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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


दयाराम और जमना-सरस्वती ने उस बाग और बारहदरी को ही अपना मकान या कैदखाना माना और उसी में अपना समय काटने लगे, क्योंकि कई दिन तक चारों तरफ अच्छी तरह घूमने और चक्कर लगा लेने के बाद उन्हें विश्वास हो गया कि वह बाग और इसके चारों तरफ की इमारतें तिलिस्मी हैं और इनके बाहर निकलना उन लोगों के लिये असम्भव है।

हम ऊपर लिख आए हैं कि इस बाग में मेवों के पेड़ बहुतायत से थे और पानी का एक चश्मा भी बह रहा था अस्तु इन लोगों को भूखे रहने की नौबत नहीं आ सकती थी, पर हाँ मौसम की ज्यादतियों की तकलीफ जरूर सहनी पड़ती थी क्योंकि इसमें रहने लायक स्थान सिर्फ बीच में बनी वह बारहदरी ही मात्र थी जो यद्यपि काफी बड़ी तो थी पर चारों तरफ से खुली रहने के कारण न तो गरमी की लू न बरसात की बौछार और न जाड़े की बदन ठिठुराने वाली हवा से ही उन्हें बचा सकती थी।

फिर भी अपने उद्योग से इन तीनों ने बारहदरी के एक कोने को मिट्टी के ढोंके, पेड़ों को डालियों तथा पत्तों से घेर-घार कर कुछ आड़ बना ली और इसी में अपने कैद के दिन काटने लगे, अस्तु।

इस बाग में रहते-रहते इन्हें महीनों हो गये और धीरे-धीरे महीनों के वर्षों में परिणत होने की नौबत आ गई। बाहर क्या हो रहा है इसकी इन्हें मुतलक खबर न थी क्योंकि यहाँ किसी भी गैर की सूरत इन्हें दिखाई नहीं पड़ सकती थी और संध्या के बाद ही इस कदर सन्नाटा छा जाता था कि अगर ये लोग तीन आदमी न होकर कोई एक ही होता तो ऐसी अकेली और भयावनी जगह में घबड़ा कर जरूर पागल हो जाता पर ये कई होने की वजह से ही किसी प्रकार अपने दिन काट लेते थे।

फिर भी यहाँ की बेकारी और अपनी लाचारी इन्हें बहुत खलती थी और बराबर अपने छूटने की तरकीब सोचा करते थे, मगर लाचार थे कि यहाँ से बाहर होने की तरकीब नहीं दिखाई पड़ती थी।

दोपहर का वक्त है। बारहदरी के सामने की जमीन पर पेड़ों की छोटी-छोटी डालियाँ रख कर और उन्हें बची हुई घास की रस्सी से बाँध कर एक सीढ़ी बनाने की कोशिश करते हुए दयाराम दिखाई पड़ रहे हैं और उनके बाईं तरफ कुछ हट कर जमना और सरस्वती बैठी हुई हैं जो घास-पात बटोर कर उसकी रस्सियाँ बट रही हैं। काम करने के साथ ही इन तीनों में बातचीत भी हो रही है।

जमना : क्या आपको विश्वास है कि इस रस्सी और सीढ़ी की मदद से आप इस जगह के बाहर हो सकेंगे?

सरस्वती : अगर बाहर न भी हो सके तो कम-से-कम (हाथ से बता कर) उस मकान तक तो पहुँच ही सकेंगे जो यहाँ से दिखाई दे रहा है। और वहाँ तक अगर हम जा सके तथा उन कमरों में से किसी को खोल सके जो दिखाई पड़ रहे हैं तो यहाँ की बनिस्बत आराम ही से रहेंगे।

जमना : यह क्योंकर कह सकते हैं मुमकिन है कि वहाँ खाने-पीने की कोई चीज हमें न मिले। यहाँ के मेवे के पेड़ों और इस झरने की बदौलत सब तरह की तकलीफ होने पर भी कम-से-कम भूख-प्यास की तकलीफ हमें नहीं है। वहाँ क्या जाने यह बात होगी कि नहीं।

सरस्वती : अगर मान लिया जाय कि वहाँ खाने-पीने का प्रबन्ध न हो तो भी यह जगह तो बनी ही रहेगी। जिस तरह यहाँ से वहाँ जायेंगे उसी तरह से वहाँ लौट भी आ सकेंगे।

जमना : इसका कौन ठिकाना! यह तिलिस्मी जमीन है, यहाँ कदम-कदम पर जोखिम है, क्या जाने वहाँ जाकर लौटना मुमकिन हो या न हो।

सरस्वती : खैर तो फिर जो कुछ होगा झेलेंगे, मुसीबत, आफत और जोखिम तो सभी जगह हैं, क्या पलंग पर पड़े-पड़े आदमी मर नहीं जाते। अगर इस तरह बात-बात पर डरा करें तो कुछ काम ही नहीं हो सकता।

दयाराम अपना काम करके जाते थे और उनकी बातें भी सुनते जाते थे। सरस्वती की आखिरी बात सुन कर वह बोले, ‘‘बेशक ऐसा ही है, और इसीलिये उद्योग को इतना महत्त्व दिया गया है।

उच्चाभिलाषी कभी जोखिम या मुसीबत से नहीं डरते और जो डरते हैं वे कुछ नहीं कर सकते। अस्तु हर एक को हर वक्त आफत सहने के लिये तैयार रहना चाहिये। अपनी ही तरफ देखो, हम लोगों ने किसके साथ बुराई की थी? किसी से कुछ नहीं, फिर भी कैसी मुसीबतें हम लोगों को झेलनी पड़ीं अब तक भी बराबर उठानी पड़ रही हैं। ये क्या हमने जान-बूझ कर बुलाई हैं?

यह तो आपसे आप हमारे सर पर आ पड़ी हैं और हमें झेलनी ही पड़ेंगी, हम चाहें या न चाहें। इसी तरह हर एक नये काम में होता है, अगर उसके द्वारा हम पर कोई आफत आने वाली है तो आकर ही रहेगी पर बहुत हालतों में यही देखा जाता है कि उद्योगशीलों की परमात्मा भी सहायता करता है, अस्तु कोशिश से बाज न आना चाहिये, फल चाहे जो हो।’’

जमना : जी हाँ, यह तो कहना ठीक है मगर आदमी को अपनी बुद्धि का भी साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिये। अगर हम जान-बूझ कर आग छूएँगे तो हमारा हाथ जरूर ही जलेगा।

दयाराम इसका कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि यकायक रुक गये और अपने सामने की इमारत की तरफ गौर से देख कर बोले, ‘‘यह क्या! वहाँ कोई औरत देख रहा हूँ या मेरी आँखें मुझे धोखा दे रही हैं!!’’

जमना और सरस्वती ने भी यह सुन ताज्जुब से उसी तरफ देखा और साथ ही उनके मुँह से भी एक आश्चर्य की आवाज निकल गई। हम ऊपर लिख आये हैं कि जिस बाग में ये लोग थे उसके उत्तर और पूरब के कोने में काले पत्थर का एक ऊँचा बुर्ज था जिसके सिरे पर से लोहे का एक खंभा ऊपर की तरफ निकला हुआ था जिसके साथ बहुत-सी तारें बंधी हुई थीं। इस समय उसी बुर्ज या बारहदरी पर खड़ी हुई एक औरत इन लोगों को दिखाई पड़ी जो एकटक इन्हीं की तरफ देख रही थी।

कुछ देर के बाद वह उधर से घूमी और पूरब की तरफ मुड़ी। मालूम होता है कि उधर कोई आश्चर्य की चीज उसे दिखाई पड़ी क्योंकि उधर देखते ही वह चौंक पड़ी और एक तेज निगाह उस तरफ डालते ही हट कर आँखों की ओट हो गई।

उसके हटते ही दयाराम अपनी जगह से उठ खड़े हुए और यह कह कि ‘मैं उस तरफ जाकर देखता हूँ कि यह क्या मामला है और यह औरत कौन है’—बाग के उसी कोने की तरफ चले जिधर वह बुर्ज था।

बात-की-बात में वे उस जगह पहुँच गए और तब उस बुर्ज की तरफ बड़े गौर से देखने लगे मगर किसी की सूरत दिखाई न पड़ी। आखिर उन्होंने जोर से पुकारकर कहा, ‘‘हम लोग बरसों से यहाँ बन्द कैदी हैं, क्या वह जो अभी दिखाई पड़ी थीं हमारी कुछ मदद कर सकती हैं।’’ कई बार जोर-जोर से उन्हें पुकारा और आवाजें दीं मगर सब व्यर्थ हुआ। बाग की चहारदीवारी के साथ-साथ वे चारों तरफ घूम भी आये मगर कहीं किसी की भी शक्ल दिखाई न पड़ी, लाचार वे पुनः उसी जगह लौट आये जहाँ जमना-सरस्वती को छोड़ गए थे और उनसे बोले, ‘‘मैंने कई आवाजें दीं मगर कोई जवाब न मिला, न-मालूम वह कौन औरत थी!’’

बहुत देर तक वे लोग उसी औरत के बारे में बातें करते रहे और अन्त में संध्या हो जाने पर अपने मामूली कामों में लगे परंतु इतना इन लोगों ने निश्चय कर लिया कि यदि कभी वह सीढ़ी और रस्सा बन गया जो वे लोग तैयार कर रहे हैं तो एक बार जरूर उस जगह तक पहुँचने की कोशिश करेंगे जहाँ वह औरत दिखाई पड़ी थी। सम्भव है कि वहाँ से बाहर निकलने की कोई सूरत निकल आये।

आधी रात का समय है। जमना, सरस्वती और दयाराम उस दालान में बेखबर सोये हुए हैं। चन्द्रमा अभी पेड़ की ओट से निकला है। यकायक कहीं से भारी धमाका और एक चीख की आवाज उस जगह के सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँज उठी जिसने औरों को नहीं मगर सरस्वती की कमजोर नींद तुरंत तोड़ दी। करवट बदल कर वह उठ बैठी और ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखने लगी। यकायक उसकी निगाह उसी बारहदरी की तरफ चली गई जहाँ दिन को वह औरत दिखाई पड़ी थी, और यह देख सरस्वती को बड़ा ही ताज्जुब हुआ कि उसके ऊपर जो खम्भा था उसके सिरे से बेतरह तेज रोशनी निकल रही है।

गौर करने से सरस्वती को मालूम हुआ कि उसके सिरे पर जो चिड़िया की शक्ल बनी हुई है उसी की आँखों में से वह रोशनी निकल रही थी। सरस्वती ने सोचा कि जरूर अब कोई विचित्र बात देखने में आवेगी और इसी नीयत से उसने पास ही नींद में बेखबर पड़े हुए जमना और दयाराम को उठाना चाहा मगर उसी समय यकायक वह रोशनी जिस तरह दिखाई पड़ी थी उसी तरह बुझ गई।

अस्तु सरस्वती रुक गई और इस बात की राह देखने लगी कि यदि कोई और नई बात हो तो उन लोगों को जगावे नहीं तो सुबह इसका जिक्र कर देगी। मगर उसने अपनी निगाह उसी तरफ रक्खी।

थोड़ी देर के बाद सरस्वती को बाग के पूरब तरफ कुछ रोशनी दिखाई पड़ी और गौर करने से मालूम हुआ कि यह उस इमारत में से आ रही है जिसके अंदर खुशनुमा बाग बना हुआ है चूँकि उस जगह बाग की चहारदीवारी में बहुत-सी खिड़कियाँ थीं जिनकी राह उस इमारत के भीतर का काफी हिस्सा दिखाई पड़ सकता था अस्तु सरस्वती को यह उम्मीद हुई कि वहाँ जाने पर कोई-न-कोई नई बात दिखेगी। वह उठ खड़ी हुई और कदम दबाए तथा पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाये हुए उसी तरफ चली।

थोड़ी ही देर में सरस्वती उस जगह पहुँच गई और उन कई दरवाजों में से एक की राह भीतर की तरफ देखने लगी। हम पहिले लिख आये हैं कि इस तरफ एक लम्बी-चौड़ी इमारत थी जिसके कई दरवाजे बाग की तरफ पड़ते थे जिसमें लोहे के मोटे छड़ लगे रहने के कारण यद्यपि बाग में से किसी आदमी का अन्दर जाना असम्भव था मगर दरवाजे खुले रहने की हालत में खड़ा आदमी भीतर का हाल बहुत कुछ देख सकता था। इस समय सरस्वती ने उन्हीं में से एक दरवाजे की राह अन्दर जो कुछ देखा वह एक कौतूहलप्रद घटना थी।

सरस्वती ने देखा कि भीतर के संगमर्मर के आंगन के बीच बावली और उसके चारों तरफ का बनावटी बाग इस समय रोशनी से जगमग हो रहा है जो किस चीज की है यह वह देख नहीं सकती थी क्योंकि वह रोशनी आड़ में पड़ती थी मगर फिर भी अन्दाज से सरस्वती यह समझ सकती थी कि रोशनी कुछ ऊँचे पर और उसी दीवार के साथ लगी किसी चीज की थी जिसके बाहर वह खड़ी थी और साथ ही इतनी तेज थी कि वहाँ का एक-एक पत्ता साफ नजर आ रहा था। इस रोशनी में सरस्वती वहाँ की हर एक चीज खूब गौर से देखने लगी। यह जान उसे ताज्जुब हुआ कि उस बनावटी बाग की हर एक चीज हरकत कर रही है। पेड़ों की पत्तियाँ और टहनियाँ हिल रही थीं मानों मन्द हवा उसमें से बह रही हो, उन पर बैठने वाली बनावटी चिड़ियाँ इधर से उधर फुदक रही थीं और कभी-कभी कोई नाजुक चिड़िया किसी टहनी पर बैठ कर मस्तानी आवाज में चहकने भी लग जाती थी।

नीचे जो तरह-तरह के बनावटी जानवर बने हुए थे उनमें से भी कई ठीक असली जानवरों की तरह घूम-फिर रहे थे, कहीं ऊँची घास में दबता हुआ आगे बढ़ने वाला चीता दिखता था तो कहीं पेड़ों की डालियाँ तोड़ता हुआ हाथी, कहीं हरी घास चरते हुए हरिन घूमते थे तो कहीं फन काढ़े हुए सांप। गरज कि इस समय वह छोटा बनावटी बाग या जंगल किसी असली जंगल का नमूना बन रहा था।

सरस्वती बड़े गौर से ताज्जुब से यह देख रही थी और साथ ही साथ इस बात को भी जानने की कोशिश कर रही थी कि इन सब का सबब क्या है क्योंकि अभी तक यद्यपि सैकड़ों दफे उन लोगों ने यह जगह तथा यह बनावटी बाग देखा था पर आज तक कभी यह अजीब बात नहीं देखी थी।

सब तरफ घूमती-फिरती सरस्वती की निगाह उस औरत की तरफ गई जो एक कोने में तीर-कमान लिए खड़ी बनाई गई थी। यद्यपि आज तक कई बार देखने पर भी उसका एक ही भाव और स्थिर आकृति देख कर सरस्वती को निश्चय हो चुका था कि और चीजों की तरह वह औरत भी बनावटी है पर इस समय वह भी चलती-फिरती नजर आ रही थी।

उसने अपनी कमान पर का तीर तरकस में डाल लिया था और कमान बांह में पहिन कर सिर नीचा किये इस तरह इधर से उधर टहल रही थी मानों किसी बड़ी ही भारी फिक्र में पड़ी हुई हो। सरस्वती के देखते ही देखते उसने कई चक्कर उस बनावटी बाग में लगाये और अन्त में एक ऐसी जगह जाकर खड़ी हो गई जहाँ पत्थर और कंकड़ों के ढोकों से एक छोटा बनावटी पहाड़ बना कर पहाड़ी दृश्य दिखलाया गया था। इस नकली पहाड़ी के एक बगल में तंग गुफा का मुँह दिखाई पड़ रहा था जिसके मुहाने पर पहुँचकर वह रुक गई और कुछ देर तक बेचैनी के साथ इधर-उधर देखने के बाद उसी गुफा के अन्दर घुस गयी।

लगभग आधी घड़ी के बाद सरस्वती ने पुनः उस औरत को उस गुफा के बाहर निकलते देखा मगर इस समय वह अकेली न थी बल्कि उसके साथ एक औरत और थी। इस नई औरत का कद, पहिरावा और चालढाल भी उस पहिली ही औरत की तरह था और यकायक देखकर इसके बारे में भी शक हो सकता था कि यह असली है या बनावटी। मगर सरस्वती ने यह विश्वास कर लिया कि पहली औरत की तरह यह दूसरी भी बनावटी है और इस नकली बाग की किसी तिलिस्मी कार्रवाई के सबब से हरकत कर रही है वे दोनों औरते घूमती-फिरती सरस्वती के सामने कुछ दूर पर आकर रुक गईं और आपुस में कुछ बातचीत करने लगीं। आवाज यद्यपि बहुत पतली और धीमी थी मगर कुछ देर बाद सरस्वती को उसका मतलब समझ में आने लगा और वह गौर से उनकी बातें सुनने लगी।

एक औरत : तो क्या सचमुच इस तिलिस्म की उम्र समाप्त हो गई?

दूसरी : हाँ, क्योंकि इसका तोड़ने वाला आ पहुँचा।

पहिली : मगर अब हम लोगों की क्या गति होगी?

दूसरी : या तो हमें अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा और या किसी की कैद में सड़ते हुए जिन्दगी बितानी होगी।

इससे बचने का कोई उपाय नहीं है? हमलोग अगर मारे गए या कैद हो गए तो फिर उन लोगों की हिफाजत कौन करेगा जो हमारे सुपुर्द किये गये हैं!

दूसरी : इसका तो अब एक ही उपाय है।

पहिली : वह क्या?

दूसरी : तिलिस्म तोड़ने वाले को जरूरी होगा कि वह यहाँ आवे और उस शेर की आँख में तीर मारे जो उस झाड़ी में खड़ा है। अगर वह तीर निशाने पर लगा तो वह शेर उस बावली वाले बारहसिंघे पर हमला करेगा जिसके मारे जाते ही बावली सूख जायेगी और बाहर जाने का रास्ता निकल आवेगा।

अगर ऐसा हुआ तो हम लोग कहीं के भी न रहेंगे, मगर ऐसा होने के पहिले-पहिले ही अगर हम लोग तीर मार कर उस तिलिस्म को तोड़ने वाले को जख्मी कर सकें जो यहाँ आकर यह सब उपद्रव करेगा तो मुमकिन है कि उसका तीर बहक जाय और निशाने पर न लगे, तब वह खुद इस तिलिस्म में फंस जायगा और हमारा कैदी बनेगा।

पहिली : हाँ यह तर्कीब तो अच्छी है, फिर ऐसा ही करो, तुम्हारे पास तो तीर-कमान मौजूद ही है, मैं भी ले आती हूँ। हम दोनों मिल कर तीर चलावें तो जरूर कामयाबी होगी।

दूसरी : हाँ जरूर। उस गुफा में से तुम भी एक कमान और कुछ तीर ले आओ, मैं यही हूँ।

पहिली औरत ने जवाब में सिर हिलाया और पीछे लौट कर उसी गुफा में घुस गई जिसके अन्दर से वह निकली थी।

सरस्वती इन लोगों की बात सुन कर फेर में पड़ गई।

और अगर ईश्वर न करे इनका कहना ठीक निकला और इन्होंने उसे जख्मी कर दिया तो हम लोगों का छूटना असम्भव हो जाएगा। अस्तु इन्हें उस काम से रोकने के लिए कोई तर्कीब करनी चाहिए। वह बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने और सोचने लगी कि क्या किया जा सकता है।

यकायक ऊपर की तरफ से किसी के ताली बजाने की आवाज सुनाई पड़ी सरस्वती ने चौंककर ऊपर देखा तो एक काली शक्ल दिखाई पड़ी जो ऊपर की मंजिल से किसी खिड़की या दरवाजे की राह नीचे झाँक रही थी।

इसका हाथ-पैर और तमाम बदन बल्कि मुँह तक काले कपड़ों से इस तरह ढँका हुआ था कि सरस्वती यह भी नहीं जान सकी कि यह औरत है या मर्द मगर वह काली शक्ल भी सिर्फ कुछ देर के लिए इसे दिखाई पड़ी। सरस्वती को अपनी तरफ देखते पा उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया जिसमें कोई कागज था और उसे नीचे की तरफ फेंक वहाँ से हट गई।

सरस्वती कुछ देर तक इस आशा से ऊपर देखती रही कि शायद वह शक्ल फिर दिखाई पड़े मगर जब कोई नहीं दिखा तो उसने वह पुर्जा उठा लिया और खोल कर देखा। जल्दी में लिखा हुआ टेढ़ा-मेढ़ा एक छोटा-सा मजमून उसे दिखाई पड़ा जिसे कमरे के अन्दर की रोशनी की मदद से उसने कुछ ही कोशिश में पढ़ लिया, यह लिखा हुआ था, ‘‘तुम लोग सब कोई उस पूरब तरफ वाले चबूतरे पर चले जाओ जिस पर शेर की मूरत बनी हुई है, खबरदार! यहाँ एक पल भी न रुको!’’

सरस्वती कई बार उस मजमून को पढ़ गई मगर लिखावट पर खूब गौर करने पर भी वह न जान सकी कि यह पुर्जा किसका लिखा हुआ है। वह इस सोच में पड़ गई कि इसके लिखे अनुसार उसका यहाँ से चला जाना उचित होगा या इसी जगह रुक उन दोनों औरतों की धोखेबाजी से तिलिस्म तोड़ने वाले को होशियार करना मुनासिब होगा। वह इसी उधेड़बुन में पड़ी हुई थी कि यकायक इमारत के अन्दर कहीं से शोरगुल की आवाज आने लगी जो इस तरह की थी मानों बहुत-से कल-पुरजे कहीं चल रहे हों। यह आवाज सुनते ही वह समझ गई कि कोई नई तिलिस्मी कार्रवाई अब शुरू हुआ चाहती है। क्या करे, रुके या जाकर दयाराम और जमुना को होशियार करे, आदि बातें सरस्वती खड़ी सोच ही रही थी कि ऊपरी तरफ से चुटकी की आवाज आई और उधर देखने से वही काली शक्ल पुनः दिखाई पड़ी जो इस समय हाथ के इशारे से उसे वहाँ से चले जाने को कह रही थी।

मगर सरस्वती ने उसे देख धीमी आवाज में कहा, ‘‘अगर आप इस तिलिस्म को तोड़ने आये हैं तो उन दोनों औरतों से होशियार रहियेगा जिनको मैं यहाँ से देख रही हूँ और जो धोखे में आपके ऊपर वार करेंगी!’’ सरस्वती की यह बात सुन वह काली शक्ल खिलखिला कर हँसी और एक बार फिर उसे हट जाने का इशारा कर पीछे हटकर गायब हो गई। सरस्वती ने ऊपर से दरवाजा बन्द होने की आवाज सुनी और वह घूमी ही थी कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रक्खा।

उसने चौंककर देखा तो दयाराम और जमुना को पास खड़े पाया। दयाराम ने उससे पूछा, ‘‘तुम यहाँ कब से खड़ी हो और यह आवाज कैसी हो रही है?’’ बहुत ही संक्षेप में सरस्वती ने सब हाल सुनाया और काली शक्ल से पुर्जा पाने का हाल कह वह कागज भी दयाराम के हाथ में दे दिया।

दयाराम यह पढ़ने के लिए कमरे की तरफ बढ़ ही रहे थे कि यकायक वह भारी आवाज जो चारों तरफ फैल रही थी बहुत तेज होकर बन्द हो गई और दरवाजा भी एक झोंके के साथ बन्द हो गया जिसकी राह सरस्वती भीतर का हाल देख रही थी। जरा देर के लिए सन्नाटा हो गया और तब किसी औरत के चिल्लाने की आवाज आई जिसके साथ एक शेर की भयानक गरज भी मिली हुई थी। इस आवाज का गूँजना अभी बन्द नहीं हुआ था कि एकाएक उस मकान की दीवारों और वहाँ की जमीन इस तरह झोंके खाने लगी मानों भूचाल आया हो।

दयाराम ने यह देखते ही कहा, ‘‘अब यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं है, हमें वहीं चले जाना चाहिए जहाँ जाने को वह काली शक्ल कह गई है!’’ पाठकों को याद होगा कि इस बाग में जगह-जगह बहुत-से चबूतरे बने हुए थे जिनके बीचोबीच में एक-एक खंभा था और उस पर किसी जानवर की मूरत बैठाई हुई थी। बीच वाले दालान के दाहिने तरफ काले पत्थर का एक चबूतरा था जिस पर कोई दो हाथ ऊँचे खंभे पर एक कद्दावर शेर की मूरत बनी हुई थी। जमना, सरस्वती और दयाराम उस इमारत के पास से हट कर तेजी के साथ इसी चबूतरे पर आ पहुँचे और उस मूरत के पास खड़े होकर उस इमारत की तरफ देखने लगे। इमारत का हिलना अभी तक बन्द नहीं हुआ था और वह ऐसे जोर-जोर से झोंके खा रही थी कि मालूम होता था कि दम-के-दम में जमीन पर गिर कर बरबाद हो जायेगी।

तरह-तरह की विचित्र और डरावनी आवाजें उसके अन्दर से आ रही थीं और उसके हिलने की धमक से इतनी दूर का यह चौतरा भी डगमगा रहा था। थोड़ी देर बाद इमारत का हिलना तो कुछ कम हो गया मगर उसके अन्दर से आग के बड़े-बड़े शोले निकल कर ऊपर की तरफ उठने लगे।

दयाराम, जमुना और सरस्वती इमारत का यह विचित्र तमाशा देख ही रहे थे कि उनके पैरों में एक तरह की झुनझुनी-सी आने लगी जो शीघ्र ही यहाँ तक बढ़ी कि उनका खड़ा रहना मुश्किल हो गया। कुछ देर तक तो उन लोगों ने अपने को सम्भाला, पर आखिर लाचार हो गये और जमीन पर बैठ जाना पड़ा। उसी समय उन्हें मालूम हुआ कि वह चबूतरा धीरे-धीरे घूम रहा है। यह देख उन्हें डर मालूम हुआ और उन्होंने उस पर से उतर जाना चाहा पर उनके हाथ-पाँव बेकार हो गये थे और वे अपनी जगह से एक कदम भी हटने से लाचार थे।

चबूतरे के घूमने की तेजी धीरे-धीरे बढ़ने लगी और अन्त में यहाँ तक बढ़ी कि सर में चक्कर आने के सबब में तीनों आदमी बेहोश हो गए। यकायक उस इमारत की तरफ से एक बड़ी भयानक आवाज आई, मालूम हुआ जैसे वह समूची इमारत फूट गयी हो। आग की लपट आसमान की तरफ उठी और उसी समय चबूतरा जिस पर ये तीनों आदमी थे एक भारी आवाज के साथ जमीन के अन्दर धंस गया।

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