मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 5 भूतनाथ - खण्ड 5देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण
तीसरा बयान
भूतनाथ के फेंके हुए कागजों को देख दारोगा के होश उड़ गये और जब उसे मारने की कोशिश भी नाकामयाब हुई तो दारोगा को सिवाय इसके और कुछ न सूझा कि जिस तरह हो भूतनाथ को राजी करे और अपनी जान बचावे। अस्तु वह उसे लेकर एक एकान्त कमरे में चला गया और तरह-तरह की नर्मी और खुशामद की बातें करता हुआ उसे अपने ऊपर मेहरबान बनाने की कोशिश करने लगा।
जिस जगह दारोगा भूतनाथ को अब ले गया वह उसके मकान का एक बहुत ही एकान्त और निराला हिस्सा था और वहाँ किसी का आना-जाना बिना दारोगा की मर्जी के नहीं हो सकता था। भूतनाथ दारोगा के पीछे-पीछे वहाँ तक चला तो गया मगर उसके मन में यह सन्देह जरूर हो गया कि दारोगा जो एक बार मुझे धोखा देकर फँसाने की कोशिश कर चुका है कहीं फिर धोखा न दे अस्तु उसने यहाँ पहुँचते ही दारोगा से कहा, ‘‘सुनियेगा दारोगा साहब, मैं आपके साथ यहाँ तक चला तो आया हूँ लेकिन अगर आपके दिल में यह खयाल हो कि मुझे फिर किसी तरह का धोखा दें या जान से मारने की इच्छा करें तो मैं आपसे साफ कह देना चाहता हूँ।
कि आपको तो कामयाबी मिलेगी ही नहीं मगर मैं भी फिर आपकी जरा भी मुरौवत न करूँगा और बुरा से बुरा सलूक आपके साथ करने को तैयार हो जाऊँगा। मगर आपने मेरा एक बाल भी बांका करने की कोशिश की तो आपकी बोटी-बोटी...’’
दारोगा : (जनेऊ हाथ में लाकर) मैं धर्म की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारे साथ जरा भी बेईमानी करने का खयाल दिल मे न लाऊँगा। मै तुम्हारी और तुम्हारी शागिर्दों की चालाकी और बहादुरी देख चुका हूँ और तुम विश्वास रक्खो कि अब मुझे तुम्हारा मुकाबला करने की हिम्मत बिल्कुल नहीं रह गई है। अगर तुम्हें मेरी कसम पर एतबार न हो तो यह लो मैं हाथ बढ़ाता हूँ अपने कमंद से इन्हें बाँध डालो बल्कि दोनों पैर भी बाँध कर अपना डर दूर कर लो और तब मुझसे बातें करो, मुझे कोई उज्र न होगा।
भूत० : (हँसकर) नहीं-नहीं, इतना करने की मुझे कोई जरूरत नहीं क्योंकि मुझे अब भी अपनी फुर्ती, चालाकी और ताकत पर भरोसा है और मेरे शागिर्द अभी भी यहाँ मौजूद है। मैंने तो सिर्फ आपको होशियार करने की नीयत से एक बात कही थी।
दारोगा : तो मैं पूरी तरह से होशियार हो गया हूँ और मुझे अपनी जान प्यारी है अस्तु तुम किसी तरह से न डरो और मेरे पास आकर बैठो।
भूतनाथ दारोगा के पास जाकर बैठ गया और दोनों में बातचीत होने लगी-
दारोगा : मैं समझता हूँ कि उस दिन सभा में पहुँच कर खून-खराबी मचाने और उस कमलदान को ले जाने वाले नकाबपोश तुम्हारे ही आदमी थे।
भूत० : हाँ
दारोगा : तो जरूर ही सभा का सब भेद भी उस कलमदान की बदौलत तुम्हें मालूम हो गया होगा।
भूत० : जी हाँ बिल्कुल।
दारोगा : अस्तु अब तुमसे कोई बात छिपाना या झूठ बोलना बेवकूफी होगी अपना सब कसूर स्वीकार करके तुमसे पूछता हूँ कि अब तुम क्या किया चाहते हो?
भूत० : आपके पास से उठ कर मैं सीधा राजा गोपालसिंह के पास जाया और उनके आगे ये कागज रख दिया चाहता हूँ जिसमें उन्हें भी आपका सब कच्चा चिट्ठा मालूम हो जाय और वे जो सजा चाहें आपको दें।
दारोगा : (कांप कर) मतलब यह है कि मुझे एकदम खाक ही में मिला दिया चाहते हो।
भूत० : अब आप जो कुछ समझे।
दारोगा : मगर इससे तुम्हारा क्या फायदा होगा? गोपालसिंह कुछ तुम्हारा रिश्तेदार नहीं और न जमानिया राज्य ही से तुम्हें किसी तरह का मतलब या सरोकार है। ऐसा करने से तुम्हें अगर यह उम्मीद हो की कोई बड़ी भारी रकम, जागीर या इनाम तुम्हें मिल जायगा सो भी कोई बात नहीं हैं क्योंकि मैं गोपालसिंह को बखूबी जानता हूँ।
उसके ऐसा मतलबी। स्वार्थी और लालची आदमी दुनिया में शायद ही कोई हो, उसे यह सब कागजात दिखा कर तुम मुझे जरूर बर्बाद कर दोगे मगर अपना कोई काम न कर सकोगे। अगर तुम समझते हो कि गोपालसिंह तुम्हारा कोई फायदा करेगा तो यह तुम्हारा सिर्फ खयाल है, वह तुम्हें एक कौड़ी भी न देगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि तुम्हें भी अपना दुश्मन समझ बैठे और...
भूत० : (हँस कर) दारोगा साहब, आप व्यर्थ की बातों के जाल में मुझे फँसाने की कोशिश न करें, मैं अपना फायदा-नुकसान अच्छी तरह समझता हूँ और गोपालसिंह के मिजाज और तबीयत से भी खूब वाकिफ हूँ, अस्तु यह सब तो आप मुझे बताइये नहीं। गोपालसिंह मेरा कोई फायदा करें या न करें मगर अपने पिता के मारने वाले को कदापि जिन्दा न छोड़ेंगे इसका मुझे पूरी तरह विश्वास है।
दारोगा : (चौंक कर) तो क्या तुम बड़े महाराज साहब के मारने का इलजाम भी मुझ पर लगाते हो?
भूत० : जी हाँ, क्या आपको इनकार है?
दारोगा : अगर तुम्हारा मतलब उस कमेटी से है जिसने महाराज को मारने का हुक्म दिया था तो उस बारे में सिर्फ मैं भी कसूरवार नहीं हूँ। सभा के सैकड़ों दूसरे सदस्यों का कसूर भी उतना ही है जितना कि मेरा।
भूत० : जी नहीं, मेरा मतलब उस कमेटी से नहीं है बल्कि मैं उस लौड़ी की बात आपसे कह रहा हूँ जिसे आपने गोपालसिंह की स्त्री बनाने का सब्जबाग दिखा कर भरमाया था। और जिसके हाथ में इसलिए जहर की शीशी दी थी कि महाराज के भोजन में मिला दे।
यह बात सुन दारोगा और भी घबड़ा गया। अब तक न जाने किस हिम्मत पर वह बातें कर रहा था भूतनाथ की यह आखिरी बात सुन उसकी बची-खुची हिम्मत भी जाती रही और वह बिल्कुल नाउम्मीद हो बैठा। कुछ देर तक तो वह सिर झुकाये न जाने क्या-क्या सोचता रहा और तब हाथ जोड़कर भूतनाथ से बोला, ‘‘बस मैं जान गया कि तुमसे कोई बात छिप नहीं सकती।
अब मेरी जान तुम्हारे हाथ में है, अगर तुम समझते हो कि मेरे मारे जाने से तुम्हारा कोई फायदा होगा तो खुशी से मारो, मगर अपने ही हाथ से मारो, मुझे कोई उज्र न होगा, और अगर समझते हो कि मेरे जीते रहने से तुम्हारा कुछ भला हो सकेगा तो मुझे जीता छोड़ दो और फिर देखो कि मैं क्योंकर अपने को सुधारता हूं।
सचमुच अब जो देखता हूँ तो शुरू से आज तक एक के बाद एक बुरा ही काम करता आया हूँ। मेरे पापों का घड़ा भरता जा रहा है और मर जाने पर मेरे लिए न जाने कौन-सा नरक तैयार मिलेगा। ओफ, अब तो मैं याद करता हूँ तो दुनिया में कोई ऐसा पाप नहीं दिखाई पड़ता जो मैंने न किया हो, एक से एक बढ़ कर....’’
इत्यादि बातें देर तक दारोगा बकता रहा और उसकी आँखों से चौधारे आँसू निकल कर उसके कपड़ों को तर करते रहे। वह यहाँ तक रोया-कलपा और बिलबिलाया कि अन्त में भूतनाथ के पैरों पर गिर पड़ा और जोर-जोर से रोने लगा। भूतनाथ का पत्थर-सा कलेजा भी उसकी यह हालत देख कर कुछ नर्म पड़ गया और उसे अपना विचार बदल लेना पड़ा।
दारोगा की हालत देख अन्त में उससे रहा न गया और उसने उसे अपने पैरों पर से उठाते हुए कहा, ‘‘दारोगा साहब, आपकी हालत देख कर मुझे रहम जाता है। यद्यपि आप दया के लायक आदमी नहीं हैं फिर भी मैं एक बार आपको छोड़ता हूं। उठिये और मेरी बातें सुनिये। तीन शर्तों पर मैं अब भी आपको बख्श देने को तैयार हूँ।’’
दारोगा ने अपना आँसुओं से भरा चेहरा उठाया और उसकी सूरत देखता हुआ बोला, ‘‘वे शर्तें क्या हैं?’’
भूत० : सुनिये—एक तो आपको एक एकरारनामा मुझे लिख देना पड़ेगा कि आज तक आपने जो कुछ किया सो किया, अब आगे आप गोपालसिंह, इन्द्रदेव, बलभद्रसिंह, लक्ष्मीदेवी आदि के साथ अथवा इनके किसी भी रिश्तेदार या दोस्त के साथ किसी तरह की बुराई न करेंगे।
दारोगा : मंजूर है, अच्छा और?
भूत : दूसरे बीस हजार असर्फी इसी वक्त मुझे देना होगा।
दारोगा : (लम्बी सांस लेकर) अच्छा मंजूर है, आगे बोलो?
भूत० : तीसरी शर्त यह है कि मेरे, इन्द्रदेव के, बलभद्रसिंह के, गोपालसिंह के, या मेरे मालिक रणधीरसिंह के जितने भी दोस्त, रिश्तेदार या मुलाकाती इस समय दुनिया में मरे मशहूर होकर भी आप या आपकी उस मनहूस कमेटी की वजह से कैद में पड़े हुए हैं उन्हें तुरन्त छोड़ देना होगा!
दारोगा : यह भी मंजूर है, जमानिया के कुछ लुच्चे शोहदे और डाकू-लुटेरे कैद हैं, अगर तुम चाहोगे तो उन्हें भी छुड़वा दूँगा।
भूत० : (कड़ुए स्वर में) जनाब, मेरा मतलब उन लुच्चे-शोहदों से नहीं है बल्कि उन भले आदमियों से है जिन्हें आपने मौत से बढ़कर तकलीफ दे रक्खी है।
दारोगा : (कांप कर) वे कौन हैं? कम से कम जरा नाम तो सुनूँ?
भूत० : दामोदरसिंह, भैयाराजा, बहुरानी, दयाराम,—क्या और नाम सुनाऊँ!
दारोगा : क्या ये लोग जीते हैं और मैंने इन्हें कैद कर रक्खा है?
भूत० : बेशक!
दारोगा : कदापि नहीं। दयाराम खुद तुम्हारे हाथ से मारे गये, तुम्हें उनकी मौत का हाल बखुबी मालूम है, भैयाराजा और बहूरानी आप ही आप कहीं गायब हो गये और मुझे उनकी बाबत कुछ भी नहीं मालूम, और दामोदरसिंह की कमेटी के आदमियों ने कई महीने हुए मार कर फेंक दिया था, इसी शहर की चौमुहानी पर उनकी लाश मिली थी। फिर मुझ पर इन लोगों के कैद करने का इलजाम क्योंकर लगाया जा सकता है?
भूत० : देखिये दारोगा साहब, अब आप चालबाजी की बात करने लगे। मैं जो कुछ कह रहा हूँ—समझबूझ कर कह रहा हूँ। मुझे ठीक ठीक पता है कि वे सब लोग तथा और भी कितने ही आदमी आपके कैदखाने को रोशन कर रहे हैं। जिस तरह आपने पहिली दोनों शर्तें मानी उसी तरह धीरे से इसे भी मान लीजिए तभी आपकी भलाई है नहीं तो फिर आपके जान की खैर नहीं।
दारोगा : भला तुम्हीं बताओ कि मरे आदमियों को मैं क्योंकर जिन्दा कर सकता हूँ, अगर यही शक्ति मुझमें होती तो...
भूत० : (डपटकर) फिर भी आप बकबक किए ही जाते हैं! मालूम होता है, मौत अभी तक आपके सिर पर नाच रही है, अच्छा लीजिए मैं सबूत देता हूँ। पहिले दामोदरसिंह वाला मामला ही लीजिए।
क्या उनका मरना मशहूर होने के दस दिन बात भी वे आपके इसी मकान की उस कोठरी में मौजूद नहीं थे जिसकी सतह में लोहे की कांटियाँ जड़ी हुई हैं और क्या बाद में उन्हें आप अजायबघर में बन्द नहीं कर आए हैं?
भूतनाथ की यह बात सुन एक बार तो दारोगा के चेहरे का रंग उड़ गया मगर उसने तुरन्त अपने को सम्हाला और कहा, ‘‘हरगिज नहीं—यह बिल्कुल गलत बात है! अगर तुमसे किसी ने कहा तो फरेब किया और मुझ पर झूठा ऐब लगाया है। यह बिल्कुल गलत बात है—मैं दामोदरसिंह के बारे में कुछ भी नहीं जानता।’’
भूत० : (गुस्से से) आपने पुनः झूठ बोलने पर कमर बांध ली, मैं कहता हूँ और जोर देकर कहता हूँ कि दामोदरसिंह जीते हैं और आपकी ही कैद में हैं। मुझे झूठी खबर नहीं लगी है बल्कि जिसने मुझसे कहा है उसने अपनी आँखों से उन्हें देखा है और उससे खुद उन्होंने बयान किया कि वे आपके मकान में कैद थे और अब आपने उन्हें अजायबघर में बन्द कर रक्खा है।
दारोगा : (गुस्से का चेहरा बना कर) बिल्कुल झूठी बात है! किसने तुमसे यह बात कही है!
भूत० : (जोश से) मुझे खास इन्द्रदेव ने यह बात कही और वे खुद उनसे मिल चुके हैं?
दारोगा : (तेजी से) इन्द्रदेव झूठे हैं और झख मारते हैं जो ऐसी गलत बात कहते हैं और इतना झूठा ऐब मुझ पर लगाते हैं। वे कभी इस बात को साबित नहीं कर सकते। मैं अपने साथ उनको और तुम्हें दोनों ही को अजायबघर में ले चलने को तैयार हूँ, वे भला मुझे दामोदरसिंह की सूरत दिखला तो दें!
भूत० : (ताज्जुब से) इन्द्रदेव और झूठ कहते हैं! आपको अपनी जुबान पर यह लाने की हिम्मत है?
दारोगा : हाँ है और हजार बार है! अब मैं समझ गया कि यह सब पापड़ इन्द्रदेव ही बेले हुए हैं और समझा-बुझा कर तुम्हें मेरे पास भेजा है और वे मुझे बरबाद करने पर लगे हैं। लो अब जब तुमने यह परदाफाश कर ही दिया है तो मैं भी तुम्हें सुनाता हूँ। ध्यान से सुनो और अपने नायब दोस्त की सच्चाई देखो।
इन्द्रदेव ने मशहूर कर रक्खा है न कि दयाराम को तुमने मारा है! नहीं, मुझ पर टेढ़ी आँखें न फेरो! ऐसे समय जोश में आकर मैं भी वे बातें कह रहा हूँ जो मुझे कहनी नहीं चाहिए और जिनके लिए शायद आगे कभी पछताना पड़ेगा, मगर कोई परवाह नहीं, जब इन्द्रदेव मुझे बदनाम करने पर उतारू हो गए हैं तो मैं भी उनका कच्चा चिट्ठा तुम्हारे आगे खोल देता हूँ, लो अच्छी तरह कान खोल कर सुन लो—मगर दयाराम को न तुम ने मारा है न मैंने—उन्हें खास इन्द्रदेव ने ही बन्द कर रक्खा है और अपना काम निकल जाने पर वे ही मार डालेंगे। अगर तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो तो चलो मैं आज और अभी तुम्हें ले चल कर दयाराम को जीता-जागता और खास इन्द्रदेव के मकान में बन्द दिखा सकता हूँ।
दारोगा की यह बात जो उसने बड़े ही जोश के साथ कही, सुन कर भूतनाथ ताज्जुब में पड़ गया। दारोगा के ढंग से सच्चाई की बू आती थी और उसकी आकृति से दृढ़ता प्रकट होती थी मगर उसकी यह बात विश्वास करने लायक भी नहीं थीं। आखिर भूतनाथ ने कहा—
भूत० : क्या आप दयाराम को जीता-जागता मुझे दिखा सकते हैं?
दारोगा : हाँ जी हाँ, जीता-जागता और खास इन्द्रदेव के मकान के अन्दर बन्द! जिस तरह चूहा जब लाचार होता है तो बिल्ली पर हमला करता है उसी तरह आज मैं लाचार हो इन्द्रदेव का मुकाबला करने पर मजबूर हुआ हूँ। मैं खूब जानता हूं कि मेरी यह बात सुन कर वे मुझे जीता न छोड़ेंगे पर खैर जो कुछ होगा झेलूँगा और साथ ही यह भी विश्वास रक्खूँगा कि अगर तुममें कुछ भी मर्दानगी है तो तुम इन्द्रदेव के वार से मुझे बचाओगे।
भूत० : हाँ हाँ, अगर आपने अपनी बात पूरी की और जीते-जागते दयाराम को मुझे दिखा दिया तो मैं इन्द्रदेव तो क्या सारी दुनिया भी अगर आपके बर्खिलाफ हो जाय तो भी आप का साथ दूँगा। मगर आप फिर सोच लीजिए। बात आप बड़े ताज्जुब की कर रहे हैं और अगर यह झूठी निकली तो सबसे पहिले तो मैं ही आपसे इसका बदला लूँगा।
दारोगा : हाँ हाँ खुशी से, तुम अपने हाथ से मेरा सर काट लेना, मुझे जरा अफसोस न होगा। मगर तुम इतने ही में घबड़ा गए! मैं इन्द्रदेव की बदनीयती के और कितने ही सबूत दे सकता हूँ। अच्छा तुम्हीं बताओ अभी तक तुम यही न समझ रहे हो कि पिछली दफे जमना और सरस्वती तुम्हारे हाथों मारी गई हैं?
भूत० : (सिर नीचा करके) हाँ।
दारोगा : मगर मैं साबित कर सकता हूँ कि यह भी इन्द्रदेव की महज एक चालबाजी है जो तुम पर झूठे ऐब लगा सारे जमाने के आगे तुम्हारा मुँह काला किये दे रहे हैं! अगर तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ चलो, मैं इन्द्रदेव ही के मकान में जमना और सरस्वती को भी जीती-जागती दिखा दूँगा।
भूत० : (ताज्जुब और खुशी से) क्या आप सच कह रहे हैं!
दारोगा : हाँ जी हाँ, सच कह रहा हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ इसी दम उसका सबूत देने को तैयार हूँ।
भूत० : आप जीते-जागते दयाराम और जमना तथा सरस्वती को मुझे दिखायेंगे!
दारोगा : हाँ, मगर एक शर्त पर।
भूत० : क्या?
दारोगा : यही कि दिखा देने के बाद मेरी जान बचाये रखना तुम्हारा काम होगा! इन्द्रदेव जरूर मेरा जानी दुश्मन हो जायेगा और मुझे कदापि जीता न छोड़ेगा।
भूत० : (जोश के साथ) मैं कसम खाकर कहता हूँ कि अगर आप अपनी बात पूरी करके दिखा देंगे तो मैं आपका बाल भी बांका न होने दूँगा और जिन्दगी भर आपको अपना बड़ा भाई मानूँगा।
दारोगा : तो मैं भी कसम खाकर कहता हूँ कि बीमारी से अच्छा होने और चलने-फिरने के लायक होने के साथ ही मैं अपना वादा पूरा करूँगा और दयाराम, जमना तथा सरस्वती को जीता-जागता तुम्हें दिखा देने के बाद तुमसे कहूँगा कि अब इन्द्रदेव को लेकर मेरे साथ अयाजबघर में ले चलो और दामोदरसिंह को मुझे दिखाओ!
भूत० : अच्छी बात है, मैं एक पखवाड़े बाद आप से मिलूँगा। (कुछ रुक कर) खैर यह बात तय हो गई, अब और जो कुछ मैंने कहा है सो पूरा कर दें।
दारोगा : वह क्या?
भूत० :वही एकरारनामा और बीस हजार अशर्फी!
दारोगा : तुम्हारे लिए मैं इतना भयानक काम करने पर उतारू हो गया कि इन्द्रदेव को जानी दुश्मन बना रहा हूँ, फिर भी तुम मुझे माफ न करोगे।
भूत० : देखिए दारोगा साहब, सच बात तो यह कि मुझे आप पर विश्वास नहीं होता।
मुझे जब तक कि मैं अपनी आँखों से देख न लूँगा—उन लोगों के जीते रहने का विश्वास न होगा। फिर, जमना और सरस्वती के जीते रहने या न रहने में मेरा निजी स्वार्थ है, गोपालसिंह, रणधीरसिंह, बलभद्रसिंह या इन्द्रदेव को उससे कोई मतलब नहीं जिन्हें मैं तब तक अपना सच्चा दोस्त ही मानता रहूँगा जब तक कि आप अपना कहना पूरा नहीं कर दिखाते।
दारोगा : खैर जो तुम्हारी मर्जी—मगर यह तो कहो कि अगर मैं एकरारनामा लिख दूँगा और बीस हजार अशर्फी भी तुम्हें दे दूँगा तो तुम मेरा भेद तो छिपाये रहोगे और वह कमलदान मुझे वापस तो कर दोगे?
भूत० : हाँ हाँ जरूर।
दारोगा : अच्छी बात है तो मुझे तुम तीन दिन की मोहलत दो, इस बीच मैं दोनों का इन्तजाम कर लूँगा।
भूत० : कोई हर्ज नहीं, मैं तीन दिन की मोहलत आपको देता हूँ परन्तु इसके अलावे एक छोटी तकलीफ मैं और आपको दूँगा।
दारोगा : कहिए, मैं आपका सब हुक्म बजा लाने को तैयार हूँ।
भूत० : अजायबघर से लगभग दो कोस के फासले पर एक तिलिस्मी कूआँ है।
दारोगा : (चौंक कर) हाँ है तो सही!
भूत० : मेरा एक दोस्त उसमें बन्द है, और मुझे पता लगा है कि उस कूएँ का भेद आपको मालूम है बल्कि आपके पास कोई किताब है जिसमें वहाँ का बिल्कुल हाल दर्ज है।
दारोगा : बेशक है—मगर आपको यह बात क्योंकर मालूम हुई?
भूत० : किसी तरह भी हुई हो, मगर मैं वह किताब चाहता हूँ।
दारोगा : मैं खुशी से देने को तैयार हूँ बल्कि उसके विषय में और भी कई बातें ऐसी आपसे कह सकता हूँ कि सुन कर आपको ताज्जुब होगा।
दारोगा और भूतनाथ में धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं।
सुबह की सफेदी आसमान पर अच्छी तरह फैल चुकी थी जब भूतनाथ दारोगा के मकान के बाहर निकला। इस समय वह बहुत खुश था और उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे कोई ऐसी अलभ्य वस्तु मिल गई है जिसके पाने की उसे कोई आशा न थी, वह लम्बे डग भरता हुआ पूरब की तरफ रवाना हुआ।
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