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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


संध्या होने में कुछ ही देर बाकी थी जब प्रभाकरसिंह को होश आई और उन्होंने आँख खोलकर अपने चारों तरफ देखा।

उन्होंने देखा कि वे एक बड़े ही विचित्र और डरावने स्थान में जमीन पर पड़े हुए हैं। एक काले पत्थर का बना हुआ बहुत बड़ा कमरा है जिसका पूरा फर्श जानवरों तथा आदमियों की हड्डियों से भरा हुआ है और दीवारों के साथ-साथ बहुत-से हड्डियों के ढाँचों की कतार कमरे को चारों तरफ से घेरे हुए हैं जिनमें आदमी के तथा और भी सभी प्रकार कि जानवरों के ढाँचे हैं और जो देखने में बड़े डरावने मालूम होते हैं।

कमरे के बीचोंबीच में एक कुण्ड है जिसमें तेज आँच सुलग रही है मगर वह लकड़ी या कोयले की नहीं है बल्कि किसी और ही चीज की है क्योंकि उसकी लपट नीलापन लिए हुए पीले रंग की है और उसमें से धूआँ इतना बेहिसाब निकल रहा है कि समूचा कमरा भर रहा है।

उस आँच के अन्दर भी बहुत-सी हड्डियाँ पड़ी हुई सुलग रही हैं जिनसे एक तरह की बदबू निकल कर चारों तरफ फैल रही है, अगर कमरे की छत में एक बहुत बड़ा छेद न होता और उसकी राह बहुत-सा धूआँ बराबर निकला न जा रहा होता तो इसमें सन्देह नहीं कि कमरे में पलभर के लिए भी रहना मुश्किल हो जाता।

घूमती हुई प्रभाकरसिंह की निगाह यकायक मालती पर पड़ी जो उनसे कुछ ही दूरी पर बेहोश पड़ी हुई थी। वे उसे देखते ही चौंक पड़े और उसके पास पहुँच कर उसे होश में लाने कि फिक्र करने लगे।

थोड़ी देर की कोशिश में ही मालती को होश आ गया। वह उठ कर बैठ गई मगर अपने चारों तरफ का डरावना सामान देखते ही उसके मुँह से चीख निकल गई और उसने डर से आँखें बन्द कर लीं। प्रभाकरसिंह ने दिलासा देकर उसे शान्त किया और पूछा, ‘‘मालती, तुम यहाँ कैसे आ पहुँची?’’

मालती : मेरा हाल बहुत लम्बा-चौड़ा है जिसे सुनाने के लिए समय चाहिए, आप मुझे बताइये कि यह कौन-सी जगह है और हमलोग यहाँ कैसे आ पहुँचे?

प्रभा० : मैं इस बारे में सिवाय इसके और कुछ नहीं कह सकता कि यह शायद उसी तिलिस्मी शैतान के रहने की जगह है जिससे लड़कर मैं बेहोश हुआ था। ऐसी डरावनी और गन्दी जगह आज तक मैंने कहीं देखी नहीं।

मालती : हाँ देखिये न हड्डियों से समूचा कमरा भरा हुआ है, कहीं पैर रखने की जगह नहीं है, हमलोग हड्डियों ही पर बैठे हुए हैं, (चारों तरफ की दीवाल दिखाकर) और यह देखिए जानवरों की हड्डियों का अजायबघर ही यहाँ मौजूद है, शायद ही कोई जानवर ऐसा हो जिसका ढाँचा यहाँ मौजूद न हो। न जाने इतनी हड्डियाँ यहाँ कैसे इकट्ठी हो गई हैं!

प्रभा० : (हँसकर) शायद उस तिलिस्मी शैतान ने जिन जानवरों को खाया है उनकी हड्डियाँ यहाँ जमा कर रक्खी हैं ताकि कभी खूराक न मिले तो इन हड्डियों को ही चबा कर वह पेट भर ले!

मालती : (काँप कर) आप हँस रहे हैं और मेरी डर के मारे जान सूख रही है। किसी तरह यहाँ से निकलने की फिक्र करिये। यहाँ अगर थोड़ी देर और मैं रहूँगी तो जरूर पागल हो जाऊँगी।

प्रभा० : बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता, चारों तरफ की दीवार साफ चिकनी है जिसमें एक भी दरवाजा नहीं है, सिर्फ ऊपर की तरफ चार रोशनदान हैं और या फिर वह बीचवाला छेद है जिसमें से धूआँ बाहर जा रहा है, मगर वहाँ तक पहुँचना असम्भव है।

मालती : इस अग्निकुण्ड की आँच अगर बुझ सके तो देखा जाय शायद इसके अन्दर से कोई रास्ता हो।

प्रभा० : हो सकता है, मगर इसकी आग बुझाई किस तरह जाय!

मालती : यह आँच है किस तरह की? इसका रंग देखिए कैसा है! मालूम पड़ता है मानो किसी मसाले की आग हो, तमाशा यह देखिए कि ये हड्डियाँ भी उस आँच में सूखी लकड़ी की तरह जल रही हैं (एक हड्डी उठा कर कुण्ड में फेंक कर) यह देखिए काट की तरह जलने लगी। मगर यह क्या!

मालती ने जो हड्डी आग में फेंकी वह एक बार तो भभक कर जल उठी मगर उसके बाद ही लपट कम हो गई और एक तरह का पानी-सा उसमें से निकल कर बहने लगा मानों वह हड्डी न होकर कोई और ही चीज हो। मालती और प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब के साथ यह हाल देखा, तब और भी बहुत-सी हड्डियाँ उठा कर कुण्ड में फेंकी। फेंकते ही आँच एक बार तो तेज हुई मगर तुरन्त ही कम हो गई और उन हड्डियों से निकलने वाले पानी ने आग को ढंक कर उसकी तेजी एकदम कम कर दी।

प्रभाकरसिंह ने खुश होकर कहा, ‘‘यह तो बड़ी विचित्र बात है। मालूम होता है ये हड्डियाँ नहीं हैं बल्कि कोई दूसरा ही मसाला है, अगर ज्यादा डाला जाय तो सम्भव है कि आँच एकदम बुझ जाय।’’

वास्तव में यही बात थी। ढेर की ढेर हड्डियाँ एक साथ ही कुण्ड में डाल दी गईं जिसके थोड़ी देर बाद आँच बिल्कुल बुझ गई। ये दोनों आदमी थोड़ी देर तक तो राह देखते रहे इसके बाद हिम्मत करके प्रभाकरसिंह उस कुण्ड में उतर गए और उसमें भरी अधजली हड्डियाँ निकाल-निकाल कर बाहर फेंकने लगे। मालती ने भी हाथ बटाया और थोड़ी ही देर में वह कुण्ड एक दम साफ हो गया। उस समय उसके तह में दरवाजे का निशान दिखाई पड़ा जिसके ऊपर एक पत्थर की सिल्ली रक्खी हुई थी। बीच में लगी कड़ी की मदद से प्रभाकरसिंह ने उस सिल्ली को उठाकर अलग कर दिया और तब नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दीं। प्रभाकरसिंह ने झाँक कर नीचे की तरफ देखा, एक पतली सुरंग दिखाई दी जिसके दूसरे सिरे पर रोशनी मालूम पड़ती थी, उन्होंने मालती से यह हाल कहा और तब दोनों आदमी उसकी राह उतरने को तैयार हो गये। आगे-आगे प्रभाकरसिंह और उनके पीछे-पीछे मालती सीढ़ियाँ उतर कर उस सुरंग में चल पड़े ।

लगभग बीस या पचीस कदम जाकर सुरंग समाप्त हो गई और इन दोनों ने अपने को एक छोटे बाग में पाया जिसके चारों तरफ कई तरह की इमारतें और बीच में एक बारहदरी थी। ये लोग उस बारहदरी में जा पहुँचे और उस काले और सफेद पत्थर के बने फर्श पर बैठ कर बातें करने लगे।

प्रभा० : उस भयानक जगह के बाहर तो हो गए मगर अब यहाँ से निकलने की सूरत मिलनी चाहिए। यह न-जाने कौन-सी जगह है?

मालती : मुझे तो यह उसी लोहगढ़ी का ही भाग मालूम होता है। (सामने की तरफ उंगली उठाकर) वह देखिए, दीवार के पीछे ऊँचा धरहरा दिखाई पड़ रहा है जिसके ऊपर एक उकाब-सा बना हुआ है, अगर मेरी आँखें मुझे धोखा नहीं दे रही हैं तो वह उसी बारहदरी के सिरे पर बना हुआ है जिसमें होश में आने पर मैंने अपने को पाया था। ऐसी हालत में वह बाग भी इस जगह के आस-पास ही में कहीं होगा जहाँ आपने सर्यू चाची को छोड़ा था या जहाँ उस तिलिस्मी शैतान से आपकी लड़ाई हुई थी।

प्रभा० : (ताज्जुब से) तुमने वह हाल कहाँ से देखा?

मालती : उसी बाग में से जिसमें वह खंभेवाली बारहदरी बनी हुई है।

प्रभा० : मैं तुम्हारा पूरा हाल सुनने को व्याकुल हूँ। इस समय संध्या हो गई है और रात में किसी तरह की कोई कार्रवाई करना संभव भी नहीं है अस्तु हम लोगों को जरूरी कामों से निपट कर इस बारहदरी को ही अपना ठिकाना बनाना चाहिये, उस समय मैं तुम्हें अपना किस्सा सुनाऊँगा और तुम भी अपना हाल मुझे सुनाना जब से कि मुझसे अलग हुई हो।

मालती : अच्छी बात है। (देखकर) मालूम होता है वहाँ कोई नहर है। अगर ऐसा है तो हमलोगों को कम-से-कम पानी की तकलीफ न होगी।

दोनों उठ खड़े हुए और उस छोटी नहर के किनारे पहुँचे जो इस बाग के बीचोबीच में से बह रही थी। दोनों ने जरूरी कामों से छुट्टी पाई और नहर के किनारे के मेवों के दरख्तों से अपनी भूख भी शान्त की, इसके बाद उसी बारहदरी में आकर बैठ और बातें करने लगे।

रात घण्टे भर से ऊपर जा चुकी है, मालती ने अपना हाल सुना कर अभी समाप्त किया है और प्रभाकरसिंह अपना किस्सा शुरू करने ही वाले हैं। यकायक इसी समय सामने के पेड़ों में एक रोशनी दिखाई पड़ी जिसने इन दोनों का ध्यान अपनी तरफ खींचा और ये बातें बन्द कर उसी तरफ को देखने लगे। ऐसा जान पड़ता था, मानों कोई आदमी हाथ में बत्ती लिए इधर-उधर घूम रहा हो। थोड़ी देर बाद वह रोशनी गायब हो गई मगर तुरन्त ही बाग के दूसरी तरफ दिखाई पड़ी जिधर कुछ इमारतें बनी हुई थीं।

मालती : यह कौन आदमी हो सकता है?

प्रभा० : मालूम नहीं, मगर रंग-ढंग से जान पड़ता है कि इस स्थान से बखूबी वाकिफ है।

मालती : देखिए वह फिर बाहर निकला!

एक-दूसरे दरवाजे की राह वह सुफेदपोश पुनः बाग में निकल आया और तब तेजी के साथ चलता हुआ उस नहर के किनारे जा पहुँचा। यहाँ पहुँच कर वह रुका और तब जमीन पर बैठ कुछ करने लगा।

प्रभाकरसिंह ने यह देखकर कहा, ‘‘वहाँ चलकर पता लगाना चाहिए कि वह कौन है और क्या कर रहा है।’’

मालती : कहीं वह कम्बख्त वही तिलिस्मी शैतान न हो!

प्रभा० : अगर वह तिलिस्मी शैतान होगा तो उसे हमारे इस जगह होने की पूरी खबर होगी और हम उससे किसी तरह अपने को बचा नहीं सकते, मगर मेरा दिल कहता है कि वह तिलिस्मी शैतान नहीं बल्कि कोई दूसरा ही है जिसे हम लोगों के यहाँ होने की कुछ भी खबर नहीं है।

मालती : अच्छी बात है, पेड़ों की आड़ में छिपते हुए हम लोग उसके पास पहुँच कर कम-से-कम इतना पता तो लगा ही सकते हैं कि वह क्या कर रहा है।

दोनों आदमी उठ खड़े हुए और पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाते हुए दबे कदम उसी तरफ बढ़े जिधर वह सुफेदपोश था। उससे लगभग बीस कदम के फासले पर एक बड़े जामुन के पेड़ की आड़ में ये दोनों आ खड़े हुए और देखने लगे। पीठ घूमी रहने के कारण उसकी शकल तो ये लोग देख न सके मगर यह मालूम हो गया कि वह जमीन में एक गड्हा खोद रहा है। इन लोगों के देखते-देखते उसने कोई हाथ भर गहरा गड्हा जमीन में खोदा और तब उसके अन्दर कोई चीज रख उसे पाटने लगा। जब गड्ढा पट गया तो पैर से पीट-पीट कर जमीन बराबर कर दी और तब रोशनी लिए उसी तरफ को लौट गया जिधर से आया था। बाईं तरफ की इमारत में बने एक दरवाजे के अन्दर घुस कर उसने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और इन लोगों की आँखों से ओट हो गया।

मालती : वहाँ पर जाकर देखना चाहिए कि उसने जमीन में कौन-सी चीज गाड़ी है।

प्रभा० : यही मेरी भी इच्छा है।

दोनों आदमी उसी जगह पहुँचे। प्रभाकरसिंह जल्दी-जल्दी जमीन खोदने और मालती चारों तरफ इस निगाह से चौकन्नी होकर देखने लगी कि यह आदमी पुनः लौट कर काम में विघ्न न डाले। तुरन्त ही का खोदा गड्ढा होने के कारण प्रभाकरसिंह ने उस जगह की मिट्टी शीघ्र ही निकाल ली और तब उन्हें एक छोटी-सी गठरी दिखाई पड़ी। वह गठरी बाहर निकाल उन्होंने गड्ढे को पुनः पाट दिया और दोनों आदमी उस बारहदरी में लौट आए।

प्रभाकरसिंह की कमर में एक छोटा-सा बटुआ था जिसमें उन्होंने कुछ बहुत ही जरूरी वह सामान रक्खा हुआ था जो इन्द्रदेव ने उन्हें दारोगा के मकान में जाती समय दिया था। इस समय उसमें से उन्होंने चाँदी की एक छोटी-सी डिबिया निकाली और उसका कोई खटका दबाया। साथ ही उस डिबिया का एक हिस्सा चमकने लगा और इतनी रोशनी पैदा हो गई कि यह देखा जा सके कि उस गठरी में क्या है। डिबिया मालती के हाथ में देकर प्रभाकरसिंह ने वह गठरी खोली जो किसी तरह के रोगनी कपड़े में बँधी हुई थी और साथ ही चौंक पड़े।

उसके अन्दर एक दूसरी छोटी गठरी थी जिसका कपड़ा खून से एकदम तर मालूम होता था और उसी को देखकर प्रभाकरसिंह चौंके थे। मालती भी इसे देखकर झिझक गई मगर प्रभाकरसिंह ने हिम्मत कर उस खून से सने कपड़े को खोल डाला, उसके अन्दर से जो चीज निकली वह और भी डरावनी थी यानी किसी की खोपड़ी थी जिस पर चमड़े या माँस का नाम-निशान भी न था मगर और सब तरह से बिल्कुल दुरूस्त थी और उसके नीचे चाँदी का एक डिब्बा था। प्रभाकरसिंह ने खोपड़ी एक तरफ रख दी और उस डिब्बे को देखने लगे जो मजबूती के साथ एकदम बन्द था।

यकायक मालती चौंकी और बोल उठी, ‘‘ओह इस डिब्बे को तो मैं पहिचानती हूँ, लाइए मुझे दीजिए, मैं इसे खोल दूँ!’’ प्रभाकरसिंह ने यह सुन ताज्जुब करते हुए वह डिब्बा मालती के हाथ में दे दिया जिसने एक दफे गौर से उसे देखा और तब ‘‘बेशक वही है’’ कहकर जोर से उठाकर जमीन पर पटक दिया। पटकने के साथ ही उस डिब्बे का ऊपरी हिस्सा दो टुकड़े होकर खुल गया और भीतर भोजपत्र पर लिखी एक पुस्तक तथा सोने की एक चाभी दिखाई देने लगी।

यह चाबी करीब छः अंगुल के लम्बी और वह पुस्तक जिस पर चाँदी की सुन्दर जिल्द बनी हुई थी लगभग एक बालिस्त के लम्बी और दस-बारह अंगुल चौड़ी होगी। इस पुस्तक और चाभी को देखती ही मालती खुशी के मारे चीख उठी और बोली, ‘‘‘वाह इन चीजों को इस तरह यहाँ पाने की तो कभी स्वप्न में भी आशा नहीं हो सकती थी!’’

प्रभा० : (ताज्जुब से) यह किताब कैसी है और चाभी कहाँ की है?

मालती : इन्द्रदेवजी की जुबानी मालूम हुआ था कि यह किताब लोहगढ़ी के भेदों का खजाना है और चाभी वहाँ के तिलिस्म की है। अपना हाल कहती समय मैंने कहा था कि कुछ आदमियों को एक गठरी गाड़ते देख मैं उसे उठा लाई थी और उसमें से एक चाँदी का डिब्बा निकला था जिसे खोलकर इन्द्रदेवजी ने कई चीजें निकाली थीं।

प्रभा० : हाँ, तो क्या डिब्बा वही है

मालती : जी हाँ।

प्रभा० : तब तो यह बड़ी अनमोल चीज है। हम लोगों को यह पुस्तक आदि से अन्त तक पढ़ जानी चाहिए। सम्भव है इसकी सहायता से हम लोग तिलिस्म को तोड़ सकें या और कुछ नहीं तो कम-से-कम इसके बाहर निकल सकें।

मालती : बेशक यही बात है।

कुछ देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही और इसके बाद यह निश्चय करके कि रात इसी दालान में काटी जाय सुबह होने पर देखा जाएगा, दोनों ने वही लम्बी तानी। सोने से पहिले संक्षेप में प्रभाकरसिंह ने मालती को अपना कुल किस्सा सुना दिया।

मौसमी फूलों की खुशबू से भरी हुई सुबह की ठंडी-ठंडी हवा मस्ती पैदा कर रही है। प्रभाकरसिंह दो-चार करवटें बदलकर उठना चाहते हैं पर आलस्य उठने की इजाजत नहीं देता। यकायक इसी समय कहीं से दौड़ती हुई मालती वहाँ आई और उन्हें जगाते हुई बोली, ‘‘उठिये उठिये, एक बड़े ताज्जुब की बात अभी मैंने देखी है।’’

प्रभाकरसिंह चौंक कर उठ बैठे और कुछ घबड़ाए हुए से बोले, ‘‘क्या है? क्या है?’’

मालती : मालती : जिस तरह से तिलिस्मी शैतान ने हम लोगों को कैद किया था वैसे ही तीन-चार शैतानों को अभी उस दरवाजे से निकलकर उस तरफ जाते मैंने देखा है। बहुत मुमकिन है कि वे लोग कुछ उपद्रव करें। हम लोगों को होशियार हो जाना चाहिए।

यह सुनते ही प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘जरूर! वे लोग किधर गए हैं?’’ मालती के हाथ से बताने पर वे खड़े हुए और अपना सामान बटोर उधर चलने को तैयार हो गए जिधर मालती ने बताया था। उनकी तलवार तिलिस्मी शैतान से लड़ कर टूट चुकी थी मगर वह करामाती डण्डा जो इन्द्रदेव ने दिया था अभी तक उनके पास मौजूद था जिसे उन्होंने हाथ में लिया और तिलिस्मी किताब जेब में रक्खी। वह सिर जो किताब के संग पाया था वहीं छोड़ा और मालती को लिए पेड़ों की आड़ देते हुए उस तरफ बढ़े जिधर मालती ने बताया था।

कुछ दूर जाने के बाद पेड़ों की आड़ में से प्रभाकरसिंह को कमर भर ऊँचा एक चबूतरा दिखाई पड़ा। इस समय इसी चबूतरे पर प्रभाकरसिंह को ठीक उसी सूरत-शकल के चार शौतान दिखाई पड़े जिस तरह के एक से लड़ कर वे जक उठा चुके थे। इस समय वे चारों इस तरह खड़े थे मानों आपस में कुछ बातें कर रहे हों मगर उनका मुँह दूसरी ओर और पीठ इन दोनों की तरफ थी जिससे उनकी बातें सुनना कठिन था। प्रभाकरसिंह ने यह देख मालती से कहा, ‘‘तुम यहीं ठहरो, मैं जरा पास जाकर सुनना चाहता हूँ कि वे क्या बातें कर रहे हैं।’’

यह सुनते ही मालती घबड़ा कर बोली, ‘‘नहीं-नहीं, हम लोगों को यहाँ से भाग कर अपनी जान बचानी चाहिए न कि उनके पास जाकर जोखिम में पड़ना चाहिए हम लोग कहीं छिप रहें या कोई रास्ता मिले तो किसी तरफ निकल जायें।’’

प्रभाकरसिंह ने यह सुन कहा, ‘‘एक तो हम लोग यहाँ से भाग कर नहीं जा सकते, दूसरे मैं उनकी निगाह बचाता हुआ वहाँ तक जाऊँगा। अगर वे लोग अभी तक हम लोगों को देख नहीं पाए हैं तो अब देख न सकेंगे इसका मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ, मुझे उनकी बात सुनने का बहुत कौतूहल हो रहा है क्योंकि मेरा दिल गवाही देता है कि वहाँ जाने से जरूर कोई-न-कोई मतलब की बात सुन पड़ेगी। तुम बिलकुल न डरो और मुझे जाने दो।

मालती : अगर ऐसी बात है तो मैं भी आपके साथ ही चलती हूँ।

लाचार प्रभाकरसिंह मालती को लिए हुए ही आगे की तरफ बढ़ने पर मजबूर हुए। पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाते और बहुत दबाकर कदम रखते हुए वे थोड़ी देर में उस चबूतरे के इतने पास पहुँच गये कि इन शैतानों की बातें कुछ-कुछ सुनाई पड़ने लगीं। ये दोनों भी सुनने लगे।

एक शैतान : तो क्या हम लोग अब प्रभाकरसिंह को पकड़ नहीं सकते?

दूसरा : नहीं, क्या तुम नहीं जानते कि जिसके पास तिलिस्म की चाभी हो उसे हम लोग हाथ नहीं लगा सकते! उसे हाथ लगाना तो दूर हम लोगों को अपने बचाव का इन्तजाम करना चाहिए क्योंकि अगर उसने तिलिस्म तोड़ने के काम में हाथ लगा दिया तो सबसे पहिले हमीं मारे जायेंगे!

तीसरा : सो क्यों? हम लोग क्यों मारे जायँगे?

चौथा : क्योंकि हमीं लोग इस तिलिस्म के पहरेदार हैं और बिना हमको मारे वह तिलिस्म तोड़ नहीं सकता।

पहिला : तो क्या ऐसी कोई तरकीब नहीं है जिससे हम लोग अपनी-अपनी जान बचा सकें।

दूसरा : (कुछ सोच कर) बस सिर्फ एक तरकीब हो सकती है।

सब : वह क्या?

पहिले शैतान ने धीरे-से कुछ कहा जिसे सभों ने बड़े गौर से सुना और तब एक साथ ही खुश होकर बोल उठे, ‘‘ठीक है, ठीक है, बस यही तरकीब करनी चाहिए’’। उन लोगों में धीरे-धीरे कुछ बातें हुईं जिन्हें प्रभाकरसिंह सुन न सके और तब वे सब के सब वहाँ से चलने को तैयार हुए। यह सोचकर कि ये सब कहीं हमारी ही तरफ न आवें प्रभाकरसिंह और मालती फुरती से दूसरी तरफ हटकर एक झाड़ी के अन्दर जा छिपे मगर उन लोगों की शकल फिर न दिखाई पड़ी। जब बहुत देर गुजर गई तो ताज्जुब करते हुए प्रभाकरसिंह झाड़ी के बाहर निकले। चारों तरफ सन्नाटा था और कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था।

अच्छी तरह देखभाल कर अन्त में विश्वास कर लेना पड़ा कि वे चारों शैतान किसी दूसरी तरफ निकल गये।

प्रभाकरसिंह और मालती में कुछ देर तक बातें होकर अन्त में यह स्थिर हुआ कि जरूरी कामों से छुट्टी पाकर सबसे पहिले उस तिलिस्मी किताब को पढ़ डालना चाहिए इसके बाद ही किसी एक काम में हाथ लगाना ठीक होगा। यह निश्चय कर वे दोनों वहाँ से हटे और जरूरी कामों से निपटने की फिक्र में पड़े।

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