मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 5 भूतनाथ - खण्ड 5देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण
दसवाँ बयान
जिस समय महाबीर की जुबानी प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ था कि उनके साथ वाले चारों सवार पकड़ लिए गए और रथ के साथ अब जो सवार हैं वे कोई दूसरे ही हैं और शायद उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आए हैं तो एक बार तो थोड़ी देर के लिए वे घबड़ा गए मगर शीघ्र ही उन्होंने अपने को चैतन्य किया और यह भी सोच निकाला कि अब क्या करना मुनासिब होगा।
अगर वे अकेले होते तो प्रभाकरसिंह इन चार क्या सौ सिपाहियों को भी कुछ न समझते और जरूरत पड़ती तो लड़-भिड़ कर निकल जाने की हिम्मत रखते मगर कमजोर सर्यू के सबब से वे ऐसा करने से लाचार थे अस्तु इस समय किसी तरह इन लोगों को धोखा देकर वहाँ से हटा देना ही उन्हें बहुत जरूरी मालूम हो रहा था और इसकी उन्होंने बहुत अच्छी तर्कीब भी सोच निकाली।
लोहगढ़ी के पीछे की तरफ महाबीर को ले जाकर वे एक आड़ की जगह में पहुँचे और तब उन्होंने महाबीर को अपनी सूरत बना लेने को कहा। महाबीर जो वास्तव में इन्दद्रेव का ऐयार था उनका मतलब समझ गया और बात-की-बात में उसने अपनी सूरत प्रभाकरसिंह की-सी बना लगी। पाठकों को याद होगा कि प्रभाकरसिंह एक साधु का वेष धारण करके दारोगा के पास गये और सर्यू को छुड़ा लाये थे अस्तु महाबीर भी देखते-देखते साधू बन गया और प्रभाकरसिंह की पोशाक पहिन ठीक उन्हीं की तरह हो गया। उस समय प्रभाकरसिंह ने अपना चेहरा धोकर साफ कर लिया और महाबीर के कपडे खुद पहिन कर बोले, ‘‘बस अब तुम इसी ठाठ में जाकर उस रथ पर बैठ जाओ और जहाँ वे लोग ले जायँ बेउज्र चले जाओ।
उन लोगों के हट जाने पर मैं सर्यू मासी को सहज में निकाल ले जाऊँगा और तुम भी यह जान सकोगे कि वे लोग कौन हैं। किसी बात की फिक्र न करना और न किसी तरह का डर मानना। मैं बहुत जल्द जहाँ कहीं भी तुम रहोगे खोज निकालूँगा और अगर तुम कैद हो गये तो छुड़ा भी लूँगा।
महाबीर ने सुन कर कहा, ‘‘आप मेरे वास्ते किसी तरह की फिक्र मत करिए, इस समय तो सबसे जरूरी बात बहूजी की रक्षा करना है सो उन्हीं की आप फिक्र करिए, मैं अपना बचाव आप ही कर लूँगा।’’ प्रभाकरसिंह ने दो-चार बातें महाबीर को और समझाईं और तब उसे रथ तथा सवारों की तरफ भेज कर आप लोहगढ़ी के अन्दर चले गए जहाँ सर्यू को छोड़ गए थे। बेचारी सर्यू उसी जगह बैठी हुई थी जहाँ प्रभाकरसिंह उसे छोड़ गए थे।
प्रभाकरसिंह ने उसे सब हाल सुना कर दम-दिलासा दिया और कहा, ‘‘अब बाकी रात इसी जगह बिता देना मुनासिब है, कल किसी समय यहाँ से निकल चलेंगे।’’
जो कुछ रात बच गई थी दोनों ने बातचीत में बिता दी और सुबह होने पर जरूरी कामों से निपटने तथा स्नान-ध्यान आदि की फिक्र में लगे। हम पहिले लिख चुके हैं कि लोहगढ़ी की यह इमारत से जैसी छोटी, सादा और मामूली मालूम होती थी भीतर से वैसी नहीं थी क्योंकि इसका बहुत बड़ा हिस्सा जमीन के अन्दर था और सुरंगों और तहखानों की राह वहाँ जाना पड़ता था। हम यह भी लिख आए हैं कि लोहगढ़ी की मुख्य इमारत एक छोटे बाग के अन्दर थी जिसे चारों तरफ से लोहे की ऊँची दीवारों ने घेरा हुआ था। इस बाग में पानी के लिए एक बावली भी बनी हुई थी।
सर्यू और प्रभाकरसिंह ने जरूरी कामों से निपट इसी बावली में स्नान किया और बाग में जो एकाध फल के पेड़ थे उन्हीं के फल खाकर कुछ आहार भी किया। इसके बाद अपने कपड़े सूखने को डाल दिये और एक जगह बैठ कर आपस में सलाह करने लगे कि किस तरह यहाँ से बाहर होना चाहिए।
प्रभाकरसिंह को यह मालूम था कि यह लोहगढ़ी जमानिया के तिलिस्म का हिस्सा है जिसकी शाखें दूर-दूर तक फैली हुई हैं तथा यह भी मालूम था कि वहाँ से भीतर ही भीतर एक सुरंग इन्द्रदेव की तिलिस्मी घाटी और दूसरी उस घाटी में गई हुई है जिसमें उन्हें तथा दयाराम आदि को इन्द्रदेव ने रक्खा था परन्तु वे उसका हाल सिर्फ उतना ही जानते थे और इससे उन सुरंगों से काम भी नहीं ले सकते थे अस्तु इस समय उन्होंने यही निश्चय किया कि लोहगढ़ी के बाहर निकलें और अगर किसी दुश्मन का खौफ न हो तो सर्यू को लेकर बाहर ही बाहर इन्द्रदेव के पास पहुँच जाँय।
यद्यपि वे जानते थे कि ऐसा करने से कमजोर सर्यू को तकलीफ होगी पर इसके सिवाय और चारा ही क्या था। लोहगढ़ी में खाने-पीने का कोई ऐसा सामना नहीं मिल सकता था कि जिसके भरोसे दस-पाँच दिन यहाँ काटते और इन्द्रदेव या किसी और की मदद की राह देखते। अस्तु उन्होंने सर्यू को वहीं बैठने को कहा और यह कह कर कि मैं बाहर की टोह लेने जाता हूँ खुद लोहगढ़ी के बाहर निकलने की फिक्र में लगे।
अभी प्रभाकरसिंह ने पहिला दर्वाजा खोला था और उसे टप कर दूसरे दर्वाजे को खोलने की फिक्र कर ही रहे थे कि उनके कानों में किसी के चीखने की आवाज आई। वे चौंक पड़े और गौर करने लगे कि यह आवाज किसकी है और कहाँ से आई।
उसी समय पुनः चीखने की आवाज आई और इस बार उन्हें निश्चय हो गया कि आवाज सर्यू की ही है। वे घबड़ा कर लौटे, और फुर्ती से दरवाजा खोल पुनः लोहगढ़ी के बाग में वापस आए। बावली के पास एक पेड़ के नीचे सर्यू को बैठे छोड़ गए थे, वह जगह अब खाली थी और सर्यू का कहीं पता न था। यह देख उनका कलेजा धड़क उठा और वे बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने और सर्यू को खोजने लगे। बाग में कहीं सर्यू दिखाई न पड़ी अस्तु वे बीच वाली इमारत में पहुँचे और इसके दालानों, कमरों और कोठरियों में सर्यू की तलाश करने लगे। सर्यू तो कहीं दिखाई न पड़ी मगर एक कोठरी में उसके हाथ की चूड़ियों के कुछ टूटे हुए टुकड़े जरूर दिखाई पड़े जिन्हें प्रभाकरसिंह ने उठा लिया और गौर से देखकर कहा, ‘‘बेशक ये मासीजी की ही हैं! तब जरूर वह इधर से ही कहीं गई हैं!’’
प्रभाकरसिंह ने तेज निगाह से उस कोठरी के चारों तरफ देखना शुरू किया। जब उनकी निगाह बाईं तरफ के कोने में पहुँची तो यकायक पत्थर की दो सल्लियों के बीच में दबे और कुछ बाहर निकले हुए किसी कपड़े का एक कोना उन्हें दिखाई पड़ा। उसी जगह एक दर्वाजे की किस्म का चौकोर निशान भी दिखाई पड़ने से प्रभाकरसिंह समझ गए कि यहाँ कोई गुप्त सुरंग है जिसकी राह दुश्मन सर्यू को ले भागा है भागती समय कपड़े का कोना इस जगह दब कर रह गया है।
इसके साथ ही उन्हें यह भी खयाल हुआ कि मुमकिन है कि कपड़ा फट जाने के कारण जिस तरह यह सिल्ली ठीक नहीं बैठी और दरवाजे का निशान दिखाई पड़ रहा है उसी तरह खटका भी न बैठा हो और दरवाजा भी खुला रह गया हो। यह सोच ये उस जगह के पास पहुँचे और गौर से अच्छी तरह देखभाल कर इस सिल्ली को पैर से ठोकर मारना शुरू किया। पाँच ही सात ठोकरें खाने के बाद एक सिल्ली दीवार से अलग होकर नीचे को झुक गई और वहाँ पर नीचे उतरने की सीढ़ियाँ दिखाई देने लगीं।
प्रभाकरसिंह जिस समय साधु बन कर दारोगा के पास गये थे उस समय कपड़ों में छिपा कर एक तलवार भी लेते गये थे। वह तलवार अभी तक उनके पास मौजूद थी और इसके अलावे वह विचित्र डण्डा भी उनके पास था जिसकी अद्भुत करामात ने दारोगा को अचम्भे में डाल दिया था और जिसे महाबीर को न दे उन्होंने अपने पास ही रक्खा था।
इस समय प्रभाकरसिंह ने दाहिने हाथ में तो वह तलवार पकड़ी और कमर में उस डंडे को खोंस कर बेधड़क नीचे उतर गये। उनका खयाल था कि वे अपने को किसी तहखाने में पावेंगे और सर्यू तथा उसके दुश्मनों को भी वहीं देखेंगे मगर ऐसा न था, सिर्फ एक लम्बी और तंग सुरंग थी जो बहुत दूर तक गई मालूम होती थी मगर जगह-जगह रोशनदान बने रहने की वजह से उसमें अँधेरा नहीं था।
इसी वजह से जमीन पर पड़ा हुआ वह कपड़ा भी उन्हें दिखाई पड़ गया जिसका कोना उन्हें बाहर नजर आया था। यह एक दुपट्टा था और पहिले कभी उन्होंने इसे देखा न था इससे कह नहीं सकते थे कि किसका था पर इतना इन्होंने निश्चय कर लिया कि जरूर यह उसी का होगा जो सर्यू को ले भागा है। उन्होंने उसे वहीं छोड़ा और तेजी के साथ सुरंग में आगे बढ़े।
उस लम्बी पतली और पेचीली सुरंग में प्रभाकरसिंह बहुत दूर तक चले गये मगर कहीं किसी की सूरत दिखाई न पड़ी, न तो सर्यू का ही पता लगा और न उसको पकड़ ले जाने वाला ही दिखाई पड़ा। उन्हें खयाल हुआ कि मुमकिन है कि सर्यू इधर न लाई गई हो और उन्हें धोखा हुआ हो, साथ ही यह खयाल भी आया कि इस सुरंग में अगर दोनों तरफ से दुश्मन ने उन्हें घेर लिया तो वे बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे। अस्तु वे बड़े पशोपेश में पड़ गए और एक जगह रुककर सोचने लगे। कि अब क्या करना चाहिए।
आखिर बहुत कुछ सोच-विचार कर उन्होंने आगे ही बढ़ने का निश्चय किया और होशियारी के साथ टोह लेते हुए जाने लगे। लगभग दो सौ कदम के और गए होंगे कि यकायक रुक जाना पड़ा क्योंकि इस जगह आकर सुरंग कुछ चौड़ी हो गई थी और सामने दो रास्ते नजर आ रहे थे जिनमें से एक बाईं तरह चला गया था और दूसरा दाहिनी तरफ। प्रभाकरसिंह उसी जगह रुक गये और सोचने लगे कि अब किधर जाना मुनासिब होगा।
सर्यू को इस तरह ले भागने वाला वास्तव में हेलासिंह था। अपना सामान घाटी में रख मुन्दर और अपने साथी सहित वह लौट रहा था जब लोहगढ़ी में पहुँचने पर एक पेड़ के नीचे बैठी हुई सर्यू उसे यकायक दिखाई पड़ गई। उसे देखते ही हेलासिंह ने ताज्जुब से कहा, ‘‘यह तो शायद इन्द्रदेव की स्त्री सर्यू है!’’
मुन्दर ने भी उसे देख कर पहिचाना और कहा, ‘‘हां है तो बेशक ऐसा ही, मगर यह यहाँ आई क्योंकर? इसे तो दारोगा साहब बड़ी हिफाजत से छिपाए हुए थे?’’
हेलासिंह ने कहा, ‘‘मालूम होता है किसी ने इसे छुड़ा दिया है। इसका छूट जाना हम लोगों के हक में बहुत ही खराब होगा क्योंकि दामोदरसिंह ने हमारी कमेटी के सब कागजात इसी के सुपुर्द किये थे और यह उन्हें पढ़ भी चुकी है।’’
मुन्दर ने यह सुन कर कहा, ‘‘तब क्या करना चाहिए?’’ हेलासिंह बोला, ‘इस समय यह अकेली मालूम होती है और इसका कोई साथी नहीं दिखाई नहीं पड़ता। बेहतर होगा कि इसे यहीं गिरफ्तार कर लिया जाय और कहीं कैद करके तब हम लोग बाहर निकलें।’’
मुन्दर ने यह बात मंजूर की और तब उसे उसी जगह रुकने को कह हेलासिंह अपने साथी को लिए सर्यू के पास जा पहुँचा। इस समय उसने अपने चेहरे पर नकाब डाली हुई थी।
यकायक अपने सामने दो आदमियों को देख सर्यू चीख उठी पर इन दुष्टों ने इसका कुछ भी खयाल न किया और जबर्दस्ती उसे पकड़ कर मकान के अन्दर ले गए जहाँ बेहोशी की दवा देकर वह बेहोश कर दी गई क्योंकि हेलासिंह को डर था कि उसकी चीखें सुन कर उसका कोई साथी अगर होगा तो जरूर आ पहुँचेगा और हुआ भी वैसा ही।
प्रभाकरसिंह सर्यू की चीख सुन कर लौट आये मगर उनकी आहट पाते ही ये दोनों सर्यू को लिए उसी सुरंग में उतर गये जिसकी राह अभी-अभी यहाँ आये थे। जल्दी-जल्दी रास्ता बन्द करने और किसी निरापद स्थान में पहुँचने की धुन में हेलासिंह का दुपट्टा वहाँ ही फँसा रह गया और वे लोग आये बढ़ गये।
बेहोश सर्यू को लिए ये तीनों बड़ी तेजी से रवाना हुए और लगभग एक घंटे तक लगातार चले जाने के बाद हेलासिंह एक नई ही राह से किसी ऐसी जगह जा पहुँचा जहाँ अभी तक मुन्दर न आई थी। यह एक बहुत बड़ा बाग था जिसके चारों तरफ बहुत-सी इमारतें दिखाई पड़ रही थीं और बीचोबीच में एक बहुत बड़ा दालान था। सब लोग वहीं जाकर खड़े हो गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
ये लोग खड़े बातचीत कर ही रहे थे कि यकायक मुन्दर की निगाह सामने जा पड़ी जिधर बाग के दूसरे सिरे पर इमारतों का एक लम्बा सिलसिला दूर तक चला गया था। उसने देखा कि एक खुले हुए दरवाजे की राह एक आदमी बाहर निकला और पास ही पेड़ों की झुरमुट में जाकर गायब हो गया।
वह चौंक पड़ी और घबड़ा कर हेलासिंह से बोली, ‘‘वह देखिए एक आदमी अभी-अभी उस दरवाजे से निकल कर उधर भागा है।’’
हेलासिंह ने घूम कर उधर देखा मगर किसी को न पाकर बोला, ‘‘तुम्हारा शक होगा, मेरे सिवाय भला कौन यहाँ आ सकता है!’’
मुन्दर बोला, ‘‘नहीं, मेरी आँखें मुझे धोखा कभी नहीं दे सकतीं, वह जरूर कोई आदमी ही था, देखिए वह दूसरा आदमी निकला!’’
सचमुच एक दूसरा आदमी उसी दरवाजे के बाहर निकला और उन्हीं पेड़ों की झुरमुट में जाकर गायब हो गया। हेलासिंह को बड़ा ताज्जुब और कुछ डर भी मालूम हुआ। वह घबराहट के साथ बोला, ‘‘बड़ी विचित्र बात है, ये लोग न जाने कौन हैं जो इस तिलिस्मी घाटी में आ पहुँचे हैं!’’
मुन्दर बोली, ‘‘कहीं वे यहाँ आकर हम लोगों को तकलीफ न पहुँचावें!’’
हेलासिंह ने कहा, ‘‘कौन ठिकाना, हमें तो रंग-कुरंग दिखाई पड़ता है।’’
हेलासिंह और उनकी देखा-देखी उसके साथी ने भी तलवार निकाल ली और ताज्जुब तथा घबराहट से उसी तरफ देखने लगे। उनके देखते ही देखते और भी कई आदमी उसी रास्ते से बाहर निकले और पेड़ों की ओट में जाकर गायब हो गये। आखिर हेलासिंह ने कहा, ‘‘मुझे यहाँ रहना मुनासिब नहीं मालूम होता। कौन ठिकाना वे सब यहाँ आ जायँ और हम लोगों को परेशान करें।’’
यह सुन मुन्दर बोली, ‘‘क्या यहाँ कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ छिप कर हम लोग उनसे बच सकें?’’
हेलासिंह कुछ सोचता हुआ बोला, ‘‘हाँ है तो सही मगर—अच्छा अगर —हाँ ठीक है, तुम मेरे साथ आओ।’’
उसने बेहोश सर्यू को उसी जगह छोड़ा और अपने आदमी को उसकी हिफाजत करने के लिए कह मुन्दर को लिए किसी तरफ को चला गया।
हेलासिंह और मुन्दर को गये देर हो गई मगर दोनों में सो कोई भी लौट कर न आया।
इस बीच बेहोश सर्यू होश में आने के लक्षण प्रकट करने लगी जिसकी कुलबुलाहट देख उसकी निगहबानी करने वाला वह आदमी घबराया और सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। आखिर वह इस फिक्र में उठा कि इधर-उधर घूम कर हेलासिंह का पता लगावे जिसकी बहुत ही कम उम्मीद थी क्योंकि इस तिलिस्मी इमारत के गुप्त स्थानों में से किसी को खोज निकालना उसके जैसे अनजान का काम न था।
फिर भी न-जाने क्या सोच कर वह उठ खड़ा हुआ और उधर की तरफ उसने एक कदम बढ़ाया ही था जिधर हेलासिंह और मुन्दर गये थे कि उसके सामने से आते हुए प्रभाकरसिंह दिखाई पड़े जो हाथ में नंगी तलवार लिए हुए थे। बहादुर प्रभाकरसिंह को देखते ही वह इतना डरा कि एक पल भी न रुक सका और पीछे भाग कर पेड़ों की झुरमुट में पहुँच उसने अपने को छिपा लिया।
हम नहीं कह सकते कि प्रभाकरसिंह की निगाह इस आदमी पर पड़ी या नहीं पर सर्यू को वहाँ पड़ा देख कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उसकी बेहोशी दूर करने की कोशिश की जिससे कुछ ही देर में वे वह होश में आकर उठ बैठी। प्रभाकरसिंह ने उससे सब हाल पूछा और उसने जो कुछ हुआ था सब कह सुनाया।
यही समय था जब किसी दूसरे स्थान से मालती ने प्रभाकरसिंह को देखा था। किस तरह हेलासिंह ने प्रभाकरसिंह पर हमला किया, कैसे वह हार कर भागा, किस प्रकार एक भयानक सूरत के तिलिस्मी शैतान ने प्रभाकरसिंह को लड़ने के लिए ललाकारा और अन्त में उन्हें परास्त करके जमीन पर पछाड़ दिया यह हाल हम ऊपर लिख आए हैं। अस्तु अब यहाँ हम उसके आगे का हाल लिखते हैं।
शैतान को प्रभाकरसिंह की जान लेने पर उतारू देख कर मालती के मुँह से एक चीख निक गई जिसे उसने भी सुन लिया और खिड़की में से झाँकती हुई मालती को देख गुस्से के साथ उस तरफ बढ़ा। उसे अपनी तरफ आते देख मालती बदहवास हो गई मगर उस कम्बख्त शैतान ने इसका कोई भी खयाल न किया। जब वह उस खिड़की के पास पहुँचा जहाँ मालती थी तो किसी तर्कीब से उसने उस दीवार में एक रास्ता पैदा किया और दूसरी तरफ जा पहुँचा।
बेहोश मालती को उठा कर उसने अपने कंधे पर डाल लिया और तब वापस लौट कर वहाँ पहुँचा जहाँ प्रभाकरसिंह को छोड़ गया था। उन्हें भी उसने उठा कर दूसरे कंधे पर रख लिया और तब एक तरफ का रास्ता लिया। न-जाने उस शैतान के बदन में कितनी ताकत थी कि दो-दो आदमियों के बोझ को वह एक मामूली तरह से उठाये हुए था।
उन दोनों आदमियों को लिए यह बाग को पार कर उस इमारत में पहुँचा जो पूरब तरफ बनी हुई थी और जिसका सिलसिला दूर तक चला गया था। यहाँ आकर वह कुछ देर के लिए रुका और तब कुछ सोच एक तरफ को घूमा। बाईं तरफ एक बड़ा दालान और उसके बाद एक कमरा बना हुआ था। तिलिस्मी शैतान उसी दालान में पहुंचा और खड़ा होकर कुछ सोचने लगा।
इस समय अगर सरस्वती यहाँ होती तो इस बाग को जरूर पहिचान लेती क्योंकि वह वही मोरों वाला कमरा था जहाँ जमना और दयाराम को खोजती हुई वह आई थी १ और जिसके अन्दर की एक कोठरी में से बेहोश होकर वह उस बाग में पहुँची थी जिसका हाल ऊपर के बयान में लिखा जा चुका है। सरस्वती को वह भीतर वाला बड़ा कमरा खुला हुआ मिला था मगर इस समय वह बन्द था और शैतान उसी के बाहर वाले दालान में प्रभाकरसिंह और मालती को कंधे पर लिए खड़ा कुछ सोच रहा था। (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, सातवाँ बयान।)
आखिर कुछ देर के सोच-विचार के बाद शैतान ने उन दोनों को उतार कर जमीन पर रख दिया और आप बीच वाले दरवाजे के पास आया। दरवाजे के ऊपरी तरफ एक आला था जिसमें किसी धातु की शेर की छोटी-सी मूरत बनी हुई थी। शैतान ने हाथ बढ़ा कर उस मूरत का सिर पकड़ लिया और जोर से अपनी तरफ खींचा, हल्की आवाज हुई और साथ ही दरवाजा खुल गया।
एक लम्बा-चौड़ा आलीशान कमरा दिखाई पड़ा जिसकी भारी गोल छत मोटे-मोटे चालीस खंभों पर रक्खी हुई थी। बीचोंबीच एक सिंहसान काले पत्थर का बना हुआ रक्खा था जिसके चारों तरफ चार कद्दावर और भयानक शेर काले ही पत्थर के बने हुए बैठाए गये थे जो इतने ऊँचे थे कि आदमी का हाथ मुश्किल से उनके सिर तक पहुँच सकता था। इन शेरों के सिर पर किसी धातु के बने चार उकाब थे जिन्होंने अपनी चोंच में उन शेरों का एक-एक कान पकड़ा हुआ था। उस कमरे के भीतर मुख्य सामान बस यही था, हाँ उसके तीनों तरफ बहुत सी कोठरियाँ जरूर थीं जिनमें कुछ के दरवाजे खुले हुए थे और कुछ के बन्द।
शैतान ने इस कमरे का दरवाजा खोल कर बेहोश मालती और प्रभाकरसिंह को पुनः उठा लिया और लिए हुए कमरे के अन्दर चला गया। उन दोनों को उसने बीच वाले सिंहासन पर रख दिया और खुद भी उसी पर खड़े हो कर बाईं तरफ वाले शेर की तरफ झुका, उसके सिर पर बैठे हुए उकाब की गरदन पकड़ ली और नीचे की तरफ झुकाई। वह कुछ झुक कर रुक गई और साथ ही शेर के मुँह से गुर्राने की आवाज आने लगी। शैतान वहाँ से हट कर उस सिंहासन के बीचो बीच जा बैठा।
यकायक वह शेर दहाड़ मार कर उठ बैठा और इसके साथ ही बाकी के तीनों शेरों के मुँह से भी गरजने की आवाज आने लगी मगर शैतान ने इसका कुछ भी खयाल न किया। उसने झुक कर सिंहसान के नीचे का कोई खटका दबाया जिसके साथ ही एक आवाज हुई और सिंहासन तेजी से जमीन के अन्दर धंस गया।
थोड़ी देर बाद एक झटके के साथ वह सिंहासन रुका। उस जगह धोर अंधकार था और हाथ को हाथ नहीं दिखाई पड़ता था मगर उस शैतान ने अन्दाज से टटोल कर बेहोश मालती और प्रभाकरसिंह को उठा लिया और सिंहासन पर से उतर पड़ा। उसके उतरते ही सिंहासन पुनः ऊपर को चला गया और शैतान ने टटोलते हुए एक तरफ का रास्ता लिया। लगभग पचास कदम जाने के बाद शैतान रुका। इस जगह एक दरवाजा था जिसे किसी तर्कीब से उसने खोला, उसे दूसरी तरफ जाने के बाद एक कमरा दिखाई पड़ा।
इसे भी पार करने के बाद पुनः एक दरवाजा मिला और उसके खोलते ही इस जगह चाँदना आने लगा क्योंकि सामने दालान और उसे बाद बाग था जहाँ से दिन की रोशनी उस कमरे में बखूबी आ रही थी।
दरावाजा खुलते ही उस कमरे की भयानक हालत दिखाई पड़ी। चारों तरफ की जगह हड्डियों से भरी हुई थी जिसके बीच जगह-जगह पड़ी हुई आदमियों और जानवरों की खोपड़ियाँ बड़ी ही भयानक मालूम हो रही थीं। ऐसा मालूम होता था मानों यह उस भयानक तिलिस्मी शैतान के रहने का घर हो और वह इन्हीं हड्डियों को चबा कर जीता हो।
कोठरी की दीवारों के साथ भी तरह-तरह के जानवरों के हड्डियों के ढांचे खड़े थे और चारों कोंनों में चार मनुष्यों के कंकाल ठीक उसी सूरत में खड़े थे जैसी कि खुद उस शैतान की थी।
कोठरी के बीचोबीच में कूएँ की तरह का एक गहरा गड्ढा दिखाई पड़ रहा था जिसमें से बदबू निकल रही थी और कभी-कभी आग की लपटें भी दिखाई पड़ जाती थीं, और इस गड्ढे के ठीक ऊपर एक मजबूत जंजीर लटक रही थी जिसके एक सिरे के साथ एक बड़ा-सा देग बंधा हुआ था और दूसरा सिरा छत की एक कड़ी में से होता हुआ दीवार के साथ खड़ी कुछ हड्डियों के साथ बँधा हुआ था। शैतान ने वहाँ पहुँच कर अपना बोझ अर्थात् मालती और प्रभाकरसिंह को जमीन पर रख दिया और दम लेने लगा।
शैतान को इस भयानक कोठरी में आये कुछ ही देर हुई होगी कि यकायक चारों कोनों में खड़े वे चारों आदमियों के हड्डी के ढाँचे कुछ अजीब तरह से हिलने लगे और उनके जबड़े इस तरह हरकत करने लगे मानों वे कुछ कहना चाहते हों मगर आवाज न निकलती हो। आखिर एक ढाँचा हिलता-डुलता अपनी जगह से लड़खड़ाता हुआ शैतान की तरफ बढ़ा और उसकी देखादेखी बाकी के तीनों ढाँचे भी खड़खड़ करते हुए उसी तरह बढ़ने लगे।
बिना हड्डी-माँस के उन चार नर-कंकालों का इस तरह चलना और उनकी हड्डियों का खड़खड़ाना ऐसा भयानक था कि और कोई देखता तो मारे डर के उसी दम उसकी जान निकल जाती मगर उस शैतान पर इसका कोई भी असर न हुआ, वह उन्हें देख कर जोर से हँस पड़ा और बोला, ‘‘लो, आज बहुत दिन बाद तुम लोगों के लिए खुराक आई है!’’
एक ढाँचे के मुँह से भयानक स्वर में निकला, ‘‘क्या इन लोगों को हमारे भोजन के लिए ही लाए हैं?’’ तिलिस्मी शैतान ने जवाब दिया, ‘‘हाँ।’’ जिस पर एक दूसरा ढाँचा बोल उठा, ‘‘ये सब कौन हैं?
शैतान ने जवाब दिया, ‘‘ये दोनों प्रभाकरसिंह और मालती हैं जिनकी खोज में हम लोग बहुत दिनों से परेशान थे।’’
इसे सुनते ही वे चारों बोल उठे—‘‘ओह, तब तो इन्हें जल्दी ही ठिकाने लगाना चाहिए।’’
शैतान ने हँस कर कहा, ‘‘घबराओ नहीं, मैं अभी इन्हें ठिकाने पहुँचाता हूँ।’’ और तब वहाँ से हटकर बीच वाले गड्हे के पास आया, एक बार झाँक कर उसमें देखा और तब पास ही से थोड़ी-सी हड्डियाँ बटोर कर उसके अन्दर फेंकी। हड्डियों के फेंकते ही भीतर से आग की एक लपट निकली जो कोठरी की छत तक पहुँची और फिर शान्त हो गई। अब शैतान ने वह सिक्कड़ खोला जिसके साथ वह देग बँधा हुआ था और देग को कुछ नीचा करने के बाद वह सिक्कड़ अपने साथी एक ढाँचे के हाथ में पकड़ा दिया।
इसके बाद वह मालती और प्रभाकरसिंह के पास आया और बारी-बारी से एक-एक को उठा कर उसने उसी देग में डाल दिया।
तिलिस्मी शैतान ने अब सिक्कड़ पकड़ लिया और देग को धीरे-धीरे उसी अग्निकुण्ड में उतारने लगा तथा बाकी के ढाँचों ने हड्डियाँ उठा-उठा कर उस कूएँ में फेंकनी शुरू कीं जिसके साथ ही भीतर से आग की लपट के बाद लपट निकलने लगी जिन्होंने उस देग को चारों तरफ से घेर लिया। चिरायंध मिली हुई बदबू से वह कोठरी भर गई और वहाँ इतनी गर्मी हो गयी कि खड़ा रहना मुश्किल हो गया।
।। चौदहवाँ भाग समाप्त ।।
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