मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4 भूतनाथ - खण्ड 4देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण
छठवाँ बयान
भूतनाथ की लामाघाटी से निकल कर गौहर उस छोटी पहाड़ी के नीचे उतरी और जमानिया की तरफ रवाना हुई। रात का समय होने पर भी चन्द्रमा की रोशनी गौहर को काफी मदद दे रही थी जिससे वह सब तरह से चौकन्नी हो तेजी के साथ चली जा रही थी और चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके लामाघाटी और अपने बीच में इतना फासला डाल दे कि फिर भूतनाथ का कोई डर न रह जाय तथा इस इरादे से वह सड़क या आम राह छोड़ पगडण्डियों और घने जंगल का आश्रय ले रही थी।
भयानक जंगल में इस समय सन्नाटा छाया हुआ था पर फिर भी कभी-कभी किसी दरिन्दे जानवर के बोलने की आवाज आ जाती थी। यद्यपि गौहर की उम्र बहुत कम थी पर तो भी उसका दिल इतना मजबूत था कि रात के समय भयानक जानवरों से भरे हुए ऐसे जंगल में से होकर जाते हुए डर नहीं मालूम हो रहा था।
यकायक गौहर के कान में घोड़े के टापों की आवाज सुनाई पड़ी। वह ठमक गई और कान लगाकर आहट लेने से मालूम हुआ कि एक नहीं बल्कि दो घुड़सवार हैं और दोनों उसी की तरफ आ भी रहे हैं क्योंकि टाँपों की आवाज़ पल-पल में तेज होती जाती थी। गौहर को भूतनाथ का डर हुआ और वह पगडंडी से हट एक घनी झाड़ी की आड़ में हो गई।
थोड़ी ही देर बाद वे दोनों सवार नजदीक आ पहुंचे और अब मालूम हुआ कि उनमें एक तो मर्द है और दूसरी औरत जो घोड़े पर सवार उस मर्द के साथ बातें करती हुई जा रही है।
इस जगह जहाँ गौहर छिपी हुई थी कोई घना पेड़ न था और इस कारण चन्द्रमा की रोशनी बे-रोक-टोक जमीन तक पहुंच रही थी। इस रोशनी में यह देख गौहर को बेहद खुशी हुई कि वे दोनों उसी के साथी हैं। वह बेखटके आड़ से बाहर निकाली और दोनों सवारों के सामने जाकर खड़ी हो गई।
गौहर को देखते ही वे दोनों सवार ठमक गए और उसे पहिचानते ही दोनों ने घोड़ों से उतरने में जल्दी की। वह औरत झटपट आगे बढ़ी और गौहर का हाथ पकड़कर बोली, ‘‘बहिन, तू छूट आई! हम लोग तुझे ही छुड़ाने की फिक्र में जा रहे थे।’’
गौहर : (उस औरत को गले लगाकर) गिल्लन, तू कहाँ से आ पहुँची?
गिल्लन : (अलग होकर) अब मिल गई हो तो सब कुछ सुनोगी ही।
गौहर उस आदमी की तरफ घूमी जो गिल्लन के साथ था और अब घोड़े से उतर अदब के साथ खड़ा था। वह आदमी वही था जिसे अब के पहिले भी दो-एक बार पाठक गौहर से बातें करते देख चुके हैं। गौहर को अपनी तरफ मुखातिब देख उसने कहा, ‘‘मैं तो बड़े तरद्दुद में पड़ गया था कि गदाधरसिंह की कैद से आपको किस तरह छुड़ाऊँगा क्योंकि यह मुझे मालूम हो गया था कि आप उसी के कब्जे में चली गई हैं, बारे आप स्वयं ही छूट कर आ गईं!’’
गौहर : मुझे गदाधरसिंह ने अपनी लामाघाटी में कैद कर दिया था पर भाग्य से उसकी रामदेई भी वहाँ मौजूद थी जिसने कुछ ही देर हुई मुझे रिहाई दी है।
आदमी : ‘‘हाँ! रामदेई ने खुद आपकी मदद की! तब तो आपने सब बातें...
गौहर : हाँ मेरा बहुत कुछ मतलब इस कैद में निकल गया। मगर सांवलसिंह, इस तरह रास्ते में खड़े होकर बातें करना खतरे से खाली नहीं है। मैं चाहती हूँ तुम्हारे घोड़े पर सवार हो जाऊँ और चल पड़ूँ, बातें रास्ते में होती जाएंगी।
सांवलसिंह : बहुत अच्छी बात है।
इतना कहकर सांवलसिंह अपना घोड़ा उस जगह ले आया। गौहर इस पर सवार हो गई और गिल्लन अपने घोड़े पर चढ़ गई। घोड़ों का मुँह जमानियाँ की तरफ घुमा दिया गया और सांवलसिंह पैदल इन दोनों से बातें करता हुआ साथ-साथ जाने लगा।
सांवल० : मुझे अब तक न मालूम हुआ कि आप क्योंकर और कैसे इस गदाधरसिंह की कैद में पड़ गईं।
गौहर : बस जिस रोज तुम मुझसे उस जंगल में मिले उसी रोज तुम्हारे जाने के कुछ ही देर बाद मैं उसके फन्दे में पड़ गई। सुनो मैं सब हाल तुमसे कहती हूं।
इतना कह गौहर ने अपने गिरफ्तार होने का सब हाल जो हम ऊपर लिख आये हैं खुलासा तौर पर कह सुनाया और अन्त में कहा, ‘‘मुझे अभी तक यह शक बना ही हुआ है कि जिस औरत को मैंने बेहोश देखा था और जिसने अपना नाम रम्भा बताया था वह वास्तव में भूतनाथ ही की कोई चालबाजी थी या कोई गैर औरत थी।
इसमें तो शक नहीं की वह औरत जान-बूझकर नखरा किये पड़ी थी क्योंकि इस घटना के कुछ ही पहिले मैंने उसे एक मर्द के साथ अपनी तरफ आते देखा था, लेकिन अगर वह भूतनाथ का ही कोई साथी था तो उसने उसी समय मुझे क्यों न पकड़ लिया जब मैं उससे बातें कर रही थी यही बात समझ में नहीं आ रही है।’’
गिल्लन : मैं बता सकती हूँ कि वे लोग कौन थे!
गौहर : अच्छा तुम्हीं बताओ।
गिल्लन : वे लोग महाराज शिवदत्त के ऐयार थे जिन्होंने अपने दुश्मन को गिरफ्तार करने की नीयत से कई नौकर और ऐयार वहाँ भेजे हैं, और वे ही लोग तरह-तरह के जाल चारों तरफ फैलाये हुए हैं। उस दिन उन लोगों ने खुद भूतनाथ को फंसाने का बन्दोबस्त किया था, पर वह तो निकल गया उलटे तुम उसके फन्दे में जा पड़ीं।
गौहर : (कुछ सोचकर) तुम्हें कैसे मालूम कि वे लोग महाराज शिवदत्त के ऐयार थे?
गिल्लन : मैं उन लोगों से मिल चुकी हूँ और उन्हीं की जबानी यह हाल मुझे मालूम हुआ है। अच्छा यह तो बताओ कि अब तुम्हारा क्या इरादा है और कहाँ चलना चाहती हो?
गौहर : जहाँ कहो।
गिल्लन : मेरी समझ में तुम भी शिवदत्त के आदमियों के संग जाओ। वे लोग तुम्हारी इज्जत करते और तुमसे डरते भी हैं।
गौहर : ऐसा करने से मेरे काम में क्या हर्ज नहीं पड़ेगा? तुम तो जानती ही हो कि मैं कैसे नाजुक काम के लिए...
गिल्लन : हाँ हाँ, सो सब मैं अच्छी तरह जानती हूँ और अब समझ-बूझकर ही ऐसा कह रही हूँ। तुम्हारे काम में मदद ही मिलेगी, हर्ज किसी प्रकार का न पड़ेगा।
गौहर : अच्छी बात है, तुम्हें उन लोगों का पता ठिकाना मालूम है?
गिल्लन : हाँ बखूबी, और इस समय हम लोग उसी तरफ जा भी रहे हैं, अगर इसी चाल से चलते गये तो दोपहर होते-होते उन लोगों के अड्डे तक पहुंच सकते हैं।
कुछ देर के लिए तीनों आदमी चुपचाप हो गये। गौहर न जाने क्या सोच रही थी और उसके दोनों साथी भी मन ही मन जाने कैसे-कैसे बांधनू बाँध रहे थे। आखिर कुछ याद आ जाने पर गिल्लन ने चौंक कर गौहर से पूछा, ‘‘अच्छा तुम बलभद्रसिंह से मिली थीं?’’
गौहर : कहाँ से, मैं जमानिया पहुँचने भी न पाई कि कम्बख्त भूतनाथ के कब्जे में पड़ गई।
गिल्लन : तो तुम्हें पहिले वही काम करना चाहिये नहीं तो तुम्हारे पिता नाराज होंगे और तुम्हें आजादी के साथ इस तरह घूमने ...
गौहर : नहीं नहीं, मैं उस काम को भूली नहीं हूँ, उसे जरूर करूंगी और इस खूबसूरती के साथ करूँगी कि वे भी खुश हो जायेंगे। अच्छा यह कहो कि तुम यहाँ कैसे आ पहुँची?
गिल्लन : मुझे तुम्हारे पिता ने तुम्हारी मदद के लिये भेजा है और कहा है कि जिद्दी लड़की अकेली चली गई है, अस्तु तुम भी जाओ और उसकी मदद करो क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह अभी ऐयारी में पक्की नहीं हुई है और हिम्मती बहुत होते हुए भी धोखा खा सकती है, मगर असल तो यह है कि मैं उनके सबब से उतना नहीं आई हूँ जितना तुम्हारी माँ के सबब से। उन्हीं के जोर से मुझे आना पड़ा क्योंकि वे तुम्हें बेहद चाहती हैं और एक पल के लिये भी आँखों की ओट होने देना पसन्द नहीं करतीं।
गौहर : (हँसकर) सच तो यह है कि मेरा यह ऐयारी सीखना उन्हें जरा भी नहीं भाया है, इस बार तो मैं किसी तरह जिद्द करके चली आई पर आगे ऐसा मौका शायद ही पा सकूँ।
गिल्लन : हाँ मालूम तो मुझे भी ऐसा ही होता है।
गौहर : मगर घर के बाहर निकल कर तो मुझे ऐसी-ऐसी बातें मालूम हुई हैं कि जिनका ठिकाना नहीं और जिनके सबब से बहुत सम्भव है कि मैं झंझट में पड़ जाऊँ, खैर जो होगा देखा जायगा।
इसी किस्म की बातें करती हुई गौहर धीरे-धीरे चली जा रही थी। रात नाम मात्र को बाकी रह गई थी, अपने मालिक सूर्यदेव की आवाई जान चन्द्रमा हुकूमत के सिंहासन पर से उतर जाने की तैयारी कर रहे थे और उनकी यह हालत देख मातहत तारों ने भी मुँह छिपाना शुरू कर दिया था। ऐसे समय में गौहर एक टीले के पास पहुँचकर रुकी और बोली, ‘‘यहाँ कुछ देर के लिए रुक जाना चाहिए।’’
गौहर घोड़े के पीठ पर से उतर पड़ी और गिल्लन ने भी जीन खाली कर दी। सांवलसिंह ने दोनों घोड़ें को लम्बी बागडोर के साथ बाँध दिया जिसमें वे अपनी थकावट मिटा लें और तब से तीनों सुबह की सुहानी छटा का आनन्द लेने की नीयत से उस टीले पर चढ़ने लगे।
टीले पर से दूर-दूर की छटा दिखाई दे रही थी। गौहर बड़ी प्रसन्नता के साथ देर तक अपने चारों तरफ देखती रही। इतने में ही यकायक उसकी निगाह दो सवारों पर पड़ी जो आते हुए दिखाई पड़ रहे थे। उसने गिल्लन से कहा ‘‘सखी, देख तो ये दोनों सवार कौन हैं जो पूरब तरफ जा रहे हैं?’’
तीनों कुछ देर तक और उस तरफ देखते रहे। अभी पूरा चांदना न हुआ और दूसरे वे सवार भी दूर थे उससे सूरत-शक्ल के विषय में तो कुछ कहा नहीं जा सकता, हाँ इतना जरूर मालूम होता था कि उनमें से एक तो मर्द और दूसरी औरत।
गौहर : (गिल्लन से) पता लगाना चाहिये कि ये दोनों कौन हैं।
सांवल : इन व्यर्थ की बातों में क्या धरा हुआ है! तुम्हें अपने काम से मतलब है या दुनिया से? ये दोनों कोई हों तुम्हें क्या?
गौहर : नहीं, मेरा दिल गवाही देता है कि उन दोनों से अवश्य ही मेरा कुछ न कुछ काम निकलेगा। मैं अवश्य पता लगाऊँगी।
गिल्लन : जैसी तुम्हारी मर्जी।
सांवल : यदि ऐसा ही है तो चलो हम तीनों आदमी साथ ही चल चलें, आखिर उधर ही तो हमें भी जाना है।
गौहर : नहीं ऐसा करने से मुमकिन है कि दोनों होशियार होकर निकल जायँ, (गिल्लन से) सखी, तुम जाओ और पता लगाओ कि वे दोनों कौन हैं?
सांवल : अगर ऐसा ही है तो मैं जाता हूँ और पता लगाने की कोशिश करता हूँ, मगर तुम दोनों इसी जगह रहना और कहीं मत जाना।
गौहर : हाँ हाँ, तुम जाओ, हम दोनों इसी जगह हैं।
साँवलसिंह यह सुन टीले के नीचे उतरा और शीघ्र ही उन दोनों सवारों की तरफ जाता हुआ दिखाई पड़ा जो अब कुछ दूर निकल गये थे।
सांवलसिंह के दूर निकल जाने पर गौहर ने मुस्कुराकर गिल्लन की तरफ देखा और कहा, ‘‘तुम समझती होगी कि मैंने सांवल को व्यर्थ के काम पर भेज दिया, पर वास्तव में ऐसा नहीं है, मुझे कुछ ऐसी बातें कहनी हैं जिनका जिक्र उसके सामने करना पसन्द न था। आओ बैठ जाओ और मेरी बातें सुनो।’’ इतना कह कर गौहर एक साफ जगह देख कर बैठ गई और धीरे-धीरे गिल्लन से कुछ कहने लगीं।
साँवलसिंह तेजी के साथ चलता हुआ शीघ्र ही उन दोनों सवारों के पास जा पहुँचा जो बड़ी बेफिक्री के साथ धीरे-धीरे पूरब की तरफ जा रहे थे। उन दोनों सवारों में से एक तो मर्द था और दूसरी औरत। पोशाक और पहनावे आदि से वे दोनों अमीर खानदान के मालूम होते थे और उनकी सवारी के घोड़े भी बहुत तेज चंचल और ताकतवर थे मगर इस समय इन दोनों ही के चेहरे नकाबों से ढंके हुए थे जिस सबब से इनका पहिचानना कठिन हो रहा था।
जिस तरह वह मर्द तीर-कमान और ढाल-तलवार लगाये हुए था उसी तरह वह औरत भी, बल्कि और छोटा सा बटुआ भी उनकी बगल से लटक रहा था जिससे गुमान होता था कि यह अवश्य कोई ऐयार है। ये दोनों, जिन्हें इस बात का कुछ भी सन्देह न था कि कोई आदमी हमारा पीछा कर रहा है, बेफिक्री के साथ बातें करते हुए जा रहे थे।
कुछ देर बाद यह कह कर उस मर्द ने चेहरे पर से नकाब उलट दी, ‘‘और ऐसे समय में यह भारी नकाब तो बहुत ही बुरी मालूम हो रही है।’’ जिसके जवाब में उस औरत ने कहा, ‘‘इस वक्त हम लोगों को देखने ही वाला कौन है।
पाठक, नकाब हट जाने से अब आप इस आदमी को बखूबी पहिचान सकते हैं। यह हमारे बहादुर प्रभाकरसिंह हैं और इनके साथ जो औरत है वह कदाचित वही है जिसे अब से पहिले दो बार और उनके साथ देख चुके हैं, एक बार तो जब प्रभाकरसिंह दारोगा की कैद से छूटे थे तब और दूसरी बार जब तिलिस्म के अन्दर जाते हुए इन्द्रदेव और दलीपशाह ने उन्हें देखा था। सम्भव है कि इस औरत को पाठक और भी कई बार इनके साथ देखें अस्तु जब तक असल हाल और नाम न मालूम हो जाय तब तक के लिये इसका कोई बनावटी नाम रख देना उचित होगा। हमारी समझ में कालिन्दी नाम कुछ बुरा न होगा।
प्रभाकरसिंह को चेहरे पर से नकाब हटाते देख सांवलसिंह मौका समझ चक्कर काटता हुआ पेड़ों की आड़ में कुछ आगे हो गया और वहां से इनकी सूरत अच्छी तरह देखी। सांवलसिंह स्वयं भी ऐयार था इस कारण और किसी दूसरे सबब से भी जो शायद आगे चलकर मालूम हो, वह प्रभाकरसिंह को बाखूबी पहिचानता था अस्तु इस जगह इस तरह पर उन्हें देख चौंका और यह जानने की कोशिश करने लगा कि इनके साथ की औरत कौन है और ये दोनों कहाँ जा रहे हैं। वह जहाँ तक हो सका उनके घोड़ों के और नजदीक हो गया और बातें सुनने लगा।
प्रभा० : आज का परिश्रम भी व्यर्थ हुआ।
कालिन्दी : हाँ अब तो यही कहना पड़ेगा।
प्रभा० : तुम्हारी इस किताब से तिलिस्म का पूरा हाल नहीं मालूम होता नहीं तो अवश्य उन लोगों का पता लग जाता।
कालिन्दी : फिर इस बात में सन्देह करने की कोई जगह अब नहीं रह गई है कि उन दोनों लोगों को दारोगा ही ने तिलिस्म में फंसा दिया है।
प्रभा० (कुछ सोच कर) मेरी राय तो अब यही होती है कि इन्द्रदेवजी के पास चला जाऊँ और सब बातें उनसे कह दूँ। वे बुद्धिमान आदमी हैं, अवश्य कोई न कोई तरकीब उन लोगों के छुड़ाने की निकालेंगे।
कालिन्दी : आप स्वतन्त्र हैं, ऐसा कर सकते हैं मगर......
प्रभा० : मेरी समझ में नहीं आता कि तुम्हें ऐसा करने में क्यों आपत्ति है! क्या तुम्हारा इन्द्रदेवजी से कोई झगड़ा है?
कालिन्दी : (हंसकर) भला मेरा उनका क्या झगड़ा?
प्रभा० : अगर ऐसी बात है तो अवश्य मेरे साथ तुम्हें भी उनके पास चले चलना चाहिए।
कालिन्दी : (कुछ सोचकर) अच्छा दो दिन की मोहलत मैं और चाहती हूँ, दो रोज के बाद ऐसा ही करूँगी!
प्रभा० : खैर दो दिन और सही।
सांवलसिंह ने जो दोनों की बातचीत सुनता हुआ बराबर चला आ रहा था अब इनका साथ छोड़ दिया और पीछे की तरफ लौटा क्योंकि एक तो इनकी बातचीत में कोई बात ऐसी मालूम न हुई जो उसके मतलब की हो, दूसरे गौहर और गिल्लन को भी वह बहुत पीछे छोड़ आया था और शीघ्र ही उनके पास लौट जाना जरूरी समझता था।
प्रभाकरसिंह और कालिन्दी ने भी अपने घोड़ों को तेज किया और शीघ्र ही उस टीले के पास जा पहुँचे जिसके ऊपर बने हुए बंगले को इन्होंने आजकल अपना डेरा बनाया हुआ था।१ टीले के नीचे ही उस औरत का एक साथी खड़ा मिला। जिसके सुपुर्द दोनों घोड़े कर दिए गए तब ये दोनों टीले के ऊपर चढ़ने लगे। (१. देखिए भूतनाथ नौवाँ भाग, आठवाँ बयान।)
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