लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4

भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


जमानिया पहुँच दारोगा सीधा अपने घर पहुँचा। उसके पहुँचने के कुछ समय बाद शेरसिंह वहाँ आये और उनके चले जाने के बाद भूतनाथ ने दारोगा से मिलकर बातें कीं। इन दोनों में जो कुछ बातें हुईं अथवा इस बीच में जो कुछ घटना हुई हम ऊपर के बयानों में लिख चुके हैं, इस जगह दोहराकर लिखना व्यर्थ है, मगर इतना कह देना मामूली होता है कि यह सब हाल दामोदरसिंह का मरना मशहूर होने से पहिले का है और सिर्फ सिलसिला मिलाने के लिए ही हमें पीछे लौटना पड़ा।

भूतनाथ को विदा करने के बाद दारोगा पुनः अपने ठिकाने पर आ बैठा और जैपाल से बातें करने लगा। यकायक उसे ख्याल आया कि प्रभाकरसिंह को छुड़ाने का पता लगाने की धुन में वह कैदखाने के कई दरवाजे खुले ही छोड़ आया है। अस्तु जैपाल ने कहा, ‘‘तुम यह तालियों का झब्बा लो और कैदखाने के सब ताले बंद कर आओ। मालती को भी जिसके कमरे की जंजीर कटी हुई पाई गई है उसमें से हटाकर किसी दूसरी कोठरी में कर देना।’’

जैपाल ‘बहुत खूब’ कहकर चला गया मगर तुरन्त ही लौट आकर घबराये हुए ढंग से बोला, ‘‘कैदखाना तो खुला पड़ा है और मालती का कहीं पता नहीं है। ये कई तालियां भी जो उस समय झब्बे में नहीं मिलती थीं वहीं जमीन पर पड़ी हुई थीं!’’

इस खबर ने दारोगा को हद से ज्यादा बेचैन कर दिया और बेतहाशा उसके मुँह से निकला, ‘‘बेशक मेरा कोई आदमी दुश्मन से मिल गया है!’’ बड़ी देर तक दारोगा गर्दन झुकाये गद्दी पर बैठा सोचता रहा और जैपाल भी गमगीन सूरत बना उसके सामने बैठा रहा, आखिर दारोगा ने सिर उठाया और कहा, ‘‘ऐसे गुप्त कैदखाने में से दो-दो कैदियों का निकल भागना कोई मामूली बात नहीं है! बेशक मेरे ऊपर कोई भारी आफत आना चाहती है!’’

जैपाल : इस समय यदि प्रभाकरसिंह आपके हाथ में रहते तो शिवदत्त पर आपका बड़ा अहसान पड़ सकता था।

दारोगा : यही तो बात है और मालती से भी काम निकालने का मौका अब आया था, वर्षों से जिस लालच में उसे कैद रक्खा वह पूरी भी न होने पाई और वह हाथ से निकल गई, अफसोस!

इतने ही में बाहर से किसी ने कहा, ‘‘अब अफसोस करने से कोई नतीजा नहीं, अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए तैयार हो जा।’’

यह आवाज सुनते ही दारोगा ने सामने पड़ी तलवार उठा ली और कमरे के बाहर निकला कोई नजर न आया। नीचे सदर दरवाजे तक आया पर वहाँ भी पहरे में किसी तरह का फर्क न पाया, लाचार पुन: लौटा और अपने कमरे में जाना चाहा पर दरवाजे पर पड़े हुए एक कागज के पुर्जे को देख चौंका और उसे उठाकर अंदर ले जाकर शमादान की रोशनी में पढ़ने लगा।

न जाने उस पुर्जे में क्या बात लिखी हुई थी कि जिसने दारोगा के रहे-सहे होश भी उड़ा दिये। उसके मुँह से एक चीख की आवाज निकली और यकायक बदहवास होकर जमीन की तरफ झुक गया।

दारोगा का यह हाल देख जैपाल को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। उसने दारोगा को होश में लाने की कोशिश करना चाही, पर फिर कुछ सोचकर वह पुर्जा उठा लिया जो दारोगा के हाथ से छूटकर गिर पड़ा था और शमादान की रोशनी में पढ़ा, यह लिखा हुआ पाया-

‘‘यदुनाथ,

अब मैं स्वतन्त्र हो गई, होशियार रहना, बदला लिये बिना कदापि न छोड़ूँगी। इतने दिनों तक तेरी कैद में रहकर जो-जो तकलीफें उठायी हैं उनका जब तक पूरा बदला न ले लूँगी मुझे शान्ति न मिलेगी। पुन: कहती हूँ कि होशियार हो जा और यह न समझ कि लोहगढ़ी के भूत का भेद मुझे मालूम नहीं है।

तेरी जानी दुश्मन- मालती।’’

जरूर इस चिट्ठी में कोई गुप्त भेद छिपा हुआ था जिसे याद कर जैपाल की हालत भी खराब हो गई, मगर बहुत कोशिश कर उसने अपने को सम्हाला और दारोगा साहब की तरफ झुका।

बड़ी-बड़ी-तरकीबों से किसी तरह दारोगा के होश-हवास दुरुस्त हुए और वह उठ बैठा। मगर तभी उसकी निगाह पुन: चीठी पर पड़ी और वह काँप उठा। उसके मुंह से कुछ बेजोड़ शब्द इस तरह पर निकलने लगे मानो इन्हें वह अपने होश में नहीं कह रहा है।

‘ओफ, लोहगढ़ी! नहीं-नहीं, वह कोई दूसरी ही...! ओफ, मालती का छूट जाना बहुत बुरा हुआ। वह कम्बख्त अवश्य इस भेद को जानती है, नहीं तो इस तरह पर... अफसोस, अब तो दामोदरसिंह भी मेरा जानी दुश्मन बन जाएगा क्योंकि मालती उनकी प्यारी भतीजी और अहिल्या... उसकी बड़ी ही प्यारी... ओफ, मैं कहीं का न रहा। दयाराम और जमना-सरस्वती को जहन्नुम में पहुँचा कर मैं समझ रहा था कि एक तरफ से छुट्टी मिली पर यह नहीं जानता था कि इतनी बड़ी आफत मेरे लिए... ओह, महाराज भी मेरे दुश्मन हो जाएँगे क्योंकि दामोदरसिंह बिना उनके कान भरे न रहेगा और वे भी लोहगढ़ी... ओह... अहिल्या......!’’

इतना कहते-कहते दारोगा पुन: बदहवास हो गया। जैपाल ने गुलाबजल उसके मुँह पर छिड़का और हवा करना शुरू किया, कुछ देर में वह होश में आया पर बिना कुछ कहे पलंग पर जा लेटा और तरह-तरह की बातें सोचता हुआ गरम-गरम आँसू बहाने लगा।

इस बात के दो या तीन ही दिन बाद जमानिया शहर की चौमुहानी पर दामोदारसिंह की लाश पाई गई उनका मरना मशहूर हुआ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book