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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


अपने पति को सामने पा एकबार तो रामदेई घबरा गई पर मौका बेढब जान उसने शीघ्र ही अपने को चैतन्य किया और भूतनाथ को हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद प्रसन्नता के ढंग पर बोली, ‘‘इस समय आप बड़े अच्छे मौके पर आये!’’

भूत० : सो क्या, और इस जगह खड़ी क्या कर रही हो?

रामदेई : आज आपके मकान में चोर घुसे थे।

भूत० : (चौंक कर) क्या! लामाघाटी में चोर?

राम० : जी हाँ, लगभग घण्टे भर के हुआ मैं जरूरी काम से उठी और घर के बाहर निकली। चाँदनी खूब छिटकी हुई थी और घाटी में उसकी खूब शोभा फैल रही थी इससे जी में आया कि कुछ देर टहल कर चाँदनी रात की बहार लूँ। धीरे-धीरे टहलती हुई उस तरफ बढ़ी जिधर आपके शागिर्दों का डेरा है तो एकाएक किसी के बोलने की आहट आई।

पहिले तो खयाल हुआ कि शायद अपना ही कोई आदमी है पर जब इस बात की तरफ गौर किया कि कई आदमी बातें कर रहे हैं और वह भी बहुत धीरे-धीरे फुस-फुस करके तो मेरा शक बढ़ा। मैंने अपने को एक पेड़ की आड़ में छिपाया ही था कि पास ही की एक झाड़ी में से कई हथियारबन्द आदमी निकले जो गिनती में छः से कम न होंगे। मैं घबड़ा गई पर चुपचाप खड़ी देखती रही कि ये लोग कौन हैं और किस इरादे से आए हैं।

उनमें से दो आदमी तो वहीं खड़े रहे और बाकी के दो-चार किसी तरफ को चले गये। मैं बड़े तरद्दुद में पड़ी क्योंकि यह तो मुझे निश्चय हो गया कि इन आदमियों की नीयत अच्छी नहीं है और इनके काम में अवश्य बाधा डालनी चाहिए पर करती तो क्या करती, मुझसे कुछ फासले पर वे दोनों आदमी खड़े बड़ी होशियारी के साथ चारों तरफ देख रहे थे!

अगर मैं जरा भी अपनी जगह से हिलती या किसी को आवाज देती तो जरूर पकड़ी जाती, इससे मौका न समझ ज्यों की त्यों छिपी खड़ी रही और उन लोगों की कार्रवाई देखती रही क्योंकि इस बात का विश्वास था कि मेरे आदमी ऐसे बेफिक्र नहीं होंगे कि घर में इतने आदमी घुस आवें और किसी को खबर न हो। आखिर कुछ देर बाद ही वे चारों आदमी लौटते हुए दिखाई पड़े जिनमें से एक आदमी अपने सिर पर एक भारी गठरी उठाए हुए था।

अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि ये लोग बेशक चोर हैं और कुछ माल उठाकर भाग रहे हैं क्योंकि उन चारों के आते ही वे दोनों आदमी भी जो वहाँ खड़े हुए थे उनमें शामिल हो गए और तब सब के सब तेजी के साथ बाहर की तरफ रवाना हुए।

पहिले तो मेरा इरादा हुआ कि लौटकर अपने आदमियों को होशियार करके इन सभी को गिरफ्तार कराने की कोशिश करूँ पर फिर यह सोचा कि जब तक मैं अपने आदमियों के पास पहुँचूँगी तब तक ये लोग बाहर निकल जायेंगे क्योंकि उस जगह से जहाँ मैं थी वह मुहाना दूर न था, अस्तु मैंने वह खयाल छोड़ दिया और दबे पाँव उन आदमियों के पीछे चलती हुई यहाँ तक पहुँची। वे सब पहाड़ी के नीचे उतर गए और मैं लौटा ही चाहती थी कि आप आते हुए दिखाई पड़े इससे रुक गई कि शायद आपने उन आदमियों को देखा हो या उनके बारे में कुछ जानते हों?

भूतनाथ : (ताज्जुब के साथ) नहीं, मैंने तो किसी आदमी को नहीं देखा। उनको गए कितनी देर हुई?

रामदेई : बस वे लोग इधर बाईं तरफ उस टीले की ओट हुए हैं और सामने से आते आप दिखाई पड़े हैं।

भूतनाथ : बड़े ताज्जुब की बात है। लामाघाटी में और इस तरह चोरी हो जाय!

बेशक यह किसी जानकार आदमी का काम है मामूली चोरों का नहीं, क्योंकि यहाँ का रास्ता हर एक को मालूम हो जाना जरा टेढ़ी खीर है।

रामदेई : जरूर, और इसी बात से मैं और भी फिक्र में पड़ गई हूँ।

भूत० : (घूम कर) मैं अभी उनका पीछा करता हूँ।

रामदेई : (प्यार से हाथ पकड़ कर) नहीं-नहीं, तुम अभी थके हुए आ रहे हो इस समय मैं जाने न दूँगी, और तुम पहिले भीतर चल के देख भी तो लो कि कुछ चीज भी गायब हुई है या मेरा झूठा ही खयाल है।

भूत० : जब तुमने अपनी आँखों से गठरी लेकर भागते देखा तो बेशक कोई न कोई चीज चोरी गई ही होगी। इसी समय उन लोगों का पीछा करना मुनासिब होगा।

राम० : नहीं, सो तो न होगा, तुम आप ही थके चले आ रहे हो, फिर अगर पीछा ही करना है तो तुम्हारे यहाँ क्या आदमियों की कमी है जो तुम खुद यह काम करोगे? पहिले अपने शागिर्दों से पूछताछ कर लो शायद उन्हें कुछ खबर हो।

भूत० : (कुछ क्रोध के साथ) उन कम्बख्तों को कुछ खबर ही होती तो यह नौबत भला क्योंकर आती, खैर मैं एक बार चलकर उन्हीं से दरियाफ्त करता हूं।

इतना कह भूतनाथ अपनी स्त्री को लिए अपनी घाटी के अन्दर घुसा। भीतर सब जगह सन्नाटा छाया हुआ था। सब लोग गहरी नींद में मस्त पड़े हुए थे, और कोई यदि जागता भी हो तो इस समय की सर्दी चादर से बाहर मुँह निकालने की इजाजत नहीं देती थी।

भूतनाथ को लिए रामदेई उधर चली जिधर गौहर कैद की गई थी। कुछ ही दूर बढ़ी होगी कि सामने से एक आदमी आता दिखाई पड़ा जो वास्तव में वही था जिसके सुपुर्द गौहर की हिफाजत की गई थी। नींद टूटने पर गौहर को कहीं न पा वह घबराया हुआ इधर से उधर उसे ढूँढ़ रहा था। भूतनाथ को देखते ही सहम गया और प्रणाम करके बोला, ‘‘गुरुजी, गौहर तो कहीं चली गई।’’

भूत० : (अपने क्रोध को दबा कर) क्यों कहाँ चली गई? क्या भाग गई? तुम क्या कर रहे थे?

शागिर्द : (सकपका कर) जी मैं...।।मुझे...।। कुछ झपकी सी आने लगी थी, जरा सी आँख बन्द की कि वह गायब हो गई, मालूम होता है कोई उसे छुड़ा ले गया।

भूत० : तो तुम लोगों को यहाँ झख मारने के लिए मैंने रख छोड़ा है? एक अपने कैदी की हिफाजत तुमसे न हुई तो और क्या करोगे? लो सुनो की रात को पाँच-छः आदमी इस घाटी में घुस आए और गौहर को बेहोश कर उठा ले गए!

इस बीच में भूतनाथ के और भी कई शागिर्द वहाँ आ पहुँचे और गौहर का गायब होना सुन आश्चर्य करने लगे क्योंकि किसी को कुछ भी आहट नहीं लगी थी। भूतनाथ ने उन लोगों को बहुत कुछ टेढ़ी-सीधी सुनाई और तब कहा, ‘‘तुम लोगों में से चार आदमी तो अभी उन लोगों का पीछा करो और बाकी के देखो कि सिर्फ गौहर ही गायब हुई है या कुछ सामान भी चोरी गया है।’’

चार आदमी तो उसी समय गौहर का पता लगाने चले गये और बाकी के लोग घाटी भर में फैलकर देखने लगे कि और कुछ गायब तो नहीं हुआ है, मगर शीघ्र ही विश्वास हो गया कि सिवाय गौहर के और कुछ नहीं गया। भूतनाथ ने इतने ही को गनीमत समझा, क्योंकि वह अपना कुछ खजाना भी इसी घाटी में रखता था और एक बार धोखा खाकर अब बराबर इस मामले में चौकन्ना रहता था।

भूतनाथ अपनी स्त्री के साथ अपने खास रहने की जगह चला गया जहाँ मामूली बातचीत के बाद उसने कहा, ‘‘अब मुझे कुछ दिनों के लिए तुमसे अलग होना पड़ेगा।’’

रामदेई : (चौंक कर) क्यों, सो क्यों?

भूत० : जमानिया से एक बुरी खबर आई है।

रामदेई : क्या?

भूत० : दुश्मनों ने दामोदरसिंह को मार डाला।

रामदेई : हाय हाय, वह बेचारा तो बड़ा सीधा आदमी था, उसकी जान किसने ली?

भूत० : मालूम होता है कि यह काम भी उसी दारोगा वाली कमेटी का है।

राम० : दारोगा वाली कमेटी कौन? क्या वही जिसका हाल तुमने...

भूत० : हाँ वही।

रामदेई : (अफसोस करती हुई) उस बेचारे से उन्हें भला क्या दुश्मनी हो गई? वह तो किसी से लड़ाई-झगड़ा करने वाला आदमी न था।

भूत० : कुछ तो होगा ही!

रामदेई : खैर तो इसमें तुम्हें मुझसे अलग होने की क्या जरूरत पड़ी?

भूत० : यद्यपि मुझे और भी दो-एक ऐसी बातें मालूम हुई हैं जिन्होंने मुझे बेचैन कर दिया है जिनका ठीक-ठीक हाल मालूम करना मेरे लिए जरूरी हो गया है, मगर उन्हें छोड़ भी दिया जाय तो मुख्य बात यह है कि मेरे मालिक रणधीरसिंह को मेरी ज़रूरत पड़ गई है। यद्यपि मैंने एक शागिर्द वहाँ अपनी सूरत में छोड़ा हुआ है पर मैं चाहता हूँ कि खुद उनके पास जाऊँ और उनका काम करूँ तथा उस शागिर्द को जो वहाँ मेरी सूरत बन कर रहता है कोई और काम सुपुर्द करूँ, इसी से जल्दी से जल्दी उधर ही जाना चाहता हूँ, शायद अब कुछ दिनों तक तुमसे मुलाकात न हो सकेगी।

रामदेई : (रंज के साथ) खैर मालिक के काम की फिक्र तो ज़रूरी है, मगर तो क्या बीच में भी कभी मुलाकात न होगी?

भूत० : कुछ ठीक नहीं कह सकता, अपना हाल चाल तो बराबर तुमको पहुँचाया ही करूँगा। (कुछ देर ठहर कर) हाँ एक बात और भी बहुत जरूरी है।

रामदेई : कहो।

भूत० : मैं यहाँ से जाकर तुम्हारे पास कुछ बहुत ही ज़रूरी चीजें भेजूँगा। उन्हें अपनी जान से ज्यादा हिफाजत से रखना।

राम० : (आश्चर्य से) ऐसी कौन सी चीज़ है जिसकी इतनी हिफाजत ज़रूरी है?

भूत० : कई जरूरी कागजात वगैरह हैं जो इतने कीमती हैं कि उनका दुश्मन के हाथ में जाना मेरे लिए मौत से बदतर होगा।

इसी सबब से मैं उन्हें अपने घर पर भी नहीं रखना चाहता और तुम्हारे सुपुर्द कर देना चाहता हूँ।

रामदेई : उन कागजों में क्या है?

भूतनाथ ने इस सवाल का कुछ जवाब नहीं दिया। कुछ देर तक वह किसी गम्भीर चिन्ता में डूबा रहा और तब एक लम्बी साँस लेकर बोला, ‘‘खैर तुम इस बात का खयाल रखना कि उन कागजों का भेद किसी को लगने न पाए! अपनी जुबान से तो कदापि किसी से जिक्र तक न करना, तुम्हारे ऊपर मेरा बहुत बड़ा विश्वास है और इसी से मैं उन्हें तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ।’’

इतना कह भूतनाथ ने बातों का सिलसिला बदल दिया और फिर दूसरे ढंग की बातें होने लगीं।

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