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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


बहुत दिनों से हमने दयाराम, जमना, सरस्वती आदि की कोई खबर न ली। न मालूम वे कहाँ हैं या क्या कर रहे हैं। पर अब उनका हाल लिखे बिना किस्से का सिलसिला ठीक न होगा।

पाठकों को याद होगा कि दारोगा और जैपाल ने दयाराम और जमना को गिरफ्तार कर लिया और तिलिस्म के किसी हिस्से में बन्द कर आए तथा उन्हें यह भी याद होगा कि कला अर्थात् सरस्वती ने उनका पीछा किया था और खुद भी तिलिस्म में फँस गई थी।

हम उस जगह लिख आये हैं कि शेरों वाले कमरे के चारों तरफ की कोठरियों में से एक में सरस्वती ने दो लाशें देखीं और उन्हें पहिचानते ही वह उस कोठरी के अन्दर घुस गयी जिसके साथ ही उसका दरवाजा बन्द हो गया।१ अब हम यहीं से आगे का हाल लिखते हैं। (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, सातवाँ बयान।)

दरवाजा बन्द होने के साथ ही उस कोठरी में एकदम अंधकार हो गया जिससे एक सायत के लिए सरस्वती घबरा गई पर तुरत ही अपने को संभाल उसने कमर से तिलिस्मी खंजर निकाला और उसका कब्जा दबा रोशनी पैदा की जिससे उस कोठरी का एक-एक कोना साफ-साफ दिखाई देने लगा। सरस्वती ने देखा कि वह एक दस-बारह हाथ लम्बी और इतनी ही चौड़ी कोठरी में है जिसकी छत मामूल से बहुत ज्यादा ऊँची है।

इस कोठरी के चारों तरफ की दीवारों में चार बहुत ही बड़े-बड़े आले बने हुए थे जिनमें से हर एक में एक-एक सिंहासन रक्खा था जो किस चीज का था यह कहना कठिन है। इन चारों सिंहासनों में से तीन तो खाली थे मगर एक पर एक शेर बहुत ही बड़ा किसी धातु का बना हुआ था जिसका खुला मुँह इतना बड़ा था कि मामूली आदमी की जाँघ सहज ही में उसके मुँह में समा सकती थी।

इसकी आँखें किसी तरह की पहलदार शीशे की बनी हुई थीं जो खंजर की रोशनी पाकर ठीक उसी तरह चमक उठीं जैसे जिन्दा जानवरों की चमकती हैं और इससे वह बनावटी शेर और भी भयानक मालूम होने लगा।

बस इसके अलावे इस कोठरी में और कुछ अगर था तो सिर्फ वे दोनों लाशें जिन्हें देख सरस्वती यहाँ आई थी। ये लाशें दयाराम और जमना की थीं जो वास्तव में बेहोश थे पर बेहोशी इतनी कड़ी थी कि बिल्कुल मुर्दे की-सी हालत हो रही थी, हाथ-पाँव अकड़ गये थे और चेहरा पीला हो गया था, उन्हें देख पहिले तो सरस्वती को यही हदस हुई कि ये दोनों जीते नहीं हैं पर जब जाँच की तो नब्ज को बहुत ही धीरे-धीरे चलता पाया और बहुत गौर करने से साँस भी आती-जाती मालूम हुई।

यह देख उसके चित्त को कुछ सन्तोष हुआ और वह इस फिक्र में पड़ी कि किसी प्रकार इन्हें होश में लाना चाहिए, पर वह लाचार थी क्योंकि उसके पास कोई ऐसा सामान न था जिसकी मदद से वलह इनकी बेहोशी दूर करती, लाचार उसे यह फिक्र पैदा हुई कि किसी तरह इस जगह के बाहर होना चाहिए।

सरस्वती उठी और खंजर की रोशनी में घूम-घूम कर चारों तरफ देखने लगी। सिवाय उस दरवाजे के जिसकी राह वह यहाँ आई थी और कोई रास्ता यहाँ दिखाई नहीं पड़ता था और वह दरवाजा भी इस मजबूती से बन्द हो गया था कि किसी तरह खुलने की उम्मीद नहीं दिखाई पड़ती थी।

सरस्वती ने तिलिस्मी खंजर से काम लेना चाहा पर उसने भी कोई मदद न दी क्योंकि वह दरवाजा बहुत मोटे फौलाद का बना हुआ था जिस पर तिलिस्मी खंजर भी मुश्किल से कोई असर कर सकता था। लाचार सरस्वती ने उसे तोड़ कर राह पैदा करने की उम्मीद छोड़ दी और पुनः चारों तरफ घूमने लगी।

कई चक्कर लगाने और खंजर के कब्जे से ठोंक-ठोंक कर देखने पर भी उसने न तो कहीं कोई दरार या ऐसा निशान देखा जिससे दरवाजा होने का गुमान किया जा सकता था और न कहीं से कोई ऐसी आहट ही पाई जिससे यह समझा जाता कि इस कोठरी के दूसरी तरफ कोई गुप्त स्थान है।

आखिर सब तरह से लाचार होकर सरस्वती उस सिंहासन के बनावटी शेर के पास आकर रुकी और बहुत गौर से देखने लगी। यह धातु का बना हुआ शेर कमर-भर ऊँचे सिंहासन पर इतना ऊँचा और बड़ा बना हुआ था कि जमीन पर खड़ा आदमी मुश्किल से उसका सिर छू सकता था। यह अपने पिछले दोनों पैरों के बल पर अगले पंजो पर बोझ दिए बैठा हुआ बनाया गया था और इसके खुले हुए मुँह में से भयानक दाँत चमक रहे थे जिनके बीच में से होती हुई मोटी जुबान लगभग हाथ भर बाहर निकली हुई थी।

सरस्वती को यह गुमान हुआ कि इस स्थान का इस शेर की मूरत से अवश्य कोई सम्बन्ध है अस्तु वह बड़े गौर से इसे देखने लगी। इस शेर के अंग-प्रत्यंग को देखते हुए जब वह सिंहासन की तरफ झुकी तो उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में कुछ लिखा हुआ दिखाई पड़ा। यद्यपि बहुत जमाना बीत जाने के कारण हरूफ साफ पढ़े नहीं जा सकते थे फिर भी सरस्वती ने खूब गौर करके किसी तरह उनका मतलब निकाल ही लिया। सिंहासन पर यह लिखा हुआ था—

‘‘इस कोठरी में एक घड़ी से अधिक देर तक रहने वाला इस शेर की खुराक बनेगा।’’

यह मजमून पढ़ सरस्वती और भी घबराई क्योंकि वह खूब जानती थी कि यह तिलिस्मी इमारत है और तिलिस्म में किसी का जोर नहीं चल सकता, दूसरे उसे यहाँ आये भी लगभग आधी घड़ी हो गया था। वह और भी बेचैनी के साथ सोचने लगी कि किसी तरह इस कोठरी के बाहर निकलने का मौका मिला तो दोनों बेहोशों को होश में लाने की फिक्र की जाय क्योंकि जैसी कड़ी बेहोशी इन्हें दी गई है वैसी हालत में देर तक रहने पर जान जाने का खौफ हो सकता है। कोठरी से बाहर जाने की कोई राह दिखे तब वह कुछ कर सकती थी। बेचैनी, घबराहट और तरद्दुद के साथ सरस्वती चारों तरफ देख रही थी कि यकायक उसके कानों में किसी तरह की आवाज आई जो भारी और डरावनी थी।

गौर करने से मालूम हुआ कि यह आवाज उसी शेर के मुंह से आ रही थी। धीरे-धीरे आवाज की तेजी बढ़ने लगी और अब ऐसा मालूम हुआ कि मानों रह-रह कर वह शेर गुर्रा रहा है। सरस्वती डर कर उसके पास से हट गई और कोठरी के एक कोने में जाकर खड़ी हो गयी। गुर्राहट की आवाज तेज होने लगी और तब यकायक एक दहाड़ मार कर शेर उठ बैठा। सरस्वती ने खौफ के साथ देखा कि उसकी दोनों आँखें तेजी के साथ चमकने लगी हैं और वह उन्हें घुमा इस तरह चारों तरफ देख रहा है मानो अपने शिकार को खोज रहा हो।

यह हालत भी दो ही पल तक रही और तब दहाड़ मारकर वह शेर सिंहासन से नीचे उतर पड़ा। इस समय यह बनावटी नहीं मालूम पड़ता था बल्कि सचमुच का एक भयानक और खूँखार शेर दिखाई पड़ रहा था। सरस्वती की यह हालत हो गई कि काटो तो बदन से लहू न निकले। वह सकते की-सी हालत में खड़ी एकटक उस तरफ देख रही थी, पर जब उसने देखा कि एक क्रूर निगाह जमीन पर पड़े बेहोश दयाराम और जमना पर डाल वह शेर उनकी तरफ बढ़ने लगा है तो उससे बेकार न रहा गया। वह आगे बढ़ी और हिम्मत के साथ पहुँच उसने उन दोनों को खींच कर एक बगल में कर दिया।

सरस्वती का उन दोनों को हाथ लगाना था कि वह शेर दिल दहला देने वाली आवाज में गुर्रा उठा और सरस्वती के ऊपर टूटा। सरस्वती ने अपनी हिम्मत को हथेली पर लिया और फुर्ती के साथ एक बगल हट गई। केवल इतना ही नहीं बल्कि उसने तिलिस्मी खंजर का एक भरपूर हाथ शेर की पीठ पर जमाया।

खंजर लगने से शेर का कुछ भी न बिगड़ा। न–मालूम कौन-सी धातु का यह बना हुआ था कि खंजर ने उस पर एक खरोंच तक न किया उलटा खंजर ही सरस्वती के हाथ से छूट कर दूर जा गिरा।

खंजर की चोट खाते ही शेर की हालत बदल गई। वह अपने पिछले पैरों के बल पर खड़ा हो गया और सरस्वती पर उसने पंजों से भयानक आक्रमण किया। डर के मारे सरस्वती जमीन पर गिर पड़ी और बेहोश होते हुए उसे ऐसा मालूम हुआ मानों उस जगह की जमीन बहुत जोर से हिल रही है। वास्तव में बात भी ऐसी ही थी और उस कोठरी की सतह बहुत जोर-जोर से इस तरह पेंग खा रही थी मानों भूचाल आया हो।

कुछ देर तक यही हालत रही और तब यकायक कोठरी के बीचोबीच की जमीन फट कर वहाँ एक दरार दिखाई पड़ने लगी जिसके अन्दर से किसी तरह की आवाज आ रही थी। बेहोश दयाराम, जमना और सरस्वती लुढ़कते हुए उसी दरार के अन्दर जा पड़े जिसके साथ ही जमीन का हिलना बन्द हो गया।

कुछ देर बाद किसी तरह खटके की आवाज आई और वह दरार जो जमीन में बन गई थी मिट गई, तब वह शेर भी पुनः अपनी जगह पर ज्यों-का-त्यों जा बैठा। सब तरफ सन्नाटा हो गया और इसी समय उस कोठरी का दरवाजा पुनः पहिले की तरह खुल गया।

सरस्वती को जब होश आया तो उसने अपने को एक दालान में जमीन पर पड़े हुए पाया। इधर-उधर निगाह करने से कुछ ही दूर पर जमना और दयाराम भी दिखाई पड़े जो अभी तक बेहोश पड़े हुए थे। वह उठ बैठी और साथ ही उसे शेर का ध्यान आ गया जिसके हमले ने उसे बेहोश कर दिया था। वह भयानक दृश्य ख्याल आते ही एक दफे पुनः सरस्वती को रोमांच हो आया पर उसने अपने को होशियार किया और देखने लगी कि उसे कहीं चोट-चपेट तो नहीं आई।

यह देख उसे सन्तोष हुआ कि उस तिलिस्मी कवच ने शेर के नाखून और दातों से उसका बचाव किया था अर्थात् उसके बदन पर कहीं जख्म न आने पाया था, पर वह कवच स्वयं कई जगह से टूट और फट कर बेकार हो गया था जिसका कारण कुछ समझ में न आया, तथापि सरस्वती ने समझ लिया कि यह शेर के पंजों और दाँतों की वजह से हुआ होगा। वह उठ कर खड़ी हो गई और देखने लगी कि अब वह किस स्थान में आ पहुँची है।

सरस्वती ने देखा कि वह एक बारहदरी में है जिसके चारों तरफ तरह-तरह की इमारतें दिखाई पड़ रही हैं। यह बारहदरी एक बाग के बीचोबीच में थी और इतनी लम्बी-चौड़ी थी कि इसमें पचासों आदमी बहुत आराम से बैठ सकते थे पर यह इस लायक न थी कि जाड़े की अंग ठिठुरा देने वाली हवा या बरसात के आंधी-तूफान और पानी में इसमें बैठने या रहने वालों का बचाव होता क्योंकि यह चारों तरफ से खुली हुई थी और कहीं किसी तरफ भी किसी तरह की आड़ या रुकावट हवा-पानी से बचाव करने के लिए इसमें बनी न थी। बारहदरी से उतर कर सरस्वती बाग में आई।

यह पाँच-छः बिगहे का बाग केवल फल और मेवों के पेड़ों से भरा था जिसमें इस समय भी इतने फल मौजूद थे कि आदमी महीनों तक उन्हीं पर गुजारा कर सकता था। पूरब तरफ से एक नहर इस बाग में आई थी जिसका पानी कई नदियों की राह से घूमता हुआ बागभर में फैल गया था जिससे इस बाग के सब पेड़ बराबर हरे-भरे रहते थे। सरस्वती बाग में घूमने लगी।

इस बाग में कहीं-कहीं छोटे-बड़े कितने ही चबूतरे बने हुए थे जिनमें से कइयों के बीचेबीच में कमर बराबर ऊँचा खम्भा बना हुआ था जिस पर जानवरों की मूरतें बैठाई हुई थीं। कहीं शेर, कहीं भालू, कहीं हिरन, कहीं सूअर, कहीं भेड़िया, इस तरह उन पर कोई-न-कोई जानवर बैठाया हुआ था और हर एक मूरत बड़ी ही सफाई और कारीगरी से बनी हुई थी। मूरतें किसी धातु की थीं और रंग-ढंग से जान पड़ता था कि किसी जमाने में उन पर रंग भी चढ़ा हुआ होगा पर अब वे बिल्कुल काली हो रही थीं। इनको देखती और चक्कर लगाती हुई सरस्वती बाग की चारदीवारी के पास पहुँच गई और उसके साथ-साथ यह देखने के लिए घूमने लगी कि किसी तरह का कोई दरवाजा इत्यादि बाहर जाने के लिए है या नहीं।

उत्तर तरफ की दीवार के पास पहुँचने पर सरस्वती ने देखा कि इधर जमीन से दस-बारह हाथ की ऊँचाई तक की दीवार तो एकदम चिकनी है अर्थात् उसमें किसी जगह कोई खिड़की, दरवाजा या रास्ता नहीं दिखाई पड़ता था मगर उसके ऊपरी हिस्से में सुन्दर और आलीशान इमारत बनी हुई है। बीचोंबीच में एक बड़ी बारहदरी थी जिसकी दरें बाग की तरफ खुली थीं और इस कारण उसकी ऊँची तथा सुन्दर रंगी हुई छत का एक हिस्सा सरस्वती को दिखाई पड़ रहा था तथा दोनों बगल बनी हुई कोठरियाँ भी कुछ-कुछ नजर आ रही थीं।

बारहदरी के दाहिनी तरफ की इमारत में क्या था यह दिखाई नहीं पड़ सकता था पर वहाँ बराबर फासले पर बनी हुई खिड़कियाँ जरूर दिख रही थीं जो सब बन्द थीं। बाईं तरफ एक गोल कमरा बना हुआ था जो बहुत ही ऊँचा था और उसके ऊपर हिस्से में एक बहुत बड़ा महराब था जिसका एक हिस्सा इस बाग की तरफ था और दूसरा उत्तर तरफ जाकर आँखों की ओट हो गया था।

इस खम्भे के सिरे के साथ बहुत-सी तारें बंधी हुई चारों तरफ न जाने कहाँ तक चली गई थीं पर उनमें से एक उस गोल कमरे के ऊपर वाले महराब तथा दूसरी उस बारहदरी की छत पर लगी हुई थीं जिसमें से निकल कर सरस्वती अभी यहाँ आई थी। इस बुर्ज के चारों तरफ बहुत से ताक बने हुए थे और उनमें से भी बहुतों में से कोई-न-कोई मूरत उसी तरह की मगर बहुत छोटी बनी हुई रक्खी थी जैसी सरस्वती ने इस बाग के चबूतरे के ऊपर बनी हुई देखी थी। इन मूरतों में से कइयों के गले में लोहे वाले खम्भे के साथ की तारें आकर लगी हुई थीं तथा कुछ तारें दीवार के साथ-साथ आकर नीचे जमीन में घुसी हुई थीं।

कुछ देर तक सरस्वती इस बुर्ज को देखती रही और तब वहाँ से हट कर पूरब की दीवार के पास पहुँची। इस तरफ उसे एक बहुत ही लम्बी-चौड़ी इमारत दिखाई पड़ी जो उत्तर-दक्षिण तरफ एक सीध में बनी हुई थी और जिसमें कई दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे जिसमें से कुछ खुले और कुछ बन्द थे। सरस्वती इनमें से एक दरवाजे के पास पहुँची और भीतर की तरफ देखने लगी। एक बहुत बड़े मकान का सहन दिखाई पड़ा जिसके बीचोबीच उसे एक अद्भुत चीज नजर आई।

बहुत बड़े संगमर्मर के आंगन के बीचोबीच में काले पत्थर की बनी सुन्दर बावली थी जिसके चारों तरफ नकली बाग और जंगल बनाया गया था। प्रायः सभी तरह के पेड़ और पौधे जगह-जगह दिखाई पड़ रहे थे मगर किसी की ऊँचाई तीन-चार हाथ से ज्यादा न थी और किसी धातु के बने होने पर भी वे इतने साफ और सुन्दर थे कि देखने से यकायक यह गुमान होना कठिन था कि ये असली नहीं बल्कि बनावटी हैं।

नीचे के फर्श में जगह-जगह पर घास के रमने दिखाये गए थे। और उनके बीच में बनी पतली पगडंडियाँ ठीक जंगल के बीच में बनी पगडंडियों की याद दिलाती थीं। पेड़ों पर तरह-तरह के पक्षी बनाये गये थे और नीचे-झाड़ियों की आड़ में कितने ही तरह के जानवर दिखाये गए थे अर्थात् यह एक छोटे-से जंगल का बड़ा ही सुन्दर दृश्य वहाँ मौजूद था जिसे सरस्वती देर तक कौतूहल के साथ देखती रही परन्तु इसके बाद जब उसकी निगाह बीच की बावली पर पड़ी तो उसे वहाँ भी एक अद्भुत चीज दिखाई पड़ी।

तालाब की सीढ़ियों पर झुका हुआ एक बारहसिंघा पानी पी रहा था और उससे भी कुछ ही पीछे एक झाड़ी में से निकलता हुआ शेर इस तरह का बना हुआ था मानो अभी बारहसिंघे पर हमला करना चाहता है। इतना ही नहीं, उस शेर के दाहिनी तरफ तीर-कमान हाथ में लिए एक औरत भी खड़ी थी जो कमान को कान तक खींच कर उस शेर पर तीर छोड़ा ही चाहती थी। यह औरत इतनी सुन्दर बनी हुई थी और इसकी आकृति ऐसा सुडौल थी कि सरस्वती देर तक इसकी तरफ देखती रह गई और फिर भी उसके मन में सन्देह रह गया कि वहाँ की अन्य चीजों की तरह वह भी बनावटी है या असली!

जाने कब तक सरस्वती इन चीजों को देखती रहती या दालानों की अद्भुत चीजों पर निगाह दौड़ाती रहती जो इस सहन के चारों तरफ बने हुए थे मगर उसे ख्याल आ गया कि जमना और दयाराम अभी तक बेहोश पड़े हैं जिन्हें होश में लाना बहुत जरूरी है, अस्तु वह वहाँ से हटी और नहर के पानी से अपनी चादर को तर किये हुए उस जगह पहुँची जहाँ जमना और दयाराम को बेहोश छोड़ गई थी। दोनों उसी तरह पड़े हुए थे, सरस्वती पास बैठ गई और बारी-बारी से उनके सर और माथे को पानी से तर करने और आँचल से हवा करने लगी।

न-जाने कैसी कड़ी बेहोशी इन दोनों की दो गई थी कि देर तक कोशिश करने पर भी चैतन्यता के कोई लक्षण दिखाई न पड़े, पर सरस्वती ने भी हिम्मत न हारी और बार-बार नहर के जल से कपड़ा तर करके उनके सर को ठण्डक पहुँचाती रही, आखिर बड़ी देर के बाद उन दोनों को होश आया। पहिले दयाराम और उसके बाद जमना ने लगातार कई छींके मारी और तब अँगड़ाइयाँ ले-ले अपनी आँखें खोल दीं। उस समय सरस्वती बहुत ही प्रसन्न हुई और हाथ का सहारा दे उसने दोनों को उठा कर बैठाया। यद्यपि अब उन लोगों को होश बखूबी आ गया था फिर भी वे इस तरह झूम रहे थे मानो नशे की हालत में हों। बड़ी कोशिश से उन्होंने अपने को चैतन्य किया और तब दयाराम ने कहा, ‘‘कला, यह कौन-सी जगह है और हम लोग यहाँ कैसे आ पहुँचे?’’

कला : यह तिलिस्म मालूम होता और हम लोग यहाँ उसी शेर वाले कमरे से आये हैं। आपका हाल सुन लेने के बाद मैं पूरा किस्सा सुनाऊँगी कि हम लोग वहाँ से यहाँ क्योंकर आ पहुँचे।

दयाराम : मैं और जमना उन्हीं दुष्टों के हाथ पड़ गये थे जिनकी सभा से मैं उस दिन होकर लौटा था बल्कि मुझे तो गुमान होता है कि मुझे बेहोश करने वालों में से एक तो जरूर कम्बख्त दारोगा ही था क्योंकि नकाब से चेहरा ढका होने पर भी उसकी आवाज मुझे पहिचानी हुई-सी मालूम पड़ती थी।

कला : मेरा भी यही ख्याल है क्योंकि उसके सिवाय और किसी की यह मजाल न थी कि हमारी तिलिस्मी घाटी में इस तरह बेधड़क आकर इतना उपद्रव कर जाता। खैर आप खुलासा कह तो जाइये कि क्या-क्या हुआ?

दयाराम : जब गर्म कोठरी की तकलीफ से घबरा कर भूतनाथ ने अपना सब हाल साफ-साफ कह दिया और जो कुछ आगे मैं पूछूँ वह भी बताना मंजूर किया तो मैं बहुत प्रसन्न हुआ कि इस समय अच्छा मौका हाथ आया है और भूतनाथ की जुबानी बहुत-सी बातों का पता लग जायेगा। मैंने जिन तिलिस्मी कलपुर्जों को छेड़ कर गर्मी पैदा की थी उनको बन्द कर दिया और तब उन्हें ठीक हाल पर लाने के लिए उस कमरे में जाने लगा जिसमें कल-पुर्जे थे और जो उस कमरे के नीचे की तरफ बना हुआ है पर सीढ़ियों पर पहुँचते ही यकायक किसी ने मेरे मुँह पर आकर चादर लपेट दी जिसमें बेहोशी की इतनी कड़ी गंध थी कि मैं तुरन्त बेहोश हो गया। (१. देखिए भूतनाथ नौवाँ भाग—नौवाँ बयान।)

जब मैं होश में आया तो अपने को शेरों वाले कमरे के बाहरी दालान में पड़ा पाया। मेरे हाथ-पैर पीठ के पीछे इतना कस कर बँधे हुए थे कि हिलना-डुलना तक असम्भव हो रहा था। बेहोश जमना पास में पड़ी थी और मेरे ऊपर दो नकाबपोश झुके हुए बड़े गौर से मेरी सूरत देख रहे थे। मैं समझ गया कि मुझे बेहोश करके इस तरह दुर्गति करने वाले ये ही दोनों हैं अस्तु मैंने कुछ गुस्से से पूछा। ‘‘तुम दोनों कौन हो और मेरे साथ ऐसा बर्ताव तुमने क्यों किया है?’’

जिसके जबाव में एक ने कहा, ‘‘हम लोग उस गुप्त कमेटी के नौकर हैं जिसमें पहुँचकर तुमने इतना उपद्रव मचाया था और उसी की आज्ञानुसार तुमको गिरफ्तार करके ले जा रहे हैं, वहाँ पहुँचकर तुम दोनों की पूरी दुर्दशा की जायेगी और तब तुम्हें मालूम होगा कि हमारी कमेटी कितनी जबर्दस्त है और उसके मामले में हाथ डालने का क्या नतीजा निकलता है।’’

मैंने सुन कर कहा, ‘‘खैर तो मुझे वहीं ले चलो यहाँ रुकने की क्या जरूरत है?’’

जवाब में वह बोला, ‘‘मैंने तुम्हें यहाँ इसलिए होश में किया है जिसमें यह जान सकूँ कि तुम वास्तव में कौन हो?’’

मैंने जवाब दिया, ‘‘तुम मुझे अपनी कमेटी के पास ले चलो, वहीं चलकर मैं बता दूँगा कि कौन हूँ!’’

इस पर यह बोला, ‘‘नहीं, तुम्हें इसी जगह अपना नाम बताना होगा और अगर नहीं बताओगे तो तुम्हारी पूरी तरह से दुर्दशा की जायेगी’’— परन्तु मैंने कुछ जवाब न दिया।

वह बहुत कुछ बोला-बहका और डरा-धमका कर मुझसे नाम पूछना चाहा पर मैंने एकदम चुप्पी साध ली और निश्चय कर लिया कि चाहे जो कुछ भी हो अपना असल भेद और नाम कदापि न बताऊँगा। आखिर उसका साथी बोला, ‘‘आप किस फेर में पड़े हुए हैं। क्या इसके गाल के पीछे का यह दाग देखकर भी आपको सन्देह रह सकता है कि यह दयाराम नहीं है!’’ इस पर वह पहिला आदमी बोला, ‘‘बेशक यह दयाराम ही है, मगर मैं इसके मुँह से यह सुन कर निश्चय कर लेना चाहता था।’’ इसके बाद वह मेरी तरफ घूमा और बोला, ‘‘जब तुम दयाराम हो तो यह औरत भी जरूर जमना या सरस्वती होगी?’’

मेरे कुछ भी जवाब न देने पर वह बोला, ‘‘खैर अब इसका चेहरा भी साफ करके देख लेना चाहिए।’’

यह कह उसने एक शीशी निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क था, उस अर्क में से थोड़ा लेकर लगाने के साथ ही जमना के चेहरे का बनावटी रंग साफ हो गया और एक कपड़े से पोंछते ही उसकी सूरत निकल आई। उन दोनों ने गौर से उसकी सूरत देखी और कहा, ‘‘यह बेशक जमना है’’ इसके बाद वे पुनः मेरी तरफ झुके और बोले, ‘‘सच बताओ कि तुम्हें किसने कैद से छुड़ाया, नहीं तो अभी बोटी-बोटी काट कर फेंक दूँगा’’ पर मैंने इस बात का भी कुछ जवाब न दिया।

सब तरह से कोशिश करके जब वह हार गया तो दोनों ने मिलकर मुझे उठा लिया तथा शेरों वाले कमरे में लाकर उसके बगल में बनी बहुत-सी कोठरियों में से एक दरवाजे पर पहुँच और एक जगह दिखा कर बोले, ‘‘देखो यहाँ पर लिखा हुआ है कि ‘इस कोठरी में एक घड़ी से ज्यादा देर तक रहने वाला शेर की खुराक बनेगा’। अगर मेरी बातों का जवाब न दोगे तो मैं तुम्हें बेहोश करके इस कोठरी में डाल दूँगा और तब तुम किसी तरह जीते न बच सकोगे।’’

मगर मैंने सोच रक्खा था कि चाहे कुछ भी हो जाय पर उन दुष्टों की बातों का उत्तर तो कदापि न दूँगा अस्तु मैंने कुछ भी जवाब न दिया। उसने कई दफे पूछा और मुझे चुप पा अन्त में झल्ला उठा। आखिर उसने जेब में से एक शीशी निकाल कर जबर्दस्ती मुझको सुँघाई जिसके साथ ही मुझे तनोबदन की सुध न रह गई और अब होश में आकर मैं अपने को इस जगह पा रहा हूँ।

सरस्वती : बस तो ठीक है, मैं भी उसी कोठरी में से होकर यहाँ पहुँची हूँ। आप दोनों को उन लोगों ने उसी कोठरी में डाल दिया था और जब खोजती हुई मैं वहाँ गई तो उस शेर की बदौलत यहाँ तक पहुँची जिसकी हालत का ख्याल कर अब भी मैं काँप जाती हूँ।

इतना कह सरस्वती ने अपने यहाँ तक आने का वह सब हाल पूरा-पूरा कह सुनाया जो हम ऊपर लिख आये हैं और तब बोली, ‘‘इस बाग में खाने के लिये मेवे और पीने के लिए पानी की कमी नहीं है। इस समय हमें जरूरी कामों से निपट कर उन्हीं पर सन्तोष करना चाहिए तब निश्चिन्त हो बैठ कर यह सोचेंगे कि यहाँ से निकलने की क्या तर्कीब हो सकती है।’’

तीनों आदमी बारहदरी के बाहर निकले। सरस्वती फल तोड़ लाई और तीनों नहर के किनारे बैठ कर उन्हें खाने तथा तरह-तरह की बातें करने लगे।

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