मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 5 भूतनाथ - खण्ड 5देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण
।। चौदहवाँ भाग ।।
पहिला बयान
भूतनाथ ने सोचा था कि पहिले की तरह इस बार भी वह कूएँ में बहुत थोड़ा ही पानी पायेगा मगर उसका यह खयाल गलत निकला। कूएँ के अन्दर उतरते ही उसे मालूम हो गया कि इस समय इसमें अथाह पानी है। यह जान कर एक बार तो घबड़ा गया मगर तुरन्त ही उसने होश-हवास दुरुस्त किए और पानी की हालत पर गौर कर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।
चन्द्रमा की किरणें आड़ी होकर जल के पास तक पहुँच रही थीं जिससे वहाँ का अंधकार कुछ कम हो रहा था। इसी मद्विम रोशनी में भूतनाथ चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखने लगा कि किसी जगह कोई कड़ा या कुण्डा या आला दिखाई पड़ जाय तो वह उसके सहारे रुके और तब सोचे कि क्या करना उचित होगा। सब तरफ घूमती हुई उसकी निगाह लोहे के एक मोटे कुण्डे की तरफ गई जो जल से लगभग हाथ भर की ऊँचाई पर दीवार में गड़ा हुआ था।
भूतनाथ इसके पास पहुँचा और कुण्डा पकड़ कर सुस्ताने लगा। उसी समय ऊपर की तरफ देखने से उसे यह भी मालूम हुआ था कि हाथ-हाथ डेढ़-डेढ़ हाथ के फासले पर ऐसे ही कुण्डे बराबर लगे हुए हैं और अगर वह चाहे तो उनकी मदद से कूँए के बाहर निकल जा सकता है। यह जान उसे कुछ धीरज हुआ और वह इस लायक हुआ कि अब क्या करना चाहिए, इसे सोच सके।
भूतनाथ का खयाल था कि वह इस जगह या तो कैदी श्यामा को देखेगा अथवा उस गठरी को पावेगा जो उन आदमियों ने कुछ देर पहिले इस कूएँ में फेंकी थी पर वह सब कुछ भी न देख बल्कि कूएँ की हालत को बिल्कुल ही बदली हुई पा उसे ताज्जुब था।
उसे विश्वास हो गया कि जरूर यह कूँआ तिलिस्मी है और इसकी यह हालत किसी भेद से सम्बन्ध रखती है। वह सोचने लगा कि यह भेद क्या हो सकता है? कूएँ के अंदर कूदने के पहिले फुर्ती-फुर्ती उसने उस तिलिस्मी किताब के दो चार पृष्ठ पढ़े थे जो वह दारोगा से मांग लाया था और जो कुछ पढ़ा था वह उसे याद भी था। अस्तु वह उसी के मुताबिक कार्रवाई करने लगा।
चन्द्रमा तेजी के साथ हट रहे थे और कूएँ में पड़ती हुई उसकी रोशनी कुछ ही पलों की मेहमान थी अस्तु भूतनाथ ने सोच-विचार में समय नष्ट करना मुनासिब न समझा। जिस कुँडे को यह थामे हुए था उसके ठीक सामने उसने निगाह की और गौर करने से जल से कोई दो हाथ की ऊंचाई पर दीवार में बनी यह एक मूरत देखी। कुंडा छोड़ भूतनाथ तैरता हुआ उस मूरत के नीचे पहुँचा और यह कोशिश करने लगा कि उछल कर उस मूरत को छूए, पर यह कुछ आसान बात न थी। चारों तरफ की दीवारें एकदम चिकनी थीं जिनसे किसी तरह का सहारा मिलना असम्भव था और मूरत की ऊंचाई इतनी कम न थी कि जल में तैरता हुआ कोई आदमी साधारण रीति से छू सके। भूतनाथ पुन: उछल-उछल कर उसे पकड़ने की चेष्टा करने लगा।
यकायक पास ही कहीं शंख के बजने की आवाज ने भूतनाथ का ध्यान बँटा दिया और वह रुक कर गौर करने लगा कि यह आवाज कहाँ से आई परन्तु कुछ समझ में न आया। मगर इसके साथ ही यह देख भूतनाथ को ताज्जुब और घबराहट हुई कि कूएँ का जल तेजी के साथ घट रहा है।
उसने मूरत को पकड़ने का ख्याल छोड़ दिया और पुन: तैर कर उस कुँडे के पास आया जिसे पहिले पकड़े हुए था अफसोस वह उस कुंडे को भी छू न सका क्योंकि इस बीच में जल हाथ-डेढ़ हाथ के करीब कम हो गया था और वह कुंडा भी अब भूतनाथ की पहुँच के बाहर हो रहा था। अब भूतनाथ की घबड़ाहट बढ़ गई और उसके मुँह से निकला—‘‘व्यर्थ इस जंजाल में आ फंसे!’’ उसी समय मानों भूतनाथ की बचीखुची आशा को भी भंग करने की नीयत से चन्द्रमा एक काले बादल के टुकड़े के पीछे हो गया और कूएँ में घोर अंधकार छा गया।
यकायक जल में खलखलाहट होने लगी और ऐसा जान पड़ा मानों उसका पानी किसी तरफ को निकला जा रहा हो क्योंकि जल में एक तरह का खिंचाव-सा पैदा हो गया था। भूतनाथ ने बहुत जोर मारा मगर वह बच न सका और अन्त में खुद भी खिंचाव में पड़ कर एक तरफ को बह चला। अंधेरे में अंदाज ही से मालूम हुआ कि वह किसी सुरंग के अन्दर घुस रहा है जो कूएँ के बगली दीवार में यकायक खुल गई है और यह जान उसकी बेचैनी और घबराहट इस कदर बढ़ी कि वह एक तरह बदहवास-सा हो गया।
जब भूतनाथ के होश दुरूस्त हुए उसने अपने को कुछ-कुछ कूएँ जैसे एक ऐसे स्थान में पाया जिसके चारों तरफ ऊँची दीवारें और बीच में आसमान नजर आ रहा था। बगल में छोटे नाले के रूप की पक्की और बड़ी नाली दिखाई पड़ रही थी और सामने की तरफ दीवार में शायद पानी के निकल जाने के ही लिए रास्ता बना हुआ था मगर लोहे के मोटे छड़ों की जाली लगी रहने के ही लिए रास्ते से किसी आदमी का आना या निकल जाना असम्भव था।
चारों तरफ की दीवारें भी इतनी ऊँची थीं कि उनको लांघ कर पार हो जाना भी कठिन था। भूतनाथ को गुमान हुआ कि अगर उसके पास कमन्द होगा तो उसके जरिये वह उन दीवारों को लांघ सकता था मगर अफसोस अपनी कमन्द तो वह कूएँ के खंभे से ही बँधी छोड़ आया था।
होश में आते ही पहिले तो भूतनाथ ने अपने बटुए और हथियारों को टटोला और सब कुछ दुरूस्त पाकर अपने गीले कपड़े उतार दिये। उसके बटुए में एक रोगनी कपड़े का टुकड़ा मौजूद था जिस पर पानी का असर नहीं होता था, उसे निकाल कर पहिन लिया और कपड़ा निचोड़ कर सूखने को फैला देने के बाद वह इस फिक्र में पड़ा कि देखें इस विचित्र स्थान के बाहर जाने की क्या तरकीब निकल सकती है।
आसमान की तरफ निगाह करने से उसे मालूम हो गया कि कूएँ में कूदने और बेहोश होकर इस जगह तक जाने के बीच में ज्यादे देर नहीं हुई है क्योंकि चन्द्रदेव अभी तक आकाश में विराजते हुए उस स्थान को उजाला किये हुए थे।
भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और चारों तरफ घूम-घूम कर देखने लगा। सब तरफ ऊँची संगीन दीवारें थीं जिनके बीचोंबीच वह पत्थर का फर्श था जिस पर उसने अपने को पाया था। बस सिवाय इसके और उन नालियों को छोड़ के जिनका हाल हम ऊपर लिख आये हैं, उस स्थान में और कुछ भी न था, न तो कहीं कोई दरवाजा था, न खिड़की, न आला। न मोखा।
अच्छी तरह गौर से सब तरफ देखने बल्कि दीवारों को भी खंजर के कब्जे से ठोंक कर जाँच लेने के बाद भूतनाथ को निश्चय हो गया कि इस जगह से निकल जाने के लिए सिवाय कमन्द के और कोई रास्ता नहीं हो सकता। वह अपने छूटने से निराश हो गया और एक जगह बैठ गया।
परन्तु इस तरह बेकार बैठना भी उसे भला न मालूम हुआ। थोड़ी देर बाद उठा और बटुए में से सामान निकाल उसने रोशनी की, इसके बाद वह किताब निकाली जो श्यामा को छुड़ाने की नीयत से वह दारोगा से मांग लाया था और उसे पढ़ कर देखने लगा कि उसमें इस स्थान का कोई जिक्र या इसके बाहर होने की तरकीब लिखी है या नहीं, मगर समूची पुस्तक पढ़ जाने पर भी उसे इस बात का कोई पता न लगा कि यह कौन-सी जगह है और रोशनी बुझा सिर पर हाथ रख बैठ गया।
धीरे-धीरे रात बीत गई और सुबह की सुफेदी चारों तरफ फैलने लगी। पल पल पर भूतनाथ की घबराहट बढ़ती जाती थी। बार-बार वह उठ कर चारों तरफ घूमता था। कभी दीवारों को ठोंकता, कभी जमीन पर पैर पटकता, कभी उस जंगले को देखता जिसकी राह नाली का पानी आता था और कभी ऊपर की ओर निगाह फेरता, मगर किसी से कुछ फायदा न होता था। आखिर थक कर और बिल्कुल ही लाचार होकर वह एक जगह बैठ गया और उसके मुँह से निकला,‘‘बस हुआ। अब मेरी जिन्दगी इसी तरह बीतेगी। मालूम नहीं कुछ दाना-पानी भी मुझे मिलेगा या भूखे-प्यासे ही जान देना पड़ेगा।’’
यकायक भूतनाथ के कानों में किसी तरह की आवाज आई। वह चैतन्य हो गया और साथ ही उसके मन में कुछ आशा का संचार हुआ। वह उठ कर चारों तरफ देखने लगा और ऊपर की तरफ नजर घुमाते ही उसकी निगाह एक वृद्ध साधू पर पड़ी जो दीवार के बाहर सर निकाले नीचे की तरफ देख रहा था।
हम नहीं कह सकते कि भूतनाथ उस साधू को पहिचानता था या क्या बात थी पर उसे देखते ही उसने हाथ जोड़े और बड़ी नम्रता से बोला, ‘‘मुझसे क्या अपराध हुआ जो इस जगह कैद किया गया हूँ?’’
साधू ने जवाब दिया, ‘‘तुम्हें कैद करने वाला मैं नहीं हूँ बल्कि कोई और ही है।’’
भूत० : यदि ऐसी बात है तो कृपा कर मुझे यहाँ से छुटकारा दिलाइये।
साधू : सो भी मैं नहीं कर सकता। जिस जगह तुम हो वह एक तिलिस्मी कैदखाना है और वहाँ से निकलना सहज नहीं है।
भूत० : मेरी कमन्द ऊपर ही छूट गई है नहीं तो मैं सहज ही में इस जगह से निकल जाता। अगर आप कृपा कर एक कमन्द मुझे दे सकें तो मैं अभी बाहर निकल जा सकता हूँ।
साधू : (हंस कर) नहीं, तुम्हारा खयाल गलत है। कमन्द तुम्हें इस जगह के बाहर नहीं कर सकती और न मेरे पास मौजूद ही है जो मैं तुम्हें दूँ
भूत० : तब क्या मैं किसी तरह कैद से छुटकारा नहीं पा सकता?
साधू : सिर्फ एक तर्कीब हो सकती है, अगर...
बात करते समय साधू महाराज इस तरह पर रुक गए मानों उन्हें अपने पीछे कोई आहट लगी हो। उन्होंने सिर घुमा कर देखा और तुरत ही उनके चेहरे पर घबराहट के चिह्न दिखाई देने लगे। उन्होंने हाथ के इशारे से भूतनाथ को ठहरने और चुप रहने को कहा और तुरंत ही वहाँ से हट कर कहीं चले गए भूतनाथ उनके लौट आने की राह देखता चुप हो रहा।
यकायक पुनः शंख बजने की आवाज हुई। वह चौकन्ना हो गया और इसके साथ ही उसने पूरब तरफ की दीवार पर जमीन से पाँच-छः हाथ की ऊँचाई पर एक पत्थर की पटिया को पीछे हटते और उस जगह एक दरवाजा पैदा होते देखा। वह ताज्जुब के साथ उधर देखने और साथ ही यह भी सोचने लगा कि इस खिड़की तक पहुँचने की अगर कोई सूरत निकल आवे तो शायद इस जगह से बाहर निकल जा सके। यकायक उस खिड़की या दरवाजे के अन्दर से किसी औरत के चीखने की आवाज आई जिसने भूतनाथ को बेचैन कर दिया।
क्योंकि उसे संदेह हुआ कि यह आवाज श्यामा की है। वह घबरा कर उधर देख रहा था कि उसने किसी औरत को भाग कर एक तरफ से दूसरी तरफ से जाते और तब उसके पीछे कई आदमियों को दौड़ाते देखा। साथ ही उस खिड़की के अन्दर से तरह-तरह की आवाजें भी आने लगीं जिन्होंने भूतनाथ को बेचैन कर दिया और वह समझ गया कि कई शैतान किसी बेचारी औरत पर जुल्म कर रहे हैं।
भूतनाथ बेचैनी के साथ उस दरवाजे की तरफ देख ही रहा था कि ऊपर से पुनः कुछ आहट आई और उसने फिर साधू महाशय को झाँकते हुए पाया, साधू ने उस दरवाजे की तरफ ऊँगली से दिखाया और भूतनाथ को उसके अन्दर जाने और उस औरत की मदद करने का इशारा किया, साधू के हाथ में कोई चीज थी जो उन्होंने नीचे फेंक दी और तब तुरत वहाँ से हट गये। भूतनाथ ने देखा कि वह एक मजबूत कमन्द है,
खुशी-खुशी भूतनाथ ने अपना सामान उठाया और अपने कपड़े (जो अब सूख गये थे) पहनने तथा बटुआ और हथियार इत्यादि बांधने के बाद हर तरह से लैस हो वह कमन्द उस खिड़की में लगाई।
उसे गुमान था कि शायद कोई उसे ऐसा करने से रोके मगर किसी ने भी उसके काम नें बाधा न डाली और बात की बात में वह उस खिड़की तक पहुँच गया। अब जिस जगह भूतनाथ ने अपने को पाया वह एक बड़ा कमरा था जिसमें चारों तरफ कई दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे। भूतनाथ को आशा थी कि वह औरत तथा वे आदमी वहीं होंगे पर ऐसा न था और यह स्थान एकदम खाली था। वह खड़ा होकर ताज्जुब के साथ सोचने लगा कि वे लोग किधर गये।
उसे ज्यादा समय नष्ट करना न पड़ा और बगल के किसी स्थान से आती हुई कई आदमियों की बातचीत की आवाज उसके कान में पड़ी। सुनते ही उसने खंजर हाथ में ले लिया और बेधड़क उस दरवाजे के अन्दर घुस गया जिसमें से आवाज आ रही थी, यहाँ पहुँचते ही उसे मालूम हो गया कि यह वही जगह है जहाँ पहिली बार आने पर उसने श्यामा को बेबसी की हालत में देखा था क्योंकि दीवार के साथ वह भयावनी मूरत ज्यों-की-त्यों बैठी हुई थी, फर्क सिर्फ इतना ही था कि इस समय उसके दोनों हाथ खाली थे और कोई कैदी उनमें छटपटा न रहा था।
यह दृश्य देखते ही भूतनाथ ने कड़ककर आवाज दी, ‘‘बस खबरदार! इस औरत पर से अपना हाथ अभी हटा लो।’’ उन आदमियों ने भी यह बात सुनी, साथ ही उनमें से एक जो सरदार मालूम होता था और अलग खड़ा था खंजर हाथ में लिए बढ़ आया। उसके साथियों ने भी उसका इशारा पा श्यामा को उसी तरह छोड़ दिया और भूतनाथ को चारों तरफ से घेर लिया।
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