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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


दूसरे दिन बहुत सवेरे ही भूतनाथ लामाघाटी के बाहर निकला और तेजी के साथ पूरब की ओर रवाना हुआ।

इस समय भूतनाथ का मन तरह-तरह की चिन्ताओं से बड़ा ही व्याकुल हो रहा था। गौहर के निकल जाने का जो कुछ रंज था वह तो था ही, उसके सिवाय इसके पहले जो कुछ घटनाएँ हो चुकी थीं वे भी उसे बेचैन कर रही थीं। सबसे बढ़कर उसे जमना और सरस्वती के मामले ने बेचैन कर दिया था जिन्हें वह क्रोध के आवेश में आ कुछ ही समय हुए जान से मार चुका था। उसे सबसे भारी तरद्दुद इस बात का लगा हुआ था कि अगर इन्द्रदेव को इस बात का पता लग जाएगा तो वह कहीं का भी नहीं रहेगा और दुनिया में मुँह दिखाना उसके लिए कठिन हो जाएगा क्योंकि यह तो अब उसे मालूम हो ही चुका था कि इन्द्रदेव उन दोनों की मदद कर रहे हैं और बराबर किया करते थे।

सिर झुकाए हुए भूतनाथ बहुत देर तक चलता ही चला गया। उसे यह भी होश न रह गई कि वह किधर जा रहा है और अब दिन कितना ढल गया है। आखिर एक बहुत ही घने और भयानक जंगल में पहुँच वह रुका और ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखने लगा कि मैं कहाँ आ पहुँचा।

शीघ्र ही उसे मालूम हो गया कि यह जगह जमानिया से बहुत दूर नहीं है और स्थान ही वही है जहाँ एक बार वह कुँअर गोपालसिंह का पीछा करता हुआ उस समय आया था जब कई आदमियों ने उन पर हमला कर लिया था और दारोगा तथा जैपाल ने पहुँचकर उन्हें बचाया था क्योंकि उसके ठीक सामने ही वह नाला बह रहा था जिसमें गोपालसिंह कूद पड़े थे और पास ही में वह पत्थरों का ढेर भी मौजूद था। (१.देखिए भूतनाथ आठवाँ भाग, दूसरा बयान।)

भूतनाथ को थकावट आ गई थी अस्तु उसका इरादा हुआ कि कुछ देर यहाँ ठहर जाए और जरूरी कामों से छुट्टी पा ले। इस इरादे से उसने अपने कपड़े इत्यादि उतारकर नाले के किनारे रख दिए और बैठकर सुस्ताने लगा। जब बदन की गर्मी दूर हो गई तो जरूरी कामों से निपट उसने नाले के साफ जल से हाथ-मुँह धोया और तब स्नान किया। गीले कपड़े एक पेड़ पर डाल दिए और सूखने का इन्तजार करने लगा।

इसी समय यकायक कुछ शब्द हुआ और उस नाले के जल में खलबलाहट पैदा होने लगी। भूतनाथ कुछ आश्चर्य और गौर से देखने लगा कि अब क्या होता है।

थोड़ी देर के बाद पुन: कुछ आवाज आई और जल की खलबलाहट बन्द हो गई मगर साथ ही ऐसा मालूम हुआ कि मानों कोई आदमी जल के भीतर से गोता लगाकर ऊपर आ रहा है। थोड़ी ही देर में शक जाता रहा जब उसने एक हसीन और खूबसूरत औरत को पानी में से सिर निकालते हुए देखा।

उस औरत का मुँह दूसरी तरफ होने के कारण वह भूतनाथ को देख न सकी मगर भूतनाथ ने उसे बाखूबी देख लिया और इस इरादे से किनारे के पास से हट आड़ में चला गया कि वह पानी से निकल किनारे पर आवे तो मालूम हो जाए कि क्या मामला है और वह औरत कौन है।

वह औरत कुछ देर बाद पानी के बाहर निकली और जब चारों तरफ सन्नाटा पाया तो नाले के किनारे जमीन पर बैठ गई। उस समय भूतनाथ आड़ से निकला और उसकी तरफ चला। पैरों की आहट सुनते ही वह औरत चौकन्नी हो उठ खड़ी हुई और भूतनाथ को अपनी तरफ आते देख क्रोध भरी निगाहों से उनकी तरफ देखने लगी।

उसके ढंग से मालूम होता था कि वह भूतनाथ को देख बहुत ही नाराज है और वहाँ आना उसे पसन्द नहीं है। भूतनाथ कुछ सम्हल कर खड़ा हो गया क्योंकि आज के पहिले उसने ऐसी नाजुक हसीन और खूबसूरत औरत नहीं देखी थी।

मगर इसी समय यकायक उस औरत ने जोर से एक चीख मारी और तब पीछे हट उसी नाले में कूद पड़ी। भूतनाथ भी, जिस पर उस औरत की सूरत ने कुछ अजीब-सा असर किया था, लपका और उस औरत के पीछे-पीछे इसने भी अपने को जल में डाल दिया। इसी समय नाले का पानी बीचोंबीच में से इस तेजी के साथ चक्कर खाने लगा कि भूतनाथ के हाथ-पाँव एकदम बेकार हो गए और वह घबड़ाकर बदहवास-सा हो गया, यहाँ तक कि कुछ सायत और बीतने के बाद उसे तनोबदन की सुध न रह गई।

भूतनाथ जब होश में आया तो उसने अपने को एक अद्भूत स्थान में पाया। एक खुशनुमा मगर छोटे बाग को चारों तरफ से आलीशान इमारतों ने घेरा हुआ था जो यद्यपि पुराने जमाने की थीं मगर फिर भी कहीं से बेमरम्मत या टूटी-फूटी नहीं थीं।

पूरब की ओर अर्थात् भूतनाथ के सामने की तरफ एक चौमंजिली इमारत थी जिसका नीचे का हिस्सा तो पत्थर का था मगर ऊपरी हिस्सा बिल्कुल संगमर्मर का था और सूर्य की अन्तिम किरणों के पड़ने से विचित्र शोभा दे रहा था। इसी इमारत की तरफ भूतनाथ आश्चर्य के साथ देखने लगा, क्योंकि इसमें बाकी तरफ की इमारतों से उसने कुछ विचित्रता पाई।

इस इमारत के ऊपरी हिस्से में जो उस जगह से जहाँ भूतनाथ बैठा था साफ-साफ नजर आ रहा था, एक बारहदरी थी जिसके दोनों तरफ जो कोठरियाँ थीं,

इस खुली बारहदरी की छत को पतले-पतले संगमूसा के काले खम्भों ने अपने सिर पर सम्हाला हुआ था और इन हर एक खम्भों के बीच में सुफेद महराव था। इस समय जिस चीज पर भूतनाथ की निगाह गौर और ताज्जुब के साथ बल्कि कुछ डर लिए हुए पड़ रही हैं। दूर से देखने में ऐसा मालूम होता है मानो ग्यारह आदमी ग्यारह कड़ियों के साथ फाँसी लटकाए गए हैं, बाई तरफ़ की सबसे अन्तिम एक महाराब खाली है यानी उसके साथ कोई लाश नहीं लटकती है। तेज हवा के झोकों के कारण लाशें कभी हिल जाती हैं मगर इसके सिवाय और किसी तरह की हरकत उनमें नहीं है।

बदहवास भूतनाथ देर तक ताज्जुब के साथ इन लाशों को देखता और साथ-साथ इस बात पर भी गौर करता रहा कि वह किस तरह यहाँ आ पहुँचा, पर आखिर उससे रहा न गया और वह अपनी जगह से उठ आगे बढ़ा कि उस सामने वाले मकान के पास जाकर देखें कि यह क्या मामला है।

इस छोटे से बाग में सिवाय फूलों के या और छोटे पौधों के बड़े पेड़ बिलकुल ही न थे परन्तु एक छोटी-सी नहर जरूर एक तरफ से आई और बाग में चारों तरफ फैली हुई थी जिसके सबब से यहाँ के पौधे हर मौसिम में सरसब्ज बने रह सकते थे। भूतनाथ इस नहर को पार करता हुआ सामने के मकान के पास जा पहुँचा मगर यहाँ उसे रुक जाना पड़ा क्योंकि आगे बढ़ने की जगह न थी और उन लाशों को देखना चाहा मगर वह भी न हो सका क्योंकि एक चौड़ी छजली की आड़ पड़ जाने के कारण वे लाशें जो दूर से साफ दिखाई पड़ती थीं, मकान के पास आ जाने पर आँखों की ओट हो जाती थीं।

नीचे की मंजिल में कोई दरवाजा ऐसा नजर न आया जिसकी राह कोई आदमी उस मकान के अन्दर आ सके अस्तु लाचार भूतनाथ ने वहाँ से हटना चाहा मगर उसी समय एक खटके की आवाज आई और सामने की दीवार में छोटा-सा दरवाजा दिखाई पड़ने लगा जिसके अन्दर ऊपर चढ़ जाने की छोटी सीढ़ियाँ दिखाई पड़ रही थीं।

डरते और आश्चर्य करते हुए भूतनाथ ने दरवाजे के अन्दर सीढ़ियों पर पैर रक्खा और ऊपर की तरफ चढ़ना शुरू किया, ये सीढ़ियाँ कुछ दूर तक तो सीधी चली गई थीं पर इसके बाद घूमती हुई ऊपर की तरफ उठने लगीं मानों किसी बुर्ज या मीनार पर जाने के लिए बनी हों। इन सीढ़ियों पर इस समय अन्धकार बिल्कुल न था क्योंकि मौके-मौके पर बने हुए मोखों पर छेदों की राह काफी रोशनी और हवा वहाँ आ रही थी। भूतनाथ सीढ़ियाँ चढ़ने के साथ ही साथ उन्हें गिनता भी जाता था।

अस्सी सीढ़िया चढ़ जाने के बाद ऊपर की तरफ चाँदना मालूम होने लगा लगा जिससे पता लगा कि अब सीढ़ियों का अन्त आ पहुँचा। भूतनाथ ने आश्चर्य और उत्कंठा के साथ कुछ सीढ़ियाँ और तय कीं और तब जिस जगह अपने को पाया वह एक बारहदरी थी जो बिल्कुल संगमरमर की बनी हुई थी।

जान लेने में भूतनाथ को कुछ भी विलम्ब न लगा कि वह उसी जगह आ पहुँचा है जिसे नीचे से देखा था क्योंकि सामने ही संगमूसा के खम्बों के बीच लटकती हुई वे ग्यारह लाशें दिखाई पड़ रही थीं जो नीचे से नजर आई थीं। इस दालान और उसकी बनावट पर कुछ भी ध्यान न दे धड़कते हुए कलेजे के साथ भूतनाथ ने उन लाशों की तरफ कदम बढ़ाया जो वहाँ से लगभग बीस हाथ के फासले पर थीं।

ओफ, उस समय भूतनाथ की क्या अवस्था हुई जब उसने पास जाकर लाशों को देखा और पहिचाना!

पहिली लाश जिस पर उसकी निगाह पड़ी दयाराम की थी। उनके गले में मोटे रेशमी रस्से का फन्दा पड़ा हुआ था जिसका दूसरा सिरा ऊपर की कड़ी में मजबूत बंधा हुआ था और इसी रस्से के सहारे वह लाश टँगी हुई थी। इस लाश के दोनों तरफ इसी तरह लटकती हुई दो लाशें जमना और सरस्वती की थीं।

इसके बाद तीन लाशें और थीं जो सभी भूतनाथ के शागिर्दों की थीं और जिन्हें भूतनाथ ने अच्छी तरह देखा और पहिचाना। गुलाबसिंह के बाद दो लाशें और थीं पर उनका मुँह दूसरी तरफ घूमा हुआ होने के कारण भूतनाथ पहिचान न सका। इसके भी बाद फिर बारहवीं दर खाली थी यानी इसके साथ कोई लाश न थी पर एक रेशमी फन्दा जरूर लटक रहा था।

केवल इतने पर बस न था। भूतनाथ ने बचे-बचाए हवास भी उस समय आते जाते रहे जब दयाराम की लाश को बाकी लाशों से बातें करते सुना, उससे सिवाय इसके और कुछ न बन पड़ा कि उसी जगह फर्श पर बैठ जाए और लाचारी के साथ उन लोगों की बातचीत को सुने। दयाराम की लाश बेचैनी के साथ जमना की तरफ घूमी और बोली, ‘‘जमना, यह मैं किसे अपने सामने देख रहा हूँ?’’

जमना की लाश : नाथ, यह वही गदाधरसिंह ऐयार जो किसी जमाने में आपका साथी और दोस्त था।

दयाराम की लाश : हैं, यह वही गदाधर है? तो यह यहाँ किस तरह आया? क्या हम लोगों की तरह इसकी भी अकाल-मृत्यु हुई है जो यह यहाँ भेजा गया है?

जमना : नहीं नाथ, यह अभी मरा नहीं है। यह तो मैं नहीं कह सकती कि यहाँ किस तरह आया है पर इतना जानती हूँ कि मुझे यहाँ भेजकर अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए यह संसार में ही रह गया था।

इतने ही में गुलाबसिंह की लाश के मुँह से आवाज निकली :-

‘‘नहीं, यह संसार में दुष्कर्मों का फल भोगने को नहीं रहा बल्कि उन्हें करने के लिए रहा है और इस समय जब यह यहाँ आ ही गया है तो हम लोगों को चाहिए कि इससे अपना बदला लेने के पहले यह सवाल करें कि हमने इसका क्या बिगाड़ा था जो इसने ऐसा क्रूर व्यवहार हम लोगों के साथ किया!’’

यह बात सुनते ही सरस्वती की लाश घूमी और बोली, ‘‘पहिला सवाल मैं इससे यह करूँगी कि इसने मुझे और मेरी बहन को क्यों विधवा किया!!’’

गुलाब की लाश : मैं इससे पूछता हूँ कि इसने मुझे क्यों मारा?

बाकी लाशें : हम लोग भी इसी बात का जवाब सुना चाहते हैं!!

जमना की लाश : संसार में आ इसने क्या-क्या उपद्रव, क्या-क्या अनर्थ नहीं किया? कौन दुष्कर्म ऐसा था जो इसके हाथ से नहीं हुआ! अपने दोस्त और मालिक की हत्या तो की ही उनकी स्त्रियों की भी जान ली, अपने दोस्त गुलाबसिंह को मारा और अपने हाथ से अपने प्यारे शागिर्दों को मारते हुए भी न हिचकिचाया!

पापियों के साथ मिल सब तरह के पाप किए और ऐयाशों के साथ ऐयाशी, पर कभी भी यह नहीं विचारा कि मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे कामों को देखने वाला और न्याय करने वाला भी कोई है या नहीं!

कभी उसने इस बात पर ध्यान न दिया कि जो मैं कर रहा हूँ वह भला है या बुरा और उसका नतीजा भी मुझे भोगना पड़ेगा या नहीं? इसने दोस्ती को दोस्ती न समझा, दया और धर्म का नाम नहीं लिया, यहाँ तक कि अपने कामों पर पश्चात्ताप तक भी न किया।

सरस्वती की लाश : क्या यह समझता है कि इसकी सदा यही दशा बनी रहेगी? क्या यह समझता है कि संसार में अमर होकर आया है? क्या यह समझता है कि ईश्वर की तरफ से इसे कोई सट्टा मिल गया है कि जिसके कारण यह अपने कर्मों का फल भोगने से बच जायगा!

नहीं-नहीं, असल तो यह है कि यह बहुत शोख हो गया है और घमण्ड ने इसकी आँखों के आगे ऐसा पर्दा डाल दिया है कि अपने सामने किसी को कुछ मानता ही नहीं। अपने स्वार्थ के आगे यह दूसरे को कुछ नहीं समझता, अपने काम के लिए दूसरों के काम का कोई ख्याल नहीं करता और अपनी जान के आगे दूसरों की जान की कोई परवाह नहीं करता!

इतनी बात सुनते ही बाकी लाशों के मुँह से आवाज आने लगी- ‘‘बेशक ऐसा ही है, बेशक ऐसा ही है!’’

गुलाब की लाश : इसने केवल दयाराम, उनकी दोनों स्त्रियों, मुझे और अपने शागिर्दों को ही नहीं मारा बल्कि कितने ही और भी आदमियों की जानें ली हैं जिन्हें अभी तक हम लोग भी न जान सके हैं, हम लोग केवल उन्हीं का हाल जानते हैं जिन्हें इस जगह मौजूद पाते हैं। हम लोगों के अलावे और भी कितने ही ऐसे होंगे जो अदालत का हाल न जानने के कारण अभी तक यहाँ नहीं पहुँच सके हैं।

बहादुर की लाश : ( दयाराम की तरफ घूमकर और हाथ जोड़कर) कृपानिधान, मैं अपने खून का बदला इस गदाधरसिंह से लिया चाहता हूँ।

बाकी लाशें : हम सभी अपने खून का बदला लिया चाहते हैं और प्रार्थना करते हैं कि इसे भी मारकर उस बारहवीं कड़ी से टाँग दिया जाय जो खाली पड़ी है।

दया की लाश : ठहरो ठहरो, जल्दी न करो, पहले यह तो मालूम करो कि इसे अपने बचाव में कुछ कहना है या नहीं। मुमकिन है कि यह अपनी सफाई में कुछ कहे!

गुलाब की लाश : (कुछ देर ठहरकर) यह कुछ भी नहीं कहता, जिससे जाहिर होता है कि इसे अपना कसूर स्वीकार है। अब हमें इससे बदला लेने की इजाजत मिलनी चाहिए!

दया की लाश : बेशक यह अपने बचाव में कुछ नहीं कहता, अस्तु मैं हुक्म देता हूँ कि इसे मारकर उस बारहवीं कड़ी में टाँग दो।

भूतनाथ यह बातचीत लाचारी के साथ सुनता हुआ दिल ही दिल में काँप रहा था। अगर उसके पैरों में इतनी ताकत होती कि उसके शरीर का बोझ उठा सकते तो वह कभी का वहाँ से भाग गया होता उसके हाथ-पाँवों ने तो मानों जवाब-सा दे दिया था। अपनी विगत करनी के इन बोलते गवाहों ने उसके आगे एक ऐसा भयानक दृश्य खड़ा कर दिया था कि इन बातों का जवाब देने की बनिस्बत वह मौत पसंद करता था।

फिर भी बहुत बड़ी कोशिश करके वह अपनी जगह से उठा और हाथ जोड़ दयाराम की लाश की तरफ देखकर बोला, ‘‘कृपानिधान, आप लोग चाहे कोई भी हों पर इसमें सन्देह नहीं कि कोई अद्भुत् शक्ति रखते हैं! मैं उन सब कसूरों को स्वीकार करता हूँ जो आपने मुझ पर लगाये हैं।

बेशक मैंने अनगिनत पाप किये और अभी तक भी ऐसे काम कर रहा हूँ जिनका प्रायश्चित नहीं हो सकता, पर मैं आप लोगों के सामने शपथ खाकर कहता हूँ कि आगे से अब ऐसा काम न करूँगा।

मैं अपनी चाल-चलन को सुधारूँगा और भविष्य में नेकनामी पैदा कर इस बदनामी के कलंक से गन्दी हो गई अपनी जिन्दगी की चादर को धोने की कोशिश करूँगा...’’

भूतनाथ ने यहाँ तक ही कहा था कि यकायक उन लाशों के मुँह से आवाज आने लगीं, ‘‘कभी नहीं, कभी नहीं, यह बेईमान हम लोगों को फिर धोखा दिया चाहता है, इसे अभी मार डालो!’’ इत्यादि, और इसके साथ ही उन लाशों ने यकायक उसके ऊपर ऐसा भयानक हमला किया कि भूतनाथ यह सदमा बर्दाश्त न कर सका और एक चीख मारकर बेहोश हो गया।

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