लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4

भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


भूतनाथ नौंवे भाग के ग्यारहवें बयान में हम लिख आये हैं कि जिस समय दारोगा और जैपाल मेघराज तथा जमना को कहीं रख कर लौटे उसी समय असली सरस्वती भी वहाँ जा पहुँची जिसने तिलिस्मी खंजर की मदद से उन दोनों को बेहोश कर दिया। अब हम उसके आगे का हाल लिखते हैं।

सरस्वती ने दारोगा और जैपाल को बेहोश तो किया मगर इसके बाद वह और कुछ भी न कर सकी क्योंकि उसी समय वह चबूतरा (जिस पर ये तीनों थे) जमीन के अन्दर धंस गया और यह बात इतनी फुर्ती से हुई कि सरस्वती उस पर से कूद कर अपने को बचा भी न सकी बल्कि उसके होशहवास जाते रहे और वह भी उसी जगह पर बेहोश होकर गिर गई। जिस समय सरस्वती होश में आई उसने अपने को एक बारहदरी में पड़े हुए पाया। उसके बगल में दारोगा और जैपाल भी बेहोश पड़े थे।

सरस्वती उठ कर बैठ गई और सोचने लगी कि वह यहाँ क्योंकर आ पहुँची शीघ्र ही उसे अब पिछली बातें याद आ गई और यह भी ख्याल हो आया कि तिलिस्मी चबूतरे पर पहुँचते ही वह बेहोश हो गई थी। उसने ऊपर की तरफ देखा और तब मालूम हुआ कि उसके ठीक ऊपर बारहदरी की छत में एक बड़ा छेद बना हुआ था जिसकी लम्बाई-चौड़ाई की तरफ खयाल करने से मालूम होता था कि बेशक इसी राह से चबूतरे से नीचे उतर उन तीनों को यहाँ पहुँचाया होगा। उस छेद के अंदर की तरफ घोर अन्धकार था और इस बात का बिलकुल पता न लगता था कि उसके दूसरी तरफ क्या है।

सरस्वती उठ खड़ी हुई और उस बारहदरी के बाहर निकली। एक हरे-भरे सुहावने बाग में उसने अपने को पाया जिसके फूल-पत्ते सूर्य की ताजी किरणों के पड़ने से सुनहले हो रहे रहे थे। यह बाग बहुत ही बड़ा था और इसका दूसरा सिरा दिखाई नहीं देता था, हाँ, बाईं और दाहिनी तरफ कुछ इमारतें बनी हुई जरूर नजर आ रही थीं। कुछ सोचती-विचारती सरस्वती दाहिनी तरफ को रवाना हुई।

बारहदरी से जिसमें से सरस्वती अभी निकली थी लगा हुआ इन इमारतों का सिलसिला बराबर उस इमारत तक चला गया था जिसकी तरफ सरस्वती बढ़ी जा रही थी। हम नहीं कह सकते कि वह सिर झुकाये सीधी सामने ही की तरफ जा रही थी।

बीच का फासला तय कर सरस्वती एक लम्बे दालान में पहुँची और उसे भी पार कर उसने एक आलीशान कमरे के अन्दर पैर रक्खा। यह कमरा कुछ विचित्र ढंग का बना हुआ था। काले पत्थर के बहुत ही मोटे चालीस खम्भों पर इसकी ऊँची छत रक्खी हुई थी और बीचोंबीच कमरे में काले ही पत्थरों का बना हुआ एक सिंहासन रक्खा था जिसके चारों तरफ काले पत्थर के शेर बने हुए थे जो बड़े ही कद्दावर और इतने ऊँचे थे कि आदमी अगर उनके पास जाकर खड़ा हो गया तो उनकी गरदन तक पहुँचे। ये शेर नकली होने पर भी भयानक मालूम हो रहे थे और इनमें से हरएक के सिर पर किसी धातु के बने चार उकाब बैठाये हुए थे, जिन्होंने गरदन घुमाकर अपनी चोंच में शेरों का एक कान पकड़ा हुआ था। सरस्वती ने एक ही निगाह में सब चीजों को देख लिया।

इस कमरे के तीन तरफ बड़ी-बड़ी कोठरियाँ थीं और चौथी तरफ वही दालान पड़ता था जिधर से होकर सरस्वती इस कमरे में आई थी। सरस्वती ने उन कोठरियों को गिना। हर तरफ दस कोठरियाँ थीं जिनमें से कुछ दरवाजे बन्द और कुछ खुले हुए हुए, धीरे-धीरे चलती हुई सरस्वती एक खुले दरवाजे के पास पहुँची और झाँक कर अन्दर का हाल देखने लगीं।

अन्दर की तरफ दरवाजे के पास ही दो लाशें पड़ी हुई थीं जिन्हें देखते ही उसने पहिचान लिया और एक चीख मारकर उनकी तरफ झपटी। मगर अभी मुश्किल से उसने कोठरी के अंदर पैर रक्खा होगा कि उन चारों शेर के मुँह से, जो सिंहासन के चारों तरफ बने हुए थे गुर्राने की आवाज निकली और साथ ही उस कोठरी का दरवाजा बंद हो गया जिसके अंदर सरस्वती गई थी।

सरस्वती के चले जाने के कुछ ही देर बाद दारोगा और जैपाल की भी बेहोशी दूर हुई और वे उठकर बैठ गये। जैपाल ने ताज्जुब के साथ अपने चारों तरफ देखा और कहा, ‘‘यह हम लोग कहाँ आ पहुँचे?’’

दारोगा : (उठकर और अपने चारों तरफ देखकर) मुझे तो यह वही बाग मालूम होता है जिसमें रात को हम लोग उन दोनों दयाराम और जमना को पहुँचा गये थे।

दयाराम और जमना को कब्जे में करने के बाद दारोगा ने मौका पाकर एक तेज़ मसाले से साफ कर उन दोनों ही की असली सूरतें देख लीं और उन्हें पहिचान लिया था, अस्तु दारोगा की बात सुन जैपाल ने कहा, ‘‘तब मैं समझता हूँ कि वह औरत भी जरूर सरस्वती होगी जिसने हम लोगों पर खंजर का वार किया था।’’

दारोगा : मेरा भी यही खयाल है। (चारों तरफ देखकर) मगर वह गई कहाँ आखिर? नियामानुसार तो हम लोगों की तरह उसे भी बेहोश होकर इसी स्थान पर पहुँचना चाहिए था क्योंकि (छत की तरफ इशारा करके) वह चबूतरा जिसने हमें यहाँ पहुँचाया था ठीक इस स्थान के ऊपर है।

जैपाल : बाहर निकलकर देखिए, शायद हम लोगों के पहिले ही होश में आकर कहीं चली गई हो।

दारोगा और जैपाल उस बारहदरी के बाहर निकले और चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगे। किसी आदमी पर उनकी निगाह न पड़ी मगर यह विश्वास हो गया कि यह वही स्थान है जहाँ रात को दयाराम और जमना को लेकर आये थे। जैपाल ने दारोगा से कहा, ‘‘उस शेरवाले कमरे में चलकर देखना चाहिए शायद वह उधर ही गई हो।’’

दारोगा ने कहा, ‘‘अच्छा चलो’’। और तब वे दोनों उसी तरफ चले जिधर थोड़ी देर पहिले सरस्वती गई थी।

हम ऊपर लिख आये हैं कि सरस्वती एक बड़े दालान को पार करके उस शेर वाले कमरे में पहुंची थी। जिस तरह उस कमरे के तीन तरफ की कोठरियों में जाने के लिए दरवाजे बने हुए थे उसी तरह इस दालान से उस कमरे में जाने के लिए भी दस दरवाजे बने हुए थे।

सरस्वती को ये दरवाजे खुले हुए मिले थे मगर इस समय ये दसों दरवाजे बंद थे और इस कारण उस कमरे में जाना असम्भव हो रहा था। दारोगा और जैपाल इस दालान में पहुँचे और कमरे के दरवाजे बंद पा ताजुज्ब करने लगे।

जैपाल : ये दरवाजे क्या चलती वक्त बन्द करते गये थे?

दारोगा : नहीं, मैं तो इन्हें खुला ही छोड़ गया था।

जैपाल : तब इनको किसने बंद किया?

दारोगा : शायद सरस्वती यहाँ पहुँची हो और उसी ने यह कार्यवाही की हो?

जैपाल : हो सकता है, मगर क्या आप उन दर्वाजों को खोलकर इस कमरे के अन्दर नहीं जा सकते?

दारोगा : नहीं, ये दर्वाजे ही क्यों यह बाग और सब इमारतें तिलिस्म से संबंध रखती हैं और यहाँ के किसी दरवाजे या रास्ते को खोलना और बंद करना अथवा इस जगह आना ही हर एक आदमी का काम नहीं।

जैपाल : तब आपको यहाँ आने का रास्ता किस तरह मालूम हुआ?

दारोगा : मैं एकबार महाराज के साथ यहाँ आया था इसी से यहाँ का कुछ हाल जानता हूँ। लेकिन अब यहाँ ठहरने से कोई फायदा नहीं, न जाने कब किस तरह की आफत आ जाय।

जैपाल : खैर चलिए, मगर दयाराम आदि की क्या दशा होगी जिन्हें आप उस कमरे में छोड़ आये हैं!

दारोगा अब जो कुछ उनके भाग्य में होगा भोगेंगे, मैं इसे क्या कहूँ। उन्हें यहाँ से निकाल देना तो असम्भव है, अब वे लोग मेरे हाथ से बाहर हो गये, खैर इतना ही कि अब मुझे उनसे डरने की कोई जरूरत न रही क्योंकि जो लोग इस तिलिस्म में फँस जाते हैं वे अपनी मर्जी से बाहर निकल नहीं सकते जब तक कि कोई जानकार आदमी तिलिस्म तोड़कर उन्हें न छुड़ावे।

जैपाल : तब तो आप इस तरफ से अपने को निष्कंटक समझिए, दयाराम की वजह से जो कुछ खौफ-खतरा आपको था सब जाता रहा और जमना-सरस्वती से भी नेजात मिली।

दारोगा : बेशक यही बात है। जमना-सरस्वती के कारण गदाधरसिंह पर भी मेरा अहसान जरूर होगा वह माने तो, खैर अब चलना चाहिए।

जैपाल : खैर चलिए।

आगे-आगे दारोगा और उसके पीछे जैपाल उस जगह से हटे और उस बाग के पश्चिम और उत्तर के कोने की तरफ रवाना हुए जिधर एक ऊँचा कुंआ दिखाई पड़ रहा था। इस जगह बाग की दीवारें बहुत ऊँची थीं और यह नहीं जाना जा सकता था कि उसके दूसरी तरफ क्या है मगर बीच में कही-कहीं एकआध दरवाजा जरूर दिखाई पड़ता था जो मजबूती के साथ बन्द था।

इस बुर्ज के निचले हिस्से में भी एक दर्वाजा बना हुआ था। दारोगा ने उसके पास जा कोई खटका दबाया जिसके साथ ही वह खुल गया। दोनों आदमी भीतर चले गये और दारोगा ने हाथ से दबाकर बंद कर दिया।

जैपाल ने अपने को एक छोटी आठपहली कोठरी में पाया जिसके बीचोंबीच में एक मोटे खम्भे के ऊपर एक पत्थर का शेर बैठाया हुआ था। दारोगा इस शेर के पास पहुँचा और उसकी बाईं आँख में उँगली डालकर दबाया। कुछ जोर लगाने के साथ ही एक हल्की आवाज आई और जिस तरह किसी चूहेदानी का पल्ला ऊपर चढ़ जाता है उसी तरह सामने की तरफ एक पत्थर की सिल्ली ऊपर को चढ़ गई और आदमी के निकल जाने लायक रास्ता दिखाई देने लगा। दारोगा और जैपाल इस दरवाजे के भीतर चले गये और तुरंत ही वह दरवाजा अपने आप आप ज्यों का त्यों बंद हो गया।

यह एक लम्बी और पतली सुरंग थी जिसमें हवा आने के लिए कितनी जगहें बनी हुई थीं और उसी रास्ते काफी रोशनी भी आ रही थी। दारोगा जैपाल को साथ लिए तेजी के साथ इसी सुरंग में रवाना हुआ। लगभग हज़ार गज़ जाने के बाद वह सुरंग खतम हो गई और सामने की तरफ एक बंद दर्वाजा नजर आया। इस दरवाजे को भी दारोगा ने कोई खटका दबाकर खोला, ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नज़र आईं जिनको पार करने के बाद दोनों एक सुन्दर मगर छोटे बाग में पहुँचे।

यह बाग वही था जिसमें दयाराम और जमना को खोजती हुई सरस्वती आई थी अथवा जहाँ से चबूतरे पर चढ़ सरस्वती, दारोगा और जैपाल इस दूसरे बाग में पहुँच थे और यहाँ सामने ही वह चबूतरा नजर आ रहा था जिसने इन तीनों को नीचे पहुँचाया था।

जगह पहुँच दारोगा रुका और जैपाल की तरफ घूमकर बोला, ‘‘अब किधर से चलना चाहिए?’’

जैपाल : जिस राह से आप यहाँ आए थे वह राह तो मेरी समझ में ठीक नहीं है क्योंकि कौन ठिकाना दुश्मन होशियार हो गया हो!

दारोगा : यही मेरा भी खयाल है, अच्छा तब इधर से आओ।

इतना कह पैर बढ़ाता हुआ दक्खिन की तरफ रवाना हुआ और एक छोटे दालान में पहुँचा जिसके बीचोंबीच में एक शेर पत्थर का ठीक वैसा ही बना हुआ था जैसाकि इस बाग में आते समय बुर्जवाली कोठरी के अन्दर मिला था। दारोगा ने इस शेर की बांई आँख में उँगली डाली जिसके साथ ही बाईं तरफ की दीवार में एक दरवाजा दिखाई पड़ने लगा। दारोगा जैपाल के लिए इस दरवाजे के अंदर चला गया और दरवाजा बंद हो गया।

अब जैपाल ने अपने को एक कोठरी में पाया जिसमें तीन तरफ तो लोहे के दरवाजे बने हुए थे और चौथे तरफ वही रास्ता था जिस राह से दोनों इस जगह आये थे। दारोगा ने दाहिने तरफ वाला दरावाजा खोला और जैपाल को अपने साथ अंदर कर बंद कर लिया। एक बहुत ही लंबी सुरंग नजर आई जो इतनी तंग थी कि एक आदमी उसमें मुश्किल से जा सकता था। आगे-आगे दारोगा और पीछे-पीचे जैपाल रवाना हुए। यह सुरंग आने की तरफ ढालुई थी अर्थात् नीचे की तरफ को कुछ झुकती हुई जा रही थी।

घण्टे भर से ऊपर समय तक दोनों को इस तंग सुरंग में चलना पड़ा और गर्मी के कारण इनकी तबीयत परेशान हो गई क्योंकि इस सुरंग में बनिस्बत बाहर के गर्मी ज्यादा थी और हवा तथा रोशनी आने की जगहें भी बहुत दूर-दूर पर थीं जिससे अन्धकार भी था आखिर किसी तरह यह सुरंग भी समाप्त हुई और इसका दूसरा मुहाना पहुँचा। सामने की तरफ कई सीढ़ियाँ थीं जिन पर इन दोनों को चढ़ना पड़ा और तब एक दरवाजा मिला। यह दरवाजा भी लोहे का एक ही पल्ले का था और बहुत पुराना हो जाने के कारण उसका रंग पत्थर के रंग में ऐसा मिल गया था कि कुछ फर्क नहीं मालूम होता था।

जगह तंग थी और दारोगा के पीछे की तरफ होने के कारण जैपाल यह न देख सका कि दारोगा किस तरह वह दरवाजा खोलता है, हाँ इतना देखा कि एक हलकी आवाज के साथ वह लोहे का पल्ला ऊपर की तरफ चढ़ गया और सामने जाने का रास्ता दिखाई पड़ने लगा। दारोगा और जैपाल भीतर चले गये और अपने को एक गुफा में पाया जिसमें बाईं तरफ देखने से चांदनी नज़र आ रही थी।

यह सुरंग वही थी जिसकी राह गुप्त स्थान में प्राय: जाना होता था जिसमें प्रभाकरसिंह और दयाराम रहते थे या जिसके अन्दर घुस दारोगा इतना उपद्रव मचा चुका था। इस समय यह सुरंग खाली थी अर्थात् कोई आता-जाता यहां नजर नहीं आता था अस्तु दारोगा बेधड़क गुफा के बाहर निकल गया और तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुआ।

दारोगा और जैपाल के बाहर निकलने के कुछ ही समय पहले भूतनाथ भी सरस्वती द्वारा उस विचित्र घाटी के बाहर निकाला जा चुका था। भाग्यवश घने जंगल में से जाते हुए दारोगा और जैपाल ठीक उस समय वहाँ पहुँचे जब भूतनाथ ने अपनी कारीगरी से (नकली) जमना और सरस्वती को बेहोश किया बल्कि मार डाला था।

अपने सामने किसी तरह की आहट पा दारोगा रुक गया और कुछ ही सायत बाद उसकी निगाह भूतनाथ पर पड़ी जो (नकली) जमना-सरस्वती को मारने के बाद उनकी लाश को छिपाने की चेष्टा कर रहा था। दारोगा और जैपाल एक आड़ की जगह में खड़े होकर उसकी कार्रवाई देखने लगे।

दोनों लाशों को छिपाने के बाद जिस समय गदाधरसिंह ने किसी की जुबानी ‘‘भला गदाधरसिंह, कोई हर्ज नहीं, अगर मैं जीता रहा तो बिना इसका बदला लिये कभी न छोड़ूँगा!’’ ये शब्द सुने तो घबराकर उस आदमी को खोजने लगा, मगर जब वह न मिला तो लाचार हो जमानिया की तरफ लौटा। उसके जाते ही दारोगा और जैपाल उस जगह पहुँचे जहाँ भूतनाथ ने दोनों लाशों को छिपाया था और दारोगा ने जैपाल से कहा, ‘‘बेशक भूतनाथ ने ही इनका खून किया है, इन लाशों को निकालकर देखना चाहिए कि किनकी हैं।

‘‘जो हुक्म’’ कह जैपाल ने वह मिट्टी और पतवार हटाना शुरू किया जिससे लाशों को ढाँक भूतनाथ चला गया था। कुछ ही देर में वह दोनों लाशें और उनके सिर भी दिखाई देने लगे और जैपाल चौंककर बोल उठा, ‘‘हैं, यह तो जमना-सरस्वती की लाशें हैं!’’

दारोगा ने भी जमीन पर बैठकर गौर से उन लाशों के देखा और तब सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, जमना-सरस्वती को तो हम लोग अभी तिलिस्म में छोड़ते हुए आ रहे हैं । यह मुमकिन है कि भूतनाथ ने इन दोनों को जमना-सरस्वती ही समझकर इनकी जान ली हो, मगर इसमें भी शक नहीं कि उसे धोखा हुआ और उसने इनके पहिचानने में भूल की। ये सूरतें असली नहीं मालूम पड़तीं! अच्छा देखों मैं अभी पता लगाता हूँ।’’

दारोगा ने एक बटुए में से जो उसके साथ था एक छोटी शीशी निकाली जिसमें लाल रंग का कोई अर्क भरा हुआ था। उसमें से थोड़ा सा उँगलियों में लगा दारोगा ने जमना के चेहरे पर लगाया। लगाने के साथ ही चेहरे का नकली रंग उड़ गया और असली सूरत मालूम पड़ने लगी, दारोगा ने उसी तरह सरस्वती की भी जाँच की और उसकी सूरत भी नकली पाई।

जैपाल : बेशक अब इस बात में कोई सन्देह नहीं रहा कि ये दोनों औरतें कोई दूसरी ही हैं, यद्यपि इनके जमना-सरस्वती बनने का अवश्य कोई विशेष कारण रहा होगा! खैर चलिये उठिये।

दारोगा ने शीशी बन्द कर अपने बटुए में रक्खी और उठ खड़ा हुआ। वे दोनों लाशें पुन: उसी तरह दबा दी गई और तब भूतनाथ तथा उन लाशों के विषय में तरह-तरह की बातें करते वे दोनों जमानिया की तरफ रवाना हुए मगर इस बात की खबर उन दोनों को ज़रा भी न थी कि कोई आदमी देर से उनका पीछा कर रहा है और बराबर उनके साथ चला आ रहा है।

जब दारोगा और जैपाल जंगल और मैदान तय करने के बाद उस सड़क पर पहुँचे जो जमानिया की तरफ चली गई थी और सीधे शहर की तरफ रवाना हुए तो वह आदमी जो उनके पीछे-पीछे जा रहा था रुका और बोला, ‘‘अब ये लोग घर जायेंगे, आगे पीछे करना व्यर्थ है।

उसी समय पीछे से दो सवारों के तेज़ी के साथ आने की आहट मिली जिसे सुन यह आदमी चौंका और तब हटकर घनी झाड़ी की आड़ में हो गया जो सड़क के किनारे ही पड़ती थी। बात की बात में वे दोनों सवार भी नज़दीक आ पहुँचे जो वास्तव में वे ही थे जिनका हाल नौंवे भाग के दूसरे बयान में लिखा गया है अर्थात् इनमें से एक तो शेरसिंह थे और दूसरी गौहर।

उस झाड़ी में छिपे आदमी के देखते ही भूतनाथ उस जगह पहुँचा, गौहर उसकी सूरत देख भाग गई, और तब शेरसिंह से कुछ बातें कर भूतनाथ भी जिसकी सूरत में घबराहट और परेशानी झलक रही थी गौहर के पीछे-पीछे चला गया, अकेले शेरसिंह जमानिया की तरफ रवाना हुए और तब सन्नाटा पा वह झाड़ी में छिपा हुआ आदमी भी बाहर निकला।

उस समय उसे मालूम हुआ कि वहाँ केवल वही छिपा हुआ न था बल्कि पास ही की झाड़ी में एक और भी था जो उसी समय बाहर निकला। इस आदमी की सूरत भी नकाब से ढकी हुई थी।

इसे देखते ही पहिला आदमी उसके पास चला गया और बोला, ‘‘कौन चे-गोविन्द!’’ १ दूसरे आदनी ने गौर से उसी तरफ देखा और कहा, ‘‘चहा’’२ जिसके जवाब में पुन: वह पहला आदमी बोला, ‘‘मेमचे आया’’३ और तब वे दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए दूसरी तरफ चल दिये। (१. ‘‘कौन है, गोविन्द!’’ २। ‘‘हाँ’’ ३। ‘‘मैं हूँ माया।’’)

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book