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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


मालती जब होश में आई उसने अपने को एक विचित्र स्थान में पाया। चारों तरफ से ऊँची-ऊँची चहारदीवारी से घिरा हुआ एक छोटा-सा बाग था जिसके बीचोबीच में काले पत्थर से बनी एक गोल बारहदरी थी जो मामूली न थी बल्कि लोहे के खम्भे के ऊपर बनी हुई और जमीन से करीब बीस हाथ ऊँची थी।

बाहरदरी की सतह लाल रंग के पत्थरों की बनी हुई थी जिसमें जगह-जगह सफेद पत्थर के कई कमल बने हुए थे जो सतह के बराबर न थे बल्कि उभड़े हुए थे और जिनके सबब से बारहदरी की जमीन इस लायक न रह गई थी कि कोई इस पर आराम से लेट सके क्योंकि ये कमल जमीन को ऊबड-खाबड़ बनाये हुए थे।

बहुत देर तक मालती सोचती रही कि वहाँ पर क्यों और कैसे आ गई! उसके सिर में हलका-हलका दर्द हो रहा था जिसका सबब वह गहरी बेहोशी थी जिसमें कई घण्टे तक उसे रहना पड़ा और इसी कारण उसकी विचार-शक्ति कमजोर हो रही थी, फिर भी धीरे-धीरे उसे पिछली बातें ख्याल आने लगीं और उसे याद आ गया कि वह इन्द्रदेव से बातें कर रही थी जब कहीं से आकर एक गोला उसके सामने फटा था और उसमें से बड़ा ही कड़ुआ धूआँ निकला था जिसकी बदौलत वह भाग कर सीढ़ी उतरते-उतरते ही बेहोश हो गई थी। उसके बाद क्या हुआ उसे कोई खबर न थी और अब होश में आकर वह अपने को यहाँ पा रही थी।

बहुत गौर करने पर भी वह समझ न सकी कि इस समय कहाँ पर है मगर इतना उसे जरूर मलूम हो गया कि वह कई घण्टों तक बेहोश रही क्योंकि वह समय रात का था और इस समय सूर्य पूरी तरह से चमक रहे थे।

आखिर वह उठ खड़ी हुई और यह देखने के लिए कि इस बारहदरी के बाद क्या है, उसके किनारे तक पहुँची जहाँ किसी तरह की आड़ या रुकावट बनी हुई थी। मालती समझे हुई थी कि यह बारहदरी किसी ऊँची इमारत के सिरे पर होगी पर किनारे से झांक कर देखने से उसे मालूम हुआ कि उसका विचार गलत है और बारहदरी एक मोटे लोहे के खम्भे पर बनी हुई है जो जमीन से इतना ऊँचा है कि नीचे देखने से झाईं आती है।

वह झिझक कर पीछे लौट आई और सोचने लगी कि इस स्थान से निकलने की क्या तर्कीब हो सकती है। चारों तरफ निगाह दौड़ाने से मालूम हुआ कि यह एक छोटे बाग में है जिसके चारों तरफ ऊँची चहारदीवारी है। उसके बाद क्या है सो वह नहीं देख सकती थी क्योंकि इस दीवार की ऊँचाई भी बीस-पचीस हाथ से किसी तरह कम न थी जिसे टप कर निगाहें दूसरी तरफ का हाल नहीं देख पाती थीं।

मालती ने कई चक्कर उस गोल बारहदरी के लगाये पर कुछ नतीजा न निकला। न तो कहीं से उसे नीचे उतरने लायक रास्ता ही दिखा और न किसी जगह से वह यही देख सकी कि बाग के बाहर क्या है। आखिर वह लाचार हो पुनः अपनी जगह आ बैठी और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। यकायक उसकी निगाह एक छोटे-से कागज के टुकड़े पर पड़ी जो एक पथरीले कमल की जड़ के पास पड़ा हुआ था।

उसने उसे उठा लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था—‘‘इस कमल को जोर से दबाओ।’’ कुछ देर तक मालती इस लिखावट पर गौर करती रही पर यह किसका लिखा हुआ है सो कुछ समझ न आया। लाचार वह विचार छोड़ उस कमल के पास गई जिसके नीचे वह कागज मिला था और अपने ऊँगूठे से उसके सिरे को जोर से दबाया।

कमल दब गया, साथ ही एक हलकी आवाज हुई और बारहदरी के बीचोबीच की एक सिल्ली आप से आप किवाड़ के पल्ले की तरह खुल गई। मालती उसके पास पहुँची। नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं जिन पर मालती ने पैर रक्खा और सब तरफ से होशियार नीचे उतर गई।

ये घुमावदार सीढ़ियाँ उसी मोटे खम्भे के पेट में बनी हुई थीं जिस पर वह बारहदरी टिकी थी।

दस-बारह डंडा उतरने के बाद ऊपर वाली सिल्ली एक आवाज के साथ पुनः अपनी जगह आकर बैठ गई और उस जगह घोर अंधकार छा गया पर मालती अन्दाज से टटोलती हुई नीचे बराबर नीचे उतरती ही चली गई। कुछ ही देर में वह नीचे की आखिरी सीढ़ी पर पहुँच गई जहाँ हाथ फैलाने से उसे सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा मालूम पड़ा मगर यह पता नहीं था कि वह किस तरह खुलेगा क्योंकि उसमें कोई जंजीर या सिकड़ी वगैरह लगी हुई नहीं मालूम पड़ती थी।

अब मालती घबराई मगर उसी समय उसका हाथ एक छोटे से आले पर जा पड़ा जिस पर टटोलने से मोमबत्ती का एक टुकड़ा और आग बालने का सामान उँगलियों में लगा। उसने तुरन्त चकमक से आग झाड़ मोमबत्ती बाली और उसकी रोशनी में चारों तरफ देखा। जहाँ वह मोमबत्ती मिली थी उसी जगह कागज का दूसरा टुकड़ा दिखाई पड़ा जिसे उसने उठा लिया और मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ा, यह लिखा था—‘‘बगल में बने साँप के फन को जोर से दबाओ।’’ मालती ने पुर्जा पढ़ चारों तरफ देखा। दरवाजे के बगल में किसी धातु का बना एक छोटा साँप नजर पड़ा जिसने फन को दबाते ही निकल जाने के लिए रास्ता खुल गया। खुशी-खुशी मालती बाहर निकल आई और उसके निकलते ही वह दरवाजा आप से आप इस तरह बन्द हो गया कि उसका कोई निशान तक बाकी न रह गया।

कुछ आगे बढ़ मालती घूमी और उस बारहदरी की तरफ देखने लगी। उसने देखा कि लगभग बीस हाथ ऊँचे और कोई पाँच हाथ मोटे लोहे के खम्भे के ऊपर वह गोल बारहदरी बनी हुई थी जिसमें से वह उतरी थी। खम्भा चारों तरफ से एकदम चिकना है और उसमें कहीं कोई दरवाजा आदि दिखाई नहीं पड़ता और बारहदरी का जो भी कुछ हिस्सा नीचे से दिखाई पड़ता है वह एकदम साफ और चिकना है। हाँ बरहदरी के ऊपर किसी धातु का बना एक उकाब बैठा हुआ जरूर नजर आता था। इसके अलावे उस बारहदरी में और कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती थी।

मालती उस जगह से हटी और छोटे से बाग में घूमने लगी। वह चौखूँटा बाग एक बिगहे से कुछ ज्यादा ही जगह में होगा और जो कुछ मेवों के पेड़ इसमें दिखाई पड़ते थे उन्हें सींचने के लिए वह छोटी नहर बहुत काफी थी जो एक तरफ से आकर घूमती हुई दूसरी तरफ निकल गई थी।

घूमती-फिरती मालती जब पूरब की दीवार के पास पहुँची तो उसे उसमें एक खिड़की बनी हुई दिखाई दी जो इस समय खुली हुई थी। मालती उस जगह खड़ी हो गई क्योंकि बाग के चारों तरफ की दीवार में सिर्फ वही एक खिड़की दिखाई पड़ी थी और इसकी राह बाग के बाहर निकल जाना सम्भव न होने पर भी दूसरी तरफ का हाल देखना सम्भव था क्योंकि खिड़की में पत्थर की मोटी जाली लगी हुई थी। मालती एक छेद में आँख लगा कर देखने लगी।

एक बहुत लम्बा-चौड़ा बाग दिखाई पड़ा जिसके ओर-छोर का कुछ भी पता नहीं लगता था। चारों तरफ बहुत सी आलीशान इमारतें दिखाई पड़ रही थीं पर दूर और पेड़ों की आड़ में होने की वजह से उनके बारे में ठीक-ठीक पता लगाना कठिन था जिसमें इस समय एक औरत और एक मर्द बैठे नजर आ रहे थे पर दोनों का मुँह दूसरी तरफ होने के कारण उनकी सूरत-शक्ल के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता था।

मालती ने चाहा कि आवाज देकर उनको पुकारे और उनसे कुछ बातचीत करे मगर उसी समय उसकी निगाह एक तीसरे आदमी पर पड़ी जो एक खम्भे की आड़ में छिपा हुआ बड़े गौर से उन दोनों की तरफ देख रहा था। मालती उसे देख आश्चर्य में पड़ गई क्योंकि चेहरा सामने होने के कारण उसने साफ पहिचान लिया कि वह उसका जानी दुश्मन हेलासिंह है। वह ठिठक गयी और कुछ बोलना या आवाज देना उचित न समझा और गौर से देखने लगी कि अब क्या होता है।

उस औरत और मर्द की बातचीत खतम हुई और वे दोनों शायद कहीं जाने की नीयत से उठ खड़े हुए। उन्हें उठता देख हेलोसिंह खम्भे की आड़ में हो गया मगर जब वे उनके पास से होते हुए आगे बढ़े तो वह आड़ से बाहर निकल आया और अपनी बगल से तलवार निकाल उसने मर्द पर वार करना चाहा।

यह देखते ही मालती के मुँह से एक चीख निकल गयी जिसने हेलासिंह के साथ ही साथ उन दोनों को भी चौंका दिया। वे दोनों घूम पड़े तथा अपने पीछे नंगी तलवार लिए हेलासिंह को देखते ही उस मर्द ने भी अपनी तलवार निकाल ली और हेलासिंह के वार को बचा कर खुद भी मुकाबला करने को तैयार हो गया। अब मालती का ताज्जुब और भी बढ़ा क्योंकि उसने देखा कि वह आदमी प्रभाकरसिंह हैं तथा उनके साथ वाली औरत इन्द्रदेव की स्त्री सर्यू है।

वह ताज्जुब के साथ सोचने लगी कि ये लोग इस स्थान में क्योंकर आ पहुँचे मगर साथ ही उसे इस बात की खुशी भी हुई, अब जरूर उसकी जान इस आफत से छूट जायेगी और इन लोगों की मदद से वह इस कैदखाने से बाहर निकल सकेगी।

हेलासिंह ने समझा था कि वह धोखे में पीछे से वार करके प्रभाकरसिंह को मार डालेगा मगर जब मालती की चीख सुन वे होशियार हो गये और साथ ही मुकाबला करने पर भी तुल गये तो उसे लेने के देने पड़ गये। उसने दो-चार हाथ तो चलाये पर प्रभाकरसिंह के मुकाबले में वह एक बच्चे के बराबर भी न था। उसे तुरन्त ही मालूम हो गया कि प्रभाकरसिंह से लड़कर वह अपनी जान बचा न सकेगा, अस्तु उसने लड़ने का विचार तो छोड़ दिया और भाग कर अपनी जान बचाने की फिक्र में पड़ा।

आखिर मौका पा उसने अपनी तलवार जमीन पर फेंक दी और भागा। प्रभाकरसिंह ने उसका पीछा किया मगर उसे पकड़ न सके क्योंकि दस ही बीस कदम गये होंगे कि उनके कान में आवाज आई, ‘‘बस, भागते हुओं का पीछा करना बहादुरों का काम नहीं। अगर तुम्हें लड़ने का ही शौक है तो आओ, मेरे सामने आओ।’’

यह आवाज सुनते ही प्रभाकरसिंह रुक गये और अपने चारों तरफ देखने लगे पर कहीं किसी की सूरत दिखाई न पड़ी। आखिर उन्होंने कहा, ‘‘अभी कौन बोला था?’’ जवाब मिला ‘‘मैं!’’ प्रभाकरसिंह ने फिर इधर-उधर देखा मगर कहीं कोई नजर न पड़ा। उन्होंने चिढ़ कर कहा, ‘‘आखिर तुम कौन हो सामने आकर बात करो।’’ जवाब मिला, ‘‘अच्छा तो मैं सामने होता हूँ। होशियार हो जाओ!’’

मालती भी ताज्जुब के साथ यह बातचीत सुन रही थी और साथ ही वह यह देखने को चारों तरफ निगाहें भी दौड़ा रही थी कि आखिर वह बोलने वाला है कौन और कहाँ, क्योंकि उस दालान के सिवाय और कोई भी ऐसी जगह आसपास में दिखाई नहीं पड़ती थी जहाँ छिप कर या जिसकी आड़ में खड़े होकर बातें की जा सकें, फिर यह आवाज कहाँ से आ रही थी?

मगर मालती को इस बारे में बहुत देर तक तरद्दुद में न रहना पड़ा और तुरत ही जो कुछ उसने अपने सामने देखा वह उसका रोंगटा खड़ा करने और दिल दहला देने को काफी था। ‘‘होशियार हो जाओ’’ की आवाज के साथ ही प्रभाकरसिंह के सामने की जमीन से पटाखे की तरह एक आवाज आई और साथ ही कुछ धूँआ-सा दिखाई पड़ा। इस धूएँ ने गाढ़ा होकर तुरत ही एक आदमी का कद पकड़ लिया और तब हलका होकर ऊपर की तरफ उड़ गया मगर अपनी जगह पर एक खौफनाक चीज छोड़ गया।

मालती का कलेजा यह देख कर उछल गया कि धूएँ की जगह वहाँ मनुष्य की हड्डियों का एक भयानक ढाँचा खड़ा है जिसके बदन पर मांस या चमड़े का नाम-निशान भी नहीं, हड्डियाँ ही हड्डियाँ दीख रही हैं। जबड़े के बाहर निकले हुए उसके खुले दाँत भयानक हँसी हँस रहे हैं और बिना पुतली या पलकों वालें आँखों के गड़हे देखने वाले के दिल में डर पैदा कर रहे थे। ढाँचे के बाँये हाथ में एक छोटी ढाल और दाहिने हाथ में एक तलवार की मूँठ थी मगर उस मूठ के साथ फल न था केवल कब्जा मात्र ही बे-माँस तथा बे-चमड़े की उँगलियों ने पकड़ा हुआ था।

यह भयानक दृश्य देखते ही मालती के तो डर के मारे होश उड़ गये। उसने दोनों हाथों से अपनी आँखें बन्द कर लीं और एक चीख मार कर खिड़की के पास से हट गयी।

प्रभाकरसिंह यद्यपि बड़े बहादुर और दिलावर थे पर कुछ सायत के लिए वे भी घबड़ा गए और कुछ कदम पीछे हट गये। उनकी यह हालत देख वह हड्डियों का ढाँचा भयानक रूप से हँसा और तब गूँजने वाली भारी तथा डरावनी आवाज में बोला, ‘‘बस मेरी सूरत ही देख कर तुम डर गये। तो भला मेरे साथ लड़ोगे क्या? इसी जीवट पर तुम अपने को बहादुर लगाते हो!’’

अपने होश-हवास दुरुस्त कर बड़ी हिम्मत के साथ प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘नहीं नहीं, यद्यपि तुम्हारी शक्ल-सूरत बड़ी डरावनी है परन्तु मैं इस हालत में भी तुमसे लड़ने के लिए तैयार हूँ।’’

हड्डियों का ढाँचा : तो फिर आगे बढ़ो और मुझ पर वार करो।

प्रभा० : मगर पहिले मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम कौन हो या मुझसे तुम्हारी क्या दुश्मनी है।

हड्डियों का ढांचा : मैं कौन हूँ यह बताने में तो घण्टों लग जायेंगे और शायद फिर भी तुम्हारी समझ में कुछ न आवेगा, हाँ मेरा नाम सुन कर शायद तुम समझ सको।

प्रभा० : अच्छा तुम अपना नाम ही मुझे बताओ।

हड्डियों का ढाँचा : मेरा नाम तिलिस्मी शैतान है।

प्रभा० : तिलिस्मी शैतान! पर यह नाम तो मैं आज पहिले ही पहिल सुन रहा हूँ!

तिलिस्मी शैतान : (जोर से हँस कर) और मेरी शक्ल भी तुम पहिले ही पहिल देख रहे हो!

प्रभा० : बेशक, और मैं कुछ भी न समझ सका कि तुम भूत हो, प्रेत हो, या कोई जिन्न हो! खैर, तुम अब यह बताओ कि मुझसे तुम्हारी दुश्मनी क्या है?

तिलिस्मी शैतान : तुमसे मेरी पुरानी दुश्मनी है और मैं बहुत दिनों से तुमको खोज रहा था, आज तुम भले मौके पर हाथ आये हो। अगर तुम बहादुर हो तो मुझसे लड़ो और डरपोक हो तो हार मानो और मेरे साथ चलो।

प्रभा० : (ताज्जुब से) कहां ?

तिलस्मी शैतान : जहाँ मैं चलूँ।

प्रभा० : आखिर कहाँ?

तिलिस्मी शैतान : यमलोक में!

इतना कह कर वह हड्डियों का ढाँचा भयानक रूप से हँस पड़ा और उसकी डरावनी आवाज से वह जगह गूँज उठी। मालती अभी तक तो डर के मारे खिड़की के बगल में दुबकी हुई थी और उस शक्ल को सचमुच कोई भूत-प्रेत या आसेब समझ कर अपनी जान की खैर मना रही थी मगर जब उसने उसको अपने बिना जुबान मुँह से आदमियों की तरह बात करते सुना तो उसका डर कुछ कम हुआ और उसके मन में उस तिलिस्मी शैतान को देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। आखिर बड़ी हिम्मत बाँध कर वह पुनः खिड़की के सामने आई और उधर का हाल देखने लगी।

उसने देखा कि बेचारी कमजोर सर्यू तो एक तरफ जमीन पर बदहवास पड़ी है और प्रभाकरसिंह घबराहट तथा बेचैनी के साथ शैतान की तरफ देख रहे हैं, साथ ही उसे यह देख और भी ताज्जुब हुआ कि हेलासिंह भागा नहीं बल्कि लौट आया और उसी जगह पेड़ की आड़ में छिपा हुआ खुद भी यह सब हाल देख रहा है।

आखिर प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘सुनो जी, तुम भूत हो, प्रेत हो, या शैतान हो मुझे इससे कोई मतलब नहीं, न तो मैं तुमसे डरता हूँ और न मुझे तुम्हारी परवाह ही है। मेरी-तुम्हारी कभी की दुश्मनी नहीं और न अपनी तरफ से मेरी तुमसे लड़ने की ही कोई इच्छा है, हाँ यदि तुम्हारे दिल में मेरी तरफ से कोई दुश्मनी हो या मुझसे लड़ना ही चाहते हो तो बात दूसरी है।

शैतान : अजी मैं तो कह चुका कि मेरी तुम्हारे साथ बहुत पुरानी दुश्मनी है और मैं तुमसे लड़ना चाहता हूँ। अगर तुम अपने को बहादुर लगाते हो तो मुकाबला करो।

प्रभा० : खैर, अगर यही बात है तो मुझे तुमसे लड़ना ही पड़ेगा। खैर करो वार, मगर किस चीज से लड़ोगे?

तुम्हारे हाथ में तो कोई हथियार भी दिखाई नहीं पड़ता! क्या सिर्फ उस मूंठ से ही लड़ोगे जो मैं तुम्हारे हाथ में देख रहा हूँ?

शैतान : बेशक, इस मूठ को क्या तुम खिलवाड़ समझते हो? देखो मैं इसका करतब तुम्हें दिखाता हूं। इतना कह उस शैतान ने अपना बायाँ हाथ ऊपर की तरफ उठाया। देखते ही देखते वह तलवार की मूँठ जो उसके हाथ में थी लाल होने लगी और कुछ ही देर बाद उसमें से आग की लपटें निकलने लगीं जिनकी तेजी पल भर में बढ़ती जाती थी।

कुछ ही देर बाद उसमें से ठीक उसी प्रकार आग निकलने लगी जैसे किसी बड़े अनार में से उस समय निकलती है जब उसमें आग लगाई जाती है। यह लपट कई हाथ ऊँची और इतनी भयानक थी कि देखने से डर मालूम होता था। प्रभाकरसिंह इसे देख घबरा कर पीछे हट गए।

शैतान : क्यों, इस मूठ की करामात देखी! कहो तो मैं बात की बात में तुमको भस्म कर दूँ?

मगर नहीं, तुम्हारी बहादुरी की बहुत तारीफ सुनी है और इससे तुम्हें मार डालने के पहिले तुमसे दो-दो चोंटे करना चाहता हूं। लो मैं इस आग को बुझा देता हूँ आगे बढ़ो और मुझसे लड़ो। शैतान ने अपने बायें हाथ की ढाल उस मूठ से सटा दी जिसके साथ ही उस भयानक आग का निकलना बन्द हो गया जो मूठ से निकल रही थी। इसके बाद ही उस शैतान ने भयानक रूप से प्रभाकरसिंह पर हमला किया और उसके हाथ की सुफेद हड्डियों ने प्रभाकरसिंह को दबोच लेना चाहा, मगर प्रभाकरसिंह उछल कर अलग हो गए और एक बगल होकर उन्होंने तलवार का एक भरपूर हाथ उसकी गरदन पर उस जगह जमाया जहाँ केवल नली की गोल हड्डी दिखाई पड़ रही थी।

प्रभाकर सिंह का वार इस जोर का था कि पतली हड्डी तो क्या उस जगह लोहे का छड़ भी होता तो दो टुकड़े हो जाता पर उस तिलिस्मी शैतान पर इसका कुछ भी असर न हुआ। वह ज्यों-का-त्यों खड़ा रहा, उल्टे प्रभाकरसिंह की तलवार कब्जे को पास से टूट कर झनझनाहट की आवाज के साथ दूर जा पड़ी। लाचार प्रभाकरसिंह ने टूटी तलवार फेंक दी और कुश्ती की नीयत से उस हड्डियों के डाँचे से लिपट गये पर ताज्जुब की बात थी कि उनके भरपूर जोर लगाने पर भी वह ढाँचा जरा भी न हिला। न-जाने उसमें कितना वजन था कि प्रभाकरसिंह जैसा मजबूत आदमी अपना पूरा जोर लगा कर भी उसका कुछ बिगाड़ न सका।

प्रभाकरसिंह की कोशिश बेकार जाते देख शैतान के मुँह से पुनः हँसी का भयानक शब्द निकला और उसने अपने दोनों हाथों को प्रभाकरसिंह की कमर में डाला और उन्हें ऐसे उठा कर जमीन पर पटक दिया जैसे कोई किसी लड़के को खेल में पटक देता है।

शैतान प्रभाकरसिंह की छाती पर चढ़ गया और उसके बोझ को न बर्दाश्त कर सकने के कारण प्रभाकरसिंह एक चीख मार कर बेहोश हो गये, और इधर प्रभाकरसिंह का यह हाल देख और यह जान कर कि वह शैतान शायद उसकी जान ही ले लेना चाहता है, मालती के मुँह से भी एक चीख की आवाज निकल गई। मालती की चीख सुनते ही उस शैतान ने चौंक कर पीछे की तरफ देखा। खिड़की के जंगले के अन्दर मालती को खड़ा देख उसके मुँह से गुस्से भरी एक आवाज निकली। उसने प्रभाकरसिंह को छोड़ दिया और उस तरफ बढ़ा जिधर मालती थी।

उस डरावनी शक्ल को अपनी तरफ आता देख मालती के मुँह से भी पुनः चीख की आवाज निकली और वह बेहोश होकर उसी जगह गिर पड़ी।

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