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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


शिवदत्त के ऐयारों को धोखे में डाल भूतनाथ ने इन्दुमति की गठरी उठा ली और खुशी-खुशी प्रभाकरसिंह के साथ जमानिया की तरफ चल पड़ा। रास्ते में दोनों आदमियों में इस तरह बातें होने लगीं :—

प्रभा० : भूतनाथ, आज तुमने मुझ पर कितना बड़ा अहसान किया यह मैं बयान नहीं कर सकता!

भूत० : यह तो ईश्वर की दया थी कि उसने मुझे आपकी तथा आपकी स्त्री को दुश्मनों के फंदे से छुड़ाने का मौका दिया।

प्रभा० : बेशक ईश्वर की दया तो हुई पर तुम्हारी भी कारीगरी कम नहीं हुई—ओफ, हम दोनों बड़े बेमौके जा फँसे थे! क्या शिवदत्त के सामने पहुँच जाने पर मेरी और मेरी स्त्री की कम दुर्गति होती!

भूत० : इसमें क्या शक है।

प्रभा० : मगर भूतनाथ, मुझे तुम्हारी प्रकृति पर आश्चर्य होता है, कभी तुम दोस्त हो जाते हो, कभी दुश्मन, कभी बुराई करते हो, कभी भलाई। मैं तो यही नहीं निश्चय कर पाता कि कब तुम्हें सच्चा समझूँ और कब झूठा? तुम्हारे ऐसे होशियार और जमाना देखे हुए ऐयार का ऐसा करना अपने दिल और दिमाग की कमजोरी जाहिर करना ही कहलाता है।

भूत० : (सिर नीचा करके) बेशक आपका कहना ठीक है। मैं खुद ऐसा बहुत दफे सोच चुका हूँ और अपने किए पर पछताता हूँ।

पर असल बात यह है कि जिस तरह की दलदल में फँस गया हुआ आदमी धँसता ही जाता है उसी तरह निकलने की लाख कोशिश करने पर भी मैं पाप-पंक में डूबता ही चला जा रहा हूँ जिसमें से कोई मुझे उबार नहीं सकता; पर मुझे फख्र है तो अपने दोस्त इन्द्रदेव पर जो सच्ची दोस्ती का हक अदा कर रहे हैं और कई बार मुझसे धोखा खाकर भी निराश न हो मुझे होश में लाने की कोशिश किए ही जाते हैं।

अगर किसी दूसरे के साथ मैंने वह सब अनाचार किए होते जो इन्द्रदेव के साथ किये हैं तो वह मेरी दोस्ती का दम भरना तो दूर रहा शायद मेरा जानी दुश्मन हो जाता, मगर इन्द्रदेव धन्य हैं, इस समय उन्हीं का प्रभाव है जो मुझसे कुछ भले काम करवा रहा है नहीं तो मैं डूबता ही जा रहा था।

प्रभा० : बेशक इन्द्रदेवजी-सा दानी आदमी मेरे देखने में नहीं आया। खुद मैंने उनसे तुम्हारे विषय में कितनी ही दफे बातें कीं मगर उनका जब जवाब पाया यही पाया—‘‘भूतनाथ मेरी लंगोटिया दोस्त है, सुधर जाय तो इससे बढ़कर और कोई खुशी नहीं हो सकती।’’

भूत० : जी हाँ, और मुझे यही बात और भी अफसोस में डुबाती है कि मेरा जो प्रेमी मेरे बारे में ऐसा ख्याल रखता है उसे भी मेरी गलतियों ने नुकसान पहुँचाया। सच तो यह है कि मैं उन्हें अपना मुँह दिखलाने लायक भी नहीं रह गया था पर उन्होंने फिर भी दया की और मुझे अपना विश्वासपात्र बनाया!

प्रभा० : तो इस समय क्या उन्हीं के कहने से तुमने हम दोनों को कैद से छुड़ाया है?

भूत० : जी हाँ और इस समय उन्हीं के पास मैं आप लोगों को पहुँचाना भी चाहता हूँ।

प्रभा० : बहुत अच्छी बात है, मगर इन्दु यदि होश में लाई जाती तो अच्छा था, क्योंकि एक तो अनाड़ी ऐयारों के हाथ की दवा बहुत जल्द कमजोरी पैदा कर देती है, दूसरे व्यर्थ एक बेहोश का गट्ठर उठाये इतनी दूर तक चलने की भी कोई जरूरत नहीं।

भूत० : (इधर-उधर देखकर) हाँ अब तो कोई डर की बात भी मालूम नहीं होती। भूतनाथ ने यह कह इन्दुमति की गठरी जमीन पर रख दी और कपड़ा खोल उसको होश में लाने की कोशिश करने लगा। थोड़ी ही देर में इन्दुमति होश में आकर उठ बैठी और ताज्जुब से इधर-उधर देखने लगी। प्रभाकरसिंह को देखते ही उसका चेहरा हरा हो गया और वह उनकी तरफ झुकी पर यकायक रुक कर धीरे-से कुछ बोली जिसे सिर्फ प्रभाकरसिंह ही सुन सके।

जवाब में प्रभाकरसिंह ने भी धीरे-से कुछ इशारे की बात कही जिसे सुनते ही वह उनके पैरों पर गिर गई। गर्म-गर्म आँसुओं से प्रभाकरसिंह के पैर तर हो गए जिससे उनकी आँखें भी डबडबा आईं पर उन्होंने अपने को बहुत सम्हाला और इन्दुमति की निगाह भूतनाथ पर पड़ी और वह कुछ चौंककर प्रभाकरसिंह से धीरे-से बोली, ‘‘क्या इन्होंने...।’’

प्रभा० : हाँ, इन्हीं भूतनाथ ने ही अपनी चालाकी से हम दोनों की जान बचाई।

इन्दुमति शायद और भी कुछ कहती पर इसी समय भूतनाथ बोल उठा, ‘‘जंगल का मौका और दुश्मनों का डर सब तरफ है, इसलिए यहाँ रुकना या देर लगाना मैं मुनासिब नहीं समझता।’’ प्रभाकरसिंह यह सुनते ही उठ खड़े हुए और उनके इशारे पर इन्दुमति भी चलने को तैयार हो गई। भूतनाथ ने कदम बढ़ाये और तीनों आदमी तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए।

सूर्योदय होने से घण्टे भर पहिले ही भूतनाथ, प्रभाकरसिंह और इन्दुमति जमानिया में दामोदरसिंह के मकान के उस हिस्से में जा पहुँचे जहाँ इन्द्रदेव का डेरा था।

भूतनाथ को गुमान था कि इस समय इन्द्रदेव सोये होंगे और मकान का दरवाजा बन्द होगा पर इसके विपरीत उसने फाटक खुला हुआ और इन्द्रदेव के खास खिदमतगार को वहाँ टहलते हुए पाया। इन्दुमति और प्रभाकरसिंह को आड़ में खड़ा कर भूतनाथ उसके पास गया और बोला, ‘‘इन्द्रदेवजी को जगाकर खबर करो कि भूतनाथ आया है और बड़ी जरूरी खबर लाया है।’’

खिद० : जी वे यहाँ नहीं हैं, कुछ देर हुई कुँअर गोपालसिंहजी के साथ महल गए हैं।

भूत० : कुँअर गोपालसिंह के साथ! क्या कुँअर साहब का पता लग गया?

खिद० : जी हाँ, वे खुद यहाँ आये थे और थोड़ी देर तक आराम करने के बाद इन्द्रदेवजी को लेकर महल में गये हैं जैसा कि मैंने कहा। यह सुनकर कि गोपालसिंह छूटकर आ गए भूतनाथ को ताज्जुब के साथ प्रसन्नता भी हुई।

अब वह मन-ही-मन सोचने लगा कि इन्द्रदेव की गैरहाजिरी में प्रभाकरसिंह और इन्दुमति को यहाँ छोड़ जाना अच्छा होगा या नहीं पर यह सोचकर कि दुश्मनों का जाल चारों तरफ फैला हुआ है तथा प्रभाकरसिंह और इन्दुमति के लिए और कोई रक्षा का स्थान भी ऐसा पास में नहीं है जहाँ दो-चार घण्टे के लिए उन्हें रख सकें उसने उस नौकर से कहा, ‘‘मेरे साथ एक औरत और एक मर्द हैं, उन्हें ऊपर ले जाकर आराम की जगह बैठाओ। इन्द्रदेवजी के आते ही उन्हें इनकी खबर कर देना।’’

नौकर के ‘‘बहुत खूब’’ कहने पर प्रभाकरसिंह और इन्दुमति के पास जाकर कहा, ‘‘इन्द्रदेवजी तो इस समय हैं नहीं, राजमहल में गए हुए हैं मगर शीघ्र ही लौट आवेंगे। आप लोग उनके कमरे में चलकर बैठें और आराम करें क्योंकि मैं एक दूसरे काम से जाया चाहता हूँ। यदि हो सका तो आज रात को आकर आप लोगों से पुनः मिलूँगा।’’

प्रभाकरसिंह ने जवाब दिया,‘‘कोई हर्ज नहीं, तुम हमारी फिक्र छोड़ो और जहाँ जाना चाहो जाओ।’’ अस्तु भूतनाथ ने इन्दु और प्रभाकरसिंह को इन्द्रदेव के खिदमतगार के सुपुर्द किया और जब वह उन्हें लेकर भीतर चला गया तो आप महल की तरफ रवाना हुआ।

भूतनाथ थोड़ी ही दूर गया होगा कि उसे सामने महल की तरफ से आते हुए कई आदमी दिखाई पड़े जो जोर से रो और चिल्ला रहे थे, उसका कलेजा धड़कने लगा और उसने एक आदमी से पूछा, ‘‘क्या मामला है?’’ जिसके जवाब में उसने बिलखकर कहा, ‘‘हमारे महाराज गिरधरसिंह हम लोगों को छोड़कर परलोक चले गये।’’

भूतनाथ यह सुनते ही रंज और अफसोस से बदहवास हो गया और उसमें इतनी भी ताकत न रह गई कि उन लोगों से महाराज की मौत के बारे में और कुछ दरियाफ्त करे। वह अपना सिर थाम कर पास के चबूतरे पर जा बैठा। थोड़ी देर तक उसकी यही हालत रही पर बड़ी कोशिश कर उसने अपने होशहवास ठिकाने किए और उठकर महल की तरफ रवाना हुआ।

रास्ते में उसे और भी सैकड़ों आदमी रोते और अपने महाराज को याद कर के बिलखते हुए मिले और उनकी जुबानी उसे शीघ्र ही मालूम हो गया कि वृद्ध महाराज की रात को किसी समय अचानक मृत्यु हो गई, सुबह को कुँअर गोपालसिंह जब उनसे मिलने गए तो उन्हें पलंग पर मुर्दा पाया।

कुँअर गोपालसिंह के चार दिन तक गायब रहने और यकायक लौटकर महाराज को मुर्दा पाने पर और भी तरह-तरह की बातें उड़नी शुरू हो गईं थीं पर भूतनाथ ने उस सब बातों पर अपना समय नष्ट न कर सीधे खास बाग का रास्ता पकड़ा और चक्कर काटता हुआ बाग के पिछवाड़े की तरफ एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ चहारदीवारी के साथ लगा हुआ एक ऊँचा नीम का पेड़ था।

भूतनाथ ने इधर-उधर देखा। तब सन्नाटा पा वह इस पेड़ पर चढ़ गया और एक ऊँची डाल पर जा बैठा जहाँ से महल का पिछला हिस्सा और बाग का भी एक काफी टुकड़ा बखूबी दिखाई पड़ रहा था। इस समय सवेरा अच्छी तरह हो चुका था पर फिर भी कहीं कोई आदमी, नौकर या लौंडी दिखाई नहीं पड़ते थे, क्योंकि सभी अपने महाराज की मौत का हाल सुन महल की तरफ जा उमड़े थे।

भूतनाथ थोड़ी देर तक पेड़ पर बैठ चारों तरफ देखता रहा और जब उसे विश्वास हो गया कि कोई उसकी कार्रवाई देखने-सुनने वाला नहीं है तो उसने जेब से एक सीटी निकाली और किसी खास इशारे के साथ हल्की आवाज में बजाना शुरू किया। थोड़ी ही देर बाद भूतनाथ ने बाग के अन्दर एक कमसिन औरत को अपनी तरफ आते देखा। पेड़ की डाल हिलाकर उसने अपने को प्रकट कर दिया और उस औरत ने भी उसे देख लिया।

उसने हाथ और अंगुलियों की मदद से कुछ इशारा किया और भूतनाथ ने भी उसी तरह इशारों में उससे कुछ बातें कहीं इसके बाद वह पेड़ से नीचे उतर आया और वह औरत भी बाग के अन्दर-ही-अन्दर उस हिस्से की तरफ बढ़ी जहाँ बाहर निकलने के लिए दीवार में एक चोर-दरवाजा बना हुआ था। थोड़ी देर बाद दरवाजे पर थपकी सुनाई पड़ी। औरत ने दरवाजा खोल दिया और भूतनाथ को खड़ा पाकर उसे भीतर आने का इशारा किया। भूतनाथ भीतर आ गया और उस औरत ने दरवाजा पुनः बन्द कर लिया।

पाठक इस कमसिन औरत को पहिचानते हैं क्योंकि यह वही लौंडी है जिसे दारोगा साहब ने महाराज को मारने के लिए जहर की शीशी दी थी। पाठकों को यह भी याद होगा कि वास्तव में यह लौंडी बना हुआ भूतनाथ का कोई शागिर्द है जो इस भेष में भूतनाथ की आज्ञानुसार काम कर रहा है।

भूतनाथ को अपने पीछे आने का इशारा कर वह लौंडी रुपी ऐयार एक घनी झाड़ी के पास पहुँचा जिसके अन्दर कई आदमी छिप कर बैठ सकते थे। भूतनाथ और उसका शागिर्द उस झाड़ी के अन्दर हो गए और दोनों में धीरे-धीरे इस तरह बातें होने लगीं:—

भूत० : महाराज के मौत की खबर सुनने में आ रही है, यह क्या मामला है?

नकली लौंडी : मैं खुद बड़े ताज्जुब मैं हूँ और आपसे मिलने के वास्ते सख्त तरद्दुद में था क्योंकि यह घटना भी भेद से खाली नहीं है।

भूत० : सो क्या?

नकली लौंडी : जब आप दारोगा साहब और मेरी मुलाकात का हाल सुन इन्द्रदेवजी से मिलने चले गए तो मैं महल में इधर-उधर टोह लगाने लगा। पहरेदार से बातचीत होने से मालूम हुआ कि किसी सवार ने रात को एक चीठी दी थी जो सुबह महाराज के सामने पेश की गई और उसके पढ़ते ही महाराज कहीं चले गए।

भूत० : हाँ यह बात तो तुम कल मुझसे कह चुके थे मगर यह नहीं मालूम हुआ कि उस चीठी में क्या लिखा हुआ था।

नकली लौंडी : (कमर से एक कागज निकाल और भूतनाथ के हाथ में देकर) उस चीठी का मजमून यह था और उसके साथ एक पन्ने की अँगूठी भी थी।

ताज्जुब करते हुए भूतनाथ ने उस कागज को लेकर पढ़ा। यह उसी चीठी की नकल थी जिसने महाराज को तिलिस्म के अन्दर जाने पर मजबूर किया था।

भूतनाथ इसे गौर और ताज्जुब के साथ पढ़ गया और तब बोला, ‘‘यह तुम्हें कैसे मिली?’’

नकली लौंडी : महाराज के खास खिदमतगार को बेहोश करके। महाराज के जाते ही उसने वह चीठी और अंगूठी उठा ली।

मुझे इस पर सन्देह हुआ और थोड़ी देर बाद जब वह महल के बाहर निकला तो मैंने गुप्त रीति से उसका पीछा किया। एक निराली जगह पहुँचने पर मैंने कारीगरी करके उसे बेहोश किया और उसके कपड़ों में छिपी यह चीठी और अँगूठी पाई।

ले लेना मुनासिब न समझ मैंने सिर्फ चीठी की नकल कर उसे छोड़ दिया। मैंने ऐसी खूबसूरती के साथ बेहोश किया और चीठी पाने के बाद होश में कर दिया था कि बहुत सोचने पर भी उसे कुछ शक न हुआ और वह उठकर दारोगा साहब के मकान पर पहुँचा। मुख्तसर यह कि उस खिदमतगार ने वह चीठी और अंगूठी दारोगा साहब को दी जिससे वे बड़ी बेचैनी और घबराहट में डूब गये। मैं पहरेदार से यह बहाना करके कि महल का कोई जरूरी सन्देश खास दारोगा साहब से कहना है भीतर चला गया जहाँ मैंने दारोगा और चोबदार की बातें सुन लीं और साथ ही यह भी देखा कि खिदमतगार को बिदा कर दारोगा साहब अपनी सूरत बदल कहीं जाने को तैयार हुए।

पीछे वाले चोर दरवाजे से वे बाहर हुए और मैंने भी उनका पीछा किया। वे सीधे अजायबघर की तरफ चले और जब तक उस इमारत के अन्दर न चले गये तब तक मैंने भी पीछा न छोड़ा, उनके अजायबघर के अन्दर चले जाने के बाद मैं महल मैं लौट आया।

भूत० : अच्छा तब?

नकली लौंडी : दिन भर मैं मर्दाने महल में रहा और महाराज दिन भर नहीं लौटे। जब रात होने लगी तो मैंने उसी चोबदार को, जिसने वह चीठी और अंगूठी दारोगा को दी थी, छिपकर महाराज के कमरे के अन्दर जाते देखा जिससे मुझे शक हुआ।

मैं अपने को बचाता हुआ कमरे की छत पर चढ़ गया और वहाँ के एक रोशनदान के पास लेटकर भीतर का हाल देखने लगा, पर वह चोबदार अन्दर कहीं नजर न आया। कमरे के और सब दरवाजे बन्द थे पर वह दरवाजा इस समय खुला हुआ था जिसके अन्दर सुबह को महाराज गये थे और जिसके बारे में मैं सुन चुका था कि तिलिस्म के अन्दर जाने का रास्ता है, मुझे गुमान हुआ कि शायद वह चोबदार इसी के अन्दर चला गया हो, अस्तु मैंने अपनी निगाह उसी तरफ रक्खी।

लगभग आधी घड़ी के बाद महाराज गिरधरसिंह उसी दरवाजे की राह उस कमरे में पहुँचे जिनके पीछे-पीछे वह चोबदार भी था। महाराज अपने पलंग पर बैठ गये और धीरे-धीरे चोबदार से कुछ बातें करने लगे।

थोड़ी देर बाद कमरे के सब दरवाजे जो पहिले बन्द थे खोल कर वह चोबदार बाहर निकल गया और महाराज अकेले रह गये। दो घण्टे तक वे उसी तरह अकेले पलंग पर लेटे न जाने क्या-क्या सोचते रहे, इस बीच कई सरदार और ओहदेदार मुलाकात करने को आये पर महाराज ने किसी से मिलने की इच्छा प्रकट न की और वे सब बरंग लौट गये।

मामूली समय पर एक लौंडी महाराज को भोजन तैयार होने की खबर देने आई, महाराज ने खाना वहाँ ही ले आने का इशारा किया और जब रसोइये ले आये तो चौकी पर रख देने को कह उन सभों को बाहर चले जाने का हुक्म दिया।

वे चले गये और महाराज ने उठकर कमरे के उन कुल दरवाजों को जिनकी राह बाहर का आदमी कमरे के भीतर का हाल देख सकता था बन्द कर दिया। मैं ताज्जुब के साथ देख रहा था कि यह उन्हें आज हो क्या गया पर इसके बाद जो कुछ मैंने देखा उससे मुझे और भी ताज्जुब हुआ। उन्होंने अपनी कमर से एक शीशी निकाली जिसमें किसी तरह की बुकनी थी, इस बुकनी का आधा तो उन्होंने पीने के पानी में छोड़ दिया और आधा खाने की चीजों में मिला दिया। इसके बाद आकर वे पलंग पर लेट गये।

थोड़ी देर बाद महाराज ने घण्टी बजाई और वही चोबदार अन्दर आया। महाराज ने उससे कुछ बातें कीं, क्या बातें हुईं सो तो मैं सुन नहीं सका पर मैंने ताज्जुब के साथ देखा कि चोबदार ने महाराज के लिए आई हुई चीजों में से कई चीजें खाईं और पानी पीया और तब फिर उनसे कुछ बातें करने लगा। थोड़ी देर तक बातें होती रहीं इसके बात दोनों उठकर फिर उसी दरवाजे के अन्दर चले गये जहाँ से दो घण्टे पहिले निकले थे। ताज्जुब करता हुआ मैं आधे घण्टे तक फिर बैठा रहा और तब मैंने देखा कि अकेले महाराज उस दरवाजे के बाहर आये और सीधे पलंग पर जाकर लेट गये। वह तिलिस्मी दरवाजा भीतर से किसी ने बन्द कर लिया और कमरे में सन्नाटा हो गया।

थोड़ी देर बाद महाराज के खुर्राटे लेने की आवाज आने लगी और मुझे मालूम हो या कि वे सो गये। मुझे ताज्जुब हुआ कि वह चोबदार कहाँ रह गया क्योंकि महाराज के साथ वह उस दरवाजे के बाहर नहीं निकला था। बड़ी देर तक मैं उसके आने की राह देखता रहा पर वह नहीं ही आया और आखिर मैं भी नींद से लाचार उसी जगह सो गया।

बड़ी देर बाद, जब कि रात आधी से कहीं ज्यादे बीत चुकी थी बल्कि सवेरा होने वाला था, नीचे कमरे में शोरगुल की आवाज सुन मेरी नींद टूट गई और मैंने देखा कि कुँवर गोपालसिंह, इन्द्रदेव तथा और भी बहुत से आदमी यहाँ मौजूद हैं। कुँअर साहब महाराज को जगाने की चेष्टा कर रहे थे पर महाराज कहाँ? वे तो महानिद्रा के आधीन हो चुके थे!

बस यही तो सारा किस्सा है। महाराज की मौत की खबर बिजली की तरह चारों तरफ फैल गई और मैं भी तभी से आपकी राह देख रहा हूँ कि आपसे सब हाल कहूँ और पूछूँ कि जो कुछ मैंने देखा उससे आप महाराज की मौत के बारे में क्या अटकल लगाते हैं।

भूतनाथ ने अपने शागिर्द की बातों का कोई जवाब न देकर सिर नीचा कर लिया और गम्भीर चिन्ता में डूब गया न-मालूम उसके दिमाग में क्या-क्या खयाल उठ रहे थे कि एक घड़ी बीत जाने पर भी उसने सिर न उठाया। जब उसके शागिर्द ने उसका हाथ छूआ तो वह यकायक चौंक पड़ा और एक लम्बी साँस लेकर बोला—‘‘तुम्हारी बातें सुन तरह-तरह के अजीब खयालों ने मुझे घेर लिया है। इसमें तो कोई शक नहीं कि महाराज की मौत के साथ किसी अद्भुत घटना का सम्बन्ध जरूर है और इसका पता लगाये बिना मेरे चित्त को शान्ति न होगी, पर इसके साथ-साथ और भी कई बातें हैं जो मेरे दिल को परेशान कर रही हैं और इस बात की इजाजत नहीं देतीं कि मैं यहाँ देर तक ठहर सकूँ और तुमसे बातें करूँ। मैं...।

शागिर्द : आखिर आपने क्या सोचा और जो कुछ मैंने देखा उससे क्या मतलब निकाला?

भूत० :(सिर हिला कर) सो अभी बताने का मौका नहीं है पर तुम्हारी हिम्मत बढ़ाने के लिए इतना मैं जरूर कहूँगा कि तुमने एक बहुत ही बारीक बात का पता लगाया और बहुत ही तारीफ का काम किया है। मगर अब ठहरने का मौका नहीं है, मुझे जल्दी बाग के बाहर करो।

शागिर्द : बहुत खूब, मगर मेरे लिए क्या हुक्म होता है?

भूत० : जहाँ तक मैं समझता हूँ अगर तुम और कुछ दिनों तक इसी रूप में बने रह सको तो और भी बहुत-सी गुप्त बातों का पता लगा लोगे क्योंकि यह महल दारोगा के साथियों और मददगारों का अड्डा हो रहा है।

यहाँ वालों में से बहुतेरे उसी के आदमी हैं, फिर तुम यहाँ रह कर उन लोगों से भी वाकिफ हो सकते हो जो रियासत का नमक खाते हुए भी इसे नेस्तनाबूद कर देने की कोशिश कर रहे हैं। पर इस सम्बन्ध में मैं एक बात जरूर कहूँगा।

शागिर्द : वह क्या?

भूत० : दारोगा का काम एक तरह से पूरा हो गया है, इसलिए वह उस लौंडी सावित्री को दुनिया से उठा देने की कोशिश जरूर करेगा जिसके हाथ में उसने महाराज को मारने के लिए जहर की शीशी दी थी...।

शागिर्द : (हँसते हुए) और गोपालसिंह से शादी करा देने का भी वादा किया था! आप बेफिक्र रहिए मैं उस दुष्ट से खूब होशियार रहूँगा और कभी इस महल के किसी आदमी के हाथ का दिया हुआ कुछ न खाऊँगा।

भूत० : हाँ खूब होशियार रहना, जरा भी खतरा देखना तो फौरन इस जगह के बाहर हो जाना। अगर हो सका तो तुम्हारी मदद के लिए मैं एक-दो आदमी और भेजूँगा, उसी बँधे हुए इशारे से तुम उन्हें पहिचान लेना।

सावित्री लौंडी की सूरत बना हुआ भूतनाथ का शागिर्द उस झाड़ी के बाहर निकल आया। मौका देख उसने चोर दरवाजा खोल भूतनाथ को बाहर कर दिया और दरवाजा बन्द कर महल की तरफ चला गया जहाँ महाराज की मौत के सबब से भयानक हाहाकार मच रहा था।

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