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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


हम नहीं कह सकते कि डर और घबराहट के कारण हुई भूतनाथ की यह दूसरी बेहोशी कितनी देर तक रही। केवल घड़ी भर तक या पूरे दिनभर वह बेहोश रहा इसे भी हम नहीं जानते और खुद भूतनाथ ही समझ सकता है।

एक अँधेरी कोठरी में भूतनाथ अपने को पा रहा है। उसके चारों तरफ इतना अंधकार है कि आँख के पास लाने पर भी हाथ दिखाई नहीं पड़ता। वह नहीं कह सकता कि यह समय दिन का है या रात का, और अब कहाँ है, उसी अद्भुत स्थान में या किसी और जगह।

जो कुछ वह देख और सुन चुका है उसने उसे बेहद परेशान कर रक्खा है। उसके दिल पर गहरा सदमा पहुँचा है और वह न जाने किस सोच में पड़ा हुआ आँखों से गर्म-गर्म आँसू निकालता हुआ अपने कपड़े तर कर रहा है। यकायक उसका ध्यान एक आवाज की तरफ गया जो कहाँ से आ रही थी, उसके पास ही कहीं से या किसी दूसरी जगह से इसे तो वह नहीं समझ सका पर इतना जान गया कि किसी जगह दो आदमी आपुस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। उसने उस आवाज की तरफ कान लगाया और कुछ देर बाद इस तरह की बातचीत सुनी-

एक आवाज : तो अब इस कम्बख्त को यहाँ कब तक रक्खे रहोगे? मेरी तो राय है इसे जान से मार बखेड़ा तय करो!

दूसरा : सो क्यों?

पहिला : यह जब तक जीता रहेगा अनर्थ ही करता रहेगा। इसे साँप का बच्चा समझो, जीता छोड़ोगे तो न जाने कितनों की जानें लेगा।

दूसरा : नहीं नहीं, अब ऐसा नहीं करेगा!

पहिला : अवश्य करेगा, जरूर करेगा, हजार बार वही काम करेगा जैसा अब तक करता आया है।

दुष्ट को जीता छोड़ना एक साधु को मार डालने से बढ़ कर बुरा है। भला तुम भी सोचो, कब से हम लोग इसे जीता छोड़ते आये हैं, कै बार जानबूझकर इसे छोड़ दिया, कितनी बार इसके कसूरों पर ध्यान न दे इसे माफ किया है, पर क्या इसने कभी भी अपना ढंग बदला? मैंने कई बार स्वयं यह समझ इसे छोड़ दिया कि कदाचित् अब भी सम्हल जाय। यह अपनी शैतानी से कभी बाज न आया और न आवेगा। क्या तुम कह सकते हो कि ऐसा कोई भी पाप है जो इसके हाथ से न हुआ हो!

दूसरा : बेशक इसने पाप तो बहुत किये हैं।

पहिला : और जब तक जीता रहेगा करता ही रहेगा! इससे मुनासिब यही है कि इसे एकदम से मार बखेड़ा तय कर दिया जाय। इसने जो लोगों को तरह-तरह के कष्ट दिये हैं, तरह-तरह के दुख दिये हैं, सो भला इसे भी तो कुछ मालूम हो कि ऐसे कामों का नतीजा क्या निकलता है।

दूसरा : खैर तुम्हारी राय है तो ऐसा ही सही, मगर...

पहिला : मगर क्या?

दूसरा : मगर मैं तो समझता था कि एक बार इसे और माफ कर दिया जाय और देखा जाय कि अब भी सम्हलता है या नहीं, यदि इस बार भी अपने को नहीं सुधारेगा तो अवश्य इसे मार डालेंगे। हम लोगों से यह बच तो सकता ही नहीं है, जब चाहेंगे पकड़ लेंगे!

पहिला : नहीं भाई, मैं तो इस बात को न मानूँगा, और फिर हमारे मालिक का भी तो हुक्म यही है कि यह जीता न छोड़ा जाय।

दूसरा : खैर तो ऐसा करो, एक बार मालिक ही से चलकर कहें, शायद उन्हें दया आ जाय तथा कोई और हुक्म दे दें।

पहिला : अच्छा चलो, यद्यपि मेरी समझ में इसका कोई नतीजा न निकलेगा- खैर इधर से आओ।

भूतनाथ बड़ी बेचैनी के साथ इन बातों को सुन रहा था। उसे विश्वास हो गया था कि अब वह किसी तरह जीता न रहेगा।

अपने पिछले कर्मों को वह बराबर विचार रहा था और सोच रहा था कि बेशक इन लोगों का कहना ठीक है, मैंने अपनी जिंदगी व्यर्थ ही गंवाई, पापों का बोझ बढ़ाया, और दुष्कर्मों की गठरी पीठ पर लादी। उसके पिछले सभी दुष्ट कर्म इस समय उसकी आँखों के सामने आ-आ कर उसे सताने लगे और उसके बदन में थरथरी पैदा हो गई।

इसी समय पुन: उन आदमियों के लौटने और बातें करने की आवाज आई। एक ने कहा, ‘‘लो अब तो उनका हुक्म भी हो गया।’’ दूसरे ने कहा, ‘‘हाँ ठीक है, तो ले चलो इसे अन्धकूप में डाल दें।’’

कुछ सायत के लिए सन्नाटा हुआ और इसके बाद ही कई प्रकार के कल-पुर्जों के घूमने और चलने-फिरने की आवाज आने लगी। यकायक भूतनाथ के मुँह से एक चीख की आवाज निकल गई क्योंकि उसके नीचे की जमीन बड़े जोर से हिली और तब उसे लिये तेजी के साथ नीचे की तरफ चली।

कुछ देर के बाद जमीन थमी और उसके साथ ही उसमें एक तरफ से न जाने किस तरह से ऐसी ढाल पैदा हो गई कि भूतनाथ सम्हल न सका और फिसल कर लुढ़कता हुआ नीचे की तरफ जाने लगा। मगर कुछ ही देर बाद उसका शरीर कोई रुकावट पाकर रुक गया और वह सम्हलकर उठ बैठा।

यहाँ अन्धकार ऊपर से भी कुछ ज्यादा ही था और हवा ऐसी खराब थी कि साँस लेने में तकलीफ होती थी। इस जगह जहाँ भूतनाथ अब था, चारों तरफ से इस प्रकार की विचित्र-विचित्र आवाजें आ रही थीं कि उसका दिमाग परेशान हो रहा था। ऐसा मालूम होता था मानों उसके चारों तरफ और आस ही पास में बहुत तेजी के साथ कई तरह के कल-पुरजे घूम या चल रहे हैं जिनके कारण यह गूँजने वाली आवाज पैदा हो रही है। अन्धकार के कारण भूतनाथ अपने हाथ-पाँव हिलाने से भी डरता था कि कहीं किसी पुरजे में लग उसके टुकड़े टुकड़े न हो जाँय।

कुछ देर तक यही हालत रही, तब उन पुरजों के घूमने की आवाज और भी तेज हुई और इसके बाद ही एक प्रकार की बहुत ही तेज रोशनी उस जगह पैदा हुई जिसने उस डरावनी जगह की हर एक चीज भूतनाथ की आँखों के सामने कर दी...

भूतनाथ ने देखा कि वह लगभग बीस हाथ की गोलाई में बने हुए एक गोल कमरे में है जिसकी छत इतनी ऊँची है कि दिखाई नहीं पड़ती और वह जगह एक कुएँ की तरह मालूम हो रही है।

इस गोल कमरे में चारों तरफ बहुत से चक्र, नुकीले और तेज धार वाले बरछे, दुधारी तलवारें और इसी प्रकार के अन्य बहुत से अस्त्र-शस्त्र हैं और वे सभी चीजें एक प्रकार से एक खास तौर पर हरकत कर रही हैं। बीचोंबीच में लगभग दो-तीन हाथ के जमीन खाली है और बाकी सभी तरफ ये खौफ पैदा करने वाली चीजें फैली हुई हैं।

भूतनाथ समझ गया कि अगर वह अपनी जगह छोड़ जरा भी किसी तरफ हिलेगा तो ये चक्र, हथियार और बरछे उसके बदन के टुकड़े-टुकड़े काट कर उड़ा देंगे। भूतनाथ एकदम काँप गया और उसने अपनी जिन्दगी की बिल्कुल आशा छोड़ दी। कुछ देर बाद आवाज़ें धीमी पड़ गईं और वह रोशनी भी जो एक शीशे के गोले में से निकल रही थी जाती रही जिससे वहाँ पुन: अन्धकार छा गया।

चारों तरफ से अपने बदन को सिकोड़े भूतनाथ उस अन्धकूप में बैठा अपनी मुसीबत की घड़ियां गिनने लगा। उसे यह निश्चय हो गया कि अब वह सदा के लिये इसी स्थान में डाल दिया गया जहाँ वह अपना हाथ-पैर भी हिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता और जहाँ बैठे-बैठे ही उसे अपनी आखिरी साँस लेनी पड़ेगी। जिन्दगी से बिल्कुल ही ना उम्मीद हो वह दोनों हाथ जोड़ ईश्वर से प्रार्थना करने लगा।

बहुत देर तक भूतनाथ ईश्वर से प्रार्थना और विनती करता रहा। जो कुछ पाप उसने किए थे उनके लिए सच्चे दिल से पश्चात्ताप करते हुए उसने आगे के लिए अपने को सुधारने की प्रतिज्ञा की, यहाँ तक कि इसी अवस्था में उसे एक प्रकार का गश सा आ गया और वह कुछ बेहोश सा हो वहीं जमीन पर लुढ़क गया।

यकायक वहाँ एक अद्भुत मूर्ति का प्रादुर्भाव हुआ। वह तमाम कोठरी एक तेज रोशनी से भर गई और उसी रोशनी में चन्द्रमा माथे पर धारण किये और त्रिशूल हाथ में लिये एक जटाधारी शिवमूर्ति का भूतनाथ को दर्शन हुआ।

अद्भुत शिवमूर्ति को देखते ही भूतनाथ गद्गद् हो हाथ जोड़ जमीन पर लोट गया। उसके रुंधे हुए गले से अस्पष्ट रूप से यह आवाज निकली-- ‘‘महात्मा! आप कोई भी हों, साक्षात त्रिशूलधारी शिव ही हो या कोई योगिराज ही हों, गदाधरसिंह हाथ जोड़ विनीत हो इन चरणों में दण्डवत करता है। वह अपने पिछले कर्मों के लिए ऐसे कामों को सदा के लिए तिलांजलि देता है।

और प्रतिज्ञा करता है कि अपने को सुधारेगा और भविष्य में ऐसे कर्म करेगा जिनकी सहायता से पिछली बदनामी की कालिख धो सके, और साथ ही इस बात की भी प्रतिज्ञा करता है कि यदि ऐसा न कर सका, यदि पुन: उसने न्यायपथ के विरुद्ध पैर रक्खा, यदि कभी दुष्कर्मों की तरफ उसका चित्त बढ़ा तो सदा के लिए संसार छोड़ देगा और अपना काला मुंह फिर किसी को नहीं दिखावेगा। एक बार उसे मौका दिया जाय यही उसकी प्रार्थना है!!’’

भूतनाथ की सच्चे दिल के साथ निकली हुई इन बातों को सुन उस मूर्ति के गम्भीर चेहरे पर मुस्कराहट की एक आभा दिखाई पड़ी और साथ ही एक गंभीर आवाज में भूतनाथ को ये शब्द सुनाई पड़े-- ‘‘गदाधरसिंह, मैं इस बार तुझे क्षमा करता हूँ, परन्तु देख खबरदार, यदि अपने कहे से जरा भी विचला तो इस बार तेरा कल्याण नहीं है इस कह वह शिवमूर्ति आगे बढ़ी और उसने अपना दाहिना हाथ जो खाली था, भूतनाथ के सिर पर फेरा। उस हाथ का स्पर्श होते ही भूतनाथ का शरीर कांपा और वह बेहोश हो गया।

जब भूतनाथ होश में आया तो उसने अपने को उसी नाले के किनारे पड़े हुए पाया जहाँ से एक औरत के पीछे पानी में कूद उसने अपने को इस आफत में फंसाया था। उस समय पौ फट चुकी थी बल्कि पूरब तरफ आकाश में सूर्य की लालिमा फैल रही थी।

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