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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


श्यामा को जमीन ही पर छोड़ जब उन आदमियों ने भूतनाथ को घेर लिया तो एक बार थोड़ी देर के लिए वह घबड़ा गया क्योंकि वे सभी आदमी मजबूत और कद्दावर तथा लड़ाके मालूम पड़ते थे और इधर भूतनाथ एकदम अकेला और असहाय तथा ऐसे स्थान में था जिसके बारे में वह कुछ भी नहीं जानता था बल्कि जिसका तिलिस्मी होना उसे मालूम हो चुका था, मगर जिस समय भूतनाथ की निगाह बेहोश और बेबस श्यामा पर पड़ी तो उसकी हिम्मत ने फिर जोश मारा और उसने कड़क कर कहा, ‘‘अगर तुम लोग अपने को बहादुर और लड़ाके लगाते हो तो एक-एक करके मेरे सामने आओ, यों एक पर इतनों का टूट पड़ना मर्दानगी नहीं है!

इतना कह और चक्कर खाकर उन आदमियों के घिराव से निकल गया गौर के साथ देखने लगा कि उसकी इस बात का क्या असर होता है। भूतनाथ की बात सुन वे आदमी कुछ देर के लिए रुक गये और आपस में कुछ कानाफूसी करने लगे। इसके बाद उनमें से एक ने जो उनका सरदार मालूम होता था भूतनाथ से कहा, ‘‘यद्यपि आपने हम लोगों को न पहिचाना होगा मगर हम लोगों ने आपको बखूबी पहिचान लिया है। आप ऐसे मशहूर ऐयार से हम लोग व्यर्थ का बैर नहीं बाँधना चाहते मगर साथ ही यह भी बर्दाश्त नहीं कर सकते कि हमारे काम में कोई बाहरी आदमी दखल दे और हमें नुकसान पहुँचाये।

हम लोग अपने मालिक के भेजे हुए किसी खास काम से यहाँ आये हैं और वह काम कर तुरत यहाँ से चले जायेंगे। हमारे जाने के बाद आप यहाँ जो चाहें करें या जब तक चाहे रहें हमें कोई मतलब नहीं, हम बस इतना ही चाहते हैं कि हमें बे-रोक-टोक अपना काम करके यहाँ से चले जाने दें।’’ भूतनाथ ने उनकी बातें बहुत गौर से सुनीं क्योंकि आवाज के ढंग से उसे वह आदमी कुछ पहिचाना हुआ-सा जान पड़ता था मगर अपनी बोली को इस तरह बदले हुए था कि यकायक पहिचानना मुश्किल था।

अस्तु उसे और भी बातों में फँसाने और उसका परिचय लेने की नीयत से भूतनाथ ने कहा, ‘‘जिस तरह आप हमारे काम में दखल नहीं दिया चाहते हैं उसी तरह मैं भी आप लोगों के काम में किसी तरह की रुकावट डालना नहीं चाहता। मैं सिर्फ एक मामूली काम के लिये यहाँ आया हूँ और उसे करके तुरत इस जगह के बाहर हो जाऊँगा। मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मुझे भी उसी तरह अपना काम कर लेने देंगे जिस तरह मैं आपको अपना काम करने दूँगा।’’

भूत० : (श्यामा की तरफ बताकर) मैं इनसे कुछ बात करने आया था—बात पूरी होते ही चला जाऊँगा।

उस आदमी ने यह सुन अपने साथियों की तरफ देखा और धीरे से कुछ बातें कीं। इसके बाद वह बोला, ‘‘क्या आप इसका वादा करते हैं कि सिर्फ दो-चार बातें करके यहाँ से चले जायेंगे?’’

भूत० : वादा तो नहीं कर सकता मगर उम्मीद करता हूँ कि इससे ज्यादा मुझे कुछ करने की जरूरत न पड़ेगी।

आदमी : (सिर हिलाकर) नहीं, सो नहीं हो सकता। अगर आप इस बात की प्रतिज्ञा करें कि दो-चार बातें इस औरत से करके यहाँ से चले जायेंगे तब हम लोग इसे स्वीकार कर सकते हैं।

भूत० : इसका सबब?

आदमी : इसका सबब यह है कि इस औरत ने बहुत बड़ा कसूर किया है और हम लोग अपने मालिक के भेजे हुए इसीलिए आए हैं कि इसे उनके पास ले जायें।

भूत० : आपका मालिक कौन है?

आदमी : सो बताने की आज्ञा हमको नहीं है।

भूतनाथ उस आदमी से बातें भी करता जाता था और साथ ही साथ नजर बचाता हुआ अपने बटुए में से कुछ निकालता भी जाता था। इतनी देर की बातचीत ने भूतनाथ को विश्वास करा दिया कि यह आदमी जरूर जान-पहिचान ही का कोई है और आवाज बदल कर बातें कर रहा है। यही नहीं बल्कि शायद उसे अन्दाज से यह भी कुछ-कुछ मालूम हो गया कि यह कौन है—अस्तु अब उसने बातचीत में यों ही समय बरबाद करना व्यर्थ समझा।

बटुए में से उसने एक छोटा-सा गेंद और किसी तरह की दवा की एक गोली निकाल ली थी। वह गोली तो उसने अपने में मुँह में डाल ली और गेंद को बाएँ हाथ में ले दाहिने हाथ से खंजर कमर से निकालता हुआ बोला, ‘‘जब तक आप अपने मालिक का नाम बताने को तैयार नहीं हैं तो मुझे मालूम होता है कि आप के मन में दगा है। ऐसी हालत में आपसे किसी तरह का वादा करना मैं व्यर्थ समझता हूँ।’’

उस आदमी ने भी यह सुन अपने हाथ का खंजर मजबूती से पकड़ा और अपने आदमियों को कुछ इशारा करके बोला, ‘‘तब तो हम लोगों को भी लाचार आप पर हमला करना ही पड़ेगा।’’

इतना कह वह भूतनाथ की तरफ झपटा और उसके आदमी भी हथियार निकाल-निकाल कर आगे बढ़े मगर भूतनाथ ने उन्हें कुछ भी करने की मोहलत न दी।

उसने अपने हाथ वाला गेंद जोर से जमीन पर पटका जो गिरने के साथ ही फूटा और उसमें से बेहोश कर देने वाले बहुत से धुएँ ने निकल कर उसे तथा उस पर हमला करने वाले आदमियों को घेर लिया। यह धुआँ बहुत ही काला था और दम के दम में इस तरह फैल गया कि यहाँ रात की तरह अँधेरा मालूम पड़ने लगा। भूतनाथ इसी अँधेरे में इधर-उधर घूम-फिर कर अपने को बचाता रहा और इसी बीच में धुएँ के असर से उसके दुश्मन बेहोश और बदहवाश गिरने लगे।

लगभग आधी घड़ी के बाद जब खिड़कियों और दरवाजों की राह कमरे का धुआँ साफ हो गया तो भूतनाथ ने देखा कि उसके सभी दुश्मन बेहोश होकर इधर-उधर पड़े हुए हैं। धुएँ का असर इतना कारी था कि उसने किसी को कुछ भी करने की मोहलत नहीं दी थी। भूतनाथ यह देख बहुत खुश हुआ। यद्यपि उसने अपने को बेहोशी से बचाने के लिए दवा खा ली थी फिर भी धुएँ ने नाक, आँख की राह अन्दर पहुँच कर उसका सिर घुमा दिया था। उसने बटुआ खोल कर लखलखा निकाला और उसे अच्छी तरह सूँघ कर अपनी तबीयत साफ करने के बाद बेहोश श्यामा की तरफ हाथ बढ़ाया जो ज्यों-की-त्यों अपनी जगह मुर्दे की तरह पड़ी हुई थी।

लखलखा की डिबिया भूतनाथ उसके नाक के साथ लगाया ही चाहता था कि न-जाने क्या सोच कर रुक गया और डिबिया जमीन पर रख उसने बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क था। इसमें से थोड़ा लेकर उसने श्यामा के मुँह पर अच्छी तरह मला और तब अपने कपड़े से उसे खूब कस कर पोंछ देने के बाद फिर गौर से उसकी सूरत देखी। सूरत में किसी तरह का फर्क न पड़ा था जिसे देख भूतनाथ बोला, ‘‘नहीं, यह इसकी असली सूरत है, किसी तरह का धोखा नहीं।’’ शीशी बन्द कर उसने बटुए में डाल ली और तब लखलख सुँघाने लगा।

कुछ ही देर की कोशिश में श्यामा की बेहोशी दूर हो गई। उसे लगातार कई छींकें आईं और तब उसने एक अंगड़ाई लेकर आँखें खोल दीं। ताज्जुब की निगाह उसने अपने चारों तरफ डाली और तब कमजोर आवाज में पूछा, ‘‘मैं कहाँ हूँ?’’ भूतनाथ ने जवाब दिया, ‘‘अपने कैदखाने ही में हो मगर तुम्हें छुड़ाने वाला तुम्हारे सामने मौजूद है। उठो होश में आओ और मेरे साथ इस जगह से बाहर निकल चलो।’’

भूतनाथ की आवाज सुन उस औरत ने चमक कर उसके गले में हाथ डाल दिया और डरे हुए ढंग से बोली, ‘‘ओह मेरे प्यारे! मुझे बचाओ, नहीं वे दुष्ट मुझे जीता न छोड़ेंगे!’’ भूतनाथ ने दिलासा देते हुए कहा, ‘‘डरो नहीं, अब घबराहट की कोई बात नहीं है। तुम्हें तंग करने वाले सब पाजी वह देखो बेहोश पड़े हैं और अभी घंटो तक होश में न आवेंगे। तुम अपने को सम्हालो और उठ खड़े होवो।’’

उस औरत ने अपने चारों तरफ देखा और उन दुष्टों को बेहोश पड़ा देख खुश होकर उठ बैठी। भूतनाथ ने सहारा देकर उसे खड़ा किया और कहा, ‘‘तुम कौन हो, ये लोग कौन हैं, तुमसे इनसे क्या अदावत है, और तुम यहाँ क्योंकर फँसी इत्यादि सैकड़ों बातें मुझे पूछनी हैं मगर यहाँ इसका मौका नहीं है, यहाँ से बाहर होकर वह सब हाल मैं पूछूँगा!’’ इतना कह भूतनाथ कमरे के बाहर की तरफ चला, उसके मोढ़े का सहारा लिए हुए श्यामा उसके साथ हुई।

दोनों प्रेमी उस कमरे के बाहर निकले। अब भूतनाथ ने अपने को एक कमरे में पाया जो पहिले कमरे से बड़ा और आलीशान था और उसमें चारों तरफ बहुत-से दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे जो सब के सब इस समय बन्द थे और इसी कारण यहाँ पर कुछ अंधकार था। भूतनाथ यहाँ पहुँच कर रुक गया और कुछ सोचने लगा मगर उसी समय श्यामा बोल उठी, ‘‘क्यों खड़े हो गये! मुझे अभी तक उन कम्बख्तों का डर लगा हुआ है, जल्दी इस जगह के बाहर निकलो तो जान में जान आवे।’’

भूतनाथ बोला, ‘‘मैं यह सोच रहा था कि एक बार उन बेहोशों की सूरत साफ कर लेता कि वे कौन हैं तब इस जगह से बाहर होता।’’ श्यामा यह सुन बोली, ‘‘मुझे उन लोगों का सब हाल मालूम है। बाहर चलकर सब कुछ तुम्हें बता दूँगी मगर इस समय न रुको।’’ भूतनाथ यह सुन कर हँसा और आगे की तरफ बढ़ना ही चाहता था कि यकायक एक तरफ से आवाज आई, ‘‘ठहरो ठहरो!’’ जिसे सुन वह चौंक कर ठमक गया और श्यामा तो किसी दुश्मन को होने का ख्याल कर इतना डरी की भूतनाथ के बदन से चिपक गई। भूतनाथ ने उसे दिलासा दिया और तब कमर से खंजर निकाल ही रहा था कि एक तरफ का दरवाजा खुला और वे ही साधु महाशय तेजी से आते दिखाई पड़े जिन्हें कुएँ में से भूतनाथ ने देखा था और जिन्होंने उसे कमन्द दी थी।

देखते-देखते वे उसके सामने आकर खड़े हो गये और बोले, ‘‘पहिले मेरी दो-चार बातें सुन लो तब इस जगह के बाहर जाने का विचार करो।’’

साधू महाशय की सूरत देखते ही श्यामा के मुँह से एक चीख निकली और वह बेतहाशा दौड़ कर उनके पैरों पर गिर पड़ी। उसकी आँखों से चौधारे आँसू बहने लगे और वह रोती हुई कहने लगी, ‘‘गुरूजी, आप भी अपनी दासी को भूल गये जो इतने दिनों तक कोई खबर न ली।’’

श्यामा की बात सुन साधू महाराज के आँखों में भी प्रेमाश्रु आ गये। उन्होंने उसे जमीन से उठाया और प्यार के साथ सिर और पीठ पर हाथ फेर कर कहने लगे, ‘‘नहीं-नहीं, मैं तुझे भूला बिल्कुल नहीं था मगर लाचार था कि तू ऐसी जगह फँसी हुई थी जहाँ मेरी कोशिश कुछ काम नहीं करती थी। आज जब इस बहादुर ने (भूतनाथ की तरफ इशारा करके) तुम्हें छुड़ाने की कोशिश की बल्कि तिलिस्म का वह हिस्सा खोला तभी मैं यहाँ तक आ सका नहीं तो बिल्कुल बेबस था यह कौन आदमी है?’’

श्यामा ने भूतनाथ की तरफ देखा मगर तुरन्त गरदन नीची कर ली और तब कहा, ‘‘इनका नाम भूतनाथ ऐयार है, इन्होंने बड़ी बहादुरी से जान पर खेल कर मुझे बचाया है।’’

साधु ने यह सुन खुश होकर भूतनाथ से कहा, ‘‘क्या तुम वही मशहूर भूतनाथ हो जिसके कामों की तारीफ मैं बहुत दिनों से सुन रहा हूँ?’’

भूतनाथ ने : ‘‘जी हाँ महाराज!’’ कह कर प्रणाम किया और साधु ने आशीर्वाद दिया। इसके बाद पुनः श्यामा से बोले, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है? तुम कहाँ जाना चाहती हो?’’

श्यामा ने कहा, ‘‘जहाँ आप आज्ञा करें वहीं जाऊँ। क्या मेरे माता-पिता का कुछ हाल आपको मालूम है?’’

साधू : तेरी माँ तो तेरी गिरफ्तारी के तीन ही महीने बाद तेरे लिए रोती हुई चल बसी, तेरे पिता भी अरसा हुआ परलोक वासी हो गए, अब कोई भी नहीं बचा जो तुम पर अपना हाथ रक्खे

एक मैं बचा हूँ परन्तु मुझे भी अब इस लोक में ज्यादा दिन के लिए न समझ, मेरा भी अंतकाल आ गया है और मैं शीघ्र ही केदारजी को जा रहा हूँ।

श्यामा यह सुन और अपने माँ-बाप के मरने का हाल जान ज़ार-ज़ार रोने लगी। साधू ने दम-दिलासा देकर उसे शान्त किया और बोले, ‘‘तेरा काशी वाला मकान जिसमें अगाध दौलत भरी है खाली पड़ा है और उसकी ताली भी इस समय मेरे पास मौजूद है। मेरी राय में तू फिलहाल उसी में जाकर रह।

यदि कुछ दिन बाद तेरा मन चाहा और किसी योग्य व्यक्ति से दिल मिला तो उससे शादी कर लीजियो और गृहस्थी करियो। अफसोस कि तू कुआँरी ही रह गई और तेरे माता-पिता चल बसे नहीं तो वे स्वयं ही कुछ प्रबन्ध कर जाते। खैर जो कुछ होता है ईश्वर की मर्जी से होता है। अब तेरा विचार जो हो सो कह, मैं वैसा ही प्रबंध कर दूँ?’’

श्यामा यह सुन सिर नीचा किये हुए बहुत देर तक कुछ सोचती रही इसके बाद उसने एक निगाह भूतनाथ पर डाली और तब धीमे स्वर में बोली, ‘‘जब मेरा इस संसार में कोई भी नहीं है तो मैं अपने को उसी बहादुर की शरण में डाल देती हूँ जिसने प्राणों पर खेल कर मेरी जान बचाई है! आज इस घड़ी से मैं अपने को उसी के चरणों की दासी बनाती हूँ। वह मेरी जो गति चाहे करे और जिस तरह चाहे मुझे रक्खे, मुझे सब तरह से प्रसन्नता होगी और किसी बात में कुछ उज्र न होगा।’’

इतना कह श्यामा ने जमीन पर बैठ भूतनाथ के चरणों में सिर नवाया और उसके पैरों की धूल माथे से लगाने के बाद उठकर हाथ जोड़े। बाईं तरफ कुछ पीछे हट कर खड़ी हो गयी। भूतनाथ बड़े ताज्जुब के साथ उसका यह ढंग देख रहा था क्योंकि इसमें यद्यपि शक नहीं कि श्यामा गजब की खूबसूरत थी और उसे देखकर बड़े-बड़े ऋषियों और मुनियों का मन डोल सकता था और इसी कारण भूतनाथ की भी ललचौंही निगाहें उसकी तरफ आज और आज के पहिले भी कई बार किसी दूसरे ढंग पर पड़ चुकी थीं, पर इस समय यकायक इसका यह भाव देख वह भौंचक में पड़ गया और अब क्या करे यही सोचने लगा। उसकी दो स्त्रियाँ पहिले ही मौजूद थीं तथा एक तीसरी और बढ़ा लेने का तरद्दुद पर वह पूरी तरह समझता था अस्तु वह इस समय इसी उधेड़बुन में पड़ गया कि क्या करे या क्या जवाब दे।।

इधर साधू महाशय के माथे की सिकुड़ने भी इस बात का पता दे रही थीं कि वे भी श्यामा की बात सुन बड़े गौर में पड़ गए हैं और कुछ निश्चय नहीं कर पाते कि उसे क्या जवाब दें। आखिर कुछ देर बाद उन्होंने कहा, ‘‘शास्त्रों में कहा है कि पृथ्वी और रमणी वीरों के ही भोग की वस्तु है, अस्तु श्यामा ने भी अगर एक वीर को अपना तन-मन अर्पण करना चाहा तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं।

भूतनाथ को मैं इसके लिए भाग्यशाली समझूँगा कि ऐसा रमणीरत्न उसके पास बिना माँगे आया है जो जितना सुन्दर है उतना ही धनवान भी है, परन्तु फिर भी लौकिक रीति के अनुसार मैं कुछ निर्णय करने के पहिले ही इसकी मर्जी भी जान लेना आवश्यक समझता हूँ! कहो जी भूतनाथ, श्यामा ने जो कुछ कहा है उस सम्बन्ध में तुम्हारी क्या राय है?’’ भूतनाथ यह सुन बोला, ‘‘आप बड़े हैं, आपकी जो आज्ञा होगी वह मुझे शिरोधार्य होगी ही फिर भी इतना कह देना चाहता हूँ कि मेरा पेशा ऐयारी का है और ऐयारों की जान हरदम सूली पर टंगी रहती है, किस समय क्या हो जायगा इसे यों तो कोई भी नहीं कह सकता पर एक ऐयार के लिए तो इसका हाल कह सकना एकदम ही असम्भव है।

दूसरे, मैं कोई बहुत लक्ष्मीपात्र भी नहीं हूँ। मैं स्वयं दूसरे की दी हुई रोटी खाता हूँ और मालिक की आज्ञा बजाने के लिए मुझे हरदम तैयार रहना पड़ता है। फिर मेरे दो विवाह हो चुके हैं और उनसे सन्तति भी है—इस बात को भी आप विचार लें।’’

साधू : (श्यामा की तरफ देख कर) तूने भूतनाथ की बातें सुनीं?

श्यामा : (हाथ जोड़ कर नीची निगाह किए हुए) जी हाँ, पर मुझे जवाब में कुछ भी नहीं कहना है। मैं हिन्दू स्त्री हूँ। हिन्दू स्त्री एक बार मन से जिसे अपना स्वामी मान लेती है वह उसी घड़ी उसके तन-मन और धन का स्वामी हो जाता है अस्तु ये तो अब मेरे स्वामी हो चुके। मैं पहिले ही कह चुकी और अब फिर कहती हूँ कि ये जिस तरह जहाँ और जैसे मुझे रक्खें मैं वैसे ही रहूँगी, मुझे किसी बात में कोई उज्र न होगा। मेरी सौतें बड़ी बहिनों की तरह मेरी पूज्य होंगी और उनके लड़कों को मैं अपनी जान से ज्यादा मानूँगी।

रहा गरीबी-अमीरी का खयाल सो आप कहते ही हैं, कि मेरा काशीजी वाला मकान मौजूद है, उसमें दौलत कुछ न कुछ होगी ही, उससे हम लोगों का गुजर अच्छी तरह हो सकता है। दूसरी बात अपने ऐयारी पेशे की इन्होंने कही है, तो उसके सम्बन्ध में मुझे सिर्फ इतना ही कहना है कि अगर आज ये ऐयारी न जानते होते तो मैं इसी तिलिस्म में बन्द सड़ा करती और मेरी लाश को भी कोई न पूछता। यह इन्हीं का काम था कि मुसीबत और आफत की परवाह न कर इन्होंने मुझे इस कैदखाने से छुड़ाया।

साधू : (भूतनाथ से) अब तुम्हें क्या कहना है?

भूत० : मुझे तब भी कुछ नहीं कहना था और अब भी कुछ नहीं कहना है। आप जो कहें वही मुझे मंजूर है, हाँ जिसमें पीछे कोई बदमजगी न हो इसलिए मैंने अपना हाल साफ-साफ पहिले ही कह देना मुनासिब समझा।

साधु : तुम्हारे जैसे बहादुर से मुझे ऐसी ही उम्मीद थी और इतना भी तुम समझ रक्खो कि श्यामा जैसी स्त्री बड़े भाग्यशाली को ही मिलती है। यह जैसी सुन्दर है वैसी ही सुशील भी है। इसके गुणों का परिचय तुम्हें आप ही आप लग जायगा, और फिर यह धन से भी भरपूर है।

माता-पिता के मर जाने और दुष्टों के फेर में बरसों से पड़े रहने पर भी इसके पास अभी अगाध दौलत है जिसे तुम बेइन्तहा खर्च करके भी एक जन्म में खतम नहीं कर सकते। तुम्हें इन सब बातों का पता धीरे-धीरे स्वयं ही लग जायगा। अच्छा, जब तुम दोनों को विवाह-सूत्र में बाँध एक कर दूँ और अपने सिर के एक बहुत बड़े बोझ को सदा के लिए दूर कर दूँ। लाओ अपना-अपना हाथ बढ़ाओ।

श्यामा का हाथ लेकर साधु महाशय ने भूतनाथ के हाथ में दे दिया और तब स्वयं दोनों को पकड़े हुए कुछ मंत्र पढ़ने लगे। जब मंत्र समाप्त हुए तो दोनों के सिर पर हाथ रख उन्होंने आशीर्वाद दिया और कहा, ‘‘बस अब तुम दोनों पति-पत्नी हुए! संसार में उसी तरह रहना और सुख से जीवन बिताना। भूतनाथ अब तुम अपनी स्त्री को लेकर जहाँ चाहे जाओ और मैं भी बद्रिकाश्रम की यात्रा करता हूँ। पर हाँ, एक बात तो मैं भूल ही गया।’’

इतना कह साधू महाराज ने अपनी कमर टटोली और बड़ी-सी चाभी निकाल कर श्यामा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह तेरे काशीजी वाले मकान की चाभी है,’’ श्यामा ने भूतनाथ की तरफ इशारा करके कहा, ‘‘जिसकी चीज है उन्हें ही दे दीजिए।’’ जिसे सुन हँसकर साधू महाराज ने वह ताली भूतनाथ की तरफ बढ़ाई जिसने उसे लेकर अपने बटुए में डाल लिया। इसके बाद साधू महात्मा बोले, ‘‘मेरे पीछे-पीछे चले आओ तो मैं तुम लोगों को इस जगह से बाहर कर दूँ।’’

साधू महाशय दूसरी तरफ घूमे और भूतनाथ तथा श्यामा उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। कई दरवाजों से होकर इन्हें एक लम्बी सुरंग में घुसना पड़ा और जब उसके बाहर हुए तो अपने को घने जंगल में पाया। गौर करने से भूतनाथ को मालूम हुआ कि वह इस जगह पहिले भी कई दफे आ चुका है, पर इस गुफा का मुँह लता आदि से पूरी तरह ढंका होने के कारण असली हाल का कोई गुमान आज तक उनको न हुआ था।

जंगल में पहुँच कर साधू महाशय रुके और बोले, ‘‘बस अब मैं तुम लोगों से विदा होता हूँ।’’ जिसे सुन श्यामा उनके पैरों पर गिर पड़ी। देखा-देखी भूतनाथ ने भी उनके चरण छूए और तब दोनों को आशीर्वाद दे साधु महाशय एक तरफ को चले गए। जाती समय श्यामा के एक सवाल के जवाब में कहते गए कि ‘यदि हो सका तो एक बार फिर तुझसे मिलूँगा’।

अब भूतनाथ और श्यामा अकेले रह गये। भूतनाथ कुछ देर तक श्यामा की रुप-छटा को देखता रहा और तब उसका हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘कहो अब क्या विचार है?

श्यामा ने एक बार निगाह उठा कर उसकी तरफ देखा पर आँखें चार होते ही वह शर्मा गई और सिर नीचा करके बोली, ‘‘आपकी जो कुछ आज्ञा हो वह मैं करने को तैयार हूँ, पर मेरा विचार तो यही था हम लोग एक बार काशी चलते। वहाँ अपने मकान की कैफियत भी देख ली जाती और मैं कुछ समय तक वहाँ रह कर आराम भी कर लेती, क्योंकि कैद की सख्तियों ने मुझे बहुत कमजोर कर दिया है। भूतनाथ ने कहा, ‘‘मुझे जरूरी काम से मिर्जापुर जाना है इससे काशी में रह तो न सकूँगा पर हाँ तुम्हें वहाँ तक पहुँचाता हुआ आगे बढ़ जाऊँगा।’’

श्यामा ने जवाब दिया, ‘‘खैर यही सही, मगर कम-से-कम एक दिन तो आपको वहाँ जरूर रहना होगा ताकि मैं आपकी सेवा कर अपना जन्म सुफल कर लूँ!’’

भूतनाथ ने इसे मंजूर किया और तब दोनों प्रेमी हाथ में हाथ डाले खुशी-खुशी वहाँ से रवाना हुए। भूतनाथ श्यामा को साथ लिए चक्कर काटता हुआ पुनः उसी कूएँ के पास पहुँचा जिसके अन्दर कूद कर वह श्यामा को लाया था। उसका घोड़ा अभी तक उसी जगह खड़ा था। भूतनाथ ने श्यामा को उस पर सवार कराया और तब खुद भी सवार हो काशी का रास्ता लिया। इस समय पौ फट चुकी थी बल्कि सवेरा हो चला था।

भूतनाथ के जाने के थोड़ी देर बात न-जाने कहां से वे पाँचों आदमी भी घूमते-फिरते उसी कूएँ पर आ पहुँचे जिन्होंने भूतनाथ पर हमला किया था तथा जिन्हें वह अपनी कारीगरी से बेहोश करके कूएँ के अन्दर ही छोड़ आया था और इनके वहाँ पहुँचने के थोड़ी देर बाद वे बाबाजी भी वहाँ आ पहुँचे। उन आदमियों ने उन्हें देखकर हाथ जोड़ा और एक आदमी ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘क्या वह काम हो गया?’’ बाबाजी ने कहा, ‘‘हाँ बखूबी, भूतनाथ श्यामा को लेकर काशी गया अबकी बार वह पूरी तरह से हम लोगों के जाल में फँसा है और मुझे उम्मीद है कि श्यामा उसे अच्छी तरह से उल्लू बनावेगी।’’

बाबाजी की बातें सुन उस आदमी ने कहा, ‘‘बेशक आपकी कारीगरी ने बड़ा असर किया। अब हम लोगों को क्या आज्ञा होती है?’’ बाबाजी ने यह सुन कर जवाब दिया, ‘‘तुम लोग भी काशी चले जाओ और छिपे रूप से श्यामा की मदद करो, मगर आज के पाँचवें दिन आधी रात के समय इन्द्रदेव के मकान के दक्खिन की रिछिया पहाड़ी वाली गुफा में मुझसे जरूर मिलना और अपने साथियों को भी वहीं लेते आना।’’

उस आदमी ने ‘‘जो हुक्म’’ कहा और तब अपने साथियों समेत बाबाजी को प्रणाम कर कूएँ के नीचे उतर गया। उनके जाने के बाद बाबाजी कूएँ के पास गए और कूएँ के अन्दर झुक कर कुछ देर तक न जाने क्या करते रहे, इसके बाद जगत के नीचे उतरे और दक्खिन की तरफ रवाना हो गये।

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