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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


सुबह का समय है। इन्द्रदेव के कैलाश-भवन से चारों तरफ की पहाड़ियों की विचित्र छटा बड़ी सुहावनी नजर आ रही है। इन्द्रदेव अभी स्नान-पूजा आदि से निवृत्त होकर उठे हैं और अपने बैठने के कमरे की एक खिड़की के सामने खड़े होकर उस प्राकृतिक दृश्य को देख रहे थे जब एक चोबदार ने आकर कहा, ‘‘भूतनाथ ऐयार आये हैं।’

भूतनाथ का नाम सुनकर इन्द्रदेव चौंके और बोले, ‘‘उन्हें नीचे वाले बैठक में लाओ मैं वहीं चलता हूँ!’’ ‘‘जो हुक्म’’ कहता हुआ वह चोबदार चला गया और इन्द्रदेव वहाँ से हटकर महल के अन्दर चले गए। थोड़ी देर बाद जब वे नीचे पहुँचे तो भूतनाथ को बैठा पाया जो उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ। इन्द्रदेव ने बड़े प्रेम से उससे मुलाकात की और तब दोनों आदमी गद्दी पर जा बैठे।

इन्द्र० : कहो जी गदाधरसिंह, इस बार तो बहुत दिनों में आये।

भूत० : जी हाँ, तरद्दुदों और फिक्रों में मैं इस तरह डूबा हुआ था और अब तक डूबा हुआ हूँ कि किसी तरह फुरसत ही नहीं मिलती, मगर कई जरूरी खबरें आपको देनी थीं इससे आना ही पड़ा।

इन्द्र० : वे खबरें क्या हैं?

भूत० : पहिली बात तो उस गुप्त कमेटी के सम्बन्ध में है। यह तो आपको भी पता लग ही गया होगा कि उसके कर्ता-धर्ता जमानिया के दारोगा साहब हैं।

इन्द्र० : हाँ सन्देह तो जरूर ही मुझे है पर इसका कोई पक्का सबूत अभी तक मेरी आँखों के सामने से नहीं गुजरा। क्यों तुम्हें इस बात का पूरी तरह से विश्वास हो गया है?

भूत० : जी हाँ, और इन कागजों को पढ़ने से आपको भी किसी तरह का शक न रह जायगा।

भूतनाथ ने अपनी जेब में हाथ डाला और कुछ कागजात निकाल कर सामने रख दिया। इन्द्रदेव ने उन कागजों को सरसरी निगाह से देखा और तब यकायक चौंककर बोल उठे, ‘‘हैं, ये कागजात तुम्हारे हाथ कैसे लग गये!’’

भूत० : (मुस्कुरा कर) इन्हें मैं खास उस कमेटी से लूट लाया हूँ, उस समय शायद आप भी वहाँ मौजूद थे जब कुछ लोग कमेटी पर डाका डाल और बहुत-सा सामान लूट ले गये थे।

इन्द्र० : (मुस्कुराकर) अच्छा तो वह तुम्हारा ही काम था! मुझे उसी समय सन्देह हुआ था परन्तु तब कुछ बोलना या छेड़ना मुनासिब न समझा (फिर से कागजों को देखकर) ये कागज तो बड़े ही कीमती हैं, ये अगर गोपालसिंह को दिखला दिये जाएं तो वे एकदम ही इस कमेटी को जड़ से नाश करके अपने दुश्मनों से हमेशा के लिए बेफिक्र हो सकते हैं। तुम ये कागज मुझे सिर्फ दिखाने को ही लाये हो या मैं इनसे कुछ काम ले सकता हूँ?

भूत० : आप मालिक हैं जो चाहें कर सकते हैं, पर कुछ सबब ऐसे आ पड़े हैं जिनसे मैं अभी यह मुनासिब नहीं समझता कि राजा गोपालसिंह इन कागजों को देखें।

इन्द्र० : (ताज्जुब से) वे सबब क्या हैं?

भूत० : यह भी मैं बयान करूँगा मगर पहले कई जरूरी बातें आपको सुना दूँ। आप शायद इन्दिरा से तो मिल ही चुके होंगे?

इन्द्र० : हाँ बलभद्रसिंह स्वयं मेरे पास आये थे और सब हाल मुझसे कहकर तुम्हारी बहुत तारीफ करते थे। इसके बाद में उनके साथ उनके घर जाकर इन्दिरा से मिल भी आया मगर उसे अपने यहाँ लाया नहीं, क्योंकि मैंने देखा कि अपने घर लाने की बनिस्बत उसे कुछ समय तक बलभद्रसिंह के पास छोड़ देना ही मुनासिब होगा, ऐसा करने से दुश्मनों को सन्देह न होगा और मैं भी घर की चिन्ता छोड़ बाहर रह कर पूरी बेफिक्री के साथ काम कर सकूँगा।

इसके सम्बन्ध में धन्यवाद का पत्र लेकर मेरा शागिर्द आज ही तुम्हारे पास जाने वाला था।

भूत० : यह तो आप मुझे शर्मिन्दा करने की बातें करने लगे, या शायद आपने अभी तक पूरे दिल से मुझे माफ नहीं किया और अभी भी मुझ पर शक की निगाहें ही डाल रहे हैं। क्या अपनी ही लड़की को दुश्मनों के हाथ से छुड़ाना किसी पर अहसान करना है?

इन्द्र० : नहीं, सो तो नहीं है, खैर जैसा तुम समझो, अच्छा और क्या बात है?

भूत० : आपकी सर्यू तो आपके पास पहुँच ही गई होंगी? मैंने उन्हें भी छुड़ाने का उद्योग किया था पर यह सुना कि आपका ऐयार उन्हें दारोगा के घर से ले गया अस्तु चुप रह गया।

इन्द्र० : नहीं, सर्यू तो मेरे यहाँ नहीं पहुँची।

भूत० : वह आपके यहाँ नहीं पहुँची? क्या सिद्ध बाबाजी बनकर आपका कोई आदमी उन्हें दारोगा साहब के मकान से नहीं निकाल लाया?

इन्द्र० : एक आदमी गया जरूर था मगर वह दुश्मनों के फेर में पड़ गया और सर्यू भी कहीं गायब हो गई। तब से अब तक मैं उसको ढूँढ़ रहा हूँ लेकिन कुछ पता नहीं लगता है।

भूत० : (ताज्जुब से) अच्छा! यह बात मुझे कुछ भी मालूम नहीं, अच्छा मैं पुनः उद्योग करूँगा और अगर दारोगा के कब्जे में वह होंगी तो जरूर निकाल लाऊँगा।

इन्द्र० : जरूर ऐसा करना क्योंकि तुम इस सम्बन्ध में मुझसे कहीं ज्यादा काम कर सकते हो। हाँ, खूब खयाल आया, क्या बलभद्रसिंह को तुमने कहा था कि उनकी जान के पीछे दुश्मन लगे हुए हैं जो यह भी चाहते हैं कि गोपालसिंह के साथ लक्ष्मीदेवी की शादी न होने पावे।

भूत० : जी हाँ, मैंने उनसे कहा था और मुझे उम्मीद है कि आप भी उन्हें बहुत होशियार कर देंगे। उनकी और उनके रिश्तेदारों की जान बहुत खतरे में है और अफसोस यह कि मेरे होशियार कर देने पर भी वे सम्हले नहीं हैं।

इन्द्र० : आखिर बात क्या है सो तो बताओ!

भूत० : असल बात तो वही है जो शायद आपको भी मालूम ही होगी यानी दारोगा साहब चाहते हैं कि उनके परममित्र हेलासिंह की लड़की मुन्दर से गोपालसिंह की शादी हो जाय ताकि वह राजरानी बन जाय।

इन्द्र० : हैं! यह क्या तुम ठीक कह रहे हो?

भूत० : बिलकुल ठीक, मगर क्या आपको इसकी खबर नहीं?

इन्द्र० : मैंने उड़ती हुई कुछ ऐसी खबर बेशक सुनी थी मगर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया था कि ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता। यह सोचने का केवल यही कारण न था कि दारोगा साहब अपने मालिक राजा गोपालसिंह के साथ ऐसा दगा नहीं करेंगे, बल्कि यह भी था कि बलभद्रसिंह दारोगा साहब के बड़े पुराने दोस्त हैं और उनकी बेटी को दारोगा अपनी बेटी की तरह समझता है।

भूत० : यह सब उस की धूर्तता है। मुझे ठीक-ठीक मालूम हो चुका है कि दारोगा लक्ष्मीदेवी की जान लेना चाहता है बल्कि यहाँ तक चाहता है कि बलभद्रसिंह, उनकी स्त्री, लड़कियाँ और लड़के सभी यमलोक को सिधार जायं, और इस बात का बहुत सच्चा सबूत मेरे पास मौजूद है!

इतना कह भूतनाथ ने अपना बटुआ खोला और उस में से कोई चीज खोजने लगा मगर शायद न पाकर थोड़ी देर बाद बोला, ‘‘अफसोस, उन कागजों को मैं घर ही छोड़ आया! खैर इस चीठी से भी आपको विश्वास हो जायगा कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ बहुत ठीक कह रहा हूँ।’’

कह कर भूतनाथ ने एक कागज जो चीठी की तरह मोड़ा हुआ था बटुए में से निकाल कर इन्द्रदेव के हाथ में दे दिया, उन्होंने उसे गौर से पढ़ा, यह लिखा हुआ था:—

‘‘मेरे भाग्यशाली मित्र हेलासिंह,

मुबारक हो, आज हमारी जहरीली मिठाई बलभद्रसिंह के घर में जा पहुँची। इसका जो कुछ नतीजा देखूँगा अगली चीठी में लिखूँगा। वास्तव में तुम किस्मतवर हो।

-वही भूतनाथ’’

चीठी का मजमून पढ़ कर इन्द्रदेव के चेहरे पर चिन्ता की एक छाया दौड़ गई वे ताज्जुब से भूतनाथ का मुँह देखने लगे।

भूत० : इस चीठी की लिखावट से ही आप समझ गये होंगे कि इसका लिखने वाला कौन है!

इन्द्र : बखूबी!

भूत० : और जिस मिठाई की तरफ इशारा है उसने बलभद्रसिंह के घर में पहुँच कर क्या किया होगा इसे भी आप समझ ही सकते हैं।

इन्द्र० : बहुत ही अच्छी तरह!

भूत० : अस्तु अब आपको इस बात में भी सन्देह न रह गया होगा कि बलभद्रसिंह कैसा आफत में फँस गये हैं।

इन्द्र० : नहीं, अब मुझे कोई संदेह नहीं रहा। तुमने बहुत अच्छा किया जो मुझे इस बात की खबर दी। मैं बलभद्रसिंह को अच्छी तरह होशियार कर दूँगा और खुद भी जहाँ तक हो सकेगा उनके बचाव का बन्दोबस्त करूँगा, मगर तुम इतना सुन कर निश्चिन्त न हो जाओ। बलभद्रसिंह हमारा-तुम्हारा लंगोटिया दोस्त है और उस पर किसी तरह की मुसीबत आने से हम सभी को कष्ट होगा। तुम्हें इस विषय में जब कभी जो कुछ भी मालूम हो बराबर मुझे बताते रहना।

भूत० : बहुत खूब, मगर इस संबंध में इतनी प्रार्थना मेरी है कि जिन लोगों को धोखे में डाल कर मैंने इस भेद का पता पाया है उन्हें यह न मालूम हो कि मैं उनका भण्डा फोड़ रहा हूँ, नहीं तो वे केवल मेरे दुश्मन ही न हो जाएँगे बल्कि भविष्य में उन लोगों की नई कार्रवाई जानने का रास्ता भी बंद हो जायेगा।

इन्द्र० : नहीं नहीं, इस बात से तुम पूरी तरह से निश्चिंत रहो, मैं ऐसी कोई भी कार्रवाई न करूँगा जिससे तुम्हें जरा भी तरद्दुद उठाना पड़े।

भूत० : यह तो मुझे विश्वास है। अच्छा अब अगर आप नाराज न हों तो आपसे एक बात पूछूँ।

इन्द्र० : (ताज्जुब से) ऐसी कौन-सी बात हो सकती है जिसके पूछने से मैं नाराज हो जाऊँगा! तुम जो कुछ पूछना चाहते हो खुशी से पूछो।

भूत० : क्या आपके कब्जे में या आपके इस मकान के आसपास लोहगढ़ी नामक कोई तिलिस्म है?

इन्द्र० : (चौंक कर) लोहगढ़ी!

भूत० : जी हाँ, लोहगढ़ी!

इन्द्र० : यह नाम तुमने कहाँ और किससे सुना?

भूत : जमानिया के दारोगा साहब से।

इन्द्र० : (कुछ सोच कर) हाँ, इस नाम का एक तिलिस्म है जरूर परंतु मुझे उससे कोई संबंध नहीं और न वह मेरे कब्जे में ही है।

वह जमानिया तिलिस्म की एक शाखा है और जहाँ तक मुझे खबर है उसका भेद इस समय हेलासिंह के कब्जे में है। मगर तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो? लोहगढ़ी से तुमसे क्या मतलब?

भूत० : (कुछ हिचकता हुआ) मैंने उसके बारे में कुछ विचित्र बातें सुनी हैं।

इन्द्र० : क्या?

भूत० : पर उन्हें मैं आपसे बयान करते डरता हूँ।

इन्द्र० : (हँस कर) मुझे कुछ रंग बेढब दिखाई पड़ता है। आखिर मामला क्या है जो तुम इस तरह की बातें कह कर मेरा कौतूहल बढ़ा रहे हो! कुछ साफ-साफ कहो भी तो!

भूत० : अच्छा तो मैं साफ-साफ ही कहता हूँ। मुझे खबर लगी है कि उसी तिलिस्म में दयाराम कैद हैं!

इन्द्र० : (हँस कर) वाह, यह भी खूब कही! दयाराम का इन्तकाल हुए तो बरसों हो गये और तुम बखूबी जानते हो।

फिर इस खबर पर तुम्हें विश्वास क्योंकर हो गया! भला इसे भी कोई मान सकता है कि दयाराम जीते हैं और किसी तिलिस्म में कैद हैं?

इन्द्र० : खैर जमना, सरस्वती का कहीं होना तो मैं मान सकता हूँ क्योंकर वे बहुत दिनों से गायब हैं और मैं अभी तक उनकी खोज में परेशान हूँ, मगर दयाराम के जिन्दा और किसी तिलिस्म में होने की बात पर मैं किसी तरह विश्वास नहीं कर सकता तुमने एक बार पहिले भी इसी तरह की खबर सुनाई थी जिस पर मैंने बहुत कुछ खोज की और परेशानी भी उठाई मगर नतीजा कुछ न निकला और अन्त में वह खबर झूठी निकली।

आज फिर वही बात तुम्हारे मुँह से सुन रहा हूँ! मैं समझता हूँ कि इस तरह की खबरें परेशान करने के लिए ही कोई तुम्हें देता है बल्कि संभव है कि तुम्हारे दारोगा साहब के ही ये मंत्र फूँके हुए हों।

भूत० : इस दफे तो बेशक दारोगा ने ही यह बात मुझसे कही और यहाँ तक जोर देकर कही है कि मुझे उसका कहना मान लेना पड़ा है। उसने तो यहाँ तक कहा कि वह अपने साथ ले जाकर उन लोगों को वहाँ दिखा सकता है।

इन्द्र० : तब तो मैं अवश्य कहूँगा कि जरूर उसके साथ जाओ और देखो कि उसके कहने में कहाँ तक सच्चाई है। यद्यपि दयाराम को जीता देखकर मुझसे ज्यादा प्रसन्नता शायद किसी को भी नहीं होगी पर यों ही झूठमूठ मृगतृष्णा पर दौड़ना मैं बिल्कुल व्यर्थ समझता हूँ, हाँ इतना जरूर कहूँगा कि अगर कोई दयाराम दारोगा साहब तुम्हारे सामने पेश करें तो इस बात का अच्छी तरह निश्चय कर लेना कि वे सचमुच ही दयाराम हैं और दारोगा का कोई ऐयार नहीं क्योंकि ताज्जुब नहीं कि दारोगा किसी झूठे दयाराम को तुम्हें दिखलाकर अपना कोई काम साधने की फिक्र में हों।

भूत० : नहीं नहीं, मैं ऐसी गलती कदापि नहीं कर सकता। क्या आप समझते हैं कि दयाराम को सामने पाकर भी मैं उनके पहिचानने में भूल कर जाऊँगा!

इन्द्र० : नहीं नहीं, सो तो मैं नहीं समझता पर अपना खयाल तुम पर जाहिर कर दिया, क्योंकि दारोगा साहब के लिये कोई बात मुश्किल नहीं है। मगर भूतनाथ, मुझे शक होता है कि इस विषय में तुम मुझे सब बातें साफ-साफ नहीं कहते हो, जरूर कुछ छिपा रहे हो।

भूत० : (जिसका चेहरा इन्द्रदेव की यह बात सुन कर कुछ उतर-सा गया) नहीं नहीं, ऐसा तो नहीं है, मैं तो सब कुछ साफ-साफ आपसे कह रहा हूँ और मुझे विश्वास है कि मेरी बातों में कहीं भी झूठ की गंध आपने न पाई होगी।

इन्द्र० : नहीं नहीं, मैं झूठ कहने का दोष तुम पर नहीं लगा रहा हूँ, मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूँ कि इस बारे में तुम कुछ मुझसे छिपा रहे हो।

भूत० : ऐसा शक आपको क्यों होता है?

इन्द्र० : बस यों ही! दारोगा तुम्हें दयाराम के जीते होने की खबर दे, लोहगढ़ी में उनका होना बतावे जो खास उसके मित्र के कब्जे में है, और उसका संबंध मुझसे जोड़े, ये सब ऐसी बातें हैं जो यकायक मन में नहीं धंसती। अगर दयाराम वास्तव में मरे नहीं और जीते होकर कहीं कैद में हैं तो दारोगा सबसे पहिला आदमी है जिसके हक में उनका छूटना जहर का काम करेगा, तुम्हारे लिए उनका प्रकट हो जाना जितना अच्छा है दारोगा के हक में उनका मरे रहना वैसा ही उत्तम है और इस बात को वह अच्छी तरह समझता भी है फिर भी वह तुम्हें ऐसी खबर देता है इससे मुझे ताज्जुब होता है। या तो उसके मन में कुछ कपट है और या फिर किसी कारण से बहुत लाचार हो गया है ऐसा मुझे जान पड़ता है।

भूत० : जी हाँ, वह बड़ी लाचारी में पड़ गया और तभी उसने यह भेद बताया। मैंने आपसे कहा न कि उसकी सभा से इन्दिरा वाला कमलदान मैं ही लूट लाया था। उस कमलदान में जो कुछ है वह तो आप बखूब जानते ही हैं अस्तु उसके लिये दारोगा जहाँ तक व्याकुल हो थोड़ा है, उसी को वापस पाने के लिये वह सब कुछ करने को तैयार है और तभी उसने यह खबर दी है।

इन्द्र० : वह अगर दयाराम को जीते-जागते तुम्हें दिखा दे तो क्या तुम वह कमलदान उसे वापस कर दोगे?

भूत० : सिर्फ दयाराम को दिखा देने का ही सवाल नहीं है। उससे बीस हजार अशर्फी मैंने इसके लिये वसूल की है और यह इकरारनामा भी लिखा लिया है कि भविष्य में राजागोपालसिंह या आपसे थवा आपकी स्त्री और लड़की आदि से किसी प्रकार का भी बुरा बर्ताव न करेगा। देखिये यह इकरारनामा मौजूद है।

कहकर भूतनाथ ने एक कागज बटुए से निकालकर इन्द्रदेव के हाथ में दिया जिसे वे सरसरी निगाह से पढ़ गये और तब उसे वापस करते हुए बोले, ‘‘मालूम होता है कि इस इकरारनामे और दयाराम को दिखा देने के वादे पर विश्वास करके तुम वह कलमदान दारोगा को वापस कर देना चाहते हो!

भूत० : जी हाँ, बल्कि मैंने वापस कर दिया। मगर क्या आप समझते हैं कि वह अपना वादा पूरा न करेगा?

इन्द्र० : (चौंककर) हैं! वापस कर दिया!!

भूत० : (सुस्त होकर) जी हाँ, मगर क्या आपकी निगाह में यह अच्छा नहीं हुआ?

इन्द्रदेव ने एक लम्बी साँस ली और किसी चिन्ता में पड़ कर सिर झुका लिया। भूतनाथ आश्चर्य और दुख से उनकी सूरत देखने लगा। क्योंकि इन्द्रदेव का चेहरा देख उसे ऐसा मालूम हुआ मानों उन्हें कोई बड़ा गहरा दुःख हुआ है। भूतनाथ कुछ देर तक उनका मुँह देखता रहा और जब वे कुछ न बोले तो धीरे से बोला, ‘‘मालूम होता है, वह कलमदान लौटाकर मैंने गलती की!’’

इन्द्रदेव ने एक दुःख-भरी निगाह भूतनाथ पर डाली और फिर एक ठंडी साँस लेकर कहा, ‘‘गदाधरसिंह, तुम्हारे ऐसा जमाना देखे हुआ ऐयार भी ऐसी भूल करेगा यह मुझे स्वप्न में भी गुमान नहीं हो सकता था। क्या तुम समझते हो कि वह दारोगा जिसने अपने माता-पिता के साथ घात किया, भाइयों के साथ दगा की, मालिक को जहन्नुम में मिलाया और जमाने भर की बुराइयों का पुतला बना रहा वहीं मौका पड़ने पर इस इकरारनामे का खयाल करेगा!

क्या तुम समझते हो कि अगर कभी मुझे, मेरी स्त्री, लड़की या गोपालसिंह को इस दुनिया से उठा देना उसकी निगाह में जरूरी हो जायेगा तो वह इस कागज के टुकड़े का खयाल करेगा और अपने इरादे से बाज रहेगा? अगर तुमने ऐसा समझा है तो बड़ी भारी भूल की है और कभी-न-कभी इसका फल तुम्हें बहुत ही भयानक रूप से उठाना पड़ेगा। जब तुमने बीस हजार अशर्फी और यह इकरारनामा लेकर कलमदान लौटा दिया तो जरूर यह भी वादा कर दिया होगा कि अब तुम इस संबंध में उसके साथ किसी तरह की दुश्मनी का बर्ताव न करोगे और उसके इन ऐबों पर पर्दा डाल दोगे।

ठीक है, तुम्हारी सूरत कह रही है कि तुमने यह वादा किया है! तब जरूर है कि तुम अपनी तरफ से कोई ऐसी बात न करोगे जिससे उसके ऊपर किसी तरह की आँच आवे। मगर दारोगा को—अगर कभी उसने हम लोगों के साथ दुश्मनी की जरूरत देखी तो इस तरह का तरद्दुद कोई भी न होगा और वह बेखटके जो कुछ भी चाहेगा कर गुजरेगा। अफसोस भूतनाथ, तुम्हारे लालच ने बहुत बुरा किया। तुमने यह काम बहुत नामसमझी का किया और किसी-न-किसी दिन इसका नतीजा तुम्हें भोगना पड़ेगा। उस समय तुम्हें मेरी बात याद आयेगी और तुम समझोगे कि तुमने कैसी भयानक गलती की है!’’

इतना कह कर इन्द्रदेव चुप हो गये और गर्दन झुका के कुछ सोचने लगे। भूतनाथ भी उनकी बातें सुन कर सन्न हो गया और उसने भी अपना सिर झुका लिया। सच तो यह है कि उसे भी अपनी भूल मालूम हो गई थी और वह जान गया था कि लालच में पड़ कर कलमदान लौटा देने का बहुत बुरा असर होगा। उसे अपनी इस भूल पर अफसोस होने लगा और वह यहाँ तक दुःखी हुआ कि उसकी आँखों से आँसू टपकने लगीं।

थोड़ी देर तक इन्द्रदेव चुपचाप कुछ सोचते रहे इसके बाद उन्होंने सिर उठाया और भूतनाथ की हालत देखकर कहा, ‘‘खैर अब अफसोस करने से क्या फायदा? जो कुछ होना था वह तो हो गया। तुम मेरे दोस्त हो, सैंकड़ों दफे अपनी जुबान से मैंने तुम्हें दोस्त कहा है और तुम्हारे पचासों कसूर माफ किये हैं। इस बार भी वही होगा! जो कुछ तुम कर आये उसे मैं मंजूर करता हूँ। अब मैं दारोगा को एकदम से ही भूल जाता हूँ और अपनी स्त्री और लड़की का भी ध्यान भुला देता हूँ।

अब चाहे उन पर कैसी आफत क्यों न आवे और दारोगा के सबब से मुझे स्वयं भी चाहे कितना कष्ट क्यों न उठाना पड़े मगर मैं दारोगा के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करूँगा क्योंकि तुम, जो मेरे दोस्त हो, उसका कसूर माफ कर चुके हो आज से इस सम्बन्ध में मैं कभी दारोगा का नाम भी अपनी जुबान से न निकालूँगा और न अपनी स्त्री के विषय में ही किसी से कुछ कहूँगा। तुम्हे जो कुछ करना हो बेधड़क करो और मेरा कुछ भी खयाल न करो, दारोगा को अब मेरी तरफ से कुछ भी डरने की जरूरत नहीं वह जो चाहे करे और तुम्हारे जो मन में आवे सो तुम करो, मैं किसी भी बात में दखल न दूँगा।

जो कुछ दारोगा ने मेरे मित्रों और प्रेमियों के साथ किया था उसके लिये मैंने सोचा था कि उसे ऐसी सजा दूँगा कि गली के कुत्तों को भी उसकी हालत पर रहम आवेगा, पर मालूम होता है ईश्वर को यह मंजूर नहीं कि उसके कर्मों का फल उसे मेरे हाथों से मिलता, जब तुम उसे छोड़ चुके तो मैंने भी उसे माफ किया। तुम अगर चाहो तो भले ही उससे कह दो कि इन्द्रदेव को इन बातों की कुछ भी खबर नहीं है। मैं भी अपने को ऐसा ही बनाये रहूँगा कि उसे किसी तरह का शक न होने पावेगा और वह मुझे निरा उल्लू ही समझता रहेगा। मैं अब अपना न्याय ईश्वर के हाथों में सौंपता हूँ। वह सर्वशक्तिमान जो चाहे करे मुझे सब मंजूर होगा। मगर भूतनाथ, मैं यह कहने से बाज न आऊँगा कि तुम्हारी लालच और तृष्णा ने मुझे चौपट कर दिया।’’

कहते हुए इन्द्रदेव की आँखें डबडबा आईं और उन्होंने बहुत मुश्किल से अपने को रोका। भूतनाथ की हालत भी बहुत ही खराब थी। उसकी आँखों से चौधारे आँसू बह रहे थे और उसकी सूरत बतला रही थी कि उसे अपनी करनी पर बड़ा अफसोस हो रहा है।

यकायक अपना बटुआ उठा कर भूतनाथ खड़ा हो गया। इन्द्रदेव ताज्जुब से उसकी सूरत देखने लगे मगर वह बोला, ‘‘मेरे दोस्त, मुझे माफ करो! सचमुच मैंने बड़ी भारी भूल की! मैं जाता हूँ और जिस तरह से भी हो अभी वह कलमदान वापस लेकर तुम्हें देता हूँ। अब भी मैं दारोगा को कभी न छोड़ूँगा और जो कुछ उससे पाया है वह सब वापस करके उसे ऐसी सजा दूँगा कि वह भी याद करेगा!’’

इतना कहकर भूतनाथ दरवाजे की तरफ बढ़ा मगर उसी समय लपककर इन्द्रदेव ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘यह क्या! तुम चले कहाँ? क्या तुम समझते हो कि मैंने कुछ तुम्हें कहा है वह ताने के तौर पर कहा है? नहीं-नहीं मैंने अपने दिल की बातें तुम्हें कहीं जिन्हें अब कोई वापस नहीं ले सकता। अब तो जो होना है हो चुका। अब तो जो कुछ तुमने और मैंने किया और कहा उसमें से कुछ भी वापस नहीं होगा। जो कुछ हो चुका उसके बर्खिलाफ हमसे कोई भी अब कह और कर न सकेगा। आओ और अपनी जगह पर बैठो।’’

इन्द्रदेव ने जबर्दस्ती खींच कर भूतनाथ को अपनी जगह पर ला बिठाया दोनों दोस्त कुछ देर तक चुपचाप सिर नीचा किये बैठे रहे। इसके बाद भूतनाथ बोला, ‘‘मेरे दोस्त-मुझे माफ करना! मुझसे वास्तव में ऐसी भूल हो गई जिसका मुझे जन्म भर पछतावा रहेगा। मैं खूब जानता हूँ कि तुमने अब तक किस प्रकार मेरी गलतियों को क्षमा किया है और बराबर मुझे सुधारने का ही उद्योग करते रहे हो! तुम्हारी सहनशीलता की हद नहीं है। सचमुच तुम्हारे दिल की गहराई की थाह मैंने आज तक पाई न थी। असल तो यों है कि कम्बख्त दारोगा ने मुझे उल्लू बनाया!

उसने ऐसी-ऐसी बातें कहीं कि थोड़ी देर के लिये मैं सचमुच यह समझ बैठा तुम मेरे साथ दगा कर रहो हो। अब मुझे साफ-साफ कह देने में भी संकोच नहीं है कि दारोगा ने मुझसे यह कहा कि दयाराम को तुम्हीं ने कैद किया, तुम्हीं ने उसके मारे जाने का इलजाम मेरे सिर पर थोपा और अब तुम्हीं ने उन्हें तिलिस्म में कैद कर रक्खा है। अब जो वह बातें खयाल करता हूँ तो मुझे ताज्जुब होता कि उस समय मेरी अक्ल कहाँ चरने चली गई थी! मगर मेरे दोस्त, मुझे एक बार फिर मौका दो कि मैं अपने मुँह की कालिख धो सकूँ। मुझे इजाजत दो कि जाऊँ और वह कलमदान वापस लाऊँ।’’

इन्द्र० : यह विचार अब बिल्कुल छोड़ दो। जो कुछ होना था वह हो चुका। तुम भी मर्द हो मैं भी मर्द हूँ। मर्दों की जुबान से जो निकल गया वह फिर वापस नहीं लौट सकता।

भूत० : ठीक है, मगर मेरे लिये यह बात लागू नहीं, जिसकी जिन्दगी ही दगा, फरेब, झूठ और लालच में बीती है। न-जाने कितने वादे मैंने किये और तोड़े। तुम इसे भी उसी लम्बी फिहरिस्त में जाने दो और मुझे एक बार अपने मन वाली कर लेने दो।

इन्द्र० : नहीं-नही गदाधरसिंह, इसका अब तुम खयाल भी न करना, मैं तुम्हारी इष्टदेवी भगवती दुर्गा की शपथ देता हूँ कि इस संबंध में अब कोई बात तुम कदापि न करना। जो हुआ हो गया, अब उसका अफसोस ही क्या है! दुनिया में यह सब हुआ ही करता है और इसके लिये अफसोस करना भूल है।

भूत० : मगर भूल को सुधारना भी तो मनुष्य का ही कर्त्तव्य है।

इन्द्र० : बेशक, और भूल को अगर तुम सुधारना ही चाहते हो तो सिर्फ यही कर सकते हो कि ऐसी भूल पुनः न करो। बस यही तुम्हारे लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित होगा।

भूतनाथ ने बहुत कुछ कहा मगर इन्द्रदेव ने एक न मानी। आखिर लाचार भूतनाथ ने उसका जिक्र छोड़ दिया। दोनों में थोड़ी देर तक कुछ बातें होती रहीं जिसके बाद भूतनाथ उठ खड़ा हुआ। इन्द्रदेव भी उठ खड़े हुए और उसे दरवाजे तक पहुँचा गये।

उसे बिदा करते हुए भी उनके शब्द ये ही थे, ‘‘खबरदार भूतनाथ, मेरी कसम का खयाल रखना!’’ भूतनाथ ने कुछ जवाब न दिया क्योंकि उसका गला भरा हुआ और आँखें डबडबाई हुई थीं। जिस समय वह लम्बे-लम्बे डग मारता हुआ पहाड़ी के नीचे उतर रहा था उसके कपड़े आँखों से गिरे आँसुओं की बदौलत तर हो रहे थे।

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