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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


खड़े-खड़े मालती को महाराज की राह देखते हुए बहुत देर बीत गई पर न तो महाराज ही लौटे और न वह बूढ़ा ही नजर आया। मालती को घबराहट और उसके साथ चिन्ता भी पैदा हुई और वह धीरे-धीरे उस कमरे के बाहर निकल कर उधर ही को चली जिधर महाराज को बूढ़े के पीछे-पीछे जाते हुए उसने देखा था। अभी वह कुछ ही दूर गई होगी कि सामने से तेजी के साथ आते एक नकाबपोश को उसने देखा और डर कर रुक गई क्योंकि उसे गुमान हुआ कि वह कहीं उसके दुश्मनों में से न हो।

मालती को देख उस नकाबपोश ने अपनी चाल तेज की और लपकता हुआ उसके पास आ पहुँचा, यकायक ही वह रुक गया और ऐसे भाव से मालती का चेहरा देखने लगा मानों यह वह नहीं है जिसके होने की आशा में वह लपका था। मालती भी डरती हुई उसकी तरफ देखने लगी। आखिर नकाबपोश ने पूछा, ‘‘तू कौन है और तेरा नाम क्या है?’’

मालती ने जवाब दिया, ‘‘जब तक मैं तुम्हारा परिचय न जान लूँ अपना नाम नहीं बता सकती, पहिले तुम बताओ कि कौन हो?’’

यकायक नकाबपोश हँसा और उसने अपने चेहरे से नकाब उलटते हुए कहा, ‘‘मैं पहिचान गया कि तू मालती है!’’ मालती ने इन्द्रदेव को अपने सामने खड़ा पाया। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे और वह इन्द्रदेव के पैरों पर गिर पड़ी।

इन्द्रदेव ने उसे प्यार से उठाकर उसका सिर सूँघा और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी मालती, मुझे शेरसिंह की जुबानी कई रोज हुए तेरे छूटने की खबर लग चुकी थी और मुझे ताज्जुब हो रहा था कि छूट जाने के बाद तू कहाँ है या क्या कर रही है और मेरे पास क्यों नहीं आती! अब मुझे मालूम हुआ कि तू यहाँ फँसी रहने के कारण लाचार थी!’’

मालती : (हाथ जोड़कर) जी इस तिलिस्म में तो मैं कल ही से बन्द हूँ, इसके पहिले बिल्कुल स्वतन्त्र थी पर...

इन्द्र० : पर क्या?

मालती : (रुकते हुए) पर मुझे आपके पास आते हुए डर मालूम होता था।

इन्द्र०: (ताज्जुब से) मेरे पास आते हुए और डर? सो क्यों?

मालती : क्योंकि मैंने कैद की हालत में आपके बारे में ऐसी बातें सुनीं जिससे मझे ऐसा विश्वास करना पड़ा।

इन्द्र० : तू तो दारोगा की कैद में थी? तो उसी ने तुझसे वे सब बातें कही होंगी?

मालती : (सिर नीचा करके) जी हाँ।

इन्द्र० : तू खुद ही सोच सकती है कि वे सब बातें कहाँ तक सही होंगी। खैर तेरा जो कुछ सन्देह होगा वह मैं दूर कर दूँगा, तू मुझे पर उतना ही विश्वास रख जितना अपने पिता पर रखती थी। पर कभी फुरसत के समय मैं तुझसे बातें करूँगा, इस समय तू यह बता कि यहाँ कैसे आई और क्या कर रही है?

मालती : मुझे हेलासिंह और रघुवरसिंह गिरफ्तार करके यहाँ ले आये जिसकी कथा बहुत लम्बी है और इस समय सुनाने का समय भी नहीं है, पर मुख्तसर यह है कि इस जगह महाराज गिरधरसिंह ने मुझे देखा और मेरा किस्सा सुना।

इन्द्र० : क्या महाराज यहाँ आये थे?

मालती : जी हाँ, अभी कोई घड़ी भर हुई तब तक वे मेरे साथ ही थे। उस समय एक बूढ़ा आदमी आया और उनसे कुछ बातें करके अपने साथ ले गया। बस उसके बाद से वे नजर नहीं आते कि कहाँ चले गये।

इन्द्र० : (चौंक कर) बूढ़ा आदमी! उसकी क्या सूरत थी? उसने महाराज से क्या कहा?

मालती : बड़ा ही बूढ़ा था, उसके सब बाल सुफेद हो रहे थे और कपड़े एकदम गन्दे थे। उसने महाराज से कहा कि उसे भी दारोगा ही ने इस तिलिस्म में कैद किया था और उसके साथ एक औरत भी है जो अब मरने की हालत को पहुँच गई है।

महाराज उस औरत को देखने के लिए उस बूढ़े के साथ इधर ही कहीं आये और न-जाने कहाँ गायब हो गये। मैं हेलासिंह और रघुबरसिंह के साथ उस शेरों वाले कमरे में थी, जब महाराज को देर लगाते देखा, घबड़ा कर इधर आई और आप नजर पड़े।

इन्द्रदेव ने अफसोस के साथ अपने माथे पर हाथ पटका और कहा, ‘‘जरूर वह कोई दुश्मन था और दगा कर गया! आह, अब इतने बड़े तिलिस्म में मैं महाराज को कहाँ ढूँढ़ूँ और उनकी जान बचाने की क्या तरकीब करूँ!’’ इन्द्रदेव उसी जगह बैठ गये और माथे पर हाथ रख चिन्ता करने लगे। मालती बेचैनी के साथ खड़ी तरह-तरह की बातें सोचने लगी।

बहुत देर बाद इन्द्रदेव ने सिर उठाया और मालती की तरफ देख के पूछा, ‘‘उस बूढ़े आदमी के साथ महाराज किस तरफ गये क्या तुझे मालूम है!’’ मालती बोली, ‘‘वे इसी तरफ आये थे और इस दालान तक आते हुए मैंने देखा था पर यहाँ से वह कहाँ चले गये मैं न देख सकी।’’ इन्द्रदेव यह सुन बोले, ‘‘क्या इस दालान के अन्दर आते हुए देखा था?’’

मलती ने जवाब दिया, ‘‘इसके पास तक आते तो देखा पर आगे आड़ हो जाने के कारण देख न सकी, मैं नहीं कह सकती कि वे इस दालान के अन्दर आये या किसी और तरफ घूम गये।’’ इन्द्रदेव ने दालान के बाहर चारों ओर निगाह की और कुछ सोच कर गरदन हिलाई, इसके बाद शेर के पास जा उन्होंने उसकी आँख में उँगली डाली। पहिले की तरह पुनः दीवार में एक दरवाजा नजर आया। मालती को पीछे आने को कह इन्द्रदेव उस दरवाजे के अन्दर घुसे।

वह एक लम्बा-चौड़ा कमरा था जिसमें मालती ने अपने को पाया। जमीन पर सुफेद संगमरमर का फर्श था और उस पर जगह-ब-जगह काले पत्थर की छोटी-छोटी बहुत-सी चौकियाँ रक्खी हुई थीं।

हर एक चौकी पर कुछ अंक खुदे हुए थे जिन्हें इन्द्रदेव गौर के साथ पढ़ने और उसे घूम-घूम कर देखने लगे। आखिर एक चौकी के पास पहुँच कर वे रुके और उसे हाथ से छूने पर कुछ गर्म पाकर खुशी के साथ बोले, ‘‘बेशक इस पर कोई बैठा था!

मेरा सोचना ठीक है और जरूर यह उसी कमीने की कार्रवाई है!!’’ इसके बाद वे मालती की तरफ घूमे और बोले, ‘‘बेटी मालती, मुझे अब बड़े भारी तरद्दुद में पड़ना और बहुत कुछ चक्कर लगाना पड़ेगा। सब जगह तुझे साथ रखना असम्भव है और साथ ही इसके यहाँ छोड़ जाना भी उचित नहीं क्योंकि यहाँ तक दुश्मन आ पहुँचे हैं अस्तु मैं तुझे हिफाजत की जगह भेजना चाहता हूं। तुझे किसी तरह की आपत्ति तो नहीं है।’’ मालती ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘कुछ नहीं’’ जिसे सुन इन्द्रदेव उसे लिए एक दूसरी चौकी के पास गये और बैठ जाने को कहा। मालती बैठ गई और तब ‘‘सम्हली रहियो’’ कह कर इन्द्रदेव ने कोई खटका दबाया।

एक हल्की आवाज आई और तेजी के साथ वह पत्थर की चौकी जमीन के अन्दर घुस गई तथा वहाँ गड्हा-सा नजर आने लगा जिसके अन्दर कुछ कल-पुर्जों के चलने की धीमी-धीमी आवाज आ रही थी। इन्द्रदेव कुछ देर तक वहाँ खड़े रहे इसके बाद कुछ सोचते हुए पुनः उस चौकी के पास पहुँचे जिसे पहिले देखा था, उस पर बैठ गये और एक खटका दबाने के साथ ही वह चौकी भी जमीन में धँस गई।

बहुत नीचे उतर जाने के बाद एक झटके के साथ वह चौकी रुक गई। वह जगह जहाँ इन्द्रदेव इस समय थे कैसी या किस तरह की थी इसका कुछ पता नहीं लगता था क्योंकि इस जगह इतना अंधकार था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था और इन्द्रदेव ने इसके जानने की कोशिश भी नहीं की क्योंकि तुरन्त ही उस चौकी में फिर हरकत पैदा हुई और वह धीरे-धीरे एक तरफ को धसकने या इस तरह दौड़ने लगी मानो उसके नीचे पहिये लगे हों। चलती समय एक तरह की हलकी आवाज चौकी के नीचे से आने लगी और उसकी सतह कुछ गर्म हो उठी पर इतनी नहीं कि बुरी या तकलीफदेह मालूम हो। धीरे-धीरे चाल तेज होने लगी और हवा के कड़े और बहुत ही ठंडे झोंके आने लगे जिससे इन्द्रदेव को अपना कपड़ा अच्छी तरह लपेट कर बदन को ढाँक लेने पर मजबूर होना पड़ा।

पन्द्रह मिनट के बाद चाल कम पड़ने लगी और धीरे-धीरे बिल्कुल ही कम होकर वह चौकी एकदम रुक गई। कुछ सायत के बाद पुनः झटका लगा और चौकी ऊपर की तरफ उठने लगी। थोड़ी देर बाद ऊपर उठना भी बन्द हो गया और चौकी के रुकते ही इन्द्रदेव फुर्ती के साथ उस पर से उतर पड़े।

इस जगह भी घोर अंधकार था। इन्द्रदेव ने अपनी कमर से तिलिस्मी खंजर निकाला और उसका कब्जा दबाया। तेज रोशनी चारों तरफ फैल गई और इन्द्रदेव ने देखा कि वे एक छोटी कोठरी में हैं जिसकी तीन तरफ की दीवार पत्थर की संगीन बनी हुई है और सामने की तरफ लोहे का जंगलेदार दरवाजा है।

घूम कर देखने से वह चौकी नजर न आई जिसने इन्हें यहाँ कर पहुँचाया था, जमीन साफ चिकनी बनी हुई थी। वहाँ एक काले पत्थर का चौखूटा पत्थर कोठरी के बीचोंबीच में जड़ा हुआ जरूर दिखाई दिया जो जमीन के बराबर ही में था।

इन्द्रदेव गौर से चारों तरफ देखने लगे। लोहे वाले दरवाजे के पास ही पड़ा हुआ एक कपड़ा उन्हें दिखाई दिया, उन्होंने झपट कर उसे उठा लिया।

वह एक लबादा था जिसे देखते ही उन्हें विश्वास हो गया कि यह उसी आदमी का है जो महाराज और मालती को दिखाई दिया था। उसके मुँह से खुशी भरी आवाज में निकला, ‘‘बेशक महाराज का दुश्मन उन्हें लिए हुए यहाँ तक आया है! अभी वह बहुत दूर नहीं गया होगा!’’

इन्द्रदेव लोहे वाले दरवाजे के पास गए और उसे खोलने की तरकीब करने लगे मगर यकायक उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि उन्हें जमीन पर बैठ जाना पड़ा। बार-बार चक्कर आने लगा, दो-एक छींके भी आईं और वे अपना सिर पकड़े हुए जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गए।

अफसोस, इन्द्रदेव ने कैसा धोखा खाया! महाराज और उनके दुश्मन के पास पहुँचकर भी वे कुछ न कर सके। वह लबादा जिसे उन्होंने हाथ में उठाया और जिसे दुश्मन जान-बूझकर वहाँ छोड़ गया था बेहोशी के अर्क में डूबा हुआ था जिसने घण्टों के लिए इन्द्रदेव की सुधबुध भुला दी और उन्हें किसी काम का न रक्खा, दुश्मन को निकल भागने का काफी मौका मिला और इस जरा-सी गफलत ने महाराज गिरधरसिंह को दुनिया से मिटा दिया।

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