मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4 भूतनाथ - खण्ड 4देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण
सातवाँ बयान
मायासिंह की सूरत बनी गिल्लन को भूतनाथ ने गिरफ्तार कर लिया और स्वयं मायासिंह बन अपने शागिर्द को गोविन्द बना गिल्लन तथा असली गोविन्द और माया को अपने एक दूसरे शागिर्द गोपीनाथ के हवाले कर वह किसी तरफ को रवाना हुआ।
भूतनाथ को इस बात का पता लग चुका था कि राजा शिवदत्त के कई ऐयार यहाँ आए हुए हैं जिन्होंने तरह-तरह के जाल फैला रक्खे हैं और प्रभाकरसिंह तथा इन्दुमति को गिरफ्तार करके ले जाना चाहते हैं।
उसे इसका भी पता चला था कि दारोगा साहब भी उन ऐयारों की मदद कर रहे हैं और उनसे कुछ काम खुद भी लिया चाहते हैं। गिल्लन की बातों से उसको इसका और भी पक्का पता लग गया था और इस समय वह कई तरह के मंसूबे बाँधता हुआ उन्हीं लोगों की तरफ जा रहा था जिनके अड्डे के बारे में वह इतना जान चुका था कि अजायबघर के पास वाले घने जंगल में कहीं है।
संध्या होने में अभी देर थी जब भूतनाथ और उसका शागिर्द अजायबघर के पास पहुँचे। यद्यपि भूतनाथ किसी सोच में डूबा हुआ था पर उसकी चंचल निगाहें चारों तरफ दूर-दूर तक घूम रही थीं अस्तु अजायबघर की इमारत पर निगाह पड़ते ही उसने देख लिया कि कोई लम्बे कद का आदमी पूरब तरफ वाले बरामदे में इधर से उधर टहल रहा है। वह तुरन्त रुक गया और अपने शागिर्द का हाथ पकड़ आड़ में कर देने के बाद उस आदमी की तरफ देखने का इशारा किया।
दूर होने के कारण यद्यपि साफ सूरत नजर न आई पर रंग-ढंग पोशाक इत्यादि से भूतनाथ समझ गया कि हो न हो यह भी उन्हीं आदमियों में से कोई है जिनकी फिक्र में वह इस समय इधर आया है अर्थात् शिवदत्त के नौकरों या ऐयारों में से कोई। भूतनाथ ने अपने साथी से यह शक कहा और वह बोला, ‘‘जी हाँ, मुझे भी यही मालूम होता है, आज्ञा हो तो मैं आगे बढ़कर टोह लगाऊँ।’’
भूतनाथ ने, ‘‘जाओ मगर होशियारी से काम लेना।’’ उसका शागिर्द चला गया। और वह उसी जगह खड़ा होकर अजायबघर की तरफ देखने लगा। कुछ देर बाद वह लंबे कद का आदमी भूतनाथ के आँखों की ओट हो गया और इसके बाद ही भूतनाथ ने अपने शागिर्द को उसी बरामदे में देखा। उसे अपना हाथ उठाते देख भूतनाथ ने भी हाथ उठाया और मैदान में आ गया।
उसके शागिर्द ने उसे जल्दी अपने पास आने का इशारा किया और वह लपकता हुआ अजायबघर की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ उस जगह जा पहुँचा जहाँ उसका शागिर्द खड़ा इन्तजार कर रहा था उसे देखते ही वह बोला, ‘‘गुरुजी, हम लोगों का यहाँ आना बहुत ही शुभ हुआ!’’ भूतनाथ ने पूछा, ‘‘क्यों?’’ जवाब में वह बोला, ‘‘प्रभाकरसिंह इस समय यहाँ मौजूद हैं।’’
सुनने के साथ ही भूतनाथ खुश होकर बोला, ‘‘वाह, यह तो बहुत ही अच्छी खबर सुनाई! वे कहाँ हैं?’’ शागिर्द उसे बगल की कोठरी में ले गया जहाँ जमीन पर पड़े बेहोश प्रभाकरसिंह और उन्हीं के बगल में वह आदमी भी हाथ-पैर बँधा नजर आया जिसे भूतनाथ ने टहलते हुए देखा था।
शागिर्द ने कहा, ‘‘यह उन्हीं लोगों में से है, प्रभाकरसिंह को दारोगा साहब ने इन लोगों के हवाले कर दिया और यह आदमी उनका पहरा देता हुआ अपने बाकी साथियों के आने का इन्तजार कर रहा था। मालूम होता है इसके साथी लोग शीघ्र ही यहाँ आने वाले हैं।’’
भूतनाथ ने यह सुनते ही शागिर्द के कान में कुछ कहा और तब बेहोश प्रभाकरसिंह के पास जा बैठा जिनके हाथ-पैर बँधे हुए थे। वह उन्हें होश में लाने की तर्कीब करने लगा।
थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह होश में आ गये और ताज्जुब के साथ इधर उधर देखने लगे। भूतनाथ को देख उन्होंने पूछा, ‘‘तुम कौन हो और मेरी यह हालत तुमने क्यों कर रक्खी है?’’ भूतनाथ बोला, ‘‘मैं आपका ताबेदार भूतनाथ हूँ पर और कुछ हाल करने के पहिले इस बात विश्वास कर लिया चाहता हूँ कि आप वास्तव में प्रभाकरसिंह ही हैं न?’’
प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘यह विश्वास दिलाने के लिए मैं तुम्हें उस समय का हाल बता सकता हूँ जब आखिरी दफे मेरी तुम्हारी मुलाकात लोहगढ़ी के पास वाले जंगल में हुई थी और किसी ऐयार ने एक जाली चीठी दिखा मुझे तुमसे जुदा करके गिरफ्तार कर लिया था।’’ भूतनाथ ने इतना सुनते ही उनके हाथ-पैर खोल दिए और उठाते हुए कहा, ‘‘आप बड़े भारी दुश्मन के हाथ पड़ गए थे। ईश्वर ने अचानक ही मुझे यहाँ पहुँचाकर आपकी रक्षा की। यह मेरा साथी और वह बेहोश आदमी आपकी निगरानी कर रहा था। अब आप कृपा कर बताइए कि इस बीच में कहाँ रहे या किसके फन्दे में पड़ गए थे?’’
प्रभा० : मुझे उसी कम्बख्त दारोगा ने गिरफ्तार कर लिया था, दो-एक दिन अपने घर में रक्खा, फिर यहाँ भेजवा दिया। आज दोपहर को मैं अपने कैदखाने में बैठा हुआ था कि एक बूढ़ा आदमी नजर आया जिसने मेरे जंगले का दरवाजा खोल दिया और कहा कि ‘मैं आपको रिहाई देता हूँ, आप जल्द इस जगह के बाहर निकल जायँ’, मैं खुशी-खुशी बाहर आया मगर उसी समय उस शैतान ने एक कपड़ा मेरे सिर पर डाला जिसमें इतनी कड़ी बेहोशी की दवा लगी हुई थी कि मैं कुछ भी न कर सका और बेहोश हो गया।
बस इसके बाद मैं कुछ नहीं जानता कि क्या हुआ। यह कौन-सी जगह है, और यहाँ मैं क्योंकर आया?
भूत० : यह वही आजायबघर है। दारोगा साहब से आपके पुराने मालिक शिवदत्त ने आपको माँगा था अस्तु मैं समझता हूँ कि वह बूढ़ा या तो स्वयं दारोगा होगा और या शिवदत्त का ही कोई ऐयार क्योंकि यह आदमी भी जो आप पर पहरा दे रहा था शिवदत्त ही का नौकर है और अपने बाकी साथियों के यहाँ पहुँचने की राह देख रहा था, अस्तु आप शीघ्र ही यहाँ से उठिए क्योंकि अगर और दुश्मन आ गये तो मुश्किल होगी।
प्रभाकरसिंह यह सुनते ही तुरत उठ खड़े हो गए और बोले, ‘‘मैं सब तरह से तैयार हूँ।’’
भूत० : मुझे तो अभी यहाँ से टलने का मौका नहीं मिलेगा क्योंकि मैं उन दुष्टों का पीछा किया चाहता हूँ जो आपको गिरफ्तार करने यहाँ आए हुए हैं और जिनमें से कोई-न-कोई अभी यहाँ आता ही होगा, परन्तु आपको भी अकेले छोड़ते डरता हूँ कि फिर कहीं दुश्मन के हाथ न पड़ जायँ।
प्रभा० : नहीं ऐसा भला क्या होगा, फिर भी मुझे जहाँ कहो जाने को तैयार हूँ और इतना भी कह सकता हूँ कि यकायक कोई मुझे पकड़ नहीं सकता।
भूत० : (मुस्कुराकर) सो आप भला कैसे कह सकते हैं। जब एक बार मेरे सामने से दुश्मन आपको पकड़ ले गया और हम-आप कुछ न कर सके तो इस बार भी वैसा ही हो जाना कौन ताज्जुब है, इसलिए जब तक आपको इन्द्रदेवजी के हवाले न कर लूँ मुझे आपका साथ छोड़ना मंजूर नहीं है, अच्छा ठहरिए।
इतना कह भूतनाथ अपने साथी की तरफ घूमा और बोला, ‘‘कहो तुम्हारा काम खतम हो गया?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘जी हाँ, मैंने इसकी सूरत बिल्कुल प्रभाकरसिंहजी-सी बना दी है, सिर्फ पोशाक बदलना रह गया है।’’ भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह से कहा, ‘‘अब आप अपने कपड़े उतार कर इसके कपड़े पहिन लें।’’
‘‘अच्छा’’ कहकर प्रभाकरसिंह ने अपने कपड़े उतार दिए। भूतनाथ के शागिर्द ने उस बेहोश के कपड़े अलग कर प्रभाकरसिंह की पोशाक उसे पहना कर उसी कपड़े से जिससे प्रभाकरसिंह बँधे थे उसके हाथ-पाँव कसकर बाँध दिए तथा प्रभाकरसिंह ने उसके कपड़े पहन लिए। भूतनाथ ने अपने साथी से कहा, ‘‘अब इनकी सूरत उस आदमी के जैसी बनाओ।’’ पर इसका मौका नहीं मिला क्योंकि यकायक कई आदमियों के आने की आहट मिली और बाहर की तरफ निगाह करने से मालूम हुआ कि कुछ लोग उसी तरफ आ रहे हैं।
जल्दी भूतनाथ ने एक नकाब निकाल प्रभाकरसिंह को दी और कहा, आप इसे लगा कर उस सामने वाली कोठरी में चले जाइए फिर जो होगा देखा जाएगा। प्रभाकरसिंह ने ऐसा ही किया और उनके कोठरी के अन्दर जाकर छिपते-छिपते वे लोग भी उसी जगह आ पहुँचे तथा दारोगा साहब के ऐयार मायासिंह और गोविन्द को वहाँ देख ताज्जुब करने लगे। आखिर एक आदमी ने, जो उन सभों का सरदार मालूम होता था आगे बढ़कर मायासिंह की सूरत बने हुए भूतनाथ से कहा, ‘‘आप लोग शायद दारोगा साहब की आज्ञानुसार यहाँ आए हैं?’’
भूत० : हाँ, हम लोगों को प्रभाकरसिंह की हिफाजत के लिए दारोगा साहब ने ही भेजा है, अब आप अपनी चीज सम्हालिए।
वह आदमी : (खुश होकर) क्या प्रभाकरसिंह को आप लोग ले आये! कहाँ है? मालूम होता है इसी गठरी में!
भूत० : जी हाँ
इतना कह भूतनाथ ने वह गठरी खोल प्रभाकरसिंह की सूरत उन आदमियों को दिखाई और तब पुनः गठरी बाँध दी, सरदार ने खुश होकर अपने बगल में खड़े एक आदमी की तरफ देखकर कहा, ‘‘हम लोगों का जमानिया आना सुफल हो गया, इन्दुमति भी हाथ लग गई और प्रभाकरसिंह भी कब्जे में आ गए, अब यहाँ से चल देना चाहिए।’’ इसके जवाब में आदमी ने कहा, ‘‘जी हाँ, अब यहाँ रहना मुनासिब नहीं क्योंकि दलीपशाह और गदाधरसिंह दोनों ही को हम लोगों का पता लग गया है।
अगर उन लोगों को मालूम हो जायगा कि इन्दु और प्रभाकरसिंह को हम अपने कब्जे में कर चुके हैं तो बड़ी आफत मचावेंगे।’’
इन दोनों की बात सुन और यह जानकर कि इन्दुमति को भी ये अपने कब्ज में कर चुके हैं भूतनाथ हैरान हो गया। आखिर उससे रहा न गया और वह बोल उठा, ‘‘क्या इन्दुमति भी आपके कब्जे में आ गई है? उसके लिए तो हमारे दारोगा साहब बहुत परेशान थे।’’
सरदार : (हँसकर) जी हाँ, हमारे मालिक की खुशकिस्मती ने उसे भी हमारे हाथ में ला फँसाया।
भूत० : वह कहाँ थी और आप लोगों के कब्जे में क्योंकर आई?
सर० : उसे एक औरत लोहगढ़ी ले गई थी जहाँ उन दोनों ने हमारे एक दोस्त को भी पकड़कर बंद कर दिया था जो आज किसी तरह छूटकर हमारे पास आ पहुँचा और उसी की मदद से हम लोगों ने वहाँ पहुँचकर उसे और उसके साथी को गिरफ्तार कर लिया। इस समय हम लोग वहीं से चले आ रहे हैं इसी से देर हो गई नहीं तो कभी के यहाँ पहुँच गए होते।
इतना कह सरदार ने दो आदमियों की तरफ इशारा किया जो भारी गठरियाँ उठाए हुए थे। उन आदमियों के साथ भूतनाथ की निगाह एक नौजवान लड़के पर भी पड़ी जिसकी सूरत देखते ही वह चौंक गया क्योंकि उसे तुरत खयाल आ गया कि इसे जरूर कहीं देखा है। थोड़े ही गौर में उसे मालूम हो गया कि यह शेरअली की लड़की गौहर है जो मर्दाना भेष किए हुए है।
पाठक अब समझ गए होंगे कि इन्दुमति लोहगढ़ी में से क्योंकर गायब हो गई। गौहर को अर्जुन और इन्दुमति लोहगढ़ी में ले गए और उसे कैद कर लिया पर चालाक गौहर की बातें में सीधी-सादी इन्दुमति पड़ गई और अर्जुन की गैरहाजिरी में इन्दु को धोखा दे गौहर लोहगढ़ी के बाहर निकलने का मौका पा गई, केवल इतना ही नहीं बल्कि गौहर राजा शिवदत्त के आदमियों को लेकर वहाँ वापस गई और ठीक उस समय पहुँची जब इन्दुमति और अर्जुन उसे ढूँढ़ने के लिए लोहगढ़ी के बाहर निकल रहे थे।
शिवदत्त के आदमियों ने इन्दुमति और अर्जुन को घेर लिया और यद्यपि बहादुर इन्दु और शेरदिल अर्जुन ने दिल खोलकर लड़ाई की, पर इतने आदमियों के सामने कुछ बस न चला और गिरफ्तार हो गए।
इस समय भूतनाथ को इस आदमी की बातें सुनकर यह फिक्र पैदा हुई कि किसी तरह इन्दुमति को इन पापियों के कब्जे से छुड़ाना चाहिए, फिर भी ऊपर से उसने सरदार की बात पर बहुत खुशी जाहिर की और कहा, ‘‘मेरी जुबानी दारोगा साहब जब यह हाल सुनेंगे तो बहुत खुश होंगे! अच्छा अब हम लोगों को इजाजत मिले।’’
सरदार : हाँ-हाँ, आप लोग घर जाएँ मगर (इधर-उधर देखकर) हमारा एक साथी भी इस जगह था...
भूत० : हाँ वह किसी जरूरी काम से चला गया है आता ही होगा।
सरदार : अब हम लोग उसकी राह देखने के लिए ठहर नहीं सकते, वह आप ही हमारे पास पहुँच जाएगा।
सरदार ने एक आदमी की तरफ देखकर इशारा किया जिसने प्रभाकरसिंह की गठरी उठा ली और तब उस इमारत की तरफ निकल गए।
शिवदत्त के आदमी प्रभाकरसिंह और इन्दुमति को लिए एक तरफ चले गए और भूतनाथ उन्हें दिखाने के लिए दूसरी तरफ चला गया मगर थोड़ी दूर जाने के बाद रुका और प्रभाकरसिंह को लेने के लिए लौटा।
पीछे घूमते ही उसने देखा कि वे उसके बगल ही में मौजूद हैं जो बेचैनी के साथ उससे बोले, ‘‘भूतनाथ, बेचारी इन्दु को उन कम्बख्तों के कब्जे से छुड़ाना चाहिए।’’
भूतनाथ ने कहा, ‘‘जी हाँ, अब मुझे भी इसी बात की फिक्र करनी है।’’
भूतनाथ, उसका शागिर्द और प्रभाकरसिंह जंगल में घुस गए और कहीं गायब हो गए। इसके बाद किस तरह की चालाकी से उसने इन्दु को उन लोगों के कब्जे से छुड़ाया यह पाठक ऊपर के बयान में पढ़ चुके हैं।
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