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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


एक बड़े कमरे में जो ऐशोआराम के सामानों से बखूबी सजा हुआ है एक कमसिन और खूबसूरत औरत पलंग पर लेटी हुई है। उसकी निगाहें सामने की खिड़की में से होती हुई कुछ फासले पर धीरे-धीरे बहने वाली गंगा के ऊपर पड़ रही हैं जिस पर अस्त होते हुए सूर्य की अन्तिम किरणें गिर कर विचित्र ही दृश्य पैदा कर रही हैं।

जिस समय सूर्य बिल्कुल डूब गये और केवल उनकी लाली मात्र ही आसमान पर रह गई ठीक उसी समय एक छोटी-सी किश्ती गंगा के बीचोबीच बहती हुई आती दिखाई पड़ी। किश्ती पर निगाह पड़ने के साथ ही उस औरत की तबीयत खिल गई और वह खुश हो उठ बैठी, उसकी तेज निगाहें बीच का फासला तय करती हुई उस नौजवान पर पड़ने लगीं जो तेजी के साथ किश्ती को खेता हुआ उधर को ला रहा था मगर दूरी के सबब जिसकी सूरत साफ दिखाई नहीं पड़ती थी। वह पलंग पर से उतर कर खिड़की के पास आ गयी और एकटक उस ओर देखने लगी।

बात की बात में किश्ती पास आ पहुँची। एक निराली जगह देखकर खेने वाले ने डांड़ रोक किश्ती किनारे लगाई और उतर पड़ा, किश्ती बांध दी और तब इस खिड़की की तरफ घूम कर अपना रूमाल हिलाया। इस औरत ने भी जवाब में कपड़ा हिलाया जिसका इशारा समझते ही वह नौजवान खुश हो कर उस बाग की तरफ बढ़ा जिसके अन्दर यह मकान बना हुआ था।

दो-तीन सूराखों पर जो शायद इसी लिए बना लिए गए थे पैर रखते हुए नौजवान ने सहज ही में बाग की ऊँची चारदीवारी पार की और अन्दर आ पहुँचा। वह यहाँ रुका और झाड़ियों की आड़ में खड़ा होकर इधर-उधर की आहट लेने लगा। बाग में एकदम सन्नाटा था और मकान में से भी किसी तरह की आहट नहीं मिल रही थी जिससे नौजवान का सन्देह दूर हो गया और वह अपने को पेड़ों की आड़ में छिपाता हुआ उस खिड़की की तरफ बढ़ा जहाँ वह औरत अभी तक खड़ी एकटक उसकी तरफ देख रही थी।

इसको पास आता देख अपनी जगह से हटी और पलंग के पीछे से घूमती हुई एक छोटे से दरवाजे के पास पहुँची जो दक्खिन तरफ की दीवार में बना हुआ था। आँचल में बंधी ताली से उसने इसका ताला खोला। दरवाजा खोलने पर नीचे को उतरती हुई पतली सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं।

औरत ने एक निगाह अपने चारों तरफ डाली और जब कमरे के बाकी सभी दरवाजों को बन्द पाया तो इत्मीनान के साथ उन सीढ़ियों की राह नीचे उतर गई। एक दरवाजा मिला जिसे उसने आहिस्ते से खोला। वह नौजवान सामने ही खड़ा था जो दरवाजा खुलते ही भीतर आ गया और औरत ने दरवाजा पुनः भीतर से बन्द कर लिया। एक-दूसरे की बाँहों में जकड़े हुए दोनों ऊपर आए और पलंग पर बैठे।

कुछ देर तक तो वे ही सब चोचले होते रहे जो बहुत दिनों के बाद मिले हुए आशिक-माशूकों में होते हैं और इसके बाद दोनों में बातचीत होने लगी।

मर्द : मुन्दर, तुमने आज बड़े बेमौके मुझे बुलाया। इस तरह दिन के वक्त यहाँ आने के ख्याल ही से मेरा कलेजा धड़कता था, कुशल हुई कि किसी ने देखा नहीं।

मुन्दर : नहीं, आने में कोई भी डर न था। आज घर के सब लोग, यहाँ तक कि नौकर-चाकर भी बाहर गए हुए हैं, केवल मैं हूँ। मेरे पिता किसी आदमी के साथ कहीं गए हैं और आधी रात के पहिले न लौटेंगे और शायद उनके आते ही मुझे आज ही किसी दूसरी जगह चले जाना पड़ेगा।

मर्द : क्यों, सो क्यों?

मुन्दर : सो मैं ठीक नहीं कह सकती।

मर्द : तो क्या अब मुलाकात न होगी?

मुन्दर : कैसे बताऊँ! अभी तो मुझे यह भी नहीं मालूम कि जाना कहाँ या कितने दिनों के लिए है, हाँ पता लगाने की कोशिश जरूर कर रही हूँ जिसमें मेरी-तुम्हारी मुलाकात में रुकावट न पड़ने पावे।

मर्द : इस तरह यकायक ऐसा क्या सबब आ पड़ा कि एकदम मकान खाली करके सब लोग जा रहे हैं?

मुन्दर : सो मुझे कुछ भी नहीं मालूम, खैर जो होगा देखा जायेगा। इस वक्त तो हम लोगों को इस मौके का पूरा फायदा उठा ही लेना चाहिए फिर न-जाने कब मुलाकात हो या क्या हो।

मर्द : तुम्हारे पिता कब लौटेंगे?

मुन्दर : कह तो गए हैं कि आधी रात गए तक नहीं लौटेंगे। तब तक के लिए पूरी निश्चिन्ती है और किसी तरह का खतरा नहीं।

इतना कह मुन्दर बेसब्री के साथ उस मर्द की तरफ बढ़ी मगर अचानक चौंक कर रुक गई। मकान के दूसरी तरफ कहीं किसी दरवाजे के जोर से खुलने की आवाज आई और इसके बाद ही किसी आदमी के जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ने की आहट सुनाई पड़ी। आवाज कान में पड़ते ही नौजवान अलग हो गया और मुन्दर भी चिहुँक कर उठ खड़ी हुई। अन्दाज से मालूम हुआ कि वह आदमी सीढ़ियाँ तय करने के बाद अब इधर ही को आ रहा है अस्तु मुन्दर नौजवान से बोली, ‘‘तुम इधर सीढ़ियों पर जाकर खड़े हो जाओ, मैं देख लूँ कि क्या मामला है।’’

नौजवान सीढ़ियों की तरफ चला गया और इधर वाला दरवाजा बन्द कर ताली कहीं छिपाने के बाद मुन्दर ने कमरे के सदर दरवाजे की साँकल जो भीतर से बन्द थी खोल दी, इसके बाद वह रूमाल हाथ में ले पुनः पलंग पर आ लेटी और अपना सिर पकड़ कर ‘‘आह, आह’’ करने लगी।

इस बात को मुश्किल से दो-चार मिनट बीते होंगे कि कमरे का दरवाजा जोर से खुल गया और मुन्दर के बाप हेलासिंह ने भीतर पैर रक्खा।

इस समय हेलासिंह की कुछ अजीब हालत हो रही थी, चेहरा सूखा हुआ था, बदन पर गर्द पड़ी हुई थी, मुँह पीला पड़ गया था, और आकृति से ऐसा जान पड़ता था मानों वह किसी बड़ी दुःखदायी घटना का शिकार हुआ हो। अपने बाप की यह हालत देख मुन्दर घबड़ा गई और बोली, ‘‘बाबूजी, यह क्या मामला है? आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है?’’

हेलासिंह इस तरह गद्दी पर आ गिरा मानों अपनी जान से एकदम नाउम्मीद हो गया हो। कुछ देर तक वह एकदम चुपचाप पड़ा लम्बी साँसें लेता रहा, तब बोला, ‘‘कुछ पूछो नहीं, मेरा किया-कराया सब चौपट हो गया, और ताज्जुब नहीं कि अब मैं कुछ घन्टों का मेहमान होऊँ!’’

मुन्दर : (चौंक कर) सो क्या, सो क्या?

हेला० : सो सब पीछे बताऊँगा, पहले यह बताओ इस समय घर में कोई है?

मुन्दर : कोई भी नहीं, सब नौकर-चाकर असबाब के साथ चले गए हैं और जरूरी सामान मजदूरनियों के हाथ रवाना कर मैं अभी-अभी यहाँ आ बैठी हूँ। सिरदर्द से परेशान थी और सोच रही थी कि कुछ देर तक लेटूँ ताकि तबीयत को आराम मिले क्योंकि आपने आधी रात तक लौटने को कहा था। मगर मालूम होता है कि वह काम नहीं हुआ जिसके...

हेला० : काम? अरे, वह काम तो क्या हुआ पहिले का सब किया-कराया भी चौपट हो गया। मालूम होता है कि अब मेरी जान नहीं बचेगी! ओफ!

कहता हुआ हेलासिंह बेचैनी के साथ उसी गद्दी पर लेट गया, मुन्दर की जान इस समय अजीब पशोपेश में पड़ी हुई थी। वह अपने बाप से उसकी बेचैनी का पूरा सबब भी सुनना चाहती थी मगर साथ ही यह भी चाहती थी कि कोई भी भेद की या गुप्त बात उसके आशिक के कान में न पड़ जाय जो कुछ ही दूर सीढ़ियों पर खड़ा है और जरूर ही जिसके कान में यहाँ की बातचीत का एक-एक अक्षर जा रहा होगा।

आखिर वह उठ कर अपने पिता के पास पहुँची और बगल में बैठ उसके सर और बदन पर हाथ फेरती हुई धीरे-धीरे बोली, ‘‘कुछ मुझे भी तो बताइये कि क्या मामला है जो आप इस तरह बदहवास हो रहे हैं।’’

हेला० : (बड़ी लाचारी की मुद्रा दिखाता हुआ) क्या बताऊँ, होंठों तक आकर वह प्याला गिरा चाहता है! (एक लम्बी सांस लेकर) खैर तुम भी सुन लो।

मुन्दर और पास झुक आई और हेलासिंह ने कहा, ‘‘कम्बख्त गदाधरसिंह को हम लोगों की सब कार्रवाइयों का पता लग गया।

मुन्दर : (चौंक कर) हैं! गदाधरसिंह को हमारा सब हाल मालूम हो गया?

हेला० : हाँ। उस दिन हम लोगों की कमेटी में जो लोग घुस आये थे और बहुत-से कागजात तथा वह कलमदान भी उठा ले गये थे जिसमें सभा का सब हाल बन्द था। वे भूतनाथ के ही आदमी थे और वहाँ से लूटा हुआ सब सामान उन्होंने भूतनाथ ही को ले जाकर दिया। भूतनाथ ने कलमदान खोल डाला और इस तरह उस सभा का तथा मेरा सब हाल उसे मालूम हो गया।

यह बात सुन मुन्दर के होश उड़ गये और कुछ देर के लिए उसकी भी वही हालत हो गई जो हेलासिंह की थी। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो उसकी बढ़ी हुई उम्मीदों पर पाला पड़ गया हो और उसका राजरानी या मायारानी बनने का सुख-स्वप्न अधूरे में ही टूट गया हो। कुछ देर तक तो उसको अपने बदन की सुध बुध न रही, लेकिन आखिर उसने अपने को सम्हाला और हेलासिंह से पूछा, ‘‘यह बात आपको क्योंकर मालूम हुई, क्या दारोगा साहब का कोई आदमी आया था।’’

हेला० : नहीं वह आदमी जो आज सन्ध्या को मुझसे मिला और मुझे अपने साथ ले गया था भूतनाथ ही था। उसने निराले में ले जाकर मुझे यह सब हाल सुनाया और कहा कि अगर तीन दिन के भीतर पचास हजार रुपया और लोहगढ़ी की ताली मैं उसे न दूँगा तो वह सब भेद राजा गोपालसिंह से कह देगा।

यह बात सुनते ही मुन्दर की घबराहट और भी बढ़ गई और वह जल्दी से कुछ पूछा ही चाहती थी कि यकायक उसे दरवाजे के पीछे छिपे हुए नौजवान का खयाल आ गया और वह रुक कर बोली, ‘‘इस जगह अंधेरा हो गया है और रोशनी का भी कोई सामान नहीं है, बेहतर हो कि हम लोग बगल वाले कमरे में चलें तो वहीं सब हाल खुलासा आपसे सुनूँ।’’ हेलासिंह ने मुन्दर की बात मान ली और उसके कन्धे का सहारा लेता हुआ धीरे-धीरे चल कर बगल वाले कमरे में पहुँचा। उसे वहीं छोड़ किसी बहाने से मुन्दर पुनः अपने कमरे में पहुँची। यहाँ पहुँचते ही उसने सीढ़ी वाला दरवाजा खोला मगर वहाँ किसी की भी सूरत दिखाई न पड़ी। न जाने उसका प्रेमी वह नौजवान कब वहाँ से चला गया था।

मुन्दर ने उस समय इसके लिए विशेष तरद्दुद भी न किया और नीचे का दरवाजा बन्द करने के बाद इस दरवाजे में पुनः ताला लगा, लौट कर अपने पिता के पास पहुंची जो एक पलंग पर लेटा लम्बी साँसें ले रहा था। वह उसके बगल में बैठ गई और पुनः दोनों में बातचीत होने लगी।

मुन्दर : तो भूतनाथ को सब हाल मालूम हो गया?

हेला० : हाँ, न सिर्फ सभा और उसके साथ मेरे सम्बन्ध का ही हाल बल्कि न-जाने कैसे उसे यह भी मालूम हो गया कि मैं लक्ष्मीदेवी के बदले तुम्हारी शादी गोपालसिंह से कराने की कोशिश कर रहा हूँ।

मुन्दर : अरे! यह बात भी उसे मालूम हो गई!

हेला० : हाँ, और अब उससे जान बचाने का सिर्फ यही रास्ता है कि जो कुछ वह माँगता है सो उसे दिया जाय और उसका मुँह बन्द किया जाय।

मुन्दर : यानी पचास हजार रुपया और लोहगढ़ी की ताली उसके हवाले की जाय?

हेला० : हाँ, सिवाय इसके और किया ही क्या जा सकता है?

मुन्दर : मगर इस समय यकायक इतना रुपया कहाँ से आ सकता है और लोहगढ़ी की ताली भी आप उसे क्योंकर दे सकते हैं जिसके लिए दारोगा साहब मुंह बाये बैठे हैं।?

हेला ० : बेशक, मगर इसके सिवाय और मैं कर भी क्या सकता हूँ! भूतनाथ से भाग कर मैं किसी तरह बच नहीं सकता क्योंकि अगर उसने सब हाल गोपालसिंह से कह दिया तो वे मुझे कदापि जिन्दा न छोड़ेंगे, ऐसी अवस्था में भूतनाथ की बात मान लेने के सिवाय और चारा ही क्या है?

मुन्दर : (कुछ सोचकर) क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ बहाना करके भूतनाथ से हफ्ते की मोहलत ले लें।

हेला० : (ताज्जुब से) शायद ऐसा हो सके, मगर इससे फायदा क्या होगा?

मुन्दर : मुझे एक तरकीब सूझी है जिसका पूरा हाल मैं फिर कभी आपको बताऊँगी। फिलहाल अगर आप आठ दिन की भी मोहलत मुझे दें और इस बीच में न तो भूतनाथ को एकदम से नाराज ही कर दें और न उसकी माँग पूरा कर अपने ही को हमेशा के लिए बरबाद कर दें तो सम्भव है कि मेरी कार्रवाई चल जाय और हम लोग भूतनाथ पर जबर्दस्त पड़ सकें।

हेला० : (ताज्जुब से) आखिर वह कौन-सी कार्रवाई है, कुछ मुझे भी तो बताओ ताकि कुछ पता लगे।

मुन्दर : जरूर बताऊँगी मगर अभी नहीं, अभी बता देने से सब मामला बिगड़ जायगा। मगर इस सम्बन्ध में इतना जरूर चाहती हूँ कि कुछ दिन के लिए आप मुझे लेकर किसी ऐसे निरापद स्थान में चलें जहाँ कोई भी हमारा न तो पता लगा सके और न भेद ही जान सके, बस एक हफ्ते के अन्दर मैं या तो कामयाब होकर भूतनाथ ही को अपने कब्जे में कर लूंगी या फिर नाउम्मीद होकर आपसे यही कह दूँगी कि आप जैसे बने वैसे उस शैतान को राजी कीजिए, मेरे किए कुछ न हो सका।

हेलासिंह ने बहुत कोशिश की मगर मुन्दर ने कुछ भी न बताया कि वह कौन-सी तर्कीब है जिसकी बदौलत वह भूतनाथ जैसे भयानक ऐयार को अपने बस में करने की आशा करती है। लाचार उसने वह जानने की कोशिश छोड़ दी और जैसा मुन्दर चाहती थी वैसा ही करने का वादा किया क्योंकि इतना तो वह बखूबी समझता था कि उसकी लड़की एक ही चांगली है और शैतानी तथा धूर्तता में बड़े-बड़ों के कान काट सकती है, उसने जरूर कुछ सोचा होगा जो ऐसी बात कह रही है।

आखिर बहुत कुछ सोच-विचार करने के बाद उसने मुन्दर की बात मान ली और कहा, ‘‘खैर जैसा तुम चाहो। मैं तैयार हूँ, मगर इतना समझ लो कि कोई ऐसी बात नहीं होनी चाहिए जिसमें भूतनाथ हमेशा के लिए हम लोगों से फिरंट हो जाय और हमारा सब किया धरा चौपट हो जाय।’’

मुन्दर : नहीं नहीं, सो कदापि न होगा। मैं क्या इस बात को नहीं समझती हूँ? मैं जो कुछ करूंगी इस सफाई और खूबसूरती से करूँगी कि भूतनाथ को हम लोगों पर किसी तरह का रत्ती भर भी शक नहीं होने पावेगा।

हेला० : अच्छी बात है। तुम कब अपनी कार्रवाई शुरू करना चाहती हो और मुझे क्या करना होगा?

मुन्दर० : अगर मौका हो तो अभी इसी वक्त आप मुझे लेकर किसी ऐसे स्थान में चलिए जहाँ कोई हम लोगों को कोशिश करके भी पा न सके। क्या आपके ध्यान में ऐसी जगह है?

हेला० : हाँ कई, और सबसे अच्छी तो लोहगढ़ी ही है जहाँ हम लोग जब तक चाहें रह सकते हैं और ऐसे छिप सकते हैं कि राजा गोपालसिंह तक को जल्दी पता न लगे।

मुन्दर : लोहगढ़ी का हाल तो मालूम हो चुका है।

हेला० : सिवाय महाराज गिरधरसिंह के और कोई भी ऐसा नहीं जिसे उस जगह का पूरा हाल मालूम हो, और वे यमलोक को जा चुके। अब मेरे बराबर उस जगह का हाल जानने वाला कोई भी नहीं है। फिर अगर तुम चाहोगी तो लोहगढ़ी से संलग्न बहुत-से और भी गुप्त स्थान हैं जिनमें से किसी में हम लोग छिप सकते हैं और जहाँ एक बार मौत का भी गुजर मुश्किल से होगा।

मुन्दर : अच्छी बात है तो आप वहीं चलने का प्रबन्ध कीजिए, जो कुछ जरूरी सामान हो उसे साथ लीजिए और मुझे बताइये कि मैं कितने देर में रवाना होने के लिए तैयार हो जाऊँ क्योंकि मुझे भी कुछ इन्तजाम करना होगा।

हेला० : बस एक घण्टे में हम लोग रवाना हो जायेंगे, तुम इतने समय के भीतर तैयार हो जाओ।

इतना कह हेलासिंह उठ बैठा। उसे मुन्दर की बातें सुन बहुत कुछ ढाढ़स हो गयी थी।

क्योंकि उसे अपनी अकल से कहीं ज्यादा इस अपनी लड़की की धूर्तता पर भरोसा था और वह अच्छी तरह समझता था कि मुन्दर को जरूर ऐसी ही कोई भारी बात मालूम हुई होगी जिस पर वह इतना जोर दे रही है। उसने मुन्दर से फिर कुछ न कहा और सफर का इन्तजाम करने के लिए कमरे के बाहर निकल गया, मुन्दर भी किसी फिक्र में लग गयी।

ठीक एक घण्टे बाद, जब कि रात का पहिला सन्नाटा चारों तरफ फैल रहा था, एक रथ जिसमें मजबूत बैलों की जोड़ी जुती थी हेलासिंह के दरवाजे पर आकर रुका। बहलवान ने रास अटका दी और घर के भीतर घुस गया। थोड़ी देर बाद वह एक भारी गठरी सिर पर लादे लौटा जिसे उसने रथ के अन्दर रख दिया, पीछे हेलासिंह और मुन्दर भी आ रहे थे जिन्होंने आपस में कुछ बातें की और तब रथ पर सवार हो गए। रथ तेजी के साथ लोहगढ़ी की तरफ रवाना हुआ।

आधी रात जाते-जाते रथ लोहगढ़ी के पास पहुँच गया। हेलासिंह रथ से उतर पड़ा और मुन्दर भी नीचे आ गई। बहलवान ने रथ को आड़ की जगह में खड़ा कर दिया और इसके बाद हेलासिंह के हुक्म से वह गट्ठर उठाए इन दोनों के साथ हुआ। सब कोई टीले पर चढ़ने लगे और बात की बात में लोहगढ़ी की इमारत के दरवाजे पर जा पहुँचे। मामूली तौर पर हेलासिंह ने दरवाजा खोला और सबके भीतर चले आने पर पुनः बन्द कर लिया।

बीच की उस इमारत में पहुँच कर जिसमें हमारे पाठक कई बार आ चुके हैं तीनों आदमी रुक गये। हेलासिंह ने मुन्दर से पूछा, ‘‘कहो यहीं रुकना है या और भीतर चलने का विचार है?’’ जवाब में मुन्दर ने कहा, ‘‘अगर कोई और स्थान इससे भी गुप्त और सुरक्षित है तो वहीं चले चलिये।’’ हेलासिंह ने कहा, ‘‘जरूर है, मगर वहाँ चलने में काफी देर लग जायेगी।’’ मुन्दर बोली, कोई हर्ज नहीं,’’ जिसे सुन हेलासिंह बोला, ‘‘अच्छा तो तुम यहीं खड़ी रहो, मैं जाकर पहिले दरवाजा खोल आऊँ।’’ वह इमारत के अन्दर जा एक कोठरी में घुस गया और सुन्दर उस बहलवान के साथ वहीं रुकी रह गई। कुछ ही मिनटों के बाद हेलासिंह लौट आया और बोली, ‘‘दरवाजा खुल गया अब चलना चाहिए। मगर रास्ता बहुत ही पेचीदा है, होशियारी से आना।’’ आगे-आगे हेलासिंह उसके पीछे मुन्दर और उसके पीछे गठरी उठाये वह बहलवान रवाना हुआ और सभों को लिए हुए हेलासिंह एक तिलिस्मी सुरंग में घुस गया।

इस जगह हम इस विचित्र रास्ते का हाल बताने की कोई जरूरत नहीं समझते और सिर्फ इतना ही कह देते हैं कि कितनी ही सुरंगों, दरवाजों, इमारतों और गुप्त तथा डरावने स्थानों में से होते हुए ये लोग बहुत देर तक बराबर चले गए और तब एक दूसरी सुरंग की राह बाहर निकले। अब जिस जगह ये लोग थे वह पहाड़ की कुछ ऊँचाई पर बना हुआ एक छोटा दालान था। नीचे एक सुन्दर घाटी थी और इसके चारों तरफ की पहाड़ियों पर कई सुन्दर इमारतें और बंगले नजर आ रहे थे।

चन्द्रमा की चाँदनी चारों तरफ फैली हुई थी और उसकी रोशनी में यह स्थान बड़ा ही रमणीक मालूम हो रहा था। हम पाठकों को इस जगह का विशेष हाल बताने की जरूरत नहीं समझते क्योंकि यह वही तिलिस्मी घाटी है जिसमें दयाराम और प्रभाकरसिंह वगैरह रहा करते थे अथवा जिसमें मालती इस समय मौजूद है।

हेलासिंह ने उँगली से बता कर कहा, ‘‘वह देखो सामने की पहाड़ी पर जो बंगला है और जिस पर कई बन्दर बैठे हुए दिखाई पड़ते हैं वहीं हमको जाना है, मगर इस तरह यह पहाड़ी उतर कर वह दूसरी पुनः चढ़ने में यह भारी गठरी लेकर जाना बड़ा कठिन होगा।

यहाँ से एक सुरंग की राह भीतर वहाँ तक जाने का रास्ता है जो इस समय अन्दर से बन्द है। अगर तुम वहाँ जाकर जो तर्कीब मैं बताता हूँ उससे वह रास्ता खोल दो तो हम लोग सहज ही में वहाँ तक पहुँच जायेंगे।’’

मुन्दर० : तो आप भी वहाँ क्यों नहीं चलते! नई और अनजान जगह है, दूसरे मुझसे शायद वह रास्ता न खुले।

हेला० : नहीं, जरूर खुल जायगा, मैं तुम्हें पूरा भेद बताए देता हूं। मैं जब तक इधर का मुहाना खोलूँगा तब तक तुम वहाँ पहुँच जाओगी और काम जल्द हो जायगा।

मुन्दर ने जवाब में कहा, ‘‘बहुत अच्छा, बताइये।’’ हेलासिंह ने उस गुप्त रास्ते को खोलने का सब हाल बखूबी समझा दिया और जब वह उस तरफ रवाना हो गई तो आप उस आदमी के साथ एक दूसरी सुरंग में घुस गया जिसका रास्ता उसने किसी गुप्त तर्कीब से खोला था।

पाठक अब जान गये होंगे कि मालती ने घाटी में बन्दरों वाले बंगले पर जिस औरत को देखा था वह यही मुन्दर थी और चबूतरे के नीचे उस गठरी को छिपाने वाले ये ही हेलासिंह और उसका नौकर थे।

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