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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान


प्रभाकरसिंह उस शीशे के छत की करामात के कारण उसके साथ झूल रहे थे और मालती बेबसी के साथ उनकी खतरनाक हालत पर डर की निगाहें डाल रही थी।

यकायक किसी जगह घण्टी की आवाज मालती के कानों में पड़ी और वह आश्चर्य के साथ गौर करने लगी कि यह आवाज कहाँ से आ रही है, उसी समय एक खटके की-सी आवाज आई और मालती के सामने वाली शीशे की दीवार में एक छोटा-सा सूराख दिखाई पड़ने लगा। यह सोच कर कि शायद उसके अन्दर झाँकने से कोई नई बात जान पड़े मालती उस छेद के पास गई जो जमीन से लगभग तीन हाथ की ऊँचाई पर था और उसमें आँख लगाकर देखने लगी। एक अद्भुत और खौफनाक नजारा उसे दिखाई दिया।

मालती ने देखा कि उस छेद के दूसरी तरफ एक बहुत लम्बा-चौड़ा कमरा है जिसके बीचोबीच में लगभग दस हाथ लम्बी और इतनी ही चौड़ी काले संगमरमर की एक बावली बनी हुई है। इस बावली के एक किनारे पर वे ही चारों शैतान जिन्हें मालती और प्रभाकरसिंह कई बार पहिले देख चुके थे बैठे हुए कुछ कर रहे थे। कुछ ही गौर करने से मालती को मालूम हुआ कि वे लोग एक लाश को काट और उसके टुकड़े करके उस तालाब में फेंक रहे हैं मालती ने यह भी देखा कि तालाब के अन्दर दो छोटे घड़ियाल हैं जो उन टुकड़ों को खाने के लिए इधर-उधर झपट रहे है। यह दृश्य ऐसा भयानक था कि इसने एक बार नाजुक मालती का कलेजा हिला दिया और उसे अपनी आँखें वहाँ से हटा लेनी पड़ीं मगर कुछ देर बाद पुनः उसने हिम्मत की और उस छेद की राह देखना शुरू किया।

इस बार मालती उस बड़े कमरे के चारों तरफ अपनी निगाह दौड़ाने लगीं। उसने देखा कि उस बावली के चारों तरफ एक तरह का बनावटी बाग या जंगल-सा बना हुआ है, तरह-तरह के पेड़ और गुलबूटे चारों तरफ बने हुए थे जो सभी बनावटी थे क्योंकि उनमें से किसी की भी ऊँचाई तीन-चार हाथ से ज्यादे न थी।

पेड़ों के नीचे, झाड़ियों की आड़ में अथवा उस छोटे बनावटी पहाड़ की गुफाओं में जो एक तरफ बना हुआ था, लेटे, बैठे, चरते या सोये हुए पशुओं की आकृति ऐसी साफ और सुन्दर बनी हुई थी कि जान पड़ता था मानों वे सभी जानकार हैं, उस बावली की दूसरी ओर की सीढ़ियों पर एक बारहसींगा झुक कर पानी पीता हुआ ऐसा साफ बनाया गया था कि देख कर यकायक उसके असली होने का ही गुमान होता था।

इन सब चीजों को देखती और घूमती-फिरती मालती की आँखें पुनः उन शैतानों के ऊपर आकर रुक गईं। उसने देखा कि उन्होंने अपना काम खतम कर दिया अर्थात वह समूची लाश टुकड़े-टुकड़े करके उन घड़ियालों को खिला दी और तब उस जगह की जमीन को बावली के पानी से अच्छी तरह धोकर साफ कर देने के बाद उठ खड़े हुए। बगल की दीवार में एक छोटा-सा दरवाजा था जिसमें एक-एक करके वे सब चले गए और तब वह दरवाजा बन्द हो गया।

उसी समय पुनः घंटी बजी और वह सूराख जिसकी राह मालती उधर का हाल-चाल देख रही थी बन्द हो गया। मालती ने देखा कि इधर-उधर से शीशे के चार छोटे-छोटे टुकड़े खसक के आकर उस सूराख के बीचोबीच में इस तरह बैठ गये कि जोड़ का निशान तक बाकी न रह गया।

दीवार के दूसरी तरफ का तमाशा देखने की धुन में अब तक मालती इस तरफ की हालत और प्रभाकरसिंह की मुसीबत कुछ भूल-सी गई थी मगर अब उसे पुनः पिछली बातें याद आ गई और छत के साथ लटकते हुए प्रभाकरसिंह की भयानक हालत देख वह पुनः इस फिक्र में पड़ गई कि उन्हें छुड़ाने का कोई उद्योग करे, मगर बहुत गौर करने पर भी इसकी कोई तर्कीब उसे सूझ न पड़ी, हाँ यह ख्याल उसके मन में जरूर दौड़ गया कि जिस तरह शीशे के टुकड़ों ने उस सूराख को बेमालूम तौर पर बन्द कर दिया उसी तरह सम्भव है कि चारों तरफ की दीवारों में भी कहीं कोई दरवाजा हो जो इसी तरह बन्द हो जाता हो।

इस ख्याल ने उसके मन में आशा का संचार किया और यह देखने के लिए कि देखे ऐसा करने से वह सूराख पुनः प्रकट होता है या नहीं उसने ठीक उसी जगह जहाँ वह छेद प्रकट हुआ था अपना अँगूठा रखकर जोर से दबाया।

एक खटके की आवाज हुई और शीशे के वे चारों टुकड़े अलग हट गये जिससे पुनः दूसरी देखने लायक सूराख पैदा हो गया। मालती के मुँह पर प्रसन्नता की झलक आई और वह इस इरादे से उस कमरे की शीशे की दीवारों को जगह-जगह टटोलने, दबाने या ठोकरें देने लगी कि शायद ऐसा करने से कहीं पर कोई रास्ता पैदा हो जाय।

प्रसन्नता की बात थी कि मालती का ख्याल ठीक निकला जगह-जगह की दीवार को टटोलती और दबाती हुई मालती जब उस छेद के ठीक सामने वाली दीवार के पास पहुँची तो उस जगह हथेली से दबाते ही एक खटके की आवाज हुई और साथ ही शीशे के दो बड़े-बड़े टुकड़े इस तरह दो तरफ घूम गए मानों कब्जे पर हों, एक तंग रास्ता दिखाई देने लगा जिसके भीतर बिल्कुल अँधेरा था और जिसमें से किसी तरह की हलकी आवाज आ रही थी।

अपनी सफलता पर एक प्रसन्नता की आवाज मालती के मुँह से निकली और उसने खुशी-खुशी प्रभाकरसिंह को लक्ष्य करके कहा, ‘‘लीजिए, आने-जाने का रास्ता तो पैदा हो गया, अब आशा है आपके नीचे उतारने की भी कोई तर्कीब निकल ही आवेगी,’’ मगर हैं यह क्या! जब मालती ने छत की तरफ निगाह की तो देखा कि वह एकदम साफ है अर्थात प्रभाकरसिंह का कहीं पता नहीं है। बहुत ध्यान देने से उसे यह भी पता लगा कि छत की अब वह ऊँचाई नहीं रह गई जो पहिले थी, अर्थात, वह पुनः अपनी असली जगह पर सिर से दो हाथ के लगभग की ऊँचाई पर आ पहुँची है।

प्रभाकरसिंह का वह कमरबन्द तथा दुपट्टा इत्यादि भी गायब था जो पहिले उन्हीं की तरह छत के साथ चिपका लटक रहा था। मालती के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, वह आँख मल-मल के चारों तरफ ऊपर-नीचे और इधर-उधर देखने लगी कि कहीं आँखें धोखा तो नहीं दे रही हैं, मगर नहीं केवल छत ही नहीं बल्कि वह कमरा भी सचमुच ही एकदम खाली था और प्रभाकरसिंह का कहीं नाम-निशान भी नहीं था।

मालती के दुःख और ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि प्रभाकरसिंह यकायक कहाँ या कैसे गायब हो गए। किसी तरह की आवाज भी उसके कानों में नहीं पड़ी थी जिससे यह गुमान होता कि वे किसी मुसीबत में फँस गए।

तब क्या छत उन्हें खा गई या वे हवा में मिल गए! ताज्जुब और घबराहट के साथ मालती बार-बार अपने चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगी मगर व्यर्थ। प्रभाकरसिंह वहाँ थे ही कहाँ जो दिखाई पड़ते! सब तरह से लाचार होकर उसने कई आवाजें भी लगाईं मगर वह भी व्यर्थ हुआ। दुख, रंज और अफसोस के मारे बेचारी मालती की आँखों से आँसू टपकने लगे और वह दोनों हाथों से अपना सिर थामे वहीं जमीन पर बैठ गई।

मगर आखिर व्यर्थ बैठकर समय नष्ट करने से भी फायदा क्या था? कुछ देर तक तरह-तरह की बातें सोचने के बाद अन्त में मालती एक लम्बी साँस लेकर उठी और एक आखिरी निगाह अपने चारों तरफ डाल उस दरवाजे के अन्दर घुसी जिसे उसने अपने उद्योग से पैदा किया था और जो अभी तक खुला हुआ था। एक तंग और अँधेरी गली में उसने अपने को पाया और वह टटोलती और आहट लेती हुई होशियारी के साथ उसके अन्दर जाने लगी।

लगभग पन्द्रह-बीस कदम के गई होगी कि पीछे से किसी तरह की आहट आई जिससे मालती समझ गई कि वह रास्ता जिसे उसने खोला था पुनः बन्द हो गया मगर उसी समय सामने की तरफ से दूसरी आवाज आई और उधर एक नया दरवाजा खुल गया जिसकी राह आती हुई रोशनी और हवा उसके पास तक पहुँची। जल्दी-जल्दी मालती ने बाकी रास्ता तय किया और उस दरवाजे के बाहर निकल कर अपने को एक नई और कुछ विचित्र जगह में पाया।

बीच की खुली जगह छोड़ देने के बाद जहाँ तक निगाह जाती थी चारों तरफ मकान और इमारतें ही दिखाई पड़ रही थीं और यह बीच वाला मैदान भी लाल रंग के चौकोर पत्थर के टुकड़ों से पटा हुआ था जिनमें कहीं-कहीं काले पत्थर भी दिखाई पड़ रहे थे और बीचोंबीच में तीन-चार हाथ ऊँचे खम्भे पर कोई मूरत बैठाई हुई थी जो खुद भी लाल ही रंग के पत्थर की थी।

इसके पीछे की तरफ अर्थात मालती के ठीक सामने एक दोमंजिली इमारत थी जिसके बीचो बीच में दो तरफ से खुला हुआ एक लम्बा दालान था। इस दालान के एक सिरे पर एक बन्द कमरा तथा दूसरी ओर एक गोल कमरा था जिसकी छत बहुत ऊँची थी। यह गोल कमरा भी जिसमें चारों तरफ खिड़कियाँ थीं, इस समय बन्द था।

बाईं तरफ देखा, दक्खिन और पूरब के कोने में काले पत्थर का बना एक ऊँचा बुर्ज दिखाई पड़ा जिसकी शक्ल उस घूमने वाली बारहदरी से, जिसके जरिये मालती और प्रभाकरसिंह उस शीशमहल में पहुचे थे। यहाँ तक मिलती थी कि पहिले तो मालती को गहरा शक हुआ कि वह पुनः उसी जगह जा पहुँची है मगर जब गौर से देखा तो उसे अपनी भूल मालूम हो गई क्योंकि यह एक बिल्कुल दूसरी ही इमारत थी। इस बुर्ज के सिरे पर खम्भे की तरह ऊँची हुई उठी कोई चीज थी जिसके साथ बहुत-सी तारें लगीं हुई थीं। दाहिनी तरफ भी इमारतों का एक लम्बा सिलसिला चला गया था जिसमें से कुछ के दरवाजे खुले हुए और कुछ के बन्द थे।

मालती कुछ देर अपने चारों तरफ देखती और कुछ गौर करती रही। अन्त में उसके मुंह से निकला, ‘‘प्रभाकरसिंह जी की राह देखना व्यर्थ है, न-जाने वे किस तिलिस्मी मुसीबत में पड़ गए और इस वक्त कहाँ हैं, अब तो आगे बढ़कर जहाँ तक का हाल मालूम है वहाँ तक का तिलिस्म तोड़ना ही उत्तम मालूम होता है फिर जो होगा देखा जायगा।

सम्भव है कि इतना हिस्सा तिलिस्म का टूट जाने से उनको नेजात मिल जाय। अफसोस, वह तिलिस्मी किताब और डण्डा भी उनके साथ ही चला गया नहीं तो इस वक्त बहुत काम आता।’’ कुछ देर तक इसी तरह की बातें मालती सोचती रही इसके बाद हिम्मत बाँध कर आगे बढ़ी और बीच के मैदान को पार कर सामने वाले गोल कमरे की तरफ बढ़ी।

आधा रास्ता तय करके मालती जरा देर के लिए रुक गई क्योंकि अब वह उस खम्भे के पास पहुँच गई थी जो सहन के बीचोबीच में बना हुआ था। उसने इस खम्भे और मूरत को गौर के साथ देखा और तब उसे मालूम हुआ कि वह कोई खम्भा नहीं है बल्कि लाल रंग के पत्थर में एक बड़ी ही भयानक सूरत के नरपिशाच की शक्ल बनी हुई है जिसका भयनाक चेहरा, लाल-लाल आँखें, शेर के पंजे की तरह नाखून और विकराल आकृति देखकर उसके बेजान होने पर भी डर मालूम पड़ता था।

यह मालती को शक था या कोई वास्तविक बात कि इसे देखते ही उस नरपिशाच ने अपना मुँह खोला और जुबान से इस तरह अपने होठ चाटे मानों कोई भूखा शेर अपने सामने अपनी खुराक देख रहा हो!

परन्तु यह काम इतनी जल्दी से हो गया कि मालती को यह शक बना ही रह गया कि वास्तव में उस मूरत ने ऐसा किया या नहीं मगर इतना जरूर हुआ कि फिर उसकी वहाँ ठहरने की हिम्मत न हुई और वह जल्दी-जल्दी चल कर सामने वाली इमारत के पास पहुँच गई।

इस इमारत की नीचे वाली मंजिल बिल्कुल खाली और खुली हुई थी अर्थात मोटे-मोटे खम्भों वाले एक लम्बे दालान की तरह पर बनी हुई थी जिसकी कुरसी कमर से करीब दो हाथ ऊँची थी और ऊपर चढ़ने के लिए पूरी लम्बाई में कई जगह छोटी-छोटी खूबसूरत सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, मालती सीढ़ियाँ चढ़ उस दालान में पहुँची और चारों तरफ देखने लगी।

मोटे-मोटे खम्भों पर दालान की लम्बी-लम्बी छत टंगी हुई थी और इन खम्भों में से हर एक के बीचोबीच में एक छोटा-सा ताक था जिसमें कोई-न-कोई मूरत बैठाई हुई थी। मालती बहुत गौर से इन मूरतों को देखने लगी मगर मालूम पड़ता है कि जिस चीज की उसे जरूरत थी वह उसे दिखाई न पड़ी क्योंकि देर तक चारों तरफ देखने पर भी काम न चला तो मालती आगे बढ़ी और नजदीक जाकर देखभाल करने लगी।

पचासों खंभों को चारों तरफ से नीचे से ऊपर तक गौर से देखने और अपने जरूरत की मूरत खोजने में मालती ने बहुत देर लगा दी मगर उसका मतलब पूरा न हुआ। आखिर लाचार हो वह कुछ बेचैनी के साथ बोली। ‘‘सब खंभे तो देख चुकी, इतनी मूरतें हैं मगर जिसको मैं खोज रही हूँ वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती!’’

कुछ देर तक लाचारी के साथ खड़ी रहने के बाद यकायक मालती को कुछ सूझ गया और वह पुनः इधर-उधर घूमने लगी, इस बार उसने खंभों को देखना छोड़ दिया बल्कि उस बड़े दालान के तीन तरफ की दीवारों के साथ-साथ घूमने लगी जिनमें जगह-जगह उन खम्भों के जवाब में पत्थर के खंभे कुछ उभड़े हुए दिखाए गए थे। इस बार उसकी मेहनत सफल हुई अर्थात पूरब तरफ की दीवार के बीचोबीच में दिखाये गये एक खंभे में खुदे आले में उसे एक हरिन की मूरत दिखाई पड़ी। मालती खुश होकर उसके पास पहुँची और गौर से उस पत्थर के हरिन को देख कर बोली, ‘‘बेशक यही है!’’

मालती अपने मन-ही-मन उन बातों को दोहरा गई जो तिलिस्मी किताब से पढ़ कर आज सुबह ही प्रभाकरसिंह ने उसे सुनाई थीं, और तब हिम्मत के साथ आगे बढ़ी। अपने दोनों हाथों से उसने उस हरिन के दोनों सींग पकड़ लिए और जोर करके सामने की तरफ खींचा।

पहिले तो वे बिल्कुल नहीं हिले मगर दूसरी बार जब पैर अड़ा कर पूरी तरह पर जोर लगाया तो उस हरिन ने अपनी गर्दन झुका दी और वे सींग आगे को बढ़ आये। अब मालती ने उन सींगों को दाहिने-बायें अर्थात दो तरफ करने के लिये जोर लगाना शुरू किया, बहुत कोशिश के बाद वह भी हुआ अर्थात उस हरिन के दोनों सींग दाहिने और बायें ओर को हट गये जिससे उसके सिर के बीचोबीच एक छोटी-सी दरार दिखाई पड़ने लगी।

मालती ने उस छेद में वह ताली, जो लोहें वाले बुर्ज की जड़ में खोदने से मिली थी, डाल दी और घुमाया। तीन-चार बार घूम कर ताली रुक गई, साथ ही एक आवाज हुई और दाहिनी तरफ की दीवार में एक दरवाजा खुला हुआ दिखाई पड़ा जिसके अन्दर ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी नजर आ रही थी। मालती ने अपनी चाभी हरिन के सिर से निकाल ली और उस दरवाजे की तरफ बढ़ी।

उसके पास पहुँच अन्दर जाने के लिए पैर बढ़ाया मगर अभी एक पैर बाहर ही था कि यकायक चौंक कर रुक गई और जल्दी से पैर खींच लिया, यहीं नहीं बल्कि दो कदम पीछे हट गई और गौर तथा डर के साथ अन्दर की तरफ देखने लगी, देखा क्या कि दरवाजे के अन्दर की तरफ सामने ही एक साँप गुड़ेड़ी मारे और फन ऊँचा किये बैठा है जिसने मालती के आगे बढ़े हुए पैर पर अभी-अभी चोट की थी मगर मालती की तेज निगाहों और उसकी फुर्ती ने उसको बचा लिया था।

पहिले तो मालती को डर हुआ कि शायद वह साँप आगे बढ़ कर उस पर चोट करे मगर ऐसा न हुआ और पैर खींच लेने के बाद फिर उसने जुम्बिश न खाई मालती गौर से देर तक उसकी तरफ देखती रही और तब उसे मालूम हुआ कि यह साँप असली नहीं बल्कि बनावटी है मगर इतना सफाई और कारीगरी से बना हुआ है कि अचानक देख कर उसके असली होने का ही गुमान होता है।

उसी समय मालती को वह बात याद आ गई जो उसने तिलिस्मी किताब में पढ़ी थी अर्थात-‘‘खबरदार, जल्दी में यकायक सीढ़ियों पर पैर न रख देना और सम्हल कर होशियारी के साथ जाना। भीतर खतरा है।’’ मालती कुछ गौर के साथ उस बनावटी साँप को देखती हुई सोचने लगी कि इस बला को कैसे दूर किया जाय।

आखिर कुछ देर के बाद मालती ने अपनी चादर उतारी और उसे लपेट कर एक गठरी की तरह पर बनाया। एक सिरा अपने हाथ में रखा और बाकी उस साँप के सामने फेंका, गठरी देखते ही उस साँप ने फन मारा साथ ही मालती का हाथ उसके फन के ऊपर पड़ा और उसने जोर से उस साँप के सिर को जहाँ-का-तँहा दबा रक्खा। उसने अपनी दुम उसकी बाँह के चारों तरफ लपेट ली और सिर उठाने के लिए जोर करने लगा मगर मालती ने उसे मौका न दिया और पकड़े–पकड़े ही दरवाजे के बाहर खींच लिया, ताज्जुब की बात वह बेजान की तरह जमीन पर गिर पड़ा। मालती ने अपनी चादर से अलग कर उसे उठाया और गौर से देखा, मालूम हुआ कि वह चमड़े या वैसे ही किसी चीज का बना हुआ है।

उसके मुँह की तरफ खयाल दौड़ाया तो देखा कि कागज का एक टुकड़ा उसके अन्दर है। बाहर निकाला और पढ़ा, यह लिखा हुआ था-‘‘इस साँप को भी अपने पास रख लो, आगे चल कर काम देगा, आगे रास्ता साफ है, बेखौफ ऊपर जाओ, मगर आखिरी सीढ़ी पर होशियारी से पैर रखना!’’

मालती ने खुशी-खुशी उस साँप को उठा कर अपनी कमर के चारों तरफ लपेट लिया और तब ऊपर जाने के लिए तैयार हुई सीढ़ियाँ उसके सामने मौजूद थीं। गौर की निगाहें चारों तरफ डालती वह धीरे-धीरे चढ़ने लगी।

पतली-पतली खूबसूरत और बहुत कम ऊँची लगभग चालीस सीढ़ियाँ मिली जो घूमती हुई ऊपर को चढ़ गई थीं।

मालती उन पर चढ़ गई मगर जब आखिरी सीढ़ी के पास पहुँची तो उससे कुछ नीचे ही रुक गई और इस खयाल से चारों तरफ देखने लगी कि उस पुर्जे ने जिस खतरे की तरफ इशारा किया है वह कौन और कहाँ पर है। सीढ़ियाँ खतम होने के बाद पाँच-छः हाथ लम्बी एक गली-सी पड़ती थी और उसके बाद एक खुला हुआ दरवाजा दिखाई पड़ रहा था।

मालती ने देखा कि इस गली-सी दिखाई पड़ने वाली जगह के दोनों तरफ की दीवारों के साथ तरह-तरह की चीजें चिपकी हुई हैं, गौर किया तो मालूम हुआ कि ये कई हथियार हैं जो दीवार में नक्काशी के तौर पर बनाये हुए हैं कहीं तलवार, कहीं खंजर, कहीं गंड़ासा, कहीं नीमचा इसी तरह कितने ही हथियार अथवा उनकी शक्लें दीवारें पर बनी हुई थीं जिनकी तरफ मालती देर तक गौर करती रही मगर फिर भी यह निश्चय न कर सकी कि ये सब असली हथियार हैं जो दीवार के साथ टंगे हुए हैं या केवल उनकी शक्लें बनी हुई हैं।

देर तक गौर करने पर भी मालती इस विषय मे कुछ निश्चय न कर सकी और न इसी बात का पता लगा सकी कि इन हथियारों के सिवाय और भी कोई खतरे की बात वहाँ मौजूद है कि नहीं। आखिर उसने उस साँप को अपनी कमर से खोला और उसकी दुम हाथ से पकड़ सिर की तरफ वाला भाग सामने की तरफ को फेंका। उसे कुछ-कुछ गुमान हुआ था कि ये हथियार अगर असली हैं अथवा कुछ नुकसान पहुँचाने के काबिल हैं तो जरूर इस साँप पर अपना जौहर दिखावेंगे मगर ऐसा कुछ भी न हुआ। लाचार मालती ने साँप पुनः अपनी तरफ खींच लिया और फिर गौर करने लगी कि क्या मामला है, ये हथियार कैसे हैं और यहाँ कौन-सा खतरा है जिसके बारे में उसे हिदायत की गई है।

अचानक उसे उस पुर्जे के ये शब्द खतरा है जिसके बारें में उसे हिदायत की गई है। अचानक उसे उस पुर्जे के ये शब्द याद आये-‘‘आखिरी सीढ़ी पर होशियारी से पैर रखना,’’ अभी वह उस आखिरी सीढ़ी से दो-तीन डण्डा नीचे ही थी। यह समझ कर कि शायद वह आखिरी सीढ़ी ही कुछ करामाती हो उसने पहिले की तरह पुनः उस साँप का एक सिरा अपने हाथ में पकड़ा और दूसरे हिस्से को उस आखिरी सीढ़ी पर फेंका यह देखने के लिए कि अगर उस सीढ़ी पर पैर रखने से कुछ होता होगा तो इससे पता लग जायगा।

साँप का उस सीढ़ी पर गिरना था कि दीवार के साथ के हथियार गजब के तेज और फुर्तीले बन गये उन सभों को पकड़ने वाली एक-एक कलाई दीवार के अन्दर से निकल पड़ी जिन्होंने भयानक रूप से उस साँप पर हमला किया, अगर मालती उस साँप को जल्दी से अपनी तरफ खींच न लेती अथवा उस सीढ़ी पर साँप के बदले कोई आदमी खड़ा होता तो इसमें शक नहीं कि उसके टुकड़े कट-कट कर गिर जाते।

अब मालती को उस खतरे का पता लग गया जो उसके सामने था और उसके तेज दिमाग ने उससे बचने की तर्कीब भी तुरन्त ही निकाल ली। उसे खयाल आ गया कि पहिली दफे जब उसने साँप को सीढ़ी पर न फेंक उसके पीछे की तरफ फेंका था तो कुछ भी न हुआ था। वह समझ गई कि यह आखिरी सीढ़ी ही सब आफतों की जड़ है और अगर इस पर बोझ न पड़े तो कुछ न होगा। इस बात की जाँच करने के लिए उसने पुनः साँप को सीढ़ी के पीछे वाली जगह पर फेंका मगर कुछ न हुआ और वे हथियार जो साँप के हटते ही अपने-अपने ठिकाने पहुँच गये थे उसी तरह दीवार के साथ चिपके रह गये। मालती के दिल का सन्देह दूर हो गया।

उसने अपना काम आगे बढ़ाया और उस आखिरी सीढ़ी पर पैर रक्खे बिना ही कूद कर उसे पार कर गई। उन हथियारों ने जुम्बिश न खाई और वह बेखौफ उनके पास पहुँच कर उन्हें गौर से देखने लगी।

तरह-तरह के हलके और भारी तथा खूबसूरत और डरावने हथियार वहाँ दीवार के साथ लगे हुए थे जिनकी संख्या बीस से कम न होगी। मालती उन्हें देखती हुई जब उस दरवाजे के पास पहुँची तो उसके ऊपर वाली दीवार पर कुछ लिखा हुआ देख कर रुक गई और पढ़ने लगी, यह लिखा थाः-

‘‘इन हथिरायों में से जिसे चाहो उठा कर अपने पास रख लो। ये तिलिस्मी हैं और अद्भुत और नायाब चीजें हैं जिनका गुण आगे चल कर मालूम होगा। मगर यकायक इन पर हाथ लगाने से धोखा होगा। हर एक हथियार के ऊपर उसके जोड़ की एक अंगूठी चिपकी है, उसे पहिले उतार कर पहिर लो तब हथियार उठाओ।’’

मालती खुशी-खुशी उन हथियारों को पुनः इस निगाह से देखने लगी कि कौन सा अपने लिए पसन्द करे। आखिर सभों की देख भाल के बाद एक छोटी भुजाली उसे पसन्द आई। यह हाथ-भर से कुछ कम ही लम्बी होगी मगर इसकी विशेषता यह थी कि इसका फल बाकी हथियारों की तरह लोहे का नहीं था बल्कि सुनहरे रंग का था और यही मालूम होता था मानों यह सोने की बनी हुई है, शायद इस बात से भी कोई विशेषता हो यह सोच मालती ने उस भुजाली के ऊपर लगी हुई सुनहरी अंगूठी उतार उँगली में पहिन ली और तब वह भुजाली उतार कमर से लगा ली। इसके बाद आगे की तरफ बढ़ी और दरवाजा पार कर बाहर एक बड़े दालान में पहुँची।

यह दालान जो बहुत लम्बा-चौड़ा था एकदम संगमर्मर का बना हुआ था। इस का सामने की तरफ वाला हिस्सा खुला था और बाकी तीन तरफ की दीवारों में कई दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे, मालती ने उन दरवाजों को गिना और तब कुछ सोच-विचार कर दाहिनी तरफ के चौथे दरवाजे के पास पहुँची दरवाजा बन्द था।

हाथ से धक्का दिया मगर न खुला। मालती उसकी चौखट पर जो संगमूसा की बनी थी निगाह डालने लगीं, एक जगह कुछ लिखा हुआ नजर आया, गौर के साथ उसे पढ़ा और तब उसका मतलब समझ उस जगह से दाहिनी तरफ की दीवार पर हाथ-भर जमीन नाप कर पैर से ठोकरें देना शुरू किया, आठ-दस ठोकरें खाने के बाद वहाँ से एक छोटा चौखूटा छोटा टुकड़ा हट कर एक बगल हो गया और ताली जाने का सूराख नजर आया, अपने पास वाली तिलिस्मी चाभी को उस सूराख में डाल कर घुमाते ही एक हलकी आवाज के साथ वह दरवाजा खुल गया। मालती ने ताली सूराख से निकाल ली और दरवाजे के अन्दर घुसी।

यह एक लम्बी मगर चौड़ाई में बहुत ही कम कोठरी थी जो सीधी सामने की तरफ दूर तक चली गई थी। सामने के सिरे पर एक दरवाजा दिखाई पड़ रहा था मगर उसके सिवाय और कहीं कोई दरवाजा या खिड़की नजर नहीं आती थी। इस कोठरी के दाहिने और बाएँ दोनों तरफ वाली दीवारों पर आदमी की ऊँचाई के बराबर की तस्वीरें बनी हुई दूर तक चली गई थीं जिन पर जगह-जगह कुछ लिखा हुआ भी था। मालती ने इन तस्वीरों को गौर और ताज्जुब के साथ देखा क्योंकि इनमें से कई उसकी देखी-भाली चीजों और जगहों की थीं। वह एक तरफ की दीवार के पास चली गई और गौर से तस्वीरों को देखती और मजमून पढ़ती हुई धीरे-धीरे आगे को बढ़ने लगी।

पहली तस्वीर जिस पर उसकी निगाह पड़ी देखते ही वह पहिचान गई क्योंकि उसमें लोहगढ़ी की इमारत का बाहरी हिस्सा दिखाया गया था जिससे वह भली-भाँति परिचित थी। ऊपर की तरफ एक कोने में उसने लिखा भी पाया, ‘‘लोहगढ़ी-बाहरी हिस्सा’’। आगे बढ़ने पर उसके बगल ही में लोहगढ़ी के अन्दर वाली लोहे की उस सुन्दर इमारत की तस्वीर बनी दिखाई पड़ी जिसमें मालती बहुत दिनों तक रह चुकी थी।

इसके ऊपर लिखा हुआ था ‘‘लोहगढ़ी-भीतर बंगला।’’ और आगे बढ़ी तो वह बाग और दालान दिखाई पड़ा जिसमें प्रभाकरसिंह और शैतान का मुकाबला हुआ था, और उससे भी आगे बढ़ने पर वह लोहे की ऊँची बारहदरी बनी दिखाई पड़ी जिसका घूमने वाली बारहदरी’ के नाम से पाठक परिचय पा चुके हैं। इसी तरह उसके आगे वाला वह शीशे वाला कमरा और तब इस जगह की तस्वीर भी बनी हुई मिली जहाँ मालती इस समय मौजूद थी।

पहिले एक बड़ी तस्वीर में बीच वाला यह मैदान और चारों तरफ की इमारतों का साधारण दृश्य दिखाया हुआ था और उसके बाद चारों तरफ की इमारतों की चार बड़ी-बड़ी तस्वीरें बनी हुई थीं। इस जगह पहुँच कर मालती आश्चर्य, प्रसन्नता और कौतूहल के साथ रुक गई क्योंकि यहीं एक कोने में उसे यह लिखा हुआ दिखाई पड़ा-‘‘लोहगढ़ी के तिलिस्म का पहिला दर्जा-जिसे राजा प्रभाकरसिंह और रानी मालती तोड़ेंगे’ ताज्जुब की बात थी कि इसी जगह नीचे की तरफ मालती को एक जगह अपनी और प्रभाकरसिंह की तस्वीर दिखाई पड़ी जो इतनी ठीक और साफ बनी हुई थी कि यही मालूम होता था कि मालती और प्रभाकरसिंह सचमुच हाथ मिलाये खड़े हैं। इन तस्वीरों के नीचे भी कुछ लिखा हुआ था मगर अक्षर इतने बारीक थे कि पढ़ा नहीं जाता था।

मालती ताज्जुब के साथ गौर करने लगी कि उसकी और प्रभाकरसिंह की तस्वीर यहाँ किस तरह बनाई गई? तिलिस्म बनती समय तो इन दोनों में से किसी का नाम-निशान भी नहीं था, फिर इनकी तस्वीरें बनाने में ऐसी आश्चर्यजनक सफलता कैसे मिली? क्या तिलिस्म बनाने वाले पहिले से जानते थे कि जो लोग इस तिलिस्म को तोड़ेंगे उनकी सूरतें ऐसी होंगी?

मालती ज्योतिष विद्या के चमत्कार की बहुत-सी बातें सुन चुकी थी मगर यह गुमान किसी तरह भी नहीं हो सकता कि उस विद्या की मदद से भविष्य में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों की भी तस्वीरें उतारी जा सकती हैं। उसे गुमान हुआ कि बाद में शायद किसी मुसौवर ने यहाँ आकर ये तस्वीरें बनाई हों मगर इस ख्याल पर भी उसका दिल न जमा और वह सोचने लगी कि इस भयानक तिलिस्म के अन्दर जहाँ बनने के बाद से आज तक शायद एक चिड़िया भी पर न मार सकी होगी और जहाँ वह खुद भी बिना एक भाग तोड़े नहीं आ सकी कोई क्योंकर पहुँच सकता है।

बहुत कुछ खयाल दौड़ाया पर सिवाय इसके और कोई बात न सूझी कि उस जमाने के ज्योतिषियों ने अपनी विद्या के बल से यह चमत्कार दिखाया है।

बहुत देर तक इन तस्वीरों को देखने और तरह-तरह की बातें सोचने के बाद मालती आगे बढ़ी और आगे की तस्वीरों को गौर के साथ देखने लगी क्योंकि उसे विश्वास हो गया था कि अब आगे जो कुछ आने वाला है उसका कुछ आभास ये तस्वीरें उसे दे देंगी। अतः वह खूब गौर से एक-एक तस्वीर को देखती, उसके पास-पास लिखे मजमूनों को पढ़ती, और उस पर गौर करती हुई जाने लगी।

इस काम में मालती ने बहुत देर लगा दी क्योंकि तस्वीरें उस सुरंग जैसे कमरे की पूरी लम्बाई में दोनों तरफ बनी हुई थीं और उनसे बहुत कुछ पता भी लगता था मगर हम यहाँ पर इसका वर्णन नहीं करते कि मालती ने क्या-क्या देखा। अगर आवश्यकता पड़ी तो किसी दूसरे मौके पर इसका हाल लिखेंगे।

तस्वीरों की देख-भाल कर चुकने के बाद मालती आगे की तरफ बढ़ी। इस लम्बी जगह के अगले सिरे पर भी एक दरवाजा था जिसको मालती ने उसी तर्कीब से खोला। ऊपर की तरफ जाती हुई सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं। मालती को सन्देह हुआ कि पहिले की तरह शायद यहाँ पर भी किसी तरह का धोखा न हो परन्तु अच्छी तरह जाँच कर लेने पर भी जब किसी तरह का खतरा न पाया तो सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर की मंजिल में पहुँची। अब वह उस गोल कमरे के अन्दर थी जिसे उसने नीचे से देखा था।

इस गोल कमरे में जिसके चारों तरफ खिड़कियाँ बनी हुई थीं दीवार के साथ-साथ गोलाकार रक्खे हुए पचासों छोटे-बड़े सन्दूक मालती को दिखाई पड़े जिनमें से कुछ के ढकने खुले हुए थे तथा कुछ के बन्द। मालती एक खुले हुए सन्दूक की तरफ बढ़ी और देखना चाहा कि उसके अन्दर क्या है मगर अभी उससे पाँच-छः कदम अलग ही थी कि बड़े जोर की आवाज के साथ उस सन्दूक का ढकना बन्द हो गया और वह जमीन के अन्दर धँस गया, फिर भी मालती की तेज निगाहों ने देख ही लिया कि वह तरह-तरह के कीमती जड़ाऊ गहनों से ऊपर तक भरा हुआ था जिनकी कीमत का अन्दाजा नहीं किया जा सकता।

वह पीछे हट कर एक दूसरे सन्दूक के पास गई तो उसे कीमती पोशाकों से भरा पाया मगर पास जाते ही वह भी पहिले सन्दूक की तरह जमीन में धंस गया।

इसी समय मालती की निगाह उस गोल कमरे की छत की तरफ गई जहाँ मोटे हरूफों में उसने यह लिखा हुआ पाया-

‘‘इस तिलिस्म में कई जगह ऐसे कितने ही खजाने रक्खे हैं मगर बिना चारों दर्जें टूटे ये हाथ नहीं लग सकते। अगर तिलिस्म तोड़ने का काम समाप्त किये बिना ही तोड़ने वाला इन्हें हाथ लगाना चाहेगा तो उसे बहुत बड़ा नुकसान पहुँचेगा और कोई गैर यह काम करेगा तो उसका सिर कट कर गिर पड़ेगा।’’

यह पढ़ मालती ने इन सन्दूकों के भीतर की चीजों को देखने की ख्वाहिश छोड़ दी और आगे बढ़ कर उस सिंहासन पर जा बैठी जो इस कमरे के बीचोबीच में रक्खा हुआ था। इसके बैठते ही वह सिंहासन ऊँचा होने लगा और धीरे-धीरे उस कमरे की छत के साथ जा लगा। मालती ने अपने को उस गोल कमरे की छत पर पाया जहाँ वह उतर पड़ी और उसके उतरते ही वह सिंहासन नीचे लौट गया।

मालती ने अपने चारों तरफ गौर के साथ देखना शुरू किया। गोल छत को चारों तरफ से एक पुरसा ऊँची दीवारों ने घेरा हुआ था जिनमें कहीं कोई खिड़की या मोखा दिखाई न पड़ता था, हाँ बीचोबीच में एक छेद-सा जरूर था जो वास्तव में वही जगह थी जहाँ नीचे की मंजिल से उठ कर उस सिंहासन ने मालती को पहुँचाया था। मालती ने इसकी राह झाँक कर नीचे का हाल देखना चाहा मगर कुछ नजर न पड़ा। शायद किसी चीज ने बीच में पड़ कर देखना नामुमकिन कर दिया था।

मालती ने ऊपर की तरफ देखा तो एक बहुत बड़े मेहराब पर निगाह पड़ी जो दक्षिण तरफ कहीं से उठता हुआ उस गोल छत के बीचोबीच से हो उत्तर तरफ कहीं जा आँखों से लोप हो गया था। यह मेहराब जो देखने में लोहे का जान पड़ता था एकदम गोल चिकना बना हुआ था और उसकी मोटाई दो हाथ से किसी तरह कम न होगी। मालती ने जानना चाहा कि यह मेहराब किस जगह से उठता और कहाँ जाकर खत्म होता है मगर कुछ पता न लगा क्योंकि चारों तरफ वाली ऊँची दीवारें इस बात को प्रकट नहीं होने देती थीं।

मालती चारों तरफ निगाह दौड़ा रही थी कि उसके कान में पटाके की-सी आवाज पड़ी जिसने उसे चौका दिया। वह ताज्जुब के साथ इधर-ऊधर देखने लगी। मगर उसी समय पुनः वैसी ही आवाज आने से समझ गई कि यह उस महराब के अन्दर से ही निकल रही है। इसी समय पुनः वैसी ही आवाज हुई और उसके साथ ही मालती ने देखा कि वह महराब बीचोबीच से दो टुकड़ा हो गयी और वे दोनों टुकड़े हाथी की सूँड़ों की तरह इधर-उधर झूमने लगे। केवल यहीं नहीं, मालती को यह देख कर भय भी मालूम हुआ कि धीरे-धीरे झूमते और हिलते हुए वे टुकड़े उसी की तरह आगे बढ़े आ रहे थे।

वह अपनी जगह से हट कर उस ब़ड़ी छत के एक दूर के कोने में जा खड़ी हुई और महराब के उन दोनों टुकड़ो की तरफ देखने लगी। पर उसका डर और भी बढ़ गया जब उसने देखा उस महराब के दोनों टुकड़े नीचे झुकते हुए उसकी तरफ बढ़ रहे हैं। यहाँ तक कि उससे सिर्फ तीन-चार हाथ के फासले पर रह गये। वह डर कर दौड़ती हुई छत के दूसरे कोने पर जा खड़ी हुई, मगर उस महराब ने यहाँ भी उसका पीछा न छोड़ा।

वे दोनों टुकड़े और नीचे उतर कर छत से करीब दो-ढाई हाथ ऊँचाई पर आ गये और मालती की तरफ इस तरह बढ़े मानों किसी शैतान के हाथ हैं जो अपनी खूराक की खोज में बढ़ रहे हैं। मालती का खौफ पल-पल में बढ़ता जा रहा था। कुछ देर तक तो इधर-उधर घूम कर उसने अपने को बचाया मगर अन्त में उनके फन्दे में पड़ ही गई। उन महराब रूपी दोनों बाँहों ने एक जगह उसे दोनों तरफ से घेर कर दबोच लिया।

उसके अन्दर से आती हुई गर्म-गर्म और जहरीली हवा का ऐसा झोंका मालती को लगा जिसने उसका सिर घुमा दिया और वह बदहवास भी हो गई। कुछ देर बाद उसे तनोबदन की सुध न रह गई। महराब के दोनों सिरों ने दो हाथों की तरह पकड़ कर ऊपर लिया और देखते अपनी उसी खौफनाक ऊँचाई पर जा पहुँचे जहाँ दो टुकड़े होने के पहिले थे। जब मालती होश में आई उसने अपने को एक दूसरी ही जगह पर पाया।

सूर्यदेव की तरफ गौर करके वह समझ सकती थी कि वह आधे घण्टे से ज्यादा देर तक बेहोश न रही क्योंकि इस समय भी वे अपनी पूरी तेजी से बीच आसमान में चमक रहे थे। उसके सिर में हलके-हलके चक्कर आ रहे थे मगर यह तकलीफ शीघ्र ही दूर हो गई और वह बहुत जल्द ही इस लायक हो गई कि अपनी हालत पर गौर कर सके। वह उठकर बैठ गई और तब थोड़े ही गौर ने उसे बता दिया कि वह उस ऊँचे काले पत्थर के बुर्ज पर है जिसे उसने इस जगह आने के पहिले देखा था।

उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई और तब देखा कि वह गोल छत जिस पर विचित्र महराब ने उसे गिरफ्तार किया था उसके सामने की तरफ दिखाई पड़ रही थी और वह महराब भी अब साफ-साफ दिखाई पड़ रहा था जो बाईं तरफ की किसी इमारत के बीच में से उठता और उस गोल कमरे के ठीक ऊपर से गुरजता हुआ दाहिनी तरफ जाकर लोप हो गया था।

मालती ने बहुत गौर किया कि उस महराब ने जब उसे पकड़ा तो उसके बाद क्या हुआ या वह इस ऊँचे बुर्ज पर कैसे आ पहुँची मगर कुछ समझ में न आया, लाचार वह उठ खड़ी हुई और आगे की कार्रवाई के खयाल में पड़ी क्योंकि तिलिस्मी किताब ने उसे बता दिया था कि यह गोल बुर्ज ही तिलिस्म के इस हिस्से का केन्द्र है और यहाँ का तिलिस्म तोड़ने के बाद ही वह आगे जा सकती है। यह काम किस तरह होगा यह भी तिलिस्मी किताब तथा प्रभाकरसिंह की मदद से वह बखूबी समझ गई थी।

इस बुर्ज की गोल गुम्मजदार छत के साथ लटकी हुई एक मोटी लोहे की जंजीर की तरफ मालती बढ़ी ही थी कि यकायक उसके कान में किसी की आवाज पड़ी जिसने उसे चौंका दिया। उसे प्रभाकरसिंह का गुमान हुआ और यह सोच कर कि शायद वे ही कहीं पर बोल रहे हैं वह जंजीर की तरफ न जा उस बुर्ज के चारों तरफ इस ख्याल से घूमने लगी कि शायद कहीं से प्रभाकरसिंह पर उसी की निगाह पड़ जाय।

अचानक उसे पश्चिम और दक्खिन के कोने में बने बाग में तीन आदमी दिखाई पड़े जिनमें एक मर्द और दो औरतें थीं। वह इन्हें देख एकदम चौंक पडीं। इस भयानक तिलिस्म में जहाँ किसी का आना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है।

ये लोग कहाँ से आ पहुँचे यह सोचती हुई वह ताज्जुब के साथ एकटक इन लोगों की तरफ देखने लगी मगर बुर्ज की ऊँचाई और वह लम्बा फासला जो उसके और उन आदमियों के बीच में था उन लोगों की शक्ल साफ-साफ देखने न देता था। देर तक वह गौर करती रही मगर कुछ समझ न सकी कि ये लोग कौन हैं।

लेकिन हमारे पाठक बखूबी जानते हैं कि ये तीनों आदमी कौन हैं जिन पर मालती की निगाह पड़ी। ये दयाराम, जमना और सरस्वती थे और जिस तरह मालती ने इन्हें देखा उसी तरह इन तीनों ने भी उसे देख लिया था और ताज्जुब के साथ सोच रहे थे कि यह कौन औरत है क्योंकि जब से ये लोग इस तिलिस्म में फँसे तब से आज तक किसी गैर की सूरत इन्हें दिखाई न पड़ी थी। मालती शायद दयाराम, जमना-सरस्वती से कुछ कहती या बातें करती मगर इसी समय उसे अपने पीछे की तरफ से आवाज सुनाई पड़ी जिसने उसे चौंका दिया। (१. देखिये भूतनाथ चौदहवाँ भाग, नौवाँ बयान।)

वह घूमी और इसी समय उसकी निगाह नीचे के सहन पर पड़ी जहाँ उस भयानक पिशाच की मूरत देखती हुई वह आई थी। उसने इस समय उस पिशाच के पास ही एक और आदमी को भी खड़ा देखा जिसे वह पहिली ही निगाह में पहिचान गई कि प्रभाकरसिंह हैं, वह खुशी-खुशी उनकी तरफ घूमी मगर यकायक उसके मुँह से डर और खौफ की एक चीख निकल गई क्योंकि उसने देखा कि प्रभाकरसिंह स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि बहुत खतरे में हैं, वह भयानक शैतान अपने बड़े-बड़े दाँतों वाले भीषण जबड़ों को खोलकर उनके सिर को चबाया ही चाहता है। मालती के मुँह से एक चीख निकल गई और वह सकते की-सी हालत में खड़ी एकटक उस तरफ देखती रह गई। प्रभाकरसिंह की अवस्था देखने में मालती इतनी व्यग्र हो गई कि अपनी सब सुध-बुध खो गई। यही सबब था कि उसे कुछ भी पता न लगा जब हलकी आवाज के साथ उस बुर्ज के फर्श का एक पत्थर नीचे को झूल गया और उसके अन्दर से दो तिलिस्मी शैतान बाहर निकल कर मालती की तरफ बढ़ने लगे।

बात की बात में ये दोनों मालती के पास पहुँच गये और तब झपट कर उसे दोनों तरफ से कस कर पकड़ लिया।

अचानक इस नई मुसीबत को देख मालती के मुँह से पुनः डर की एक चीख निकल गई।

उसने इन बेदर्द शैतानों से बचने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया मगर कुछ न कर सकी और उसे पकड़े हुए वे दोनों गड्ढे के भीतर घुस गये जहाँ से निकले थे। उनके जाने के बाद वह पत्थर भी पुनः ज्यों-का-त्यों अपनी जगह पर बैठ गया।

।। पन्द्रहवाँ भाग समाप्त ।।

पाँचवाँ खण्ड समाप्त

आगे का हाल जानने के लिये

भूतनाथ खण्ढ 6

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