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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


संध्या होने में अभी आधे घंटे की देर है और इसलिए उस घने जंगल में भी अभी तक पूरा अन्धकार नहीं हुआ है जिसने अजायबघर की सुन्दर इमारत को घेर रक्खा है। वह नाला जो अजायबघर के नीचे से बहता हुआ जा रहा है इस समय जल पर पड़ने वाली आसमान की लाली और नीले रंग की छाया के कारण बड़ा ही सुहावना लग रहा है और उसके साफ पानी में किलोल करने वाली मछलियाँ भी बड़ी सुन्दर मालूम होती हैं।

न-जाने कब से एक आदमी पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाये इसी नाले के आसपास टहल रहा है। कभी-कभी वह आड़ के बाहर आ नाले के किनारे खड़ा हो अजायबघर की तरफ देखता है पर फिर तुरन्त ही पीछे हट कर अपने को आड़ में कर लेता है।

इस आदमी के चेहरे पर नकाब पड़ी होने तथा तमाम बदन कम्बल से ढके रहने के कारण कुछ भी पता नहीं लग सकता कि वह कौन है अथवा किस कारण से इस स्थान पर आया हुआ है, पर इसकी चाल-ढाल और रंग-ढंग से यह पता जरूर लग रहा है कि यह किसी गुप्त इरादे से ही यहाँ आया हुआ है।

बहुत देर तक इसी तरह घूमते रहने के बाद इस आदमी ने थककर हरी-हरी घास पर अपने को डाल दिया और आराम करने लगा, मगर अपना मुँह अब भी अजायबघर की तरफ ही रक्खा। इसे लेटे बहुत देर नहीं हुई थी कि यकायक अजायबघर की कोठरी का दरवाजा खुल गया और उसके अन्दर से दो आदमी निकलकर बाहर आये।

मालूम होता था कि इस नकाबपोश को उन्हीं दोनों से कुछ मतलब था क्योंकि उन्हें देखते ही यह चौकन्ना हो गया और अपने को बहुत छिपाये हुए वहाँ से उठ अजायबघर की तरफ बढ़ा। इस समय हम इसका साथ छोड़कर अजायबघर की तरफ चलते हैं और देखते हैं कि वे दोनों कौन हैं जो कोठरी के बाहर निकल अभी बरामदे में आये हैं।

यद्यपि इन दोनों ही के चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है परन्तु इनकी बातचीत सुनने पर इनका परिचय छिपा न रहेगा इसलिए हम इसी जगह यह कह देना मुनासिब समझते हैं कि इनमें से एक तो इन्द्रदेव हैं दूसरे प्रभाकरसिंह।

प्रभा० : (इन्द्रदेव से) लौटिएगा या अभी यहाँ रुकियेगा?

इन्द्र० : भूतनाथ ने यहीं मिलने को कहा है अस्तु कुछ देर तक उसका इन्तजार करना मुनासिब है।

प्रभा० : बहुत अच्छी बात है, भूतनाथ अगर मिल जाय तो यह खबर उसको सुना दी जाय कि उसका गुमान ठीक निकला।

इन्द्र० : बेशक उसने भी बड़ी तारीफ का काम किया जो इस बात का पता लगाया, अगर वह मुझे न बताता तो मुझे कभी गुमान भी न होता कि दामोदरसिंह जी जीते हैं और तिलिस्म में कैद हैं।

प्रभा० : बेशक, हम लोग तो उन्हें मुर्दा ही समझ चुके थे।

इन्द्र० : मुझे कुछ-कुछ सन्देह होता था कि वे जीते हैं क्योंकि उनकी लाश के साथ सिर का न पाया जाना शक पैदा करता था पर अपनी तरफ से पूरी कोशिश करने पर नाकामयाब हो मैं निश्चय कर चुका था कि वे अब इस संसार में नहीं हैं, ईश्वर भूतनाथ का भला करे जिसने इस भेद का पता लगाया।

प्रभा० : मगर अब उनके छुड़ाने की कोशिश करनी चाहिए और जहाँ तक मैं समझता हूँ यह काम सहज में न होगा।

इन्द्र० : बेशक यह बड़ा ही मुश्किल काम है। दामोदरसिंह जी उस समय तक स्वतन्त्र नहीं हो सकते जब तक कि तिलिस्म तोड़ा नहीं जाता और तिलिस्म का टूटना कोई आसान काम नहीं है।

प्रभा० : तो क्या तिलिस्म टूटे बिना वे छूट नहीं सकते?

इन्द्र० : नहीं, किसी तरह नहीं।

प्रभा० : मगर हम लोग तो उन्हें देख आए और उनसे बातें भी कर चुके, फिर क्या जिस राह हम लोग वहाँ तक पहुँचे उसी राह से वे बाहर नहीं आ सकते?

इन्द० : (मुस्करा कर) नहीं, जिस राह मैं तुमको ले गया वह मामूली राह नहीं है बल्कि तिलिस्म के दारोगा के लिए खास तौर पर बनी हुई एक गुप्त राह है जिससे वह तिलिस्म में घूम सकता है मगर किसी तिलिस्मी कार्रवाई में हाथ नहीं डाल सकता। दामोदरसिंह जी को तिलिस्म से छुड़ाने का सिर्फ एक ही उपाय है वह है तिलिस्म को तोड़ना!

प्रभा० : तो यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा? क्योंकि मैंने सुना है कि जिसके नाम पर तिलिस्म बाँधा जाता है सिर्फ वही उसे तोड़ भी सकता है।

इन्द्र० : हाँ यह बात ठीक है।

प्रभा० : तिलिस्म-सम्बन्धी विचित्र और अदम्य बातें देखने का मुझे बड़ा ही शौक है, क्या ही अच्छा होता अगर यह तिलिस्म मेरे हाथ से टूटता!

इन्द्रदेव मुस्कुराकर चुप हो रहे। प्रभाकरसिंह कुछ देर तक उनकी तरफ देखते रहे फिर बोले, ‘‘शायद आपको इसके बारे में मालूम हो!’’

इन्द्र० : यह तो मैं अभी नहीं कह सकता कि यह तिलिस्म किसके हाथ से टूटेगा पर मेरी किताब से यह पता जरूर लगता है कि तिलिस्म के उस हिस्से की उम्र समाप्त हो गई जो लोहगढ़ी कहलाता है। (रुककर) किसी की आहट मालूम होती है।

इसी समय बगल की कोठरी का दरवाजा खुला और भूतनाथ उनकी तरफ आता दिखाई पड़ा। साहब-सलामत के बाद वह इन दोनों के पास ही बैठ गया और प्रभाकरसिंह ने खुशी-खुशी उससे कहा, ‘‘भूतनाथ, तुम्हारा शक तो बहुत ठीक निकला।’’

भूत० :(खुश होकर) हाँ! तो क्या आप लोगों को कुछ पता लगा?

इन्द्र० : हाँ, मैंने आज अजायबघर की अच्छी तरह खाक छानी और आखिर उन्हें ढूँढ़ निकाला। वे बड़े ही भयानक स्थान में फँसे हुए हैं जिसका नाम चक्रव्यूह है और जो ऐसी जगह हैं जहाँ तिलिस्म का राजा भी अगर फँस जाय तो किसी तरह छूट नहीं सकता।

भूत० : (परेशानी के साथ) तो क्या इतनी मेहनत से उनका पता लगाना सब फिजूल हुआ? क्या अब वे स्वतन्त्रता के साथ लोगों के बीच घूम-फिर नहीं सकते?

इन्द्र० : नहीं, वे वहाँ सिर्फ अपना जीवन निर्वाह कर सकते हैं पर तिलिस्म के बाहर उस समय तक नहीं आ सकते जब तक कि वह तिलिस्म तोड़ा न जाय।

भूत० : क्या जब तक तिलिस्म न टूटेगा तब तक वे बाहर निकल ही नहीं सकते?

इन्द्र० : किसी तरह नहीं। तिलिस्म जब टूटेगा तभी वे बाहर हो सकेंगे।

भूत० : और वह कब तथा कैसे टूटेगा?

इन्द्र० : सो तो भगवान ही जानें, मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। खैर अब यहाँ से उठना चाहिए। हम लोग सिर्फ इसलिए यहाँ बैठ गये थे कि तुम आ जाओ और तुम्हें यह खुशखबरी सुना दें तो चलें क्योंकि इस बात का पूरा यश तुम्हीं को है!

भूत० : बेशक आपकी बात सुन मेरी हिम्मत दूनी हो गई। जिस समय उनकी स्त्री और बेटी को दामोदरसिंह के जीते रहने की खबर लगेगी वे कैसी खुश होंगी!

इन्द्रदेव की आँखें यह बात सुनते ही डबडबा आईं। भूतनाथ समझ गया कि यह सर्यू और इन्दिरा की जुदाई के आँसू हैं जिनके दुश्मन के हाथ फँस जाने का हाल वह जान चुका था। मगर इन्द्रदेव ने शीघ्र ही अपने को सम्हाल लिया और भूतनाथ से कहा, ‘‘अब यहाँ से चलना चाहिए क्योंकि अगर दारोगा या उसका कोई साथी आ पहुँचेगा तो मुश्किल होगी।’’

तीनों आदमी उठ खड़े हुए और बंगले के बाहर आए। थोड़ी दूर पर पेड़ों के झुरमुट में दो घोड़े खड़े थे जिन पर इन्द्रदेव और प्रभाकरसिंह चढ़ गये और भूतनाथ के साथ जंगल के बाहर की तरफ चले।

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