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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान


अपने मकान के सबसे ऊपर वाले बंगले में मखमली गद्दी पर जमानिया के दारोगा साहब एक ऊँचे तकिए के सहारे बैठे हुए हैं। वे अकेले नहीं हैं। उनके एक तरफ मनोरमा और दूसरी तरफ नागर बैठी हुई है, तथा सामने ही एक चौकी पर प्याले और बोतल भी नजर आ रही है और रंग-ढंग से यह भी मालूम होता है कि इस समय ये तीनों ही नशे में चूर हो रहे हैं। दारोगा साहब का एक हाथ मनोरमा के हाथ में है और दूसरा नागर के गले में और वे घुल-मिलकर इन दोनों से बातें कर रहे हैं।

दारोगा : अजी गोपालसिंह है क्या चीज? उस लौंडे को मैंने वह पट्टी पढ़ा दी है कि चूँ तक नहीं कर सकता! अब वह पूरी तरह मेरे कब्जे में आ गया है।

मनो० : बेशक इसमें तो कोई शक नहीं कि वह आपके हाथ के पुतले बन गए हैं और आप जिस तरह चाहें उन्हें नचा सकते हैं।

नागर० : मैं तो जमानिया का राजा आप ही को समझती हूँ, अब आपको चाहिए कि मेरे बहुत दिन के तकादे को पूरा करें।

दारोगा : कौन-सा?

नागर : (दारोगा के कान में कुछ कहकर) बस यही एक जरा-सी बात।

दारोगा : वाह, इसे तुम जरा सी बात समझती हो!

नागर : और नहीं तो क्या? आपके आगे यह है ही क्या चीज?

दारोगा : (सिर हिलाकर) नहीं नहीं, यह बड़ी कठिन बात है।

नागर : (दूर हटकर और मुँह उदास बनाकर) सो तो मैं समझती ही थी! अदने-अदने के दिल की बातें चाहे आप पूरी कर दें पर जो मैं कहूँ वह भला काहे को होगा।?

मनो० : आखिर यह कौन-सी ऐसी बात कह रही हैं जिसके पूरा करने में आपको इतना परहेज है?

दारोगा : (नागर का हाथ पकड़ और अपने पास खींचकर) यह मेरे और इसके बीच की एक भेद की बात है (नागर से) अच्छा मैं कोशिश करूँगा, तुम मुँह मत लटकाओ, तुम्हारा उदास मुँह मुझसे देखा नहीं जाता, तुम जो कहती हो उसे पूरा करने की मैं कोशिश करूँगा।

नागर : जरूर! वादा करते हैं?

दारोगा : हाँ वादा करता हूँ, मगर गोपालसिंह को सिंहासन पर बैठ जाने दो तभी मुझे कुछ करने का मौका मिलेगा।

नागर : देखिए भूल मत जाइएगा!

दारोगा : नहीं, कभी नहीं।

मनो० : अच्छा यह तो बताइए कि हेलासिंह वाले मामले में अब क्या हो रहा है?

दारोगा : अभी कुछ तै नहीं हुआ, जैपाल उससे पत्र-व्यवहार तो कर रहा है। मगर वह काफी रकम देने को तैयार नहीं होता।

मनो० : मगर मेरी समझ में यह नहीं आता कि उसकी लड़की की शादी गोपालसिंह के साथ आप करा कैसे सकेंगे?

दारोगा : (मुस्कुराता हुआ) तुम देखती रहना क्योंकर होती है। क्या महाराज गिरधरसिंह वाले मामले से भी यह बात बढ़कर है, जब उसे पूरा किया तो इसे क्यों न ठीक उतार सकूँगा!

नागर : तो क्या आप केवल थोड़े से रुपयों की लालच में वह खरतनाक काम कर रहे हैं, क्योंकि इसमें तो कोई शक नहीं कि अगर गोपालसिंह को इस बात का पता लग गया कि आप हेलासिंह की विधवा लड़की से उनकी शादी कराया चाहते हैं तो वह आपको कहीं का न छोड़ेंगे।

दारोगा : केवल रुपए की ही लालच में नहीं है बल्कि कुछ और भी बात है।

नागर : सो क्या?

दारोगा : यह अभी न पूछो।

नागर : नहीं आप बताइए क्या बात है

दारोगा : (कुछ सोचकर) अच्छा मैं बताता हूँ पर इस बात को बहुत गुप्त रखना।

नागर : आप विश्वास रखिए मैं किसी के आगे इसका जिक्र न करूँगी।

दारोगा : हेलासिंह को खुश कर उसकी मदद से मैं लोहगढ़ी का मालिक बना चाहता हूँ।

नागर : क्या? वह जगह क्या अजायबघर से भी बढ़कर है? और अगर आप चाहें तो क्या गोपालसिंह को खुश करके यह काम करा नहीं सकते?

दारोगा : गोपालसिंह लौंडा है, उसे लोहगढ़ी का भेद क्या मालूम? वह सिर्फ नाममात्र के लिए लोहगढ़ी का मालिक है, असली मालिक तो उसका हेलासिंह है क्योंकि उसके पास उस जगह की ताली है।

मनो० : लोहगढ़ी में क्या कोई विचित्रता है?

दारोगा : वह एक ऐसा स्थान है जिसके आगे अजायबघर भी तुच्छ है। असल में वह ऐसा बड़ा भारी तिलिस्म है जिसके अन्दर इतना बेइन्तहा माल, दौलत और खजाना भरा हुआ है कि जिसका शुमार नहीं हो सकता।

मनो० : मगर ऐसी बात है और हेलासिंह ही उस जगह का मालिक है तो उसने जरूर वह दौलत निकाल ली होगी?

दारोगा : नहीं, बिना उस जगह का तिलिस्म टूटे वह दौलत हाथ नहीं आ सकती और उस तिलिस्म को वही तोड़ सकता है जिसके पास उसकी ताली हो!

मनो० : तो हेलासिंह ने उस तिलिस्म को क्यों नहीं तोड़ डाला?

दारोगा : तिलिस्म क्या यों टूटा करते हैं कि जिसके हाथ में ताली हुई या जिसे उसका भेद मालूम हुआ वही उसके खजाने का मालिक बन बैठे! उसके लिए बड़ी मेहनत और किस्मत दरकार है। (कुछ रुककर) मैं एक बार बड़े महाराज के साथ लोहगढ़ी के तिलिस्म के अन्दर जा चुका हूँ। ओफ, हीरे, मोती और जवाहरात के तो वहाँ ढेर पड़े हुए हैं!

दोनों : ऐसा!!

दारोगा : अब मैं क्या बताऊँ, अभी तक भी जब उसका खयाल करता हूँ, आँखें चौंधिया जाती हैं।

दोनों। तब ऐसी जगह तो जरूर कब्जे में करनी चाहिए।

दारोगा : इसी से तो हेलासिंह की खुशामद में लगा हुआ हूँ। पहिले ताली हाथ में आ जाए तो आगे की कार्रवाई सोची जाय।

इतने ही में बाहर से आवाज आई, ‘‘हेलासिंह को आप की किसी बात से इनकार नहीं है और वह आपको वहाँ की ताली देने को खुशी से तैयार है।’’ तीनों ने बाहर की तरफ देखा और जैपाल को अन्दर आते पाया।

दारोगा : (खुश होकर) तुमने यह क्या कहा?

जैपाल : यही कि हेलासिंह लोहगढ़ी की ताली आपको देने को तैयार है।

दारोगा : सचमुच!

जैपाल : हाँ, मैंने उसे बातों के चक्कर में ऐसा फँसाया कि वह किसी तरह इनकार न कर सका और अन्त में वादा कर ही दिया कि काम पूरा होते ही वह लोहगढ़ी की ताली दे देगा।

मनोरमा और नागर : मुबारक हो, अच्छी खबर मिली!

दारोगा : बेशक इस बात ने मुझे खुश कर दिया। अच्छा क्या-क्या बातें हुईं, सब कुछ सुनाओ।

दारोगा और जैपाल में धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं जिन्हें मनोरमा और नागर भी ध्यान से सुनती रहीं। लगभग एक घण्टे तक यह जिक्र चलता रहा और तब ये चारों ही उठ खड़े हुए।

न-जाने कब से एक आदमी जिसका चेहरा नकाब से ढका हुआ था बंगले के पिछवाड़े की एक खिड़की के पास चिपका इन लोगों की बातें सुन रहा था। बातों का सिलसिला खतम होते और इन लोगों को उठते समझ वह हटा और फुर्ती से नीचे की तरफ गली में उतर गया। कमन्द खींच ली और तेजी के साथ एक तरफ को रवाना हो गया।

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