सुनगुन लग गई तो फिर और भी आफत आ जायेगी।

हेलासिंह कुछ देर के लिये चुप हो गया और इसी बीच में तेजी के साथ न जाने क्या-क्या सोच गया। इसके बाद उसने कहा, ‘‘आप खुशी से सर्यू को ले जा सकते हैं, यह आपकी चीज है, मगर इस बार इसे ऐसी तरह से रखियेगा कि फिर आपके फंदे से छूटने न पावे नहीं तो मुश्किल हो जायेगी और आपके साथ ही साथ मैं भी आफत में पड़ जाऊँगा!’’

दारोगा : आप निश्चिंत रहिये, इस दफा मैं इसे ऐसा बन्द करूंगा कि यमराज भी इसे न पा सकेंगे।

हेलासिंह यह सुन पीछे लौट गया और मुन्दर से संक्षेप में सब हाल और वहीं रुकी रहने की आज्ञा दे अपने उस आदमी को लिये दारोगा के पास वापस गया जिसके सर पर सर्यू की गठरी थी।

दारोगा ने कपड़ा हटा सर्यू की शक्ल खूब गौर से देखी और तब कहा, ‘‘कृपा कर इतनी तकलीफ और करें कि अपने आदमी को हुक्म दें कि इसे बाहर तक पहुँचा दे। वहाँ मेरा रथ खड़ा है जिस पर रख मैं इसे आसानी से निकाल ले जाऊँगा, जख्मी होने के कारण इसे खुद उठाने में मैं असमर्थ हूँ।’’

‘‘हाँ-हाँ, यह तो जरूरी बात है।’’कहकर हेलासिंह ने अपने आदमी को हुक्म दिया कि दारोगा साहब के साथ जाकर सर्यू को उनके रथ तक पहुँचा आवे। दोनों में कुछ बातें और हुईं और तब हेलासिंह को वहीं छोड़ दारोगा सर्यू की गठरी हेलासिंह के आदमी के सर पर उठाये लोहगढ़ी के बाहर निकल गया।

टीले के नीचे दो घोड़ों का एक हलका रथ खड़ा था जिसकी निगहबानी करने वाला कोई दिखाई नहीं पड़ता था।

सर्यू की गठरी उसी रथ पर रख दी गई, खुद दारोगा साहब ने रास सम्हाली और उस आदमी को इनाम के तौर पर कुछ दे रथ का पर्दा गिरा कर उसे तेजी के साथ हाँक दिया।

जब रथ लोहगढ़ी से दूर निकल कर एक निराले ठिकाने पर पहुँचा तो चारों तरफ गौर से देखभाल कर यह निश्चय कर लेने के बाद कि कोई छिपी निगाहें उनका काम देख नहीं रहीं है, दारोगा साहब ने रथ को रोक लिया और पर्दे के अन्दर जा कमर से लखलखा निकाल बेहोश सर्यू के सुंघाने लगे।

थोड़ी ही कोशिश में सर्यू की बेहोशी दूर हो गई और वह दो-तीन छींके मार कर उठ बैठी। अपने को एक रथ पर बैठे और सामने एक नकाबपोश को देख उसने ताज्जुब से कहा, ‘‘तुम कौन हो और मुझे कहाँ ले जा रहे हो?’’

नकाबपोश ने नकाब उलट दी और यकायक दारोगा को सामने पा सर्यू के मुँह से डर की एक चीख निकल गई, मगर दारोगा ने उसे दिलासा देकर कहा, ‘‘डरो नहीं, मैं जमानिया का वह दारोगा नहीं हूँ जिसने तुम्हें कैद किया था बल्कि दूसरा ही हूँ और मेरी यह सूरत बनावटी है। मैं इस समय तुम्हें दुश्मनों के फँदे से छुड़ा कर ले जा रहा हूँ।’’

सर्यू का डर कुछ कम हुआ मगर फिर भी उसे पूरा भरोसा न हुआ और उसने संदेह के साथ कहा, ‘‘मगर मैं कैसे जानूँ कि जो कुछ तुम कह रहे हो वह ठीक है?’’ यह सुन नकाबपोश ने कहा, ‘‘अफसोस है कि मुझे अभी कुछ देर तक इसी सूरत में रहना जरूरी है नहीं तो अपना चेहरा साफ कर दिखा देता, फिर अपना परिचय देने के लिए मैं एक शब्द कहता हूँ जिससे तुम जरूर मुझे पहिचान जाओगी।’’

इतना कह झुककर उसने सर्यू के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही वह चौंक पड़ी और ताज्जुब के साथ नकाबपोश की सूरत देखने लगी। नकली दारोगा ने कहा, ‘‘अगर अब भी तुम्हें विश्वास न हुआ हो तो कोई दूसरा परिचय दूँ!’’

सर्यू : नहीं-नहीं, और किसी परिचय की आवश्यकता नहीं, मगर मैं बड़े ताज्जुब में हूँ कि इतने दिनों तक आप कहाँ थे और क्या करते रहे तथा इस समय यकायक कैसे यहाँ आ पहुँचे?

नकली दारोगा : समय मुझे खींच लाया इसके सिवाय और क्या कह सकता हूँ। जब निश्चिंती के साथ अपना पूरा हाल तुम्हें सुनाऊँगा तो तुम्हें मालूम हो जायेगा कि मुझको यहाँ आने की क्या जरूरत पड़ी। इस समय जहाँ तक जल्दी हो सके मैं तुम्हें किसी निरापद स्थान में पहुँचा दिया चाहता हूँ क्योंकि समय बहुत थोड़ा है और दुश्मन का डर सब तरफ है।

इतना कह नकली दारोगा ने रथ के पर्दे पुनः गिरा दिये और तेजी के साथ रथ को हाँक दिया। थोड़ी ही देर बाद रथ अजायबघर की इमारत के पास जा पहुँचा। सीढ़ियों के पास लाकर दारोगा साहब ने रथ खड़ा किया और सर्यू से उतरने को कहा। इसके बाद वे खुद उतर पड़े और दोनों आदमी तेजी के साथ सीढ़ियाँ चढ़ अन्दर इमारत में चले गये।

इन दोनों के जाने के थोड़ी ही देर बाद एक नकाबपोश घोड़े पर चढ़ा हुआ उस जगह आ पहुँचा। अजायबघर के सामने एक रथ खड़ा देख उसे कुछ ताज्जुब हुआ। वह रथ के पास आया और झाँककर देखने लगा मगर रथ पर न तो कोई बैठा ही था और न कोई सामान ही उस पर था। नकाबपोश कुछ देर तक उसी जगह खड़ा रहा, इसके बाद घूमकर दूसरी तरफ गया जहाँ उसका एक और साथी उसी तरह की पोशाक पहिने और नकाब से सूरत छिपाये घोड़े पर चढ़ा मौजूद था।

इसने उससे कुछ बातें कीं और तब अपने घोड़े की लगाम उसके हाथ में दे घोड़े से उतर पैदल पुनः उधर को लौट गया जिधर वह रथ खड़ा था। एक गौर की निगाह उसने चारों तरफ डाली और तब फुर्ती से सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ अजायबघर के अन्दर चला गया।

इन तीनों को अन्दर गये घंटे भर से ऊपर हो गया मगर कोई बाहर न लौटा। अजायबघर के अंदर जाने वाले नकाबपोश का साथी वह दूसरा सवार खड़ा-खड़ा राह देखता हुआ घबरा गया। उसको गुमान था कि उसका साथी कुछ ही देर में अपना काम समाप्त करके लौट आवेगा, मगर ऐसा न होते देख उसे संदेह होने लगा कि वह किसी मुसीबत में तो नहीं फँस गया। वह थोड़ी देर तक और राह देखता रहा इसके बाद दोनों घोड़ों को पेड़ की झुरमुट में ले जाकर उनकी लगामें एक पेड़ की डाल के साथ अटका दीं और तब चारों तरफ की आहट लेता हुआ धीरे-धीरे अजायबघर की तरफ बढ़ा।

अभी वह फाटक से कुछ दूर ही होगा कि यकायक उसके कानों में किसी के चीखने की आवाज आई।

यह आवाज इमारत के अंदर से आती मालूम होती थी और कमजोर और पतली होने के कारण गुमान होता था कि किसी औरत की है। आवाज सुन यह नकाबपोश उसी जगह ठिठक गया पर फिर कोई आहट न हुई। तब वह पुनः आगे बढ़ा मगर पेड़ों की आड़ लेता हुआ और बहुत ही होशियारी के साथ। अभी वह इमारत के फाटक के पास नहीं पहुँचा था कि पुनः वैसी ही चीज की आवाज आई मगर इस बार की आवाज कहीं नजदीक ही से आई हुई मालूम होती थी तथा उसके साथ-साथ किसी मर्द के भी बोलने की आवाज मिली हुई थी।

इस आदमी का ताज्जुब और बढ़ गया और आखिर वह अपने को रोक न सका। अजायबघर के पास पहुँच सीढ़ियाँ चढ़ यह ऊपर पहुँचा और तब बगल की कोठरी से होता हुआ उस दालान में गया जो नहर के ऊपर बना हुआ था, मगर इसके आगे न जा सका क्योंकि दालान की दूसरी तरफ वाली कोठरी की दरवाजा बन्द था। वह रुक गया और सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिये।

यकायक पुनः वैसी ही चीख की आवाज आई। गौर करने से मालूम हुआ कि यह किसी कोठरी में से नहीं आ रही है बल्कि इमारत के भीतरी हिस्से में से कहीं से आ रही है। चीख के साथ किसी मर्द की आवाज भी थी जो कह रहा था, ‘‘अब भी अगर अपनी जान की खैर चाहती हो तो सब हाल ठीक-ठीक कह दे नहीं तो याद रख मैं तेरी बोटी-बोटी काट कर फेंक दूँगा!’’

इसके जवाब में औरत की हलकी आवाज आई, ‘‘हाय क्या बेमौत मारी जा रही हूँ! मैं जानती ही क्या हूँ जो तुम मेरी जान ले रहा है!’’ इस पर मर्द बोला, ‘‘मैं तुझ शैतान की बच्ची को बखूबी जानता हूँ, तू इस तरह नहीं मानेगी और न सीधे पूरा हाल ही बतावेगी! अच्छा ले।’’

उस आदमी ने न-जाने क्या किया कि उस औरत की दिल को दहला देने वाली एक चीख मारी, मगर यकायक उसी समय एक दूसरे आदमी की आवाज सुनाई पड़ी जो कह रहा था, ‘‘ठहर तो जा ऐ कम्बक्त, क्या गरीब औरत की जान लेकर ही बहादुर बनना चाहता है! आ पहिले मुझसे तो निपट ले।’’

इसके जवाब में उस पहिले मर्द ने कहा, ‘‘हाँ-हाँ, मैं तुझ कम्बख्त से भी समझने को तैयार हूँ! तू ही तो सब आफतो की जड़ है!!’’ इसके साथ ही तलवारों की झनझनाहटसुनाई पड़ी और आहट से मालूम हुआ कि भीतर गहरी लड़ाई हो रही है। यह दूसरा नकाबपोश बाहर के दालान में खड़ा बेचैनी के साथ सब कुछ सुन रहा था मगर न तो वह कुछ कर ही सकता था और न बहुत गौर करने पर भी यही जान सकता था कि इन दोनों आदमियों में से कोई इसका वह साथी भी है या नहीं।

वह लाचारी के साथ उसी दालान में टहलने और आनेवाली आवाजों और आहटों पर गौर करने लगा तथा साथ ही साथ यह जानने के लिये एक निगाह बाहर की तरफ भी रक्खे रहा कि कोई गैर आदमी तो इधर नहीं आ रहा है। लगभग पंद्रह मिनट तक तलवारों की झनझनाहट की आवाज आती रही और तब एक धम्माका सुनाई पड़ा जिसके बाद सन्नाटा हो गया। कुछ देर तक कोई आवाज न आई, इसके बाद ऐसा मालूम हुआ मानों कोई दरवाजा बड़े आहिस्ते से खोला गया है और कोई आदमी कहीं चल-फिर रहा है जिसके कुछ बोलने की आवाज भी कभी-कभी आ जाती थी। थोड़ी देर बाद पुनः उस दरवाजे के बन्द होने की आहट आई और तब सन्नाटा हो गया।

वह नकाबपोश देर तक खड़ा रहा मगर फिर किसी तरह की आवाज न आई। लाचार वह वहाँ से हटा और बाहर की तरफ लौटने के खयाल से पलटा, मगर उसी समय बगलवाली कोठरी के अन्दर से जिसका दरवाजा उसने पहिले बन्द पाया था, कुछ आवाज आई। इसका विचार हुआ कि रुककर सुने मगर आहट से मालूम हुआ कि कोई दरवाजा खोलने की कोशिश कर रहा है।

यह दरवाजा खोलने वाला न-जाने कौन है, उसका दोस्त है या दुश्मन, और अकेला है या कई आदमी हैं, यह सब सोच उसने वहाँ रुकना मुनासिब न समझा और तेजी के साथ उस कोठरी की तरफ बढ़ा जिसमें से होकर सदर फाटक में आने का रास्ता था मगर इसी बीच में वह दरवाजा खुल गया और उसमें से खून से लथपथ तथा एक टूटी हुई तलवार हाथ में लिये कोई आदमी बाहर निकला।

दरवाजे की आड़ में से इस दूसरे नकाबपोश ने जरा-सा घूमकर देखा तो अपने पहिले साथी को ही इस हालत में निकलते पा उसके ताज्जुब का ठिकाना न रहा। वह पलट पड़ा और उसके पास जाकर बोला, ‘‘हैं, यह आपकी क्या हालत हो गई? क्या वह लडाई आपही से हो रही थी जिसकी आहट मैं यहाँ खड़ा-खड़ा सुन रहा था?’’

जवाब में उस नकाबपोश ने कहा, ‘‘इस जगह रुकने या बात करने का बिल्कुल मौका नहीं है। मैं बहुत जख्मी हो गया हूँ और साथ ही बहुत खतरे में हूँ, मुझे सहारा दो और फुर्ती से इस जगह के बाहर निकल चलो नहीं तो दोनों की जान जायेगी।’’ यह सुन इसने फिर और कुछ न पूछा और सहारा देता हुआ उसे अजायबघर के बाहर निकाल ले गया।

इन दोनों को उम्मीद थी कि फाटक पर वह रथ खड़ा पाएँगे पर ऐसा न था, वह रथ गायब हो गया था। न–जाने कब कौन उसे लेकर चल दिया था। ताज्जुब करते हुए दोनों सीढ़ियाँ उतरे और उस तरफ चले जिधर इनके घोड़े बंधे थे।

दूसरे नकाबपोश ने कहा, ‘‘आप घोड़े पर सवार हो सकेंगे?’’ जवाब में इसने कहा, ‘‘हाँ, अगर सहारा देकर चढ़ा दोगे तो गिरूँगा नहीं।’’

दोनों अपने-अपने घोड़ों पर सवार हो गये और तेजी के साथ जमानिया की तरफ बढ़े।

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