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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


दारोगा को गहरे धोखे में डाल प्रभाकरसिंह सर्यू को छुड़ा लाये और उसी के रथ पर सवार हो कहीं चल दिये। पाठक समझते होंगे कि प्रभाकरसिंह सर्यू को लिए सीधे इन्द्रदेव के डेरे पर जाँयगे। मगर नहीं, इन्द्रदेव ने उन्हें विदा करते समय इस बारे में खास हिदायत कर दी थी और कब क्या करना होगा यह अच्छी तरह समझा दिया था अस्तु रथ पर बैठते ही साधू बने हुए प्रभाकरसिंह ने बहलवान को रथ शहर से बाहर ले चलने को कहा और आप चारों तरफ से पर्दा गिरा उसके अन्दर हो गए।

वहाँ बहुत गुप्त रीति से सर्यू को अपना परिचय देने के बाद उन्होंने संक्षेप में सब हाल सुना दिया और यह भी कह दिया कि इन्द्रदेव का कहना है कि जमानिया में दुश्मनों के जाल बेतरह फैले हुए हैं अस्तु सर्यू को छुड़ा कर तुम सीधे तिलिस्मी घाटी में चले जाना और उसे वहाँ छोड़ कर जब वापस आना तब मुझसे मिलना। इसके लिए कई खास इन्तजाम भी वे कर चुके है,’’ सर्यू को ये बातें जान सन्तोष हो गया और बहलवान को किसी प्रकार का संदेह न हो जाय इसका खयाल कर प्रभाकरसिंह ने भी इस समय उससे विशेष बातें करना उचित न जाना।

शहर के बाहर होते ही प्रभाकरसिंह ने रथ रोकवाया और सर्यू को लेकर रथ से नीचे उतर पड़े। रथवान से रथ वापस ले जाने को कहा और जब तक वह आँखों के ओट न हो गया तब तक वहीं खड़े रहे। इसके बाद उन्होंने जेब से सीटी निकाल कर बजाई जिसकी आवाज सुनते ही पेड़ों की आड़ में छिपा हुआ एक आदमी बाहर निकल आया और उन्हें सलाम कर खड़ा हो गया। प्रभाकरसिंह ने पूछा,‘‘रथ तैयार है?’’ जिसके जवाब में वह बोला, ‘‘जी हाँ, यहाँ से कुछ ही दूर पर है। हुक्म हो तो ले आऊँ।’’ प्रभाकरसिंह ने रथ लाने की आज्ञा दी और वह आदमी वहाँ से चला गया।

थोड़ी ही देर में दो मजबूत घोड़ों का एक हल्का रथ जिसे चार सवार घेरे हुए थे वहाँ आ पहुँचा, साथ-साथ वह आदमी था। प्रभाकरसिंह ने सर्यू को रथ पर सवार कराया और आप भी बैठ गये। उस आदमी ने पूछा। ‘‘मुझे क्या आज्ञा होती है?’’ जिसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘तुम घर चले जाओ और इन्द्रदेवजी को खबर कर दो कि सब काम ठीक हो गया और हम लोग तिलिस्मी घाटी की ओर जा रहे है।’’ वह ‘बहुत खूब’ कह सलाम कर वहाँ से हट गया और आज्ञा पाते ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ। चारों सवार साथ-साथ जाने लगे। इस समय रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी।

कैद की मुसीबतों ने सर्यू को बहुत ही कमजोर कर दिया था। कपड़े तथा बिछावन का पूरा इन्तजाम रथ में होने के कारण प्रभाकरसिंह ने उसे लेटा दिया और तब आप भी एक तरफ उठंग गये। रात की ठंडी हवा आलस्य पैदा कर रही थी अस्तु थोड़ी देर बाद कमजोर सर्यू तो नींद में गाफिल हो गई और प्रभाकरसिंह को भी झपकी आने लगी। रथ के यकायक रुक जाने से प्रभाकरसिंह को जिस समय चैतन्यता हुई उस समय यह देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि रथ एक सुनसान मैदान में खड़ा है और सिवाय हाँकने वाले के और किसी का भी वहाँ पता नहीं है। उन्होंने चौंक कर पूछा। ‘‘यह क्या मामला है-रथ रुका क्यों है और हमारे सवार कहाँ है?’’ रथवान बोला, ‘‘कई सवारों द्वारा पीछा किये जाने की आहट पा सवार जाँच करने के लिए गए मगर देर हो जाने पर भी अभी तक वापस नहीं लौंटे।’’ यह सुनते ही प्रभाकरसिंह को ताज्जुब हुआ। वे कूद कर रथ के नीचे आ गए। और चारों तरफ गौर से देखने के बाद बोले, ‘वे लोग किधर गए हैं?’’ बहलवान ने पीछे की तरफ इशारा किया और कहा,‘‘ उधर ही से आहट आई थी और उधर ही हमारे सवार गए हैं।’’

बहुत देर तक प्रभाकरसिंह गौर से चारों तरफ देखते और सुनते रहे पर न तो उन्हें अपने सवार ही कहीं दिखाई दिए और न किसी प्रकार की आहट ही मिली। आखिर वे पुनः रथ पर सवार हो गए और हाँकने वाले से बोले, ‘‘तुम रथ बढ़ाओ, वे लोग आते रहेंगे।’’ हुक्म पा उसने घोड़ो पर चाबुक लगाई और रथ पुनः तेजी से जाने लगा।

घड़ी भर तक के जाने बाद हाँकने वाले ने पुनः बाग कड़ी की और घूम कर प्रभाकरसिंह से कहा, ‘‘सामने की तरफ कई सवार दिखाई पड़ रहे हैं, मुमकिन है कि हमारे दुश्मन हों।’’

यह सुन प्रभाकरसिंह तरद्दुद में पड़ गए। वे स्वयं तो बहुत ही वीर और हिम्मतवर थे मगर इस समय कमजोर सर्यू को साथ लेकर किसी तरह के खतरे में पड़ना उन्हें मंजूर न था अस्तु कुछ सोच विचार कर बोले, ‘‘रथ बाईं तरफ मोड़ो और वह जो टीला दिखाई पड़ता है उसके पास चलो।’’जिस टीले की तरफ उनका इशारा था वह वही था जिस पर लोहगढ़ी की इमारत थी और वह यहाँ से बहुत ज्यादा दूर भी न था। बमूजिब हुक्म रथवान ने घोड़ों को उधर ही मोड़ा और सड़क छोड़ जंगल का रास्ता लिया, उस समय प्रभाकरसिंह ने देखा कि वे सवार जिनके दिखलाई पड़ने की वजह से उन्हें रास्ता छोड़ना पड़ा था अपनी जगह ही रुक गए हैं बल्कि मालूम होता है आपस में कुछ सलाह कर रहे हैं।

तेजी से चल कर रथ शीघ्र ही टीले के नीचे आ पहुँचा। जिधर से ऊपर चढ़ने का रास्ता था वहाँ पहुँच कर प्रभाकरसिंह ने रथ को रुकवाया और सर्यू से जो आहट पाकर और किसी मुसीबत का ख्याल करके उठ बैठी थी। बोले, ‘‘मासी, मुझे दुश्मनों का कुछ संदेह हो रहा है।

हमारे सवार जो साथ थे न जाने कहाँ चले गए है और अकेले इतना लम्बा रास्ता तय करना मुझे इस रात के समय उचित नहीं मालूम होता इसलिए मैं चाहता हूँ कि कुछ देर तक आपको (ऊपर की तरफ उँगली उठा कर) उस मकान में बैठा दूँ और अपने सवारों के आ जाने पर या सब तरह का सन्देह दूर होने पर यह सफर शुरू करूँ!’’ बेचारी सर्यू यह सुनते ही तुरत तैयार हो गई और प्रभाकरसिंह ने अपने हाथ का सहारा दे उसे नीचे उतारा तथा कुछ जरूरी सामान साथ में ले टीले पर चढ़े। रथवान से कहते गए, ‘‘रथ कहीं आड़ में खड़ा कर दो और जरा टोह लो कि वे लोग कौन हैं या हमारे सवार कहाँ चले गये।’’

लोहगढ़ी की इस विचित्र इमारत में पाठक कई बार हमारे साथ आ चुके हैं अस्तु इस जगह इसके बारे में कुछ लिखने की जरूरत नहीं है, सर्यू को लिए हुए प्रभाकरसिंह उस टीले पर चढ़ सीधे लोहगढ़ी के अन्दर चले गए और उनका रथवान उनकी आज्ञानुसार रथ को पेड़ों की एक झुरमुट में छिपाने के बाद इस बात की टोह लेने निकला कि उसके साथ वाले सवार कहाँ चले गए।

रथवान के जाने के कुछ ही देर बाद एक आदमी जो न जाने कहाँ छिपा हुआ था उस जगह आ मौजूद हुआ। पहिले तो उसने घूम-घूम कर चारों तरफ देखा और जब किसी को न पाया तो वह रथ के पास पहुँचा और उसे ले वहीं आ गया जहाँ रथ से उतर कर प्रभाकरसिंह सर्यू के साथ टीले पर चढ़ गए थे। थोड़ी देर बाद चार सवार भी उस जगह आ पहुँचे जिन्होंने इस नये आदमी से ऐयारी भाषा में कुछ बातें कीं और तब कायदे के साथ रथ के पीछे इस प्रकार खड़े हो गए मानों मालिक के आने का इन्तजार कर रहे हों।

लगभग एक घंटा बीत गया पर न तो प्रभाकरसिंह ही लोहगढ़ी के बाहर निकले और न उनका असली रथवान ही जो अपने साथियों को खोजने निकला था वापस लौटा। रथ के पीछे खड़े सिपाहियों में यह देख धीरे-धीरे कानाफूसी होने लगी, अन्त में उनमें से एक जो सभों का सरदार मालूम होता था आगे बढ़कर रथवान के पास पहुँचा और ऐयारी भाषा में उससे बोला, ‘‘मालूम होता है हम लोगों की मेहनत बेकार हो गई। न तो साधू महाराज ही लौटते दिखाई पड़ते है और न सर्यू का ही वापस आना सम्भव मालूम होता है।

फजूल ही इतना लड़े-झगड़े, उन सिपाहियों को कैद किया और इतनी दूर तक रथ का पीछा कर चले आये।’’

रथवान बने हुए आदमी ने यह सुन जवाब दिया, ‘‘ताज्जुब तो यह है कि वह रथवान भी अभी तक नहीं लौटा जो अपने साथियों की टोह लेने निकला था। न मालूम क्या मामला है!’’

दोनों में पुनः कुछ देर तक इसी तरह की बातें होती रही। आखिर रथवान यह कर रथ से उतरा--‘‘तुम जरा घोड़ों को देखते रहो मैं टीले पर जाकर देखूँ शायद कुछ पता लगे,’’ और लपकता हुआ टीले पर चढ़ गया। अभी वह इमारत से कुछ दूर ही था कि सामने से आते हुए वे ही बाबाजी (प्रभाकरसिंह) दिखाई पड़े जो उसे देखते ही बोले, ‘‘क्यों महाबीर, तुमने कुछ पता लगाया! और हमारे सवार वापस लौटे या नहीं?’’

नकली महाबीर ने जवाब दिया, ‘‘जी हाँ, वे लौट आये मगर जिनका पीछा उन्होंने किया था वे भाग निकले और कोई हाथ न आया, इन लोगों ने भी कोई विशेष चेष्टा न की, रथ तैयार है--हुक्म हो तो ले आऊँ।’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘हाँ ले आओ, मगर यह तो बताओ अब समय क्या होगा?’’

यह एक बँधा हुआ इशारा था जिसे प्रभाकरसिंह ने संदेह के मौके के लिए मुकर्रर कर रखा था। उनका असली रथवान इसके जवाब में एक खास शब्द कहता मगर नकली महावीर को क्या खबर थी, इसने मामूली तौर पर जवाब दे दिया, ‘‘अब पौ फटने ही वाली है।’’

इस जवाब ने प्रभाकरसिंह को होशियार कर दिया, उन्होंने संदेह की एक बारीक निगाह महाबीर पर डाली और तब कहा, ‘‘अच्छा तुम रथ टीले के पास लाओ मैं अभी आता हूँ।’’ नकली महाबीर ‘‘जो हुक्म’’ कह लौट गया और प्रभाकरसिंह कुछ सोचते हुए लोहगढ़ी की तरफ घूमें।

अभी वे दस ही पंद्रह कदम गए होगे कि उन्हें किसी की आहट लगी और घूम कर देखते ही उन्होंने पुनः महावीर को अपनी तरफ आते देखा जिससे वे रुक गए। महाबीर दौड़ता हुआ पास आया और हाथ जोड़कर बोला, ‘‘मैं आपका खिदमतदार महाबीर हूँ। परिचय के लिए मैं ‘मनचला’ कहता हूँ जो आप ही ने बताया था।

अभी-अभी जो आदमी आपसे बातें कर गया है वह मेरी ही सूरत-शक्ल का होने पर भी कोई दुश्मन है और रथ के साथ वाले चारों सवार भी हमारे नहीं हैं।’’

प्रभा० : हाँ, यह तो मुझे भी मालूम हो गया मगर यह बताओ कि तुम इतनी देर तक थे कहाँ और हमारे सवार कहाँ रह गए?

महा० : सवारों की तो मुझे खबर नहीं पर मैं आपकी आज्ञानुसार रथ को छिपा कर जब उनका पता लगाने चला तो कुछ दूर पेड़ों की झुरमुट में मुझे वे ही चारों सिपाही दिखाई पड़े जो इस समय रथ के पास हैं। पहिले तो मुझे ख्याल हुआ कि वे हमारे ही आदमी हैं क्योंकि उनकी पोशाक वगैरह ठीक वैसी ही और सूरतें भी बहुत कुछ मिलती थीं मगर मुझे कुछ सन्देह हो गया और मैं बातें सुनने की नीयत से छिप कर उनके पास पहुँचा, उनकी बातचीत से पता लगा कि वे आपको और बहूजी (सर्यू) को गिरफ्तार करने की धुन में हैं अस्तु मैं होशियार हो गया और...

प्रभा० : कुछ यह भी पता लगा कि वे किसके आदमी हैं!

महा० : नहीं, मगर बातचीत में एक बार महाराज शिवदत्त का नाम जरूर आया था।

प्रभा० : (कुछ सोचने के बाद) अच्छा तब!

महा० : कुछ देर तक बातचीत करने के बाद वे चारों वहाँ से हटे और उस जगह आये जहाँ आप रथ से उतरे थे, वही आदमी जो अभी-अभी आपसे मेरी सूरत बन कर बातें कर गया है रथ लिए यहाँ मौजूद था। उन सवारों ने उससे कुछ बातें की और तब रथ के पीछे खड़े हो गये।

मैं इस फिक्र में हुआ कि कहीं आप धोखे में उस रथ पर सवार हो दुष्टों के फन्दे में न फँस जाएँ अस्तु यहाँ आकर आपको होशियार करना चाहा पर आप शायद गढ़ी के अन्दर थे इसलिए आपका कुछ पता न लगा, तब यह सोच उस झाड़ी में जा बैठा कि आखिर आप कभी तो बाहर आवेगें, तभी होशियार करूँगा। जब उस नकली महाबीर से आपको बातें करते देखा तो बहुत घबराहट हुई और इधर आ गया, अब जो आप आज्ञा दें सो करूँ।

प्रभाकरसिंह कुछ देर खड़े सोचते रहे कि अब क्या करना चाहिये। बहुत जल्दी ही उन्होंने इसका निश्चय कर लिया और तब महावीर को लिये हुए लोहगढ़ी के पिछली तरफ चले गये।

आधी घड़ी के बाद साधू बने हुए प्रभाकरसिंह टीले के नीचे उतर कर उस जगह पहुँचे जहाँ उनका रथ खड़ा था। रथवान उन्हें देख रथ के नीचे उतर आया और सवारों ने भी सलाम किया। प्रभाकरसिंह रथ के अन्दर जा कर बैठ गए और बोले, ‘‘चलो,’’ उन्हें अकेले देख नकली रथवान ने डरते-डरते पूछा। ‘‘क्या और कोई आपके साथ न चलेगा?’’

जवाब में प्रभाकरसिंह ने सिर हिला दिया और कुछ अधिक पूछने की हिम्मत न कर महाबीर ने रथ हाँक दिया। चारों सवार पीछे-पीछे जाने लगे।

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