लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4

भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


अनिरुद्धसिंह की सूरत बने हुए दलीपसिंह ने सरदार को अपनी तरफ आते पाया और आने पर उसकी बातें सुनीं तो चौकन्ने हो गए और अपने बचाव की फिक्र सोचने लगे।

दलीप ० : मैं उसी का हाल (अपने दूसरे साथी की तरफ बता कर) इनसे कह रहा था। वह किसान जो मुझे बुला लाया था बड़ा ही मक्कार निकला बल्कि मैं समझता हूँ वह कोई ऐयार था। मैं उसके साथ जब यहाँ तक पहुँचा तो उसका रुख बदल गया और वह मुझी से लड़ने लगा। आखिर मैंने उसे गिराकर बेहोश कर दिया और गठरी बाँध आप ही के पास ले चला था।

सरदार : कहाँ है वह?

दलीप० : (गठरी की तरफ इशारा करके) इसी में बँधा है।

सरदार : गठरी खोलो तो सही, जरा सूरत तो देखें।

तरह-तरह की बातें सोचते हुए दलीपशाह ने गठरी खोली।

सरदार ने आगे बढ़कर गौर से उस आदमी को देखा और कहा, ‘‘मुझे शक होता है कि कहीं यह दिलीपशाह ही तो नहीं है, इसका मुँह धोकर देखना चाहिए।’’

दलीप० : यहाँ पानी कहाँ मिलेगा?

सरदार : पास ही में है। (एक आदमी की तरफ देखकर) जाओ कोई कपड़ा तक कर लाओ तो इस बेहोश का चेहरा धोकर देखा जाय कि यह कौन है और अनिरुद्ध पर हमला करने की इसे क्या जरूरत पड़ी।

सरदार की बात सुनकर एक आदमी अपना दुपट्टा हाथ में लिए पानी लेने चला गया और बाकी लोग उसी जगह बैठे आपस में बातचीत करने लगे। दलीपशाह के मन में एक अजीब खिचड़ी सी पक रही थी।

सूरत धोते ही रंग उड़ जायगा और असली अनिरुद्ध की शक्ल निकल आवेगी इस बात को तो वो समझ ही रहे थे। मगर अपने को बचाने के लिए कोई तरकीब नहीं देखते थे।

भगवानसिंह और उनके साथियों ने शक से हो या और किसी कारण से उन्हें कुछ इस प्रकार घेरा हुआ था कि यकायक उठकर भाग जाना भी जरा मुश्किल था, दूसरे भाग निकलने की इच्छा भी उनकी नहीं थी क्योंकि वह जानना चाहते थे कि ये लोग कौन हैं और यहाँ इनके आने का क्या काररण है। आखिर उन्होंने सरदार से पूछा, ‘‘आपको यह कैसे मालूम हुआ कि दलीपशाह यहाँ आया हुआ है?’’

यह सवाल सुन सरदार ने एक आदमी की तरफ देखा जिस पर पहिले दलीपशाह ने ध्यान नहीं दिया था और जो सूरत-शक्ल से मुसलमान मालूम होता था- तब कहा, ‘‘ये यार अली अभी आये हैं, इन्होंने ही यह खबर मुझे दी है।’’

यारअली नाम सुनते ही दलीपशाह चौंके क्योंकि वे बखूबी जानते थे कि महाराज शिवदत्त के एक ऐयार का नाम यारअली १ है। (१. चन्द्रकांता सन्तति मं। यह नाम आ चुका है।)

राजा शिवदत्त के सभी ऐयारों का हाल इन्हें बाखूबी मालूम था क्योंकि ऐयार होने के कारण इन्हें कई बार शिवदत्तगढ़ जाने की जरूरत पड़ी थी पर यारअली की सूरत इस समय उस आदमी से नहीं मिलती थी जिसकी तरफ सरदार ने इशारा किया था और इस बारे में यही सोच दलीपशाह ने सन्तोष किया कि जरूर इस समय इसकी सूरत बदली हुई है।

मगर इसके साथ ही उनके विचारों ने एक नया ढंग पकड़ा और वे सोचने लगे हो न हो लोग राजा शिवदत्त ही के ऐयार हैं, जिनके इस तरफ आने की खबर उन्हें लग भी चुकी है।

कुछ देर बाद सरदार ने उतावली दिखाते हुए कहा, ‘‘वह पानी लेने कहाँ चला गया। बड़ी देर हो गई!’’

दलीपशाह यह सुनते ही उठ खड़े हुए और ‘‘मैं पानी लेकर अभी आता हूँ’’ कहते और जवाब का इन्तजाम किए बिना ही उसी तरफ लपके जिधर वह आदमी गया था। सरदार ने पहिले तो जाने से रास्ता रोकना चाहा पर फिर न जाने क्या सोच चुप ही रहा।

लपकते हुए दलीपशाह जब कुछ दूर निकल गए तो उसकी निगाह उसी आदमी पर पड़ी जो पहिले पानी के वास्ते भेजा गया था। वह एक छोटे मगर गहरे नाले में झुका हुआ अपना दुपट्टा तर कर रहा था। ये एकाएक उसके पीछे जा पहुँचे और धोखे में बगल से उसे ऐसा धक्का दिया कि वह ज़मीन पर गिर गया।

दलीप शाह ने उसे सम्हलने की फुरसत न दी और जबर्दस्ती बेहोशी की दवा सुँघा बेहोश कर दिया, इसके बाद जल्दी-जल्दी अपनी सूरत इस आदमी के ऐसी बनाई और तब उसे उठाकर झाड़ी में डाल अपना दुपट्टा तर कर लौट चले। पोशाक आदि बदलने की जरूरत न समझी क्योंकि उस आदमी की पोशाक भी ठीक वैसी ही थी जैसी इस समय वे पहिने हुए थे। इन्हीं की क्या इस समय जितने आदमी उस गिरोह में उन्होंने देख सभी एक ही तरह की पोशाक पहिने हुए थे।

बहुत जल्दी करने पर भी सूरत बदलने में कुछ देर लग गई थी। वह सरदार और उसके बाकी के साथी बैठे-बैठे घबरा गए थे, दलीपशाह के पहुँचते ही बोल उठे, ‘‘वाह बांकेसिंह, तुम तो अच्छा पानी लेने गए कि घण्टों लगा दिए? और वह अनिरुद्ध कहां चला गया जो तुम्हारे पीछे पानी लेने गया था?

दलीप० : क्या अनिरुद्ध भी पानी लेने गए थे? मुझे तो कहीं दिखाई न पड़े।

सरदार : खैर आता होगा, तुम उस आदमी का चेहरा तो धो डालो।

दलीपशाह जिन्हें अब बांकेसिंह कहना चाहिए, दुपट्टा से पानी डाल उस आदमी का चेहरा रगड़-रगड़कर धोने लगे। कुछ ही देर में असली अनिरुद्धसिंह की शक्ल निकल आई और वे बनावटी घबराहट के साथ बोले उठे, ‘‘हैं, यह तो अनिरुद्ध है, मगर इसे बेहोश किसने किया!’’

सब लोग ताज्जुब में आकर तरह-तरह की बातें करने लगे, पर सरदार ने कहा, ‘‘इसे होश में लाओ तब मालूम हो कि क्या मामला है।’’

बांकेसिंह ने अपने बटुए में से लखलखा निकाल कर उसे सुँघाया। दो-तीन छींकें आईं जिसके साथ ही वह उठकर बैठ गया और अपने चारों तरफ ताज्जुब के साथ देखने लगा।

सरदार और बांकेसिंह के साथी उससे तरह-तरह के प्रश्न करने लगे मगर वह किसी बात का भी जवाब न दे सका क्योंकि पाठकों को याद होगा कि दलीपशाह ने उसकी सूरत अपने जैसी बनाते वक्त उसकी जबान पर ऐंठन पैदा करने वाली दवा भी मल दी थी जिसमें वह कुछ बोल न सके।

बांकेसिंह ने कहा, ‘‘मालूम होता है इसकी जुबान पर कोई ऐसी दवा लगा दी गई है जिससे यह बोलने से लाचार हो गया है, ठहरो मैं इसका बन्दोबस्त करता हूँ।’’

इतना कह बांकेसिंह ने अपने बटुए में से एक खूबसूरत डिबिया निकाली जिसमें किसी तरह का बहुत ही खुशबूदार मरहम था। इस मरहम की यह तारीफ थी कि जुबान ऐंठने वाली दवा के असर को दूर कर जुबान दुरुस्त कर देता था मगर साथ ही इसमें यह भी खूबी थी कि इसकी खुशबू में मस्त और बेहोश कर देने का असर था और जो इसे सूँघता था वह कुछ देर बाद गहरी बेहोशी के नशे में पड़ बदहोश हो जाता था। इस दवा को दलीपशाह ने स्वयम् इसी तरह के किसी टेढ़े मौके पर काम में लाने के लिए बनाया था।

इस मरहम में से थोड़ा उंगली से दलीपशाह ने उस आदमी (अनिरुद्ध) की जुबान पर लगाया और तब वह डिबिया सरदार के हाथ में दे दी, सरदार ने उसे गौर और ताज्जुब से देखा और उसकी मस्तानी खुशबू पर लट्टू होकर कई बार सूँघी भी। बारी-बारी से वह डिबिया सभी के हाथों में घूम आई और सभी उसकी मस्तानी खुशबू की तारीफ करने लगे।

इस बीच में अनिरुद्ध बोलने लायक हो गया था। उसने उस नकली किसान द्वारा अपने गिरफ्तार किए जाने का हाल सभी को सुनाया और सब कोई ताज्जुब के साथ और गौर करने लगे कि वह कौन आदमी होगा जिसने इस तरह पर धोखा दिया। आखिर निश्चय यही हुआ कि वह और कोई नहीं दलीपशाह ही होगा।

इस बातचीत में कुछ समय बीत गया और उस विचित्र मरहम की खुशबू ने अपना असर शुरू किया। दलीपशाह के अलावा बाकी और सभी के दिमाग में चक्कर आने लगे और हाथ-पाव कमजोर होने लगे। सरदार ने कहा, ‘‘यह क्या मामला है! मेरे सिर में चक्कर क्यों आ रहा है?’’

दूसरा : मेरा भी यही हाल है।

तीसरा : मुझे तो ऐसा मालूम होता है मानों किसी ने बेहोशी की दवा सूँघा दी हो।

सरदार : बेशक यही बात है (गौर करके) जब से वह डिबिया मैंने सूँघी थी तभी से यह हालत हो रही है। मालूम होता है उसी में कुछ बेहोशी का असर था।

इतना कह सरदार ने शक की निगाह दलीपशाह पर डाली। दलीपशाह बखूबी समझते थे कि ये लोग अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते अस्तु वे उठ खड़े हुए और सरदार को एक फर्राशी सलाम करने के बाद बोले, ‘‘आपका खयाल बहुत ठीक है, मेरी ही दवा के असर से आपकी यह हालत है और बहुत जल्द ही आप लोग जहन्नुम रसीद किए जायँगे, सुनिए और याद रखिए मेरा ही नाम दलीपशाह है।’’ इतना सुनते ही वे सब के सब उठ खड़े हुए और उन्होंने दलीपशाह को चारों तरफ से घेर लिया मगर कुछ कर न सके क्योंकि बेहोशी का असर पूरी तरह पर हो चुका था। बात की बात में सब के सब बेहोश होकर जमीन पर लेट गये और दलीपशाह ने खुश होकर कहा,‘‘ अब इन लोगों की सूरत धोकर देखना चाहिए कि ये आखिर कौन हैं? अफसोस इस समय मेरा कोई साथी मेरे पास नहीं है नहीं तो बड़ा काम निकलता!‘‘

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book