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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


लोहू से सने उस भयानक सर को यकायक अपने सामने पा इन्द्रदेव एकदम चौंक पड़े और घबड़ा कर उसी तरफ देखने लगे परन्तु जल्दी ही उन्होंने अपने होश हवास दुरुस्त किये और कोठरी के बीचोबीच में पहुँचे। उन्होंने उस सर को बड़े ही गौर से देखा क्योंकि उन्हें गुमान हुआ कि यह कदाचित् उन्हीं के किसी साथी या ऐयार का होगा, पर ऐसा नहीं था और आज से पहिले उस शक्ल को उन्होंने कभी देखा न था।

अच्छी तरह गौर करके जब इसका विश्वास कर लिया तो वे कुछ निश्चिंत हुए और तब इस बात को सोचने लगे कि यह सर वहाँ आया किस तरह! इधर-उधर देखते ही उनकी निगाह एक कागज के टुकड़े पर पड़ी जो चौकी के नीचे पड़ा हुआ था। उन्होंने उसे उठा लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था, ‘‘तिलिस्मी शैतान अपने दुश्मनों से किस तरह बदला लेता है यही दिखाने के लिए यह सर रख दिया गया है। पीछा करने वाले होशियार!’’

इन्द्रदेव ने कई बार इस पुर्जे को पढ़ा और देर तक इस लिखावट पर गौर करते रहे पर कुछ समझ न सके, इसका लिखने वाला कौन है। आखिर उनके मुँह से निकला, ‘‘खैर, यह तिलिस्मी शैतान चाहे जो कोई भी हो मगर इसमें शक नहीं कि तिलिस्मी मामलों में इसकी जानकारी कम नहीं है। यहाँ तक आ पहुँचने वाला कोई मामूली कदापि नहीं हो सकता, मगर मुझे भी देखना है कि यह कितने पानी में है!’’

इन्द्रदेव उस कटे सिर के पास से हटे और कमरे के दक्खिन तरफ की दीवार के पास पहुँचे, इस जगह एक आले में बनी हुई एक छोटी मूर्ति थी जिसका मुँह खुला हुआ था। वही हीरे वाली ताली इन्द्रदेव ने उसके मुँह में डाली और कई बार घुमाया जिसके साथ ही दीवार का एक पत्थर हट गया और सामने रास्ता दिखाई पड़ने लगा। इन्द्रदेव ने मूर्ति के मुंह से ताली निकाली और उस रास्ते के अन्दर घुस गए। भीतर जाते ही यह दरवाजा आप ही आप बन्द हो गया।

अब जिस जगह इन्द्रदेव ने अपने को पाया वह बहुत बड़े बाग के अन्दर बना हुआ एक दालान था जिसके चारों तरफ तरह-तरह की और भी बहुत सी इमारतें बनी हुई थीं पर इन्द्रदेव किसी तरफ न जाकर उसी दालान में एक तरफ बनी हुई सीढ़ियों की राह ऊपर की मंजिल में चढ़ गए और एक बड़े कमरे में पहुँचे जिसमें चारों तरफ कितने ही खिड़की और दरवाजे थे जो सभी इस समय बन्द थे मगर ऊपर की तरफ बने हुए कई रोशनदानों की वजह से इतना चांदना आ रहा था कि वहाँ की चीजें साफ दिखाई पड़ सकें।

उस कमरे में बहुत-सी विचित्र और ताज्जुब में डालने वाली चीजें दिखाई पड़ रही थीं मगर इन्द्रदेव ने किसी तरफ ध्यान न दिया और सीधे उस बीच वाले संगमर्मर के बहुत बड़े गोल टेबुल के पास चले गये जिस पर काले पत्थर की पच्चीकारी के काम का एक किसी बहुत ही बड़ी इमारत का नक्शा दिखाई पड़ रहा था। यह उस घाटी और उसके साथ की इमारतों का नक्शा था और जिसे देख उस पूरे तिलिस्म का अनुमान सहज ही में किया जा सकता था। जगह-जगह बारीक अक्षरों में बहुत–सी लिखावटें भी थीं तथा और भी तरह-तरह के निशान स्थान-स्थान पर बने थे जिनका मतलब जानकारों को ही समझ में आ सकता था।

इन्द्रदेव ने और किसी तरफ ध्यान न देकर बीच में एक स्थान पर अंगूठा रक्खा और जोर से दबाया। दबाने के साथ ही खटके की आवाज आई और उसी समय उस नक्शे में दो जगह लगे हुए शीशे के दो छोटे बटन तेजी से साथ चमकने लगे। इन्द्रदेव ने और भी कई जगह अंगूठे से दबाया पर कोई असर न होता देख कर बोले, ‘‘बेशक वह तिलिस्मी शैतान अपने साथियों को लेकर निकल गया।

इस समय सिर्फ मैं और वह लाश जिसका कटा सिर मैं अभी देखता आ रहा हूँ इस जगह है और इसी में से सिर्फ दो ही रोशनियाँ दिख रही हैं। अफसोस, तिलिस्मी रास्तों का बन्द करना व्यर्थ हो गया। खैर अब लौटना चाहिए।’’

इन्द्रदेव ने कोई कारीगरी की जिससे उन दोनों बटनों का चमकना बन्द हो गया। इसके बाद वे बीच वाले दालान में पहुँचे जो कल-पुर्जों से भरा था। उन्होंने किसी पुर्जे को छेड़ा जिससे वह आवाज जो इस इमारत में गूँज रही थी बन्द हो गई।

इसके बाद एक सुरंग का मुहाना खोल वे उस स्थान से बाहर हो गये। सुरंग के मुहाने पर उनका एक आदमी घोड़ा लिए मौजूद था। उस आदमी के सुपुर्द कुछ काम कर वे घोड़े पर सवार हुए और तेजी के साथ कैलाश-भवन की तरफ रवाना हो-कर संध्या के पहिले ही वहाँ पहुँच गये। दूसरे दिन सुबह के समय इन्द्रदेव अपने एकान्त के कमरे में बैठे हुए कोई पुस्तक देख रहे थे जब एक नौकर ने आकर कहा, ‘‘अर्जुनसिंहजी आये हैं और मिलना चाहते हैं।’’ इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘उन्हें मुलाकाती कमरे में ठहराओ, मैं अभी आया’’ और जब नौकर चला गया तो वे भी किताब बन्द कर वहाँ से उठ खड़े हुए और यह कहते हुए बाहर की तरफ चले, ‘‘यह अर्जुनसिंह कैसे आ पहुँचे? मालूम होता कि किसी तरह शिवदत्त के कैद से इन्हें छुट्टी मिल गई।’’

शायद हमारे पाठक अर्जुनसिंह को भूल गये हों क्योंकि इधर बहुत दिनों से उनका जिक्र नहीं आया है। ये वही अर्जुनसिंह हैं जिनको साथ लेकर इन्दुमति कैलाशभवन के बाहर निकली थी। इन्होंने ही गौहर को गिरफ्तार किया था, इन्हीं की सुपुर्दगी में मालती ने इन्दुमति को लोहगढ़ी में छोड़ा था, और यही इन्दु के साथ शिवदत्त के सिपाहियों द्वारा पकड़े गये थे। (१. देखिए भूतनाथ का बारहवाँ भाग, सातवें बयान का अन्त।)

उसके बाद से इनका जिक्र फिर नहीं आया और हम नहीं कह सकते कि अब तक ये कहाँ रहे, हाँ आज हम इन्हें कैलाश भवन में देख रहे हैं। सम्भव है कि इनकी बातचीत से कुछ इनका पिछला हाल हमें मालूम हो जाय।

जिस समय इन्द्रदेव ने उस कमरे में प्रवेश किया उस समय अर्जुनसिंह बेचैनी के साथ इधर-उधर घूम-फिर रहे थे और उनके चेहरे से परेशानी तथा घबराहट झलक रही थी। इन्द्रदेव ने उन्हें देखते ही खुश होकर कहा, ‘‘वाह-वाह अर्जुन, तुम तो ऐसा गायब हुए कि कुछ पता ही नहीं! कहो इतने दिन कहाँ रहे और क्या-क्या किया?

अर्जुन० : मैं अपना पूरा हाल अभी आपको सुनाऊँगा मगर सब के पहिले मैं यह सन्देह दूर कर लेना चाहता हूँ कि हम दोनों में कोई सूरत बदले हुए ऐयार तो नहीं है।

आपके इन्द्रदेव होने में तो कोई शक नहीं हो सकता पर अपने परिचय के लिये मैं कहता हूँ—‘कनकलता’।

इन्द्रदेव : तब मैं कहूँगा—‘धूमावती’।

अर्जुन० : बस तब ठीक है, अच्छा अब सुनिए कि मैं इतने दिनों तक कहाँ रहा और क्या करता रहा।

इन्द्रदेव : यह तो मुझे मालूम हो चुका था कि तुम शिवदत्त के ऐयारों के फेर में पड़ गये हो, पर यह जानना चाहता हूँ कि तुम छूटे कैसे? मैं बहुत दिनों से इस फिक्र में था कि किसी तरह तुम्हें छुड़ाऊँ क्योंकि तुमसे कई बहुत जरूरी काम लेने थे, मगर फुरसत नहीं मिलती थी कि कुछ कर सकूँ।

अर्जुन : आपको कैसे मालूम हुआ कि मैं शिवदत्त की कैद में था?

इन्द्रदेव : मुझे इन्दुमति की जुबानी मालूम हुआ था जो तुम्हारे साथ ही लोहगढ़ी में गौहर की करतूत से शिवदत्त के ऐयारों द्वारा पकड़ी गई थी। भूतनाथ चालाकी से उसे तो छुड़ा लाया मगर तुम रह ही गए। मैंने जब इन्दुमति की जुबानी तुम्हारा हाल सुना तो तुमको छुड़ाने की फिक्र हुई मगर जैसाकि मैंने कहा एक तो फुरसत नहीं मिलती थी दूसरे इस बात का भी पता नहीं था कि शिवदत्त के उन ऐयारों ने अपना अड्डा कहाँ बनाया हुआ है जो यहाँ आकर इस कदर उपद्रव मचाए हुए हैं। इधर जो कुछ मुसीबतें मुझ पर और राजा गोपालसिंह पर आईं वह तो शायद तुम्हें मालूम ही हो चुका होगा।

अर्जुन: हाँ, मैंने वह सब हाल सुना। अफसोस, कुछ कहा नहीं जा सकता कि परमात्मा की क्या मरजी है! खैर मैं अपना हाल बताता हूँ। मैं तब से उसी शिवदत्त की कैद में था। उसके आदमियों ने मुझे एक गुफा में इस तरह बन्द कर रक्खा था कि निकलने का कोई मौका ही नहीं मिलता था। कल आपके आदमी महाबीर ने मुझे छुड़ाया तब मैं यहाँ तक आ सका हूँ।

इन्द्रदेव : (ताज्जुब से) महाबीर ने तुम्हें छुड़ाया? सो कैसे वह खुद कहाँ है? मैंने उसे एक बहुत जरूरी काम से भेजा था पर वह लौट कर वापस नहीं आया।

अर्जुन : मुझे वह हाल मालूम है। आपने उसे रथ देकर प्रभाकरसिंह की आज्ञानुसार काम करने को भेजा था और उसकी मदद के लिए कई आदमी भी दिए थे।

इन्द्रदेव हाँ, तब फिर क्या हुआ? मुझे इसके बाद का हाल कुछ भी मालूम नहीं है।

अर्जुन : जो कुछ मुझे मालूम है सो मैं बताता हूँ। प्रभाकरसिंह ने बड़ी चालाकी से आपकी स्त्री को दुष्ट दारोगा के कब्जे से छुड़ा लिया और जमानिया से बाहर निकल गए। वहाँ महाबीर रथ लिए मौजूद था जिस पर प्रभाकरसिंह आपकी स्त्री को लिए सवार हुए और तिलिस्मी घाटी की तरफ रवाना हुए तथा एक आदमी उन्होंने आपकी तरफ यह समाचार देने के लिए भेजा कि वे सर्यू को छुड़ा कर तिलिस्मी घाटी की तरफ जा रहे हैं। भाग्यवश उस समय उसी जंगल में छिपे हुए शिवदत्त के कई ऐयार मौजूद थे।

उन्होंने प्रभाकरसिंह और सर्यू को देख लिया और उस आदमी को जो आपके पास भेजा गया था धोखा दे कुछ हाल भी जान लिया। इसके बाद वे प्रभाकरसिंह और सर्यू को पकड़ने की फिक्र में लगे। जो चार सवार आपके रथ के साथ थे उन्हें उन लोगों ने पकड़ा और तब उनकी सूरत बन खुद रथ के साथ हो गये। मगर न जाने किस तरह प्रभाकरसिंह को कुछ शक हो गया, वे खुद तो सर्यू को लेकर लोहगढ़ी में रह गये और महावीर को अपनी सूरत बना अर्थात् वही साधु का रूप धरा कर रथ पर भेज दिया। शिवदत्त के आदमियों ने उसी को प्रभाकरसिंह समझा और रथ पर ले भागे।

जब डेरे पर पहुँचे और जांच की तो भण्डा फूटा और प्रभाकरसिंह की जगह महाबीर को पाकर बहुत झल्लाये मगर कर ही क्या सकते थे। आठ पहर तक महाबीर उनकी कैद में रहा। बीच ही में उस आदमी से भी मुलाकात हुई जो आपके पास समाचार देकर भेजा गया था।

आज रात किसी चालाकी से उन दोनों ने अपने को छु़ड़ा लिया और तब मुझे भी कैद से छुट्टी दी। हम लोगों को यह खबर न थी कि आप कहाँ पर हैं अस्तु महाबीर तो लोहगढ़ी की तरफ गया, वह दूसरा आदमी जमानिया गया, और मैं इधर को रवाना हुआ।

नियत यह थी कि जल्दी-से-जल्दी आपको यह खबर लग जाय और आप जो मुनासिब समझें सो करें। बारे यहाँ आने पर आपसे मुलाकात हो गई। बस इतना ही तो मेरा हाल है! इन्द्रदेव बड़े गौर से मगर चुपचाप सब हाल सुन रहे थे।

जब अर्जुनसिंह की बात खतम हुई तो वे देर तक कुछ सोचते रहे और इसके बाद बोले, ‘‘क्या प्रभाकरसिंह और सर्यू को लोहगढ़ी में ही छोड़ कर महाबीर उनकी शक्ल बना कर शिवदत्त के आदमियों के पास आया था?

अर्जुन० : हां मगर आपके ढंग से मालूम होता है कि वे अभी तक आपके पास नहीं पहुँचे!

इन्द्रदेव : नहीं, उनकी कुछ भी खबर मुझे नहीं है और मालूम होता है कि या तो दुश्मनों के डर से वे अभी तक लोहगढ़ी के बाहर ही नहीं निकले और या फिर किसी नई मुसीबत में फँस गए।

अर्जुन० : यह घटना परसों की है और जब आज तक वे आपके पास नहीं पहुँचे तो जरूर ऐसी ही कोई बात मालूम होती है। ऐसी हालत में आपको सबसे पहिले इसी की जाँच करनी चाहिए कि वे लोहगढ़ी में हैं या नहीं।

इन्द्र० : बेशक, और इसके लिए मैं इसी समय वहाँ जाना चाहता हूँ।

अर्जुन० : अगर आज्ञा दीजिए तो मैं आपके साथ चलूँ।

इन्द्र० : नहीं, अभी तुम दूर से चले आ रहे हो और थके-मांदे भी हो, इस समय कुछ देर तक सुस्ताना ही तुम्हारे लिए बहुत अच्छा होगा, तुम अभी यहीं रहो, यहाँ सब तरह का आराम मिलेगा, और मैं लोहगढ़ी जाता हूँ, अगर वहाँ दोनों मिल गये तो उत्तम ही है नहीं तो यहीं लौट कर आऊँगा और तब सलाह करूँगा कि अब क्या करना चाहिए।

अर्जुन० : अच्छी बात है, आप जो कहें मैं वैसा ही करने को तैयार हूँ।

इन्द्रदेव ने अर्जुनसिंह के नहाने-धोने और खाने का प्रबन्ध कर दिया और तब एक तेज़ घोड़े पर सवार हो अकेले ही लोहगढ़ी की तरफ रवाना हो गए।

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