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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


सवेरा होने के साथ ही राजा गिरधरसिंह के मरने की खबर जमानिया में फैल गई और चारों तरफ हाहाकार मच गया। गोपालसिंह के दुःख का तो कहना ही क्या, उन्हें तो दुनिया ही उजाड़ और वीरान मालूम होने लगी।

सीधे और सरल चित्त कुँअर गोपालसिंह के दिल में अपनी माँ के मरने का सदमा अभी हटने भी न पाया था कि यह कड़ी चोट भी उन्हें बर्दाश्त करनी पड़ी। वे एकदम पागलों की तरह हो गए, हफ्तों तक उनकी यह हालत थी कि न खाने की धुन, न सोने की परवाह, न रुकने वाले आँसुओं को रूमाल से पोंछते हुए ‘‘हाय पिताजी! हाय पिताजी!’’ कहते रहते। इस अवस्था में उनके शरीर की हालत भी खराब हो गई, चेहरा पीला हो गया, आँखें धँस गईं, बदन कमजोर हो गया और आवाज बैठ गई।

उनके हितैषियों और प्रेमियों को तो यह डर हो गया कि अगर शीघ्र ही उनकी हालत न बदली तो उनकी जान पर आ बनेगी। उनके मुसाहिब और मित्र विशेष कर इन्द्रदेव उन्हें बहुत समझाते-बुझाते दिलासा देते और कहते कि दुनिया की यही गति है पर वे सिर्फ उनकी तरफ देखते, महाराज की खाली गद्दी की तरफ निगाह फेरते, और तब रूमाल से मुँह ढँक कर रो देते। उनके सलाहकारों की आँखों में भी आँसू आ जाता था और वे चुप हो जाते थे।

उधर हमारे दारोगा साहब ने भी अजीब ढंग अख्तियार किया था। कुँअर गोपालसिंह से ज्यादा उन पर महाराज की मौत ने असर किया था। अनशन व्रत धारण करके एक ही स्थान पर बैठे रहते थे, सामने महाराज की बड़ी तस्वीर रहती थी, उसी की तरफ देखते और रोते, कभी उसे कलेजे से लगाते, कभी आँसुओं से भिगोते, कभी उस तसवीर को कपड़े पहिनाते, माला-फूल मँगा उसका श्रृंगार करके और धूप-दीप से आरती करते, कभी नौकरों को एक चिता तैयार करने का हुक्म देते और महाराज की तस्वीर के साथ जल मरने का इरादा जाहिर करते थे।

खाना-पीना बन्द हो जाने पर धीरे-धीरे इनकी हालत बहुत खराब होने लगी और बिस्तर पर पड़ने की नौबत आ गई, लेकिन अगर कोई समझाता-बुझाता या भोजन करने को कहता तो रोकर तस्वीर की तरफ हाथ उठाते और कहते, ‘‘पहिले मेरे मालिक को तो खिलाओ, फिर उनकी प्रसादी मैं भी ग्रहण करूँगा!’’ धीरे-धीरे यहाँ तक नौबत आई कि उनके दोस्तों को उनकी जिन्दगी से ना उम्मीदी हो गई।

सरल प्रकृति गोपालसिंह को अपने पिता के स्वभाविक नौकर की इस हालत का पता लगा। यद्यपि बहुतों की तरह से उन्हें भी यह विश्वास था कि महाराज की जान जाने का कारण वही गुप्त कमेटी है तथापि इस बात का उन्हें गुमान न था कि दारोगा ही इस काम का कर्ता-धर्ता है।

यह शक तो अभी तक इन्द्रदेव, भूतनाथ और दलीपशाह तक ही था और वे तीनों ही दिलोजान से इसका असल पता लगाने की कोशिश कर रहे थे मगर साथ ही यदि और कोई नहीं तो कम-से-कम इन्द्रदेव इस बात से भी डरते थे कि अगर बिना सबूत पाए ही वे उस बात को जो अभी तक सिर्फ सन्देह के रूप में है कि दूसरे पर प्रकट करेंगे और पीछे से मालूम होगा कि उनका यह सन्देह वृथा था और दारोगा का महाराज की मौत से कोई सम्बन्ध न था तो उन्हें बड़ा ही पश्चाताप होगा और वे अपने को कभी माफ न कर सकेंगे, अस्तु वे उस समय तक इस बात को उठाया नहीं चाहते थे जब तक कि इसका पूरा निश्चय न हो जाए कि दारोगा को महाराज की मौत से कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं।

शायद यही सबब था कि इन्द्रदेव ने गोपालसिंह से इस बारे में अभी कुछ कहना उचित न समझा और गोपालसिंह दारोगा के असली हाल से नावाकिफ बने रहे।

अस्तु जब गोपालसिंह को पता लगा कि दारोगा साहब ने महाराज के वियोग में अनशन व्रत धारण किया है और अपनी जान देने का संकल्प कर लिया है तो उनके नाजुक दिल पर एक धक्का-सा लगा और उन्होंने दारोगा से मिलने की इच्छा प्रकट की।

कई आदमी दौड़े हुए दारोगा को यह खबर देने गए कि कुँअरसाहब उनसे मिलने के लिए आना चाहते हैं। इतना सुनते ही दारोगा साहब चिहुँक पड़े। कहाँ तो कमजोरी के सबब एकदम पड़े हुए थे। कहाँ यह बात सुनते ही उठकर खड़े हो गए और बोले, ‘‘हाय-हाय, मैं कैसा पापी हूँ जो अपने गम में डूबा रहकर मालिक के दुःख में साथ न दे सका और उन्हें समझाने-बुझाने की भी फिक्र न की मैं अभी उनके पैरों पर गिरकर माफी मागूँगा!’’ नतीजा यह निकला कि अभी कुँअरसाहब दारोगा से मिलने का इरादा ही कर रहे थे कि सामने दस-पाँच नौकरों का सहारा लिए लड़खड़ाते आते हुए दारोगा साहब नजर पड़े।

दारोगा साहब की इस समय अजीब हालत थी, सूखकर काँटा हो गए थे, तन-बदन और कपड़ों की सुधबुध न थी, दाढ़ी-मूँछ और सिर के बाल बढ़ाए हुए अजीब बहशियों की-सी हालत में थे। उनके गले में ताबीज की तरह लटकती हुए महाराज गिरधरसिंह की एक छोटी-सी तसवीर थी जिसकी तरफ देख-देख के पल-पल भर में आँसू बहाते थे। दारोगा साहब को इस हालत में आते देखते ही गोपालसिंह उठ कर उनकी तरफ बढ़े। उधर वह उन्हें देखते ही दौड़े और पास आकर एकदम पैरों पर गिर ज़ार-ज़ार रोने लगे। अपने हाथ से उनके आँसू पोंछते हुए गोपालसिंह ने उन्हें बड़ी मुश्किल से उठाया और दम-दिलासा देकर एक कुर्सी पर बैठाया। कुछ देर तक दारोगा अपने हाथों से मुँह ढाँके हुए आँसू की झड़ी गिराता रहा, आखिर बहुत कुछ समझाने-बुझाने से किसी तरह शान्त पड़ा और कुछ बातें करने लायक हुआ। गोपालसिंह ने कहा—

गोपाल : दारोगा साहब, यह आप क्या कर रहे हैं? कहाँ तो आपको मुझे इस दुःख में शान्ति दिलाना था कहाँ मुझसे ही वही काम ले रहे हैं!

दारोगा : हाय, मैं अपने दिल का हाल क्या कहूँ। वृद्ध महाराज को मैं अपना मालिक ही नहीं बल्कि बूढ़ा-बुजुर्ग यहाँ तक कि पिता समझता था और वे मुझ पर अपने बेटे ही की तरह स्नेह भी करते थे। मुझसे कोई कसूर हो जाने पर भी वे मुझसे रंज नहीं होते थे बल्कि अकेले में समझा देते थे।

हाय अब उनके बिना मेरी क्या गति होगी। हाय महाराज, आप मुझे इस नरक में छोड़ कहाँ चले गए। मुझे किसके भरोसे पर छोड़ गए। नहीं-नहीं, आप जानते हैं कि मैं आपके बिना जीता रहने वाला नहीं, मैं अभी आता हूँ...

गोपाल : दारोगा साहब, आप कैसी बातें कर रहे हैं!

दारोगा : नहीं-नहीं, मैं महाराज का मतलब समझ गया, आप दुनिया को छोड़ गए और अब मुझे अपने पास बुला रहे हैं, मैं आज ही उनके पास जाऊँगा। आप मुझे न रोकें! मैं उनके बिना नहीं रह सकता!

गोपाल० : और मुझे फिर किसके भरोसे छोड़ जाइएगा, ऐसा ही है तो फिर मुझे भी लेते चलिए।

दारोगा : राम राम राम, यह आप क्या मुँह से निकालते हैं! ईश्वर आपको चिरंजीवी करें, आप ही तो अब जमानिया की प्रजा के आशा-भरोसा हैं।

गोपाल० : जब आप मुझे इस हालत में देख के भी नहीं मानते...

दारोगा : हाँ ठीक है, बेशक आपकी तारीफ तो मैं बिल्कुल ही भूल गया था : ओह, मैं कैसा स्वार्थी हूँ कि अपने दुःख के आगे मालिक के दुःख का कुछ ख्याल नहीं रक्खा और...

गोपाल० : मेरी बुद्धि इस समय बिलकुल खराब हो गई है, इस समय आप ही से जो कुछ आशा है सो है, मगर आप भी इस मौके पर मेरा साथ छोड़ देंगे तो मुझे भी लाचार होकर...

दारोगा : (सिर हिलाकर) बेशक-बेशक, आपके ऊपर बड़ा भारी आफत का पहाड़ आकर गिरा है।

गोपाल० : अस्तु इस समय अपने इन फिजूल इरादों को आप जाने दीजिए, मेरी हालत पर निगाह कीजिए, अपनी हालत देखिए, और होश में आइए। इस समय आपकी मदद की मुझे बहुत भारी जरूरत है। आप स्नान इत्यादि कर कुछ भोजन करें और तब मेरे साथ बैठें, मुझे आपसे बहुत कुछ कहना-सुनना है, यह मैं मानता हूँ कि पिताजी के मरने से आपको बड़ा भारी धक्का लगा है पर क्या किया जाए, इसका कोई इलाज भी तो नहीं है। आप पर पिताजी जैसा स्नेह रखते थे मैं जानता हूँ, मैं भी आपकी बड़े भाई के समान इज्जत करता हूँ और बराबर करता रहूँगा।

आप मुझे अपना छोटा भाई समझकर मेरी सहायता करें। यह सब राजकाज मैं कुछ जानता-समझता नहीं, आप इसे देखें, सम्भालें, और मुझे भी शिक्षा दें—और साथ ही उन दु...नहीं, पहिले आप नहा-धो लें तब बात होगी, मेरे दिल में इस समय बहुत-सी बातें घूम रही हैं जिनका आपसे कहना और आपकी राय लेना बहुत जरूरी मालूम होता है।

कुँअर साहब ने अपने सामने दारोगा को स्नान कराया और कपड़े बदलवाए इसके बाद उनके भोजन का प्रबन्ध किया और स्वयम् भी स्नान-भोजन से निश्चिन्त हुए। तब उन्हें लिए हुए अपने खास कमरे में चले गए और हुक्म दे गए कि जब तक ये खुद न बुलाएँ कोई इनके पास न आवे।

दारोगा साहब की निगाह महाराज की तस्वीर पर पड़ी, उसे देखते ही हिचकियाँ ले-लेकर पुनः रोना शुरू किया। बड़ी देर के बाद गोपालसिंह के समझाने-बुझाने पर किसी तरह से शान्त हुए और इस लायक हुए कि बातचीत कर सकें। गोपालसिंह ने उनसे कहा, ‘‘भाई साहब मैं आपको एक बड़ी गुप्त बात सुनाना चाहता हूँ!’’

दारोगा : (हाथ जोड़कर) आज्ञा!

गोपाल : आपको मालूम है कि महाराज की मौत क्योंकर हुई?

दारोगा : जी हाँ, मुझे वैद्यजी की जुबानी मालूम हुआ कि सोते समय यकायक दिल की हरकत बन्द हो जाने से महाराज का शरीर छूट गया।

गोपाल : हाँ, सर्वसाधारण में यही बात कहने की आज्ञा मैंने उन्हें दी थी पर वास्तव में महाराज जहर देकर मारे गए थे।

दारोगा : (चौंककर) हैं, यह आप क्या कह रहे हैं!

गोपाल : बहुत ठीक कह रहा हूँ, क्या उनका चेहरा और तमाम बदन काला नहीं हो गया था, सूरत ऐसी बिगड़ नहीं गई थी कि पहचानना मुश्किल हो, और मरने के कुछ ही समय बाद लाश सड़ने नहीं लगी थी जिससे मृतक संस्कार इतनी जल्दी करने की जरूरत पड़ गई!

दारोगा : तो क्या आपको सन्देह है कि...

गोपाल : सन्देह नहीं, पूरा विश्वास है और आपको भी हो जाएगा जब आप सुनेंगे कि चार दिनों तक मैं कहाँ गायब रहा और किस फेर में पड़ा रहा।

दारोगा : जी हाँ, यह बात तो मैं भी पूछनेवाला था, आपकी खोज में मैंने जमानिया का एक-एक मकान खोज डाला और कोना-कोना तलाश कर डाला पर।।

गोपाल : मुझे उसी गुप्त कमेटी ने गिरफ्तार कर लिया था जिसने दामोदरसिंह की जान ली थी।

दारोगा : (ताज्जुब से) कमेटी ने! क्या आप ठीक कहते हैं?

गोपाल : हाँ मैं बहुत ठीक कहता हूँ।

इतना कह गोपालसिंह ने अपने गायब किए जाने और महाराज की मौत का पूरा-पूरा हाल दारोगा साहब को कह सुनाया। सुनते ही दारोगा ने अपने सिर पर हाथ मारा और कहा, ‘‘बेशक उस कम्बख्त कमेटी ने ही मेरे मालिक को मारा!’’

गोपाल : बेशक, और हमें सबसे पहले इसी बात का पता लगाना चाहिए कि कमेटी किस शहर में है और उसके कर्ता-धर्ता कौन-कौन हैं।

दारोगा : मैं सब काम छोड़कर अब इसी फिक्र में लगूँगा। हाय-हाय, मेरे प्यारे मालिक की जान और इस तरह दस-पाँच कमीने मिलकर लें लें! मैं उसी दिन अपने को उऋण मानूँगा जिस दिन इस कमेटी को तहस-नहस करके इसके सदस्यों का सिर अपने हाथ से काटकर पैरों से ठुकराऊँगा।

गोपाल : बेशक और इस समय मुझे सिवाय आपके और किसी पर भरोसा करने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि न-जाने कौन उस कमेटी से मिला हुआ है। अस्तु अब आपके सुपुर्द खास तौर पर मैं यह काम करता हूँ कि जिस तरह हो इसका पता लगावें। हमारी रियासत में जितने ऐयार हैं सभी को इस काम में लगावें तथा और भी कोई ऐयार अगर मिले तो नौकर रख लें।

दारोगा : जो आज्ञा!

गोपाल : मैंने रणधीरसिंह के ऐयार गदाधरसिंह की बहुत तारीफ सुनी है कि वह बहुत ही तेज और चालाक है। अगर हो सके तो आप उससे भी इस काम में मदद लें।

दारोगा : बहुत खूब, पर दूसरी रियासत का ऐयार हमारा काम करने को जल्दी राजी नहीं होगा।

गोपाल : मैं उसका बन्दोबस्त करूँगा।

दारोगा : मैं भी इसकी कोशिश करूँगा।

कुछ देर के लिए सन्नाटा हो गया, इसके बाद दारोगा साहब बोले, ‘‘अब एक अर्ज मेरी है!’’

गोपाल : वह क्या?

दारोगा : महाराज तो हम लोगों को छोड़ कर चले गए, अब जमानिया रिआया के जो कुछ हैं आप ही हैं, ऐसी हालत में आपको अपने पिता के सिंहासन पर बैठकर प्रजा की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इधर जो-जो घटनाएँ हुई हैं उनसे रिआया में बहुत खलबली मच गई है और अगर जल्दी ही आप बन्दोबस्त नहीं करेंगे तो बेचैनी बढ़ जाने का डर है।

गोपाल : हाँ यह जरूर है। अच्छा मैं अपने अफसरों और सरदारों की कमेटी करता हूँ, उसी में यह बात तय होगी। आप सभों को खबर कर दें कि कल सुबह को बड़े दीवानखाने में इकट्ठे हों।

दारोगा : बहुत खूब!

कुछ देर बाद दारोगा साहब गोपालसिंह से बिदा होकर अपने घर की तरफ लौटे। इस समय उनके रोने और बिलबिलाने में बहुत कुछ कमी आ गई थी।

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