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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


इन्द्रदेव और प्रभाकरसिंह के साथ-साथ जंगल के बाहर आने के बाद भूतनाथ ने उनका साथ छोड़ दिया और पश्चिम तरफ का रास्ता लिया।

लगभग आधे घण्टे तक तेजी के साथ चले जाने के बाद वह एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ मैदान के बीचोबीच में ऊँची जगत का बहुत बड़ा कुआँ बना हुआ था जिसके चारों कोनों पर नीम के चार भारी दरख्त लगे होने के कारण हमेशा छाया बनी रहती थी। भूतनाथ इस कुएँ पर आकर बैठ गया और कपड़े उतार सुस्ताने लगा। ठण्डी-ठण्डी हवा लगने से उसके थके हुए शरीर में आलस्य आने लगा और नींद आ गई।

कितनी देर भूतनाथ नींद में गाफिल रहा यह वह नहीं कह सकता पर यकायक गाने की सुरीली आवाज ने उसके कानों में पड़ कर उसकी नींद भगा दी और उसने ताज्जुब के साथ आँखें खोल दीं। इस समय चन्द्रदेव आकाश में ऊँचे उठ चुके थे और उनकी स्निग्ध चाँदनी चारों तरफ फैली हुई थी। इसी रोशनी में भूतनाथ ने देखा उसके पैताने की तरफ कूएँ की जगत के दूसरे सिरे पर कोई औरत इसकी ओर पीठ किए बैठी गा रही है।

शायद मेरे उठने की आहट पा यह औरत डर जाय और गाना बन्द कर दे यह सोच भूतनाथ ने जागकर भी आँखें बन्द कर लीं और चुपचाप पड़ा हुआ मुलायम गले से निकलते हुए उस मधुर गाने को सुनने लगा।

भूतनाथ गान-विद्या का केवल प्रेमी ही नहीं था बल्कि इस हुनर को अच्छी तरह जानता भी था अस्तु उसे यह समझने में कुछ भी देर न लगी कि औरत गाने के फन में पूरी ओस्ताद है तथा इस समय एकदम तन्मय होकर गा रही है। रात के समय चाँदनी और सन्नाटे के आलम में उस गाने ने भूतनाथ पर कुछ ऐसा असर किया कि वह एकदम मस्त हो गया और दुनिया को भूल गया।

यकायक गाना बन्द हो गया और चौंक कर भूतनाथ ने आँखें खोल दीं। वह औरत उठ कर खड़ी हो गई थी और अब उसका मुँह भूतनाथ की तरफ था। भूतनाथ की निगाहें उसकी सुन्दरता देखकर एकदम चौंधिया उठीं। अब तक उसने कभी और कहीं ऐसी सुन्दर नाजुक-बदन को देखा न था और वह उसी तरह पड़ा अधखुली आँखों से उसके रूप की अलौकिक छटा का आनन्द लेने लगा क्योंकि अब भी उसे यह डर बना ही हुआ था कि मुझे जगा हुआ जान यह औरत कहीं भाग न जाय।

शायद यह सोच कर कि यह आदमी अभी तक भी नींद में है, वह औरत कुछ निश्चिन्त हुई और अठखेलियों के साथ चलती हुई कूएँ के पास पहुँच उसके अन्दर झाँक कर बोली, ‘‘कूपदेव, तनिक बाजा तो बजाओ।’’

अभी भूतनाथ यह सोच ही रहा था कि यह औरत पागल तो नहीं हो गई है जो कूएँ से कहती है कि बाजा बजाओ, कि इतने ही में कूएँ के अन्दर से तरह-तरह के सुरीले बाजों के बजने की आवाज आने लगी और उन्हीं के ताल पर वह औरत नाचने लगी। जैसा गाना वैसा ही आकर्षक नाच भी था, भूतनाथ ने अभी जो अद्भुत बात देखी थी उस पर ताज्जुब करने को भी उसे मोहलत न मिली और एकाग्रता के साथ उस औरत का नाच देखने में वह इतना बेसुध हो गया कि तनोबदन की होश भूल वह यकायक उठ कर बैठ गया।

भूतनाथ के उठते ही उस औरत के मुँह से हलकी चीख निकली और वह रुक गई, साथ ही कूएँ के अन्दर से बाजों की आवाज का आना भी बन्द हो गया और चारों तरफ सन्नाटा छा गया, भूतनाथ को उठ बैठने की अपनी बेवकूफी पर अफसोस हो गया मगर लाचारी समझ उसने अपने को सन्तोष दिया और उस सुन्दरी की तरफ लालच-भरी निगाहों से देखता हुआ बोला, ‘‘सुन्दरी, सच बताओ तुम मनुष्य हो या कोई अप्सरा?

वह औरत खिलखिला कर हँस पड़ी और उसके मोती-से दाँत कुछ देर के लिए खुल कर फिर छिप गए, साथ ही उसके सुन्दर मुंह पर दुःख की एक आभा आ पड़ी जिसने भूतनाथ को बेचैन कर दिया। वह खड़ा हो गया और उस तरफ बढ़ता हुआ बोला, ‘‘सही-सही बताओ कि तुम कौन हो और इस आधी रात के समय बस्ती से कोसों दूर इस खौफनाक मैदान में क्या कर रही हो!’’

उसे उठ कर अपनी तरफ आते देख वह औरत डर कर चिहुँकी और घूम कर कुएँ की तरफ हो गई। भूतनाथ यह देख हँस कर बोला, ‘‘डरो मत, मैं तुम्हारे साथ कुछ भी बुराई नहीं किया चाहता। अगर मुझसे इतना ही डर मालूम होता है तो लो मैं बैठ जाता हूँ, पर तुम मेरे पास आओ और अपना परिचय दो।’’

इतना कह भूतनाथ जमीन पर बैठ गया। वह औरत उसके पास तो न आई परन्तु उसके चेहरे पर भय का जो चिह्न आ गया था वह बहुत कुछ दूर हो गया। भूतनाथ ने मुलायम आवाज में फिर उससे पूछा, ‘‘डरो मत और साफ बताओ कि तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रही हो?’’

जवाब में उस औरत की बड़ी-बड़ी आँखों से मोती की तरह आँसू की बूँदें गिरने लगीं। भूतनाथ को यह देख और भी ताज्जुब हुआ और वह कुछ पूछा ही चाहता था कि वह औरत स्वयम् बोली, ‘‘आप मेरी हालत क्यों पूछते हैं? मैं बड़ी भारी दुखिया हूं। इसी कूएँ में रह कर किसी तरह अपनी मुसीबत की जिन्दगी काटती हूँ।’’

भूत० : (ताज्जुब से) क्या तुम्हारा मकान इस कुएँ में है?

औरत : मकान नहीं, यह कूआँ मेरा कैदखाना है, मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ, कैदी हूं, महीने में सिर्फ एक बार कूएँ के बाहर आने की मुझे इजाजत मिलती है और मैं उसे ही गनीमत समझ यहाँ आकर और कुछ गा-बजा कर अपने दुःख के बोझ को कम करने की कोशिश करती हूँ।

भूत० : तुम्हारी बातें तो बड़े ताज्जुब की हैं। अगर यह कूआँ तुम्हारा कैदखाना है तो तुम्हें ऐसी जगह पर कैद किसने किया, तुम्हें खाने-पीने को कौन देता है, और जब तुम गाती हो तो सुरीले बाजे कौन बजाता है?

औरत : इस कूएँ ने ही मुझे कैद किया है, यही मुझे खाने को देता है, और यही कभी-कभी गा-बजाकर दिल बहलाता है।

भूत० : (बढ़ते हुए ताज्जुब से) वाह, यह तो और भी अजीब बात है। अच्छा तुम्हें यहाँ रहते कितने दिन हुए?

औरत : दो बरस।

भूत० : दो बरस!!

औरत : जी हाँ।

भूत० : आज के पहिले भी मैं कई बार यहाँ आ चुका हूँ और रात को रह भी चुका हूं पर अब तक तो मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा! इस कूएँ को भी मैं अब तक मामूली कुआँ ही समझे हुए था और नहीं जानता था कि यह अनोखा कैदखाना है जिसमें ऐसा कैदी बन्द है जिसकी खूबसूरती अपना सानी नहीं रखती।

औरत : (आँखे नीची करके) मैं केवल शुक्ल पक्ष की एकादशी वाली रात को ही बाहर आ सकती हूँ इसी से शायद आपने मुझे कभी नहीं देखा।

भूत० : तुम किसी तरह इस फन्दे से छूट भी सकती हो या नहीं?

औरत : हाँ, अगर कोई बहादुर और हिम्मतवर आदमी मेरी मदद करे तो बेशक छूट सकती हूँ।

भूत० : अगर तुम्हें विश्वास होता हो तो यहाँ पास आकर बैठो, अपना नाम बताओ और पूरा किस्सा बयान करो, मैं दिलोजान से तुम्हारी मदद करने को तैयार हूँ।

औरत ने तिरछी निगाह भूतनाथ की तरफ डाली और एक कदम आगे बढ़ाया पर फिर रुक गई और बोली, ‘‘अच्छा अगली एकादशी को तुम यहाँ आना, उस समय मैं अपना सब हाल तुम्हें बतलाऊँगी क्योंकि तुम बहादुर और सच्चे आदमी मालूम होते हो और मेरा दिल कहता है कि तुम पर विश्वास करने से अच्छा नतीजा निकलेगा।’’

भूत० : क्यों इसी समय बताने में क्या हर्ज है?

औरत : नहीं, अब समय हो गया और मुझे अपने कैदखाने में चले जाना पड़ेगा।

भूत० : नहीं-नहीं, पहिले मुझे अपना हाल सुना लो तब जाना।

औरत : नहीं, मैं ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकती।

इतने ही में कूएँ के अन्दर शंख बजने की आवाज आई जिसे सुनते ही वह औरत काँप उठी और भूतनाथ की तरफ एक निगाह डाल कर उसने अपना कदम कूएँ की तरफ बढ़ाया। भूतनाथ ने देखा कि उसकी डबडबाई आँखों से आँसू की बूँदे गिर कर गालों पर पड़ रही थीं। उससे अब रहा न गया और वह उसकी तरफ बढ़ता हुआ बोला, ‘‘नहीं, अब मैं किसी तरह तुम्हें जाने नहीं दे सकता।’’

हिचकिचाती और क्या करूँ क्या न करूँ, सोचती हुई वह औरत एक सायत के लिए रुकी ही थी कि भूतनाथ ने झपट कर उसकी कलाई पकड़ ली और मुलायमियत मगर मजबूती के साथ अपनी तरफ खींचते हुए बोला—‘‘जब तक मैं तुम्हारा पूरा-पूरा हाल नहीं सुन लूँगा तुम्हें कदापि आँखों की ओट न होने दूँगा।’’

इसी समय कूएँ में से पुनः शंख की आवाज आई जिसे सुन यह औरत फिर काँप गई। उसने डरते हुए एक निगाह कूएँ की तरफ डाली और तब कातर दृष्टि से भूतनाथ को देखा। भूतनाथ ने उसे अपने पास खींच लिया और दिलासा देने वाले ढंग से कहा—‘‘डरो मत, डरो मत, अपना हाल मुझे सुनाओ और विश्वास रखो कि भूतनाथ के जीते-जागते कोई हाथ ऐसा नहीं है जो तुम्हें कष्ट पहुँचा सके। तुम अपना डर एकदम दूर कर दो और इस शैतान कूएँ में जाने का इरादा छोड़ मुझसे बातें करो!’’

दम-दिलासा देता हुआ भूतनाथ उस औरत को उस जगह ले आया जहाँ पहिले बैठा हुआ था। अपना दुपट्टा जमीन पर फैला उसने उस पर उसे बैठाया और स्वयं भी पास में बैठ गया। उस औरत ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें भूतनाथ के चेहरे पर उठाईं और पूछा, ‘‘क्या मैं अपने सामने प्रसिद्ध और बहादुर ऐयार भूतनाथ को देख रही हूँ!’’

भूत० : हाँ।

औरत : हे परमेश्वर, मैं तुझे हजार धन्यवाद देती हूँ, अगर इस समय दुनिया मंख कोई ऐसा है जो मुझे इस दुःख से छुड़ा सके तो वह केवल भूतनाथ ही है।

भूत० : तुम विश्वास रक्खो कि भूतनाथ दिलोजान से तुम्हारी मदद करने को तैयार है, तुम अब अपना सच्चा-सच्चा हाल मुझे सुनाओ। तुम्हारा नाम क्या है और तुम कहाँ की रहने वाली हो?

औरत : मेरा नाम श्यामा है और कभी मैं काशीराज में रहती थी, पर इस बात को एक जमाना हो गया और मैं नहीं जानती कि वहाँ अब मेरा कोई है भी या नहीं!

भूत० : तुम्हारे पिता का क्या नाम है?

उस औरत ने जवाब देने को मुँह खोला ही था कि इसी समय पुनः उस कूएँ के अन्दर से शंख बजने की आवाज आई। काँपती हुई उस औरत की निगाह कूएँ की तरफ जा पड़ी और वह कोई खौफनाक चीज देख जोर से चीख मार कर उठ खड़ी हुई। भूतनाथ ने भी उस चीज को देखा और चौंक कर खड़ा हो गया।

वह चीज एक लोहे का पंजा था जो कूएँ के अन्दर से निकल कर सीधा उस बेचारी औरत की तरफ बढ़ रहा था। देखते-देखते उस फौलादी पंजे ने औरत की कलाई पकड़ ली और बेदर्दी से कूएँ की तरफ खींचा। डरी हुई वह औरत भूतनाथ के साथ लिपट गयी और भूतनाथ ने दूसरे हाथ से खंजर निकाल उस पंजे पर एक भरपूर हाथ जमाया, परन्तु चोट पड़ते ही झन्नाटे की आवाज देता हुआ खंजर टूट कर दूर जा गिरा और भूतनाथ के देखते-देखते ही उस बेरहम पंजे ने उस चिल्लाती औरत को अन्दर खींच लिया।

भूतनाथ भौंचक्का-सा होकर यह हाल देखता रहा। थोड़ी देर तक तो वह चुप खड़ा कुछ सोचता रहा, इसके बाद कूएँ के पास आया और उसमें झाँक कर देखने लगा। चन्द्रमा ठीक सर पर था और उस बड़े कूएँ की तह तक उसकी रोशनी पहुँच कर वहाँ की हर एक चीज साफ दिखा रही थी। इस रोशनी में न-जाने भूतनाथ को कूएँ के अन्दर क्या दिखाई पड़ा कि वह अपने को रोक न सका और एकदम कूएँ के अन्दर कूद पड़ा।

।।बारहवाँ भाग समाप्त।।

चौथा खण्ड समाप्त

 

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