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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


अब हम कुछ देर के लिए महाराज गिरधरसिंह के साथ चलना चाहते हैं जो बहुत ही घबराहट के साथ अपने तिलिस्म के दूर-दूर तक फैले हुए हिस्सों में खोज कर उन आदमियों का पता लगाने की फिक्र में हैं जिनके वहाँ मौजूद होने की उन्हें खबर लगी है। हम ऊपर लिख आये हैं कि महाराज ने सबसे पहिले लोहगढ़ी में जाने और जाँच करने का निश्चय किया है अस्तु हम महाराज के पहिले ही वहाँ पहुँच कर देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है क्योंकि बेचारी मालती को गिरफ्तार कर लेने के बाद दुष्ट जैपाल और हेलासिंह अभी तक यहीं मौजूद हैं जिन्हें इस बात का कुछ भी पता नहीं है कि महाराज को खबर लग चुकी है और भण्डा फूटा ही चाहता है।

सुबह होने में कुछ देर बाकी है। जैपाल लोहगढ़ी के लोहे वाले दालान में एक गमछा बिछाये गहरी नींद में पड़ा हुआ है और हेलासिंह कुछ सोचता हुआ बाग में टहल रहा है। उसकी गरदन नीची है और मालूम होता कि वह किसी गहरी चिन्ता में पड़ा हुआ है।

टहलते-टहलते हेलासिंह रुका और तब एक बार सोए हुए जैपाल की तरफ देखकर बोला, ‘‘चाहे जो हो, मालती को तो मैं अपने कब्जे के बाहर जाने न दूँगा।

अगर यह मेरे पास रही तो दारोगा साहब हमेशा मुझसे दबते रहेंगे। मगर दिए बिना बनता भी तो नहीं। ये जैपालसिंह जो सिर पर बैठे हैं, उसे लेकर ही पिण्ड छोड़ेंगे तो फिर किया क्या जाय? (सोचकर) अच्छा अगर उसे इस तहखाने से हटा कहीं दूसरी जगह रख आऊँ तो कैसा हो, जैपाल से कह दूँगा कि होश में आकर कहीं चली गई होगी। मगर नहीं, उसे जरूर शक हो जाएगा कि यह मेरी ही कार्रवाई है। जैपाल के सामने ही कुछ ऐसी तर्कीब होनी चाहिये कि मालती इसके हाथ न लगे पर रहे इसी गढ़ी के अन्दर ही, बाद में कभी जब चाहूँगा ले जाऊँगा।’’

इतना कह हेलासिंह ने कुछ देर तक गौर से कुछ सोचा और तब जैपाल के पास जा हाथ से हिलाकर उसे जगाया, जब वह आँख मलता हुआ उठा तो हँसते हुए कहा—‘‘वाह भाई, खूब सोते हो, मैं नहा-धोकर भी निश्चिन्त हो गया और अभी तुम्हें दीन-दुनिया की कुछ खबर ही नहीं!!’’

जैपाल चौंककर उठ बैठा और बोला, ‘‘क्या बतावें न जाने कैसी गहरी नींद आ गई तो इतनी देर हो गई। अच्छा अब घर की फिक्र कीजिए। मालती को ले आना चाहिये।

हेला० : क्या तुम स्नान इत्यादि नहीं करोगे?

जैपाल : (आसमान की तरफ देखकर) नहीं, बहुत देर हो गई, अब घर जाकर ही यह सब होगा।

हेला० : अच्छी बात है, तो चलो फिर उसी तहखाने में।

जैपाल : (खड़ा होकर) चलिए।

दोनों आदमी मकान के अन्दर घुसे। कई गुप्त और पेचीली राहों से होता हुआ जिनका हाल यहाँ लिखना व्यर्थ है हेलासिंह जैपाल को लिये एक बड़े कमरे में पहुँचा जिसके तीन तरफ तो बड़े-बड़े दरवाजे थे जो इस समय बन्द थे और चौथी तरफ एक लोहे का बड़ा जंगला कमरे की पूरी चौड़ाई में बना हुआ था जो कि शायद कैदखाने के काम आता होगा क्योंकि इस समय हम उसी के अन्दर बेचारी मालती को सुस्त बैठे आँसू बहाते पा रहे हैं।

जैपाल और हेलासिंह की आहट पा एक बार मालती ने सिर उठाकर देखा मगर फिर नीचा कर लिया। जैपाल ने हेलासिंह के कान में कहा, ‘‘इसे बेहोश कर ले जाने में सुभीता होगा।’’

पर हेलासिंह ने इसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और गौर के साथ बाईं दीवार में बनी हुई एक छोटी आलमारी की तरफ देखने लगा जिसका पल्ला खुला हुआ था और कोई चमकती हुई चीज अन्दर दिखाई पड़ रही थी। जैपाल का हाथ पकड़े हुए लपककर हेलासिंह उस आलमारी के पास गया और तब जैपाल ने देखा कि उसके अन्दर चाँदी की बनी हुई एक पुतली है जो अपनी जगह पर नाच रही थी और एक हलकी आवाज उसके मुँह से निकल रही थी जो गाने की तरह मालूम होती थी।

नाचती हुई इस पुतली को देखते ही हेलासिंह का चेहरा पीला पड़ गया और उसके मुँह से डर की आवाज निकल गई। जैपाल को यह देख ताज्जुब हुआ और उसने पूछा, ‘‘क्या मामला है?’’ परन्तु हेलासिंह ने कोई उत्तर न दिया और दीवार से उठंग कर चारों तरफ पागलों की तरह देखने लगा। जैपाल का ताज्जुब और भी बढ़ा और उसने हेलासिंह का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘आखिर क्या बात है? आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है?’’

बड़ी मुश्किल से हेलासिंह के मुँह से निकला—‘‘भागो भागो, महाराज आ रहे हैं।’’ और तब उसने उधर पैर बढ़ाया जिधर से वे दोनों आये थे, पर उसी समय कमरे के बन्द दरवाजों में से एक बड़े जोर से खुल गया और तिलिस्मी तलवार हाथ में लिये महाराज गिरधरसिंह ने कमरे के अन्दर कदम रक्खा। महाराज की निगाह इन दोनों पर पड़ी और उन्होंने देखते ही कहा, ‘‘मैं किसे अपने सामने देख रहा हूँ!’’

महाराज को देखते ही इन हरामजादों को तो मानों काठ मार गया। पैर इस तरह जमीन के साथ लग गये मानो कभी छोड़ेंगे ही नहीं और जबान तालू के साथ चिपक गई। दोनों सकते की-सी हालत में हो महाराज का मुंह ताकने लगे। महाराज शायद उनसे कुछ पूछते या कहते पर उसी समय उनकी निगाह जंगले के अन्दर बन्द मालती पर पड़ी और झपटकर उसके पास पहुँचे। एक गहरी निगाह उसके ऊपर डाली और ताज्जुब के साथ बोले—‘‘हैं, मैं किसे देख रहा हूँ?

क्या तू मालती है?’’

मालती ने हाथ जोड़ महाराज को प्रणाम किया और रूँधे हुए गले से बोली, ‘‘जी हाँ महाराज, मैं मालती ही हूँ’’। महाराज ने जंगला खोला और अन्दर आ हाथ पकड़ उठाना चाहा पर वह उनके पैर पर गिर पड़ी और आँसू बहाने लगी। महाराज की भी आँखें भर आईं और वे दम-दिलासा देकर मालती को उठाते हुए प्यार के साथ उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। जब वह कुछ शान्त हुई तो महाराज ने पूछा—‘‘सबसे पहिले यह बता कि तू इस जगह कैसे पहुँची और (जैपाल तथा हेलासिंह की तरफ बताकर) इन दोनों को मैं यहाँ क्यों देख रहा हूँ?’’

मालती : मेरा हाल बहुत बड़ा और दर्दनाक है जिसका मुख्तसर यही है कि आपके दारोगा साहब और इन कम्बख्तों की बदौलत ही मैं इस दशा को पहुँची और इन्हीं दोनों ने मुझे इस जगह बन्द कर रक्खा है।

इतना सुनते ही महाराज की भृकुटि चढ़ गई और वे आँखें लाल कर तिलिस्मी तलवार उठाए हुए जैपाल और हेलासिंह की तरफ लपके। करीब ही था कि इन दोनों के सर जमीन पर लुढ़कते हुए दिखाई देते पर मालती ने दौड़कर महाराज को रोका और हाथ जोड़कर कहा, ‘‘मेरी एक अर्ज सुनकर तब महाराज कुछ करें!’’ महाराज रुककर बोले, ‘‘इन हरामजादों का दुनिया से उठ जाना ही बेहतर है!’’ मालती ने जवाब दिया, ‘‘सो तो ठीक है पर अभी इनके मारने का मौका नहीं है।’’

महाराज : सो क्यों?

मालती : यह मैं इनके सामने नहीं कह सकती, यदि महाराज इनको कुछ दूर हटा दें तो मैं कहूँ।

सुनते ही महाराज ने कड़ी निगाह जैपाल और हेलासिंह पर डाली और उस जंगले की तरफ इशारा करके जिसमें मालती बन्द थी कहा—‘‘भीतर जाओ!’’ डरते और काँपते हुए दोनों दुष्ट उस जंगले के अन्दर घुस गये और मालती ने जंगले की जंजीर लगा दी। इसके बाद माहाराज के पास आकर बोली, ‘‘महाराज, इन दोनों को मारने का अभी मौका नहीं था। ऐसा करने से एक बड़ा भारी हर्ज पड़ता है।’’

महा० : वह क्या?

मालती : इस गढ़ी की ताली हेलासिंह के पास है जिसकी मुझे जरूरत है।

महा० : (चौंककर) गढ़ी की ताली! ओह ठीक है, मगर तुझे उसका पता क्योंकर लगा! और तुझे उसकी जरूरत ही क्या है?

मालती : (हाथ जोड़कर) मेरे कई रिश्तेदार इस जगह कैद हैं।

महा० : तेरे रिश्तेदार यहाँ कैद हैं? कौन-कौन? और उन्हें किसने कैद किया?

मालती : रणधीरसिंह जी के लड़के दयारामजी और उनकी दोनों स्त्रियाँ यहाँ बन्द हैं।

महा० : (ताज्जुब से) रणधीरसिंह का लड़का! उसकी तो मौत हो चुकी है? मैंने तो सुना था कि उसके किसी नौकर ने ही उसकी जान ली, और उसकी स्त्रियों को भी मैं मरा ही समझता था!

मालती : जी हाँ, मशहूर तो यही है पर वास्तव में वे जीते-जागते हैं और दारोगा साहब के द्वारा अच्छी तरह सताये जाकर अब इस तिलिस्म में कैद हैं।

महाराज ने इस बात को सुन क्रोध के साथ अपना होंठ चबाया और तब गुस्से भरी आवाज में बोले—‘‘बेशक इन कमीनों ने मुझे पूरा अन्धा बना रक्खा था! आज मुझे इनकी शैतानी का पता लगा। अच्छा कोई हर्ज नहीं, मैं भी एक-एक को चुन-चुन कर मारूँगा!

ओफ, अब भैयाराजा की बात याद आती है जो बराबर कहता था—‘‘भाईजी, आप इन कम्बख्तों के फेर में पड़े हुए हैं!’’ अफसोस! वह बेचारा मर गया, नहीं इसी समय मैं उससे माफी माँगता और कहता—‘‘लो, इन कमीनों का इन्साफ तुम्हारे ही हाथ देता हूँ, जैसा चाहो इनके साथ करो!’’

मालती : यह आपको कैसे मालूम हुआ कि वे मर गये?

महा० : यह मैंने उस कम्बख्त दारोगा से ही सुना था।

मालती : अफसोस! महाराज को अभी बहुत-सी बातों की खबर नहीं है। अगर आप मेरा पूरा किस्सा सुनेंगे तो आपको मालूम होगा कि इन दुष्टों ने आपको कितने भारी जाल में फँसाया हुआ है। पर इतना तो मैं जरूर कह सकती हूँ कि भैयाराजा मरे नहीं हैं बल्कि इसी दारोगा की कैद में हैं और उनके साथ ही उनकी स्त्री और मेरे चाचा भी वहाँ बन्द हैं।

महा० : तेरे चाचा कौन? दामोदरसिंह!

मालती : जी हाँ महाराज!

महा० : जिनकी लाश अभी थोड़ा समय हुआ मेरे सामने लाई गई थी?

मालती : जी हाँ महाराज!

मालती की बात सुन महाराज के हवाश उड़ गये और वे माथे पर हाथ रख कुछ सोचने लगे। कुछ देर तक तो ऐसा मालूम होता रहा मानो वे अपने आपे में नहीं हैं। जब मालती ने उनका हाथ छूआ तो वे चौंके और एक लम्बी साँस लेकर बोले, ‘‘ओफ, यह दुनिया भी कैसी बेईमान है! ये सब बातें सुनकर भी क्या किसी पर विश्वास करना चाहिए?’’

मालती : क्षमा कीजिएगा महाराज, पर मेरा कथन यह है कि दुनिया बेईमान नहीं है, हम लोगों के दुर्भाग्यवश महाराज को कुछ सलाहकार ऐसे मिले हैं जिन्हें बेईमान के नाम से पुकारना भी उनके साथ रिआयत करना है।

महा० : खैर यह जो कलंक मेरे ऊपर बहुत दिनों से लगा हुआ था आज मैं हमेशा के लिए दूर कर दूंगा।

तू मुझे अपना पूरा हाल सुना और बता कि तेरे मरने की खबर क्योंकर उड़ी, इतने दिन तक तू कहाँ गायब रही, हेलासिंह के पञ्जे में क्योंकर पड़ी और इन सब बातों की खबर तुझे क्योंकर लगी जो तू मुझसे कह रही है?

मालती : (हाथ जोड़कर) मैं अपने दुःख की पूरी कथा महाराजा को सुनाऊँगी जिसे सुनकर महाराज को अपनी आँखें सूखी रखना कठिन हो जाएगा। पर वह एक लम्बा किस्सा है, अगर महाराज को इतना समय हो तो मैं कहूँ?

महा० : हाँ मुझे समय है, तू कह मगर यहाँ नहीं, तू इधर आ।

इतना कह महाराज घूमे और उसी दरवाजे की तरफ बढ़े जिधर से इस कमरे में आये थे मगर उसी समय मालती ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘महाराज की यदि आज्ञा हो तो मैं इन दोनों दुष्टों को भी अपने साथ लेती चलूँ, इन्हें ने भी मेरे किस्से से सम्बन्ध है और जब मैं अपना हाल कहने लगूँगी तो ये हामी भरेंगे।’’ महाराज ने यह सुन कहा, ‘‘जैसी तेरी मर्जी।’’ जिसे सुन मालती ने जंगला खोला और जैपाल तथा हेलासिंह को बाहर निकलने को कहा।

डरते-काँपते और अपनी जान से नाउम्मीद दोनों हरामजादे बड़ी मुश्किल से कोठरी के बाहर निकले। मालती ने दोनों के हाथ उन्हीं के कमन्द से खूब कसकर पीठ पीछे बाँध दिया और कमन्द का सिरा पकड़े हुए महाराज की तरफ बढ़ी।

महाराज ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘क्या तू समझती है कि इन कुत्तों की इतनी हिम्मत है कि मेरी आँखों के सामने से भाग सकें! खैर तू आ इन्हें भी लेती आ!’’

आगे-आगे महाराज और उनके पीछे-पीछे मालती, जैपाल और हेलासिंह उस दरवाजे को पार कर एक बहुत ही भारी और आलीशान कमरे में जा पहुँचे जो काले पत्थरों का बना हुआ था जिसकी काली ही छत काले पत्थर के चालीस खम्भों पर टँगी हुई थी।

इस कमरे में पहुँचते ही जैपाल ने इसे पहिचान लिया कि यह वही कमरा है जिसमें दारोगा के साथ वह आया था जहाँ दारोगा जमना, दयाराम तथा सरस्वती को बन्द कर गया था क्योंकि इसके बीच वाले काले पत्थर के सिंहासन को घेरे हुए वे चार शेर मौजूद थे जिनके सिर पर उकाब बने हुए थे। महाराज जाकर उस सिंहासन पर बैठ गये और मालती को अपने सामने बैठने तथा अपना किस्सा आरम्भ करने को कहा। (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, सातवाँ बयान।)

मालती जैपाल और हेलासिंह को कुछ दूर छोड़कर महाराज के पास आ गई और सिंहासन के नीचे बैठकर उसने इस तरह कहना शुरू किया।

मालती : महाराज, मैं अपना दुःखदाई हाल आज से कई बरस पहिले से शुरू करती हूँ जबकि मैं बहुत ही कम उम्र की एक लड़की थी और दुनिया के छलछन्द और फरेब कुछ भी नहीं समझती थी। मेरे माँ-बाप जिन्दा थे और उनकी प्यारी बेटी होने के कारण मैं बड़े ही आनन्दपूर्वक रहती थी

मेरा रहना अपने घर की बनिस्बत अपने चाचा दामोदरसिंह के यहाँ ज्यादा होता था जिसका कारण यह था कि उनके यहाँ रहने वाली उनके रिश्ते की लड़की अहिल्या के साथ मेरी बड़ी ही मुहब्बत थी और हम दोनों एक जान और दो शरीर होते थे। दामोदरसिंह अहिल्या को हद से ज्यादा प्यार करते थे और मुझे तो अपनी बेटी ही समझते थे जहाँ तक मैं गुमान करती हूँ महाराज को भी उस बेचारी की याद होगी।

महा० : बहुत अच्छी तरह याद है मगर उस कम्बख्त का नाम सुनना भी मैं पसन्द नहीं करता जिसने दूसरे के साथ निकलकर अपना धर्म गँवाया और माँ बाप के कुल में दाग लगाया।

मालती : नहीं महाराज, आपका सोचना गलत है, अहिल्या बड़ी शुद्ध और पवित्र लड़की थी और उसके विषय में किसी तरह के कलंक की बात सोचना अनर्थ करना है। सच तो यह है कि उसके बारे में ऐसी खबर फैलाने वाले भी (हेलासिंह और जैपाल की तरफ दिखाकर) ये ही लोग हैं जिन्होंने उसके साथ महाभयानक अत्याचार किया और अन्त में उसकी जान लेकर ही छोड़ा।

इतना कर मालती ने कड़ी निगाह से जैपाल और हेलासिंह की तरफ़ देखा जिन्होंने सिर नीचा कर लिया। मालती फिर कहने लगी—

मालती : मेरे दुःख की असल कहानी उस समय से शुरू होती है जब मेरी शादी की बातचीत चुनारगढ़ के सेनापति के लड़के से लगी थी जिन्हें महाराज भी बखूबी जानते हैं क्योंकि वे आपके रिश्तेदार में से हैं।

महा० : हाँ हाँ, दिवाकरसिंह का नाम मैं अभी तक नहीं भूला हूँ, वह बेचारा बड़ी ही सीधा और महात्मा आदमी था और साथ ही सच्चा बहादुर भी था, मुझे अच्छी तरह याद है कि जब उसके मरने की खबर मुझे लगी...

मालती : यदि मैं यह अर्ज करूँ तो शायद महाराज को आश्चर्य होगा कि दिवाकरसिंहजी कई वर्ष दारोगा साहब के कैदखाने में बिता अब भी ईश्वर की दया से जीते-जागते मौजूद हैं।

महा० : हैं, क्या दिवाकरसिंह जीते हैं? और क्या वे दारोगा की कैद में थे?

मालती : जी महाराज, और उनके मरने की झूठी खबर भी शिवदत्त और दारोगा इत्यादि ने ही मिलकर उड़ाई थी।

महा० : (क्रोध से दाँत पीसकर) खैर कोई हर्ज नहीं, तू कह।

मालती ने सिर नीचा कर कहना शुरू किया, ‘‘महाराज, उस समय लड़कपन की उम्र थी और दुनिया की कोई खबर हम लोगों को थी नहीं अस्तु दिलों में बहुत-सी बातें उठा करती थीं। मेरी सखी अहिल्या ब्याह की बात छेड़कर मुझे प्रायः दिक किया करती और मजाक में कहा करती थी कि तेरा पति बहुत बदसूरत है। मैं इससे इन्कार करती पर वह कुछ न सुनती और यही कहती कि अच्छा अगर तू अपने भावी पति की तस्वीर मुझे दिखा दे तो मैं जानूँ कि जो तू कहती है वही सच है और मेरा कहना गलत है। उसने मुझे यहाँ तक तंग किया कि अन्त में लाचार होकर मैंने निश्चय कर लिया जिस तरह हो सके उनकी एक तस्वीर हासिल करूँ और अहिल्या को झूठी सिद्ध करूँ।

मैं अभी इसी फिराक में थी कि एक रोज अहिल्या बड़ी खुशी-खुशी मेरे पास पहुँची और बैठकर बोली—‘‘ले तू तो कहती रह गई पर मैंने तेरे मालिक की तस्वीर पा ली! कुछ इनाम दे तो तुझे दिखाऊँ!’’

मैं बड़े ताज्जुब में हुई और उस तस्वीर के लिए उसकी बड़ी-बड़ी खुशामद और मिन्नत करने लगी। अन्त में उसने आँचल में से निकालकर एक तस्वीर मेरे आगे रक्खी और कहा, ‘‘ले बहिन, अब तू अपने मालिक को देख और बता कि जो कुछ मैं उसके बारे में कहती थी वह ठीक था या नहीं!’’

उस तस्वीर को देख मैं शरमा गई क्योंकि वह जिसकी थी वह कोई बहुत खूबसूरत आदमी न था दूसरे उम्र भी ज्यादा मालूम पड़ती थी, हाँ कपड़ा पोशाक और ऊपर सजधज इत्यादि जरूर बहुत ही अच्छा था।

सच तो यह है कि उसे देख मुझे एक तरह की नफरत सी हो गई और मैंने तस्वीर को फेंककर मुँह फेर लिया। यद्यपि मैंने कुछ कहा नहीं पर अहिल्या मेरे दिल की हालत समझ गई और मुझे समझाने-बुझाने लगी।

आखिर मैंने उससे पूछा कि तूने यह तस्वीर कहाँ से पाई। इस पर उसने जो जवाब दिया उससे मैं ताज्जुब में पड़ गई क्योंकि उसने कहा—‘‘यह तस्वीर पण्डितजी से मैंने पाई है।’’

पण्डितजी से मतलब उसका आपके दारोगा साहब से था जिसे उस समय लोग बाबाजी भी कहते थे क्योंकि वह उस जमाने में साधुओं की तरह रहा करता था। उन दिनों उसने एक मकान दामोदरसिंहजी के मकान के बगल में ही ले रक्खा था और प्रायः छत पर से हम लोग उसे देखा करते थे, पर उससे हम लोगों की कोई बातचीत न थी क्योंकि इसके लिए दामोदरसिंहजी की सख्त मनाही थी, अस्तु जब अहिल्या ने कहा कि उसने यह तस्वीर पंडितजी से पाई है तो मुझे बड़ा ही ताज्जुब और कुछ रंज भी हुआ कि वह क्यों उससे बातचीत करने गई।

मैंने उससे कहा, ‘‘क्या तूने उससे तस्वीर माँगी थी?’’ उसने कहा, ‘‘नहीं आज मैं छत पर से झाँक रही थी। उस समय उसकी एक मजदूरनी छत पर खड़ी यह तस्वीर देख रही थी, मैंने उससे पूछा कि क्या है? तो उसने बताया कि बाबाजी के यहाँ चुनारगढ़ से मुसौवर आया है जिससे बहुत सी तसवीरें बाबाजी ने ली हैं, उन्हीं में से एक यह भी है।

मैंने वह तस्वीर लेकर देखी और जब उससे पूछा कि किसकी है तो उसने प्रभाकरसिंह का नाम बताया जिससे मैं थोड़ी देर के लिए इसे माँग लाई हूँ। मैंने अहिल्या से कहा, ‘‘जा उससे पूछ वह यह तस्वीर मेरे पास रहने दी जा सकती है!’’ अहिल्या तस्वीर लेकर यह कहती हुई चली गई, ‘‘सो तो मैं पहिले ही जानती थी’’ और थोड़ी देर बाद लौट आकर बोली, ‘‘लौंडी ने कहा है कि आज तो नहीं पर कल अगर मौका लगा तो तस्वीर दे जाऊँगी।’’

गरज कि दूसरे दिन बाबाजी की वह लौंडी हम दोनों के पास आई और वह तस्वीर दे गई। इसके बाद कई दिनों तक वह किसी न किसी बहाने से मेरे पास बराबर आती उस तस्वीर के बारे में बहुत देर तक बातें करती और जिसकी तस्वीर थी उसकी खूबसूरती, धन दौलत और ताकत का बखान करती।

मेरी शादी की बातचीत तो हो रही थी पर उमंग जो पहिले मेरे दिल में थी अब नहीं रही बल्कि दो-एक बार मैंने उससे अनिच्छा भी जाहिर की। और तो कोई नहीं पर मेरी माँ मेरे मन की बात समझ गई और इस फिक्र में पड़ी कि मेरे इस बर्ताव का सबब क्या है सो जाने।

अहिल्या से दरियाफ्त किया और उसकी जुबानी सब हाल सुन बड़े ताज्जुब से कहा, ‘‘वाह, मालती, का शौहर तो बड़ा ही सुन्दर नौजवान है, उसे बदसूरत कौन कहता है!’’ उस समय तो वह इतना ही कहकर रह गई मगर इसके कुछ ही समय बाद मैंने अपने पिता के कमरे में एक नई तस्वीर लटकती हुई देखी जिसके नीचे ‘प्रभाकरसिंह’! ऐसा लिखा हुआ था। मैं आश्चर्य से उस तस्वीर को देखने लगी क्योंकि इस शक्ल और उस दूसरी तस्वीर में बड़ा फर्क था जो बाबाजी की लौंडी द्वारा मैंने पाई थी।

मैंने अहिल्या को इस बात की खबर दी। उसे भी बहुत ताज्जुब हुआ और जब उसे मेरे घर आने का मौका मिला तो उसने भी वह तस्वीर देखी और आश्चर्य के साथ निश्चय किया कि बेशक यह किसी दूसरे की तस्वीर है और वह किसी दूसरे की जो दारोगा साहब की मार्फत मिली थी।

आखिर अहिल्या से न रहा गया और उसने हम लोगों को मिली हुई तस्वीर मेरी माँ को दिखा ही तो दी। उसने बड़े गौर से देखा और तब कहा, ‘‘हाँ ठीक है, इस आदमी को मैं पहिचानती हूँ, यह चुनार का राजा शिवदत्त है। तुम लोगों को इसकी तस्वीर कहाँ से मिली?’’

हम लोगों के ताज्जुब का ठिकाना न रहा। मेरी माँ को तो अहिल्या ने उस समय कुछ कह सुनकर समझा दिया और बात टाल दी मगर इसके बाद हम दोनों मिलकर बैठीं और इस बात पर गौर करने लगीं कि आखिर मामला क्या है?

महाराज, मुख्तसर यह कि हम लोगों ने आखिर पता लगा ही लिया कि चुनार का राजा शिवदत्त मुझसे ब्याह करने को उतावला हो रहा है और उसने बाबाजी पर इसका भार सौंपा है जिसका प्रबंध वे हजरत कर रहे हैं, अहिल्या एक ही शैतान थी, उसने यह भेद जानते ही दारोगा की उस लौंडी से यह कहना शूरू किया कि मालती शिवदत्त पर आशिक हो रही है और उसके सिवाय और किसी से ब्याह नहीं करेगी।

जरूर वह लौंडी भी इस षड्यन्त्र में शामिल थी क्योंकि थोड़े ही दिन बाद उसने एक चीठी शिवदत्त की लाकर दी जिसमें वाहियात बातें और तरह-तरह के वादे किए हुए थे। मैं वह चीठी पढ़ते ही गुस्से से भर गई मगर अहिल्या मुझसे बोली, ‘‘तू ठहर और देख मैं उससे क्या दिल्लगी करती हूँ।’’ अहिल्या ने अपना हाथ बिगाड़कर उस चीठी का न-जाने क्या जवाब लिखा और उस लौंडी को दे दिया।

दो-तीन दिन के बाद अहिल्या पुनः मेरे पास पहुँची। इस समय उसके हाथ में एक चीठी थी जो उसने मुझे पढ़ने के लिए दी और यह कहती हुई मेरे पास बैठ गई, ‘‘ले अपने आशिक की चीठी पढ़।’’

मैंने उसे पढ़ा, उसमें भी पहले की तरह सिर्फ फोश बातें ही भरी हुई थीं हाँ, इतना और लिखा था कि ‘जिस लौंडी के हाथ मैं यह चीठी भेजता हूँ वह मेरी बहुत ही विश्वासपात्र है। उसके हाथ चीठी-पत्री या सन्देश भेजने में किसी तरह का खतरा नहीं है’।

यह चीठी पढ़ मुझे और भी क्रोध आया और उस कमीने को तरह-तरह की बातें कहने लगी। उस चीठी को मैंने फाड़ डालना चाहा पर अहिल्या ने वह मुझसे ले ली और कहा—‘‘तू व्यर्थ का गुस्सा न कर और देख मैं क्या दिल्लगी करती हूँ, अगर शिवदत्त और बाबाजी को नाकों चने न चबवा दूँ तो मेरा नाम नहीं!’’ मैं बोली, ‘‘मुझे यह सब खेलवाड़ अच्छा नहीं लगता! ऐसा करने में और चाहे कुछ हो या न हो पर मैं झूठ-मूठ बदनाम और बेइज्जत हो जाऊँगी, कहीं बाबूजी को पता लगा तो मेरा सिर काट डालेंगे!’’ पर अहिल्या काहे को सुनती थी, और फिर बाततो यह थी कि हम दोनों ही पर शामत जो आने को थी, सो जो होनी होती है वही होता है। मैं भी अहिल्या की बातों में पड़ गई।

उसने कहा कि शिवदत्त ने अपने कई आदमी बाबाजी के पास भेजे हैं कि उनसे मदद लें और मालती को अर्थात् मुझे पकड़ ले जाने में शिवदत्त की मदद करें। इसी सबब से हमारे पड़ोस वाला यह मकान लिया गया है और यह सब कार्रवाई हो रही है अस्तु कोई ऐसी तर्कीब होनी चाहिये जिसमें ये दोनों पाजी आपस ही में लड़ पड़ें, तब बड़ी दिल्लगी देखने में आवेगी और शिवदत्त को भी अपनी करनी का फल मिलेगा और मैंने इसकी बड़ी ही सहज तर्कीब भी सोची है।

अहिल्या ने कागज-कलम ले एक चीठी शिवदत्त को लिखी। इसमें उसने बहुत-सी फिजूल बातों के अन्त में लिखा कि ‘मैं तुम्हें चाहती हूँ और तुम्हारी ही हूँ मगर बाबाजी बीच में अड़ंगा लगा रहे हैं, तुम उन पर भरोसा न करना, इत्यादि, और तब वह चीठीबन्द कर उस लौंडी को दे दी।

मुझे उस समय नहीं मालूम हुआ पर अहिल्या इतने ही पर नहीं रही बल्कि उसने मेरी तरफ से एक दूसरी चीठी बाबाजी के नाम लिखी जिसमें अन्डबन्ड बहुत कुछ लिखकर अन्त में यह जाहिर किया कि मैं तो वास्तव में आप ही को चाहती हूँ पर यह शिवदत्त जो मेरे पीछे पड़ा है और तंग कर रहा है उससे मेरा पिण्ड छुड़ाओ। इस चीठी ने दारोगा के मन में खलबली पैदा कर दी और इसके बाद मैंने उसे कई दफे छत पर टहलते और मेरी खिड़की की तरफ देख तरह-तरह के हाव-भाव और इशारे करते पाया जिससे मैं यहां तक परेशान हुई कि जब तक दामोदरसिंह जी के यहां रहती कभी छत पर जाने की हिम्मत नहीं करती थी।

मुख्तसर यह कि अहिल्या ने बेढब रंग मचाया और ऐसी कार्रवाई करी कि दारोगा और शिवदत्त एक-दूसरे के जानी दुश्मन हो गए, यहाँ तक कि शिवदत्त ने अपनी एक चीठी में लिखा कि दारोगा को जरूर जान से मार डालेगा और दारोगा ने अपनी एक चीठी में वादा किया कि जिस तरह हो सकेगा शिवदत्त को गद्दी से उतार बल्कि मार डालेगा।

उस समय अहिल्या ने शिवदत्त की चीठी दारोगा के पास भेज दी और दारोगा की शिवदत्त के पास और एक कार्रवाई ऐसी की कि जिसने एक प्रहसन को दुःखान्त नाकट के रूप में बदल डाला, अहिल्या को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और मेरी जिन्दगी हमेशा के लिए बर्बाद हो गई।

उसने दारोगा को लिखा कि ‘शिवदत्त अब मेरे साथ तुम्हारी भी जान लेने को तैयार हो गया जिसके सबूत में उसकी चीठी भेजती हूँ, और साथ ही मेरी शादी का भी मौका आ गया है जिससे निश्चय है कि मैं अब स्वतंत्र न रह सकूँगी अस्तु तुमसे पहिली और आखिरी मुलाकात करने की इच्छा है, तुम अगर मुझे चाहते हो तो एक बार मुझे दर्शन दो।

शहर के बाहर जो नन्दीवाहन शिव की मूर्ति है उसी मंदिर में अमावस की आधी रात को मैं आऊँगी, तुम उस जगह मौजूद रहना’। ऐसे ही मजमून की चीठी उसने शिवदत्त को लिखी और दोनों ही जगह से जवाब भी पा लिया कि ‘मैं उस रात को उस जगह जरूर आऊँगा, तुम आने से मत चूकना’।

मुझे तो यह पढ़ कुछ आशंका मालूम हुई मगर अहिल्या की खुशी का कोई ठिकाना न था और वह बार-बार यही कहती थी कि ‘उस दिन बड़ी दिल्लगी देखने में आवेगी और दोनों दुष्ट आपस ही में लड़कर मर मिटेंगे’। पर वहाँ तो मामला ही कुछ और हो गया।

अहिल्या की दिली ख्वाहिश थी कि अमावस वाले दिन उस मन्दिर में मौजूद रहे और जो कुछ बीते उसे देखे पर मैं डरती और उसे ऐसा करने से रोकती थी।

केवल उन दोनों के देखने ही का डर मुझे न था बल्कि यह भी था कि मेरे बाप या चाचाजी (दामोदरसिंहजी) सुन पावेंगे तो दुर्गति कर डालेंगे और इस बात की कोई तर्कीब नहीं सूझती थी कि उनकी जानकारी में आज्ञा लेकर इस बेवक्त कहीं जा सकूँ। मगर अहिल्या इस बात पर तुली हुई थी कि चाहे जैसे भी हो वहाँ उस समय जाना और उन कम्बख्तों में कैसी निपटती है सो देखना ही चाहिए। उसने मुझसे यहाँ तक जिद्द की और इतना तंग किया कि लाचार होकर मैं भी सोचने लगी कि आखिर ऐसा करने की क्या तदबीर हो सकती है।

मेरे पिता के एक बहुत ही गहरे दोस्त थे जो रोहतासगढ़ के महाराज के यहाँ नौकर थे तथा जिन्हें शायद महाराज भी जानते हों। वे मेरे यहां बहुत आया-जाया करते थे और मैं उन्हें हद से ज्यादा प्यार करती और उन्हें चाचा कहकर पुकारा करती थी तथा वे भी वैसी ही मुहब्बत मेरे साथ रखते थे। उनका नाम शेरसिंह था और...।

महाराज : क्या नाम बताया, शेरसिंह!

मालती : जी हाँ।

महा० : ओह मैं उस लड़के को बखूबी जानता हूँ पर इधर वर्षों से उसे नहीं देखा। क्या वह अब भी रोहतासगढ़ में है? मैं उसे बुलवाऊँगा क्योंकि मैंने उसके बारे में दो-एक बातें ऐसी सुनी हैं जिनसे मेरा दिल उसकी तरफ से खट्टा हो गया है।

मालती : मैं नहीं कह सकती कि महाराज ने क्या सुना जिससे ऐसा हुआ पर जहाँ तक मैं कह सकती हूँ वे ऐसे आदमी नहीं है जिनके ऊपर किसी तरह का कलंक लग सके।

महा० : खैर इसका पता लग जायगा, तू अपना हाल कह, फिर क्या हुआ?

मालती : ये शेरसिंह उन दिनों मेरे यहाँ आए हुए थे और इनसे मैंने यह सब हाल (अपने पिता और चाचाजी से छिपा रखने की कसम खिलाकर) कह डाला। जो कुछ भी मेरी या अहिल्या की कार्रवाई हुई थी मैंने बिना कुछ छिपाये साफ-साफ कह दी और अन्त में अपना तरद्दुद भी कह सुनाया।

किन्तु सुनकर वे खुश नहीं हुए बल्कि मुझे झिड़की देने लगे कि यह बड़ी ही खराब और बेवकूफी की कार्रवाई की गई और इसका नतीजा किसी तरह अच्छा नहीं निकलेगा।

उस समय अहिल्या भी मेरे घर पर मौजूद थी। उन्होंने उसे भी बुलाकर बहुत कुछ कहा-सुना और इस काम से बिलकुल हाथ खींच लेने को कहा पर हम लोग कब मानने को थे क्योंकि हम पर शामत सवार थी।

मैं और अहिल्या यहाँ तक गिड़गिड़ाईं कि अन्त में वे लाचार हो गए और उन्होंने वादा किया कि खैर मैं उस दिन रात के उस मन्दिर में क्या होगा यह किसी तरह तुम दोनों को दिखला दूँगा पर खबरदार, अब ऐसी कोई कार्रवाई हरजिग मत करना, न तो किसी से कोई लिखा-पढ़ी करना और न दारोगा या शिवदत्त के किसी नौकर, मजदूरनी को ही घर में आने देना। उन्होंने जो कुछ कहा हम दोनों ने सब मंजूर कर लिया।

अमावस के एक दिन पहले मैं और अहिल्या बैठी कुछ बातें कर रही थीं कि मेरे पिता के साथ शेरसिंह जी उस जगह आ पहुँचे और मुझसे बोले, ‘‘क्या तू तिलिस्म देखने चलेगी? अगर देखना हो तो चल मैं तुझे दिखलाऊँ।’’ मैंने पूछा—‘‘तिलिस्म क्या होता है?’’ उन्होंने कहा, ‘‘वहाँ बड़ी-बड़ी ताज्जुब और तमाशे की चीजें होती हैं जिनको देखकर आदमी की अक्ल चक्कर में आ जाती है।’’

हम दोनों ने खुशी-खुशी मंजूर किया बल्कि तुरंत चलने के लिए जिद करने लगीं जिस पर उन्होंने मेरे पिता से कहा कि ‘अजायबघर के पास वाले टीले पर लोहगढ़ी नामक इमारत है जिसमें हेलासिंह रहते थे, पर वह भी एक छोटा सा तिलिस्म है और मुझे उसका कुछ भेद मालूम है अगर आप इजाजत दें तो मैं इन लड़कियों को ले जाऊँ और उस जगह का कुछ तमाशा इन्हें दिखा दूँ’। मेरे पिताजी ने इजाजत दे दी और शेरसिंहजी ने हमसे घंटे भर में तैयार हो जाने को कहा क्योंकि हमारे घर से व जगह काफी फासले पर थी। हम दोनों को बड़ी खुशी हुई क्योंकि तिलिस्म देखने के साथ ही इस बात का भी विश्वास हुआ कि इसी के साथ-साथ हमें दारोगा और शिवदत्त वाला मामला देखने का मौका भी मिलेगा।

हम दोनों ने जल्दी-जल्दी तैयारी की और कुछ रात बीतते-बीतते हमारा रथ जिसे स्वयं शेरसिंह हाँक रहे थे, रवाना हो गया।

हम दोनों ने दूसरे दिन कई घण्टे घूम-घूमकर लोहगढ़ी की अच्छी तरह से सैर की। शेरसिंह ने वहाँ के कई तमाशे हम लोगों को दिखाए और कई भेद भी बतलाये, वहाँ के कई दरवाजों का खोलना-बन्द करना भी सिखा दिया और इस बात का भी वादा किया कि अबकी बार जब आवेंगे तो अपने साथ एक किताब भी लेते आवेंगे जिसमें यहाँ का बहुत कुछ हाल लिखा होगा और जिसकी मदद से हम लोग यहाँ के और भी तमाशे देख सकेंगे।

इसके पहले हम लोगों ने तिलिस्म देखना तो क्या उसका नाम भी नहीं सुना था अस्तु वहाँ की अद्भुत बातों को देखने में यहाँ तक दिलचस्पी मालूम हुई कि घंटों वहाँ बिता दिए और बाहर निकलने की इच्छा न हुई जब उन्होंने किताब का वादा किया उस समय तो मारे खुशी के हम दोनों की अजीब हालत हो गई। खैर मुख्तसर यह कि हम लोगों का समूचा दिन वहाँ का हाल-चाल देखने में बीत गया और सूर्यदेव अस्त हो चुके थे जब मुझे और अहिल्या को लिए हुए शेरसिंह वहाँ से बाहर हुए।

मालती बात कहते-कहते कुछ देर के लिए रुक गई और महाराज ने मौका पाकर पूछा, ‘‘क्या तू कह सकती है कि शेरसिंह को इस जगह का भेद क्योंकर मालूम हुआ? जैसा कि तू खुद कह चुकी है यह एक तिलिस्म है और वास्तव में मेरे कब्जे में है और जहाँ तक मैं जानता हूँ सिवाय हेलासिंह के और किसी को यहाँ का हाल मालूम नहीं और उसे भी इसलिए मालूम हो गया कि मैंने कुछ समय तक उसे यहाँ रहने की इजाजत दे दी थी।’’

मालती : इस बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकती कि उन्हें क्योंकर यहां का हाल मालूम हुआ, बल्कि जहाँ तक मुझे याद पड़ता है मैंने उनसे पूछा भी था कि उन्हें इस जगह का भेद क्योंकर मालूम हुआ पर वे सिर्फ मुस्कराकर रह गये। कुछ बोले नहीं।

महा० : खैर, तब?

मालती : हम लोग लोहगढ़ी से निकलकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि हमारी निगाह जैपालसिंह और हेलासिंह पर पड़ी जो इधर ही को आ रहे थे। हम लोगों ने आड़ में होकर अपने को उनकी नजरों से बचाना चाहा पर हो न सका क्योंकि हमारे रथ पर उनकी निगाह पड़ चुकी थी जिसे शेरसिंह हाँक रहे थे।

मैं नहीं कह सकती कि रथ या उसके अन्दर की सवारी के बारे में उन लोगों ने क्या खयाल किया क्योंकि पर्दा पड़ा होने के कारण वे दोनों मुझे और अहिल्या को देख नहीं सकते थे पर कुछ शक जरूर हो गया और उन्होंने अपनी कार्रवाई भी शुरू कर दी क्योंकि (जैसा कि मुझे बाद में मालूम हुआ) अहिल्या की दुर्दशा और मौत के कारण ये ही दोनों दुष्ट हुए।

शेरसिंह ने उनसे कुछ न कहा और न उन दोनों ने ही कुछ रोक-टोक की पर एक-दूसरे से चौकन्ने जरूर हो गए। कुछ दूर आगे बढ़ आने के बाद शेरसिंह ने रथ को सड़क पर से हटा बगल के जंगली रास्ते से चलाना शुरू किया यहाँ तक कि घने जंगल में एक नाले के किनारे पहुँच कर रुके और हम दोनों से बोले, ‘‘अब इस जगह कुछ देर सुस्ता कर संध्या होने पर चलेंगे’’। जानवर अलग कर चरने के लिए छोड़ दिए गए और हम तीनों उस सुहावने चश्मे के किनारे बैठकर सोचने लगे कि उस मन्दिर में रात को शिवदत्त और दारोगा की कार्रवाई देखने की क्या तरकीब हो सकती है। आखिर बहुत सोच-विचार कर एक बात निश्चय की गई और उसी मुताबिक कार्रवाई शुरू करने ही को थे कि सब चौपट हो गया।

संध्या होने में कुछ ही विलम्ब था और हम लोग इस फिक्र में थे कि कुछ और अँधेरा हो जाय तो यहाँ से रवाना हों कि उसी समय यकायक कई घोड़ों के टापों की आवाज सुनाई पड़ी जो उसी तरफ आते हुए मालूम होते थे।

हम लोग चौंके क्योंकि दुश्मन की हुकूमत में कदम-कदम पर डर मालूम होता था। शेरसिंह ने हम दोनों को झाड़ियों में छिप जाने के लिए कहा और खुद यह देखने के लिए आगे बढ़े कि देखें वे लोग कौन हैं जिनके आने की आहट लग रही है। शेरसिंह को गए कुछ देर हो गई और धीरे-धीरे उन लोगों की आहट कम होते-होते बिल्कुल मिट गई जिन्होंने हम लोगों को तरद्दुद में डाल दिया था।

झाड़ी के अन्दर छिपकर बैठे-बैठे मैं और अहिल्या घबड़ा गईं और बाहर निकलने का इरादा करने लगीं। उसी समय यकायक हम लोगों की निगाह दो आदमियों पर पड़ी जो पेड़ों की आड़ में से निकलकर उस जगह आ पहुंचे जहां थोड़ी देर पहिले हम लोग बैठे हुए थे। इन दोनों ही के चेहरों पर नकाब पड़ी थी और ऐयारी के बटुए कमर में मौजूद थे जिससे सहज ही में उनके ऐयार होने का गुमान किया जा सकता था अस्तु उन्हें देख हम दोनों डर गईं और झाड़ी के अन्दर और भी दबकर धड़कते हुए कलेजे के साथ देखने लगीं कि ये लोग कौन हैं या क्या करते हैं।

थोड़ी देर तक इधर-उधर घूम-फिरकर देखने और धीरे-धीरे कुछ बातें करने के बाद उनमें से एक ने सीटी बजाई। आवाज के साथ ही किसी तरह से जवाब में सीटी बजी और कुछ सायत के बाद एक डोली जिस पर लाल मखमल का पर्दा पड़ा था कंधे उठाए कीमती पोशाक पहिने चार कहार वहाँ मौजूद हुए। पहिले आये हुए उन आदमियों का इशारा पाकर उन्होंने डोली जमीन पर रख दी और औजार निकालकर जमीन खोदना शुरू किया।

तेजी से काम करते हुए घड़ी भर के अन्दर ही उन आदमियों ने गहरा खड्ढा खोद कर तैयार कर डाला और अलग हो गए। तब दोनों ऐयार उस डोली के पास गए और परदा हटाकर अन्दर से एक औरत की लाश निकाली।

मैं उसकी सूरत अच्छी तरह देख न सकी पर यह कह सकती हूँ कि वह औरत जरूर बेहोश या मुर्दा थी क्योंकि उसका तमाम चेहरा और हाथ-पाँव एकदम सुफेद थे और बदन में किसी तरह की हरकत न थी। उसके बदन पर बहुत कीमती कपड़े और जेवर पड़े हुए थे और उसका माथे पर हीरे का बना हुआ एक अर्धचन्द्राकार छोटा-सा कोई जेवर था और तेजी से चमक रहा था।

उन दोनों ऐयारों ने (या जो कई हों) उस लाश को डोली के बाहर निकाला, मखमल का जो पर्दा डोली के ऊपर पड़ा था उसे उतार उसी में उस लाश को अच्छी तरह लपेटा और तब उठाए हुए उस गड्हे की तरफ ले चले जिसे अभी उन चारों कहारों ने खोदकर तैयार किया था। हम दोनों के चेहरे आँसू से तर हो गए क्योंकि हमें विश्वास हो गया कि ये पापी उस बेचारी को इसी गड्हे में बन्द कर दिया चाहते हैं, आखिर ऐसा हुआ भी।

वह लाश उसी गड्हे में डालकर ऊपर से मिट्टी पाट दी गई और गढ़हा बराबर कर दिया गया। कहारों ने डोली उठाई, दोनों ऐयार आगे-आगे हुए और जिधर से आये थे उधर ही सब चले गए।

जब उन्हें गये कुछ देर हो गई तो हम दोनों झाड़ी के बाहर निकलीं। मेरा इरादा हुआ कि उस गड़हे की मिट्टी हटा वह लाश जो दबाई गई है निकाली या देखी जाय, पर अहिल्या बोली कि नहीं पहिले शेरसिंह जी को आने दो। मैंने उसकी राय मुनासिब समझी और हम दोनों वहीं बैठ कर उनके आने की राह देखने लगे।

धीरे-धीरे बहुत देर हो गई पर शेरसिंह न लौटे, सूरज भी डूब गया और उस घने जंगल में अँधेरा बढ़ने लगा जिससे हमें डर लगा क्योंकि इस तरह अनजान जगह और घोर जंगल में अकेले रात के समय रहने का कभी मौका नहीं पड़ा था। अहिल्या तो बहुत ही डर गई और बार-बार कहने लगी कि ‘बहिन अब क्या होगा? शेरसिंह जी तो आये नहीं!’ हम दोनों को अपनी बेवकूफी पर अफसोस होने लगा कि काहे को यहाँ आये। कुछ देर तक और राह देखने बाद मैंने अहिल्या से कहा, ‘‘बहिन, अब क्या होगा? इस भयानक जंगल में रात किसी तरह नहीं काटी जा सकती। मैं घोड़े पर बैठ सकती हूँ, अगर तू भी बैठ सकती हो तो रथ के दोनों घोड़ों पर सवार हो हम दोनों जंगल के बाहर निकलने की कोशिश करें।’

इसी समय पीछे की तरफ से आवाज आई, ‘‘घबड़ाओ मत मैं आ पहुंचा!’’ और हम दोनों ने शेरसिंह को खड़े पाया। हमारी जान में जान आई और अहिल्या जो बहुत ही डर गई थी लपक कर उनका हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘चाचाजी, आप कहाँ चले गये थे?

हम लोग तो घबड़ा गये थे कि आपने इतनी देर क्यों लगाई!!’’ शेरसिंह बोले, ‘‘हां, मुझे देर लग गई, मैं बड़ी आफत में पड़ गया था, लेकिन तुम लोग यहां से चलो रास्ते में सब हाल सुनाऊँगा, इस समय हम लोग चारों तरफ से दुश्मनों से घिर गये हैं अतएव तुम दोनों बहुत होशियारी के साथ मेरे पीछे-पीछे चली आओ।’’ इतना कह वे कुछ इस ढंग से घूम कर चल पड़े कि सिवाय पीछे-पीछे चलने के उनसे कुछ पूछने या उस औरत वाला मामला कहने की हमारी हिम्मत ही न पड़ी।

जिधर हमारे घोड़े या रथ थे उधर न जा शेरसिंह ने दूसरी तरफ का रास्ता लिया। मेरा इरादा हुआ कि उनसे पूछूँ कि क्या घोड़े इसी जगह रहेंगे पर यह सोचे चुप रही कि शायद घोड़ों को साथ ले जाने का सुभीता न होगा। थोड़ी दूर जाने के बाद शेरसिंह ने रुख बदल दिया और चश्में के किनारे-किनारे जाने लगे। इस समय एकदम अँधेरा हो गया था।

बहुत दूर तक हम लोग इसी तरह तेजी के साथ चलते रहे यहाँ तक कि जंगल खतम हो गया, हम लोग मैदान में आ पहुँचे और अजायबघर की इमारत से थोड़ी ही दूर पर रह गए होंगे। मैं बिल्कुल थक गई थी अस्तु मैंने शेरसिंह को सम्बोधन करके जो अभी तक बिना कुछ कहे बढ़ते चले आये थे—कहा, ‘‘मैं बहुत थक गई हूँ। अगर कुछ देर सुस्ता लीजिये तो क्या हर्ज है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘बस थोड़ी दूर आगे चल कर हम लोग खतरे से बाहर हो जायेंगे, तुम थोड़ी हिम्मत और करो।’’ लाचार हो मुझे पुनः चलना पड़ा मगर मैंने इतना जरूर कह दिया कि ‘अब ज्यादे दूर नहीं जा सकूँगी’ और जहाँ तक मैं समझती हूँ यही हालत अहिल्या की भी थी।

लगभग आध कोस के और चलना पड़ा और हम लोग अजायबघर के बिल्कुल पास पहुँच गये। शेरसिंह ने अपनी चाल कम की और अहिल्या ने मुझसे धीरे-से पूछा, ‘‘बहिन, यह कौन जगह है? उस मन्दिर से हम लोग अब कितनी दूर हैं जहां शिवदत्त बुलाया गया है?’’ मैंने जवाब दिया—‘‘यह अजायबघर है, पर वह मन्दिर किधर है सो मैं ठीक नहीं कह सकती, चाचाजी खड़े हों या कहीं रुकें तो मैं उनसे पूछूँ।’’ आखिर वह मौका भी मिला और शेरसिंह एक जगह रुक कर कुछ सोचने लगे। मैं पास पहुँची और बोली, ‘‘कहिये उस बारे में आपने क्या सोचा जिसके लिए असल में हम लोग यहाँ आये हैं! वह जगह अब यहाँ से कितनी दूर है?’’ इसके जवाब में उन्होंने कुछ रुक कर कहा, ‘‘उस बारे में मैं सब कुछ सोच चुका हूँ, वह जगह अब यहाँ से थोड़ी ही दूर है।’’

यह सुनने के साथ ही मुझे ताज्जुब हुआ क्योंकि कई बार बाबूजी के साथ आने-जाने के कारण मैं अच्छी तरह जानती थी कि वह मन्दिर जमानिया शहर से कुछ ही बाहर निकल कर है जबकि यह अजायबघर वहाँ से बहुत दूर है अस्तु ये कैसे कहते हैं कि वह जगह आ पहुँची।

इसके साथ ही मेरे दिल में एक सन्देह ने जगह पकड़ ली कि कहीं ऐसा तो नहीं कि यह शेरसिंह न बल्कि कोई दुश्मन हो और हम लोगों को काबू में करना चाहता हो!

मैं यह सोच ही रही थी कि शेरसिंह ने अपनी जेब से एक सीटी निकाल किसी तरह के खास इशारे के साथ बजाया। कुछ देर बाद उसी तरह की आवाज कहीं दूसरी तरफ से आई और पुनः शेरसिंह ने सीटी बजाई, दूसरी सीटी के साथ ही कई आदमियों के आने की आहट मालूम हुई और मुझे निश्चय हो गया कि हम लोग फँस गये और जरूर यह असली शेरसिंह नहीं बल्कि कोई ऐयार है। उसी समय अहिल्या ने पूछा, ‘‘आपने सीटी क्यों बजाई और ये लोग कौन हैं जिनके आने की आहट आ रही है?’’ जिसके जवाब में शेरसिंह बोले, ‘‘ये मेरे शागिर्द हैं, अपना काम पूरा करना के लिए इनसे मदद लेनी पड़ेगी।

मेरा शक इस जवाब से यकीन को पहुँच गया क्योंकि मैं अच्छी तरह जानती थी कि शेरसिंह किसी शागिर्द को अपने साथ नहीं लाये हैं, मगर इस समय कुछ टोकने या पूछने का मौका न था, अहिल्या मुझसे दूर शेरसिंह के पास में थी और मैं पीछे की तरफ एक पेड़ के पास थी, वहीं से घूमकर पेड़ की आड़ में हो रही और तब धीरे-से नाले में उतर गई जिसके किनारे-किनारे उस वक्त हम लोग चले जा रहे थे।

मैंने इतने ही पर बस नहीं किया बल्कि जल में उतर गई और गरदन तक पानी में अपने को डाल दिया। यह बात मैंने इतनी आहिस्तगी से की कि नकली शेरसिंह या अहिल्या दोनों में से किसी को भी खबर न हुई।

इसके बाद ही चारों तरफ कई मशालों की रोशनी हो गई और हाथ में नंगी तलवारें लिये कितने ही आदमियों ने उस जगह को घेर लिया जहाँ शेरसिंह और अहिल्या खड़े थे। अब उस ऐयार ने भी पूरी तरह से रंगत पलटा और कड़ककर कहा ‘‘इस औरत (अहिल्या) की मुश्कें बाँध लो और तलाश करो कि वह दूसरी औरत कहाँ है।’’ बेचारी अहिल्या तो यह सुनते ही बदहवास होकर जमीन पर गिर गई और उन आदमियों ने मशाल की रोशनी में मुझको ढूँढ़ना शुरू किया।

यद्यपि डर के मारे मेरी भी बुरी हालत हो रही थी पर अपने को काबू में किया और पानी के अन्दर गोते लगाती और जहाँ तक हो सका अपने को छिपाती हुई बहाव की तरफ जाने लगी। भाग्यवश किसी की निगाह मुझे पर न पड़ी और यद्यपि मशालें लिए कई आदमी नाले में भी उतरे पर मैं दूर निकल गई यहाँ तक कि खास अजायबघर के नीचे पहुँच गई।

उसके पुल की तरह बनी और ऊपर की इमारत से ढँकी हुई अँधेरी दर तक पहुँचे मैं जल के बाहर निकली और वहाँ के अंधकार में एक पत्थर के अनगढ़ ढोके के पीछे छिप काँपते हुए कलेजे के साथ इस बात की राह देखने लगी कि अब और कौन सी मुसीबत आती है।

वे आदमी जो मुझे ढूँढ़ने के लिए नाले में उतरे थे इधर-उधर देख-भाल कर फिर ऊपर चले गए और किसी ने उतनी दूर तक आने का खयाल न किया जहाँ मैं छिपी हुई थी या मुमकिन है कि उन्होंने सोचा हो कि मैं किसी और तरफ निकल गई। गरज कि थोड़ी देर बाद वहाँ पूरा सन्नाटा छा गया और अहिल्या को लिए वह ऐयार जो शेरसिंह बना हुआ था अपने साथियों समेत जाने किधर चला गया। कुछ समय तक मैंने वहीं छिपे रहना मुनासिब समझा और जब पूरी तरह विश्वास हो गया कि वहाँ कोई मौजूद नहीं है तो मैं मकान के नीचे से बाहर आई, अपने कपड़े निचोड़ कर फिर से पहिने, और तब सोचने लगी कि अब क्या करूँ और किधर जाऊँ।

मुझे इस तरह खड़े कुछ ही समय हुआ होगा कि अजायबघर के अन्दर से एक नाजुक और कोमल गले की जनाना आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘अरे कम्बख्तों, क्यों मरे को मारता है!’’ इसके बाद एक चीख की आवाज आई और तब किसी के जमीन पर गिरने की आहट मालूम पड़ी।

डर, ताज्जुब और घबराहट ने मेरे रहे-सहे हवास भी गायब कर दिये। इस आधी रात के निराले में कौन किस औरत को तकलीफ पहुँचा रहा है? यह कौन है जिसका पत्थर-सा कलेजा औरत की चीख से भी नहीं फट जाता? केवल यही नहीं बल्कि मुझे यह भी सन्देह हुआ कि वह कहीं अहिल्या ही न हो अस्तु यद्यपि मैं मुसीबत की मारी और खुद परेशान थी पर मैंने निश्चय कर लिया कि चाहे जो कुछ भी हो ऊपर चल कर देखना चाहिये कि क्या बात है।

छिपती और चारों तरफ की आहट लेती हुई मैं अजायबघर के फाटक की तरफ आई। फाटक खुला हुआ था और वहाँ किसी की आहट नहीं लगती थी अस्तु मैं तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ अन्दर चली गई और बाईं तरफ वाली कोठरी में जा पहुँची। भीतर वाला बड़ा कमरा उस समय खुला हुआ था और अन्दर मद्धिम रोशनी हो रही थी जिसकी कुछ-कुछ आभा बाहर वाले दालान में भी आ रही थी।

मैंने हिम्मत कर अपना सिर कोठरी के बाहर की तरफ निकाला और भीतर की तरफ झाँक कर देखा। देखा क्या कि वही हसीन और कमसिन जिसे आज संध्या को जमीन के अन्दर गाड़ते देखा था हाँथ-पाँव बाँध कर जमीन पर गिराई हुई है और एक आदमी खंजर हाथ में लिये उस पर झुका हुआ उसे मारा ही चाहता है। डर और घबराहट ने मुझ पर यहाँ तक असर किया कि मैं अपने को रोक न सकी और मेरे मुँह से एक चीख की आवाज निकल ही गई।

उस आदमी का हाथ जो उस बेचारी औरत की जान लिया चाहता था मेरी चीख सुनते ही रुक गया और उसने चिहुँक कर मेरी तरफ देखा। मुझे उसी सूरत कुछ पहिचानी हुई-सी मालूम हुई और फिर यकायक मुझे याद आया कि यही महाराज शिवदत्त हैं जिसकी तस्वीर मेरे देखने में आई थी।

उसे पहिचानते ही मेरे रहे-सहे हवास भी गुम हो गये और मुझमें एक कदम हिलाने की ताकत न रही कि वहाँ से भाग सकूं, और इसका मौका भी न मिला क्योंकि किसी ने पीछे से आकर मुझे पकड़ लिया। शिवदत्त भी बाहर निकल आया और मेरी तरफ बढ़ता हुआ बोला, ‘‘क्यों रघुबरसिंह, यह कौन औरत है?’’

वास्तव में वह आदमी जिसने मुझे पकड़ा हुआ था यही रघुबरसिंह या जैपालसिंह दारोगा का दिली दोस्त था और अब भी है। उसने मुझे रोशनी की तरफ करते हुए कहा, ‘‘यह वही कम्बख्त मालती है जिसने आपमें और हमारे बाबाजी में झगड़ा करा दिया है।’’ शिवदत्त यह सुनते ही खुश हो गया और गौर से मेरी सूरत देखकर बोला, ‘‘बेशक वही तो है!’’ जैपाल ने अपने दुपट्टे से मुझे भी बाँध डाला और उसी औरत के पास बैठा दिया जो जमीन पर गिरी हुई थी, इसके बाद वह शिवदत्त की तरफ घूमा और बोला, ‘‘कहिये इस भुवनमोहिनी का क्या हाल है?’’

‘‘भुवनमोहिनी’’ यह नाम मालती के मुँह से सुनते ही महाराज चौंक पड़े और बोले, ‘‘क्या नाम लिया, भुवनमोहिनी!’’ मालती ने हाथ जोड़कर कहा—‘‘जी हाँ महाराज, भुवनमोहिनी। मुझे मालूम है कि महाराज भी उससे अच्छी तरह परिचित हैं!’’

महाराज ने चिन्ता के साथ माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘मगर वह तो साँप के काटने से मर गई थी!’’ मालती बोली, ‘‘जी नहीं महाराज, वह भी इन्हीं दुष्टों की कार्रवाई थी, असल हाल यह है कि शिवदत्त से मेल करने के लिए आपके दारोगा साहब ने उसे जरिया बनाया था। किसी तरह की तेज दवा भुवनमोहिनी को ऐसी खिलाई गई कि वह पाँच-छह घण्टे के लिए मुर्दा सी हो गई, तब यह शोर मचा दिया गया कि साँप ने काट लिया। वैद्यों ने जाँच भी की पर कुछ कर न सके और दुष्टों की कार्रवाई पूरी तरह काम कर गई। मुर्दा समझ कर भुवनमोहिनी जमीन में गाड़ दी गई जहाँ से दारोगा के आदमी उसे निकाल लाये।’’

महाराज ने गुस्से से दाँत पीसते हुए कहा, ‘‘क्यों बे कमीने दारोगा!’’ तेरी मेरे ही साथ यह चाल!!’’ मालती ने कहा—‘‘महाराज, अभी तो आपको उस पापी का हाल रुपये में एक पैसा भी मालूम नहीं हुआ है। वह तो इतना भारी ऐयाश, लालची, खुदगर्ज और बेरहम आदमी है कि जिसका नाम नहीं। अभी मेरे ही किस्से में आपको उसका और हाल मालूम होगा।’’ महाराज बोले,‘‘ अच्छा तू कह कि फिर भुवनमोहिनी की और तेरी क्या दशा हुई।’’ मालती कहने लगी—

मालती : शिवदत्त और जैपाल में कुछ बातें हुईं और तब जैपाल मेरे पास आकर बोला, ‘‘लुच्ची, तैने हमारे महाराज और बाबाजी के बीच में झगड़ा खड़ा करना चाहा था। अब देख मैं तेरी क्या दुर्गति करता हूँ!’’ इतना कर कर उसने जोर से एक तमाचा मेरे गाल पर मारा। कर ही क्या सकती थी, चुपचाप बैठी आँसू बहाने लगी। जैपाल ने किसी तरह की दवा अपने पास से निकाली और जबर्दस्ती मेरे नाक मैं ठूँस दी। मुझे दो-एक छींक आईं फिर तनोबदन की होश न रह गई।

जब मैं होश में आई मैंने अपने को एक दूसरी ही जगह पाया। दिन का वक्त था और सूरज बहुत ऊँचे उठ चुके थे। मेरे हाथ पैर खुले हुए थे और एक दालान में पड़ी हुई थी जिसके सामने एक छोटा-सा बाग था।

कुछ गौर करते ही मुझे मालूम हो गया कि यह वही लोहगढ़ी है जहाँ एक दिन पहिले अहिल्या के साथ शेरसिंह मुझे लाये थे। मैं उठ बैठी और ताज्जुब के साथ सोचने लगी कि मैं यहाँ क्योंकर पहुँची और मेरे हाथ-पैर खुले क्यों हैं!

आखिर कुछ सोच-विचार कर मैं उठ खड़ी हुई और चारों तरफ घूम-घूम कर देखने लगी कि यहाँ और भी कोई आदमी है या नहीं और क्या मेरे निकल भागने की भी कोई राह हो सकती है? मुझे शेरसिंह ने यहाँ का कुछ भेद और कई दरवाजों के खोलने की तरकीब समझाई थी, इससे मुझे भरोसा था कि अगर कोई मुझे रोकेगा नहीं तो मैं इस जगह से बाहर जा सकूँगी।

मैं उठ खड़ी हुई और चारों तरफ सन्नाटा पा दालान के नीचे उतरने वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ी पर उसी समय पास ही कहीं से मुझे दो आदमियों के बोलने की आवाज सुनाई पड़ी, मैं ध्यान देकर सुनने लगी।

एक आवाज : मालती को तुम ऐसे ही छोड़ आये! वह बहुत बुरा किया, अगर वह होश में आकर भाग जाएगी तो बड़ी भारी मुसीबत आएगी।

दूसरा : अजी वह होश में आवेगी तब तो! मैंने उसे बहुत कड़ी बेहोशी दी है जिससे अभी घण्टों उसे होश न होगी, और मान लिया जाय कि होश में आ भी गई तो होगा क्या, बिना हमारी मर्जी के वह इस लोहगढ़ी के बाहर नहीं जा सकती।

पहिला : हाँ यह तो है। अच्छा यह बताओ कि अब अहिल्या की लाश को क्या किया जाय?

‘‘अहिल्या की लाश’’ यह शब्द सुनते ही मेरा कलेजा धड़क उठा। बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाल मैं सुनने लगी। दूसरा आदमी बोला—

दूसरा : अब सिवाय इसके और क्या किया जा सकता है कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर छत पर डाल दिया जाय, थोड़ी ही देर में चील-कौवे साफ कर जायेंगे।

पहिला : अच्छी बात है ऐसा ही करो, मगर जल्दी करो अब देरी का काम नहीं है।

महाराज, मैं नहीं कह सकती कि इस बातचीत का क्या असर मुझ पर हुआ क्या अहिल्या, मेरी प्यारी अहिल्या, मारी गई और अब चील-कौवों की खुराक बनेगी! क्या इस थोड़ी-सी चपलता का यही नतीजा निकला! क्या इन आदमियों ने उस बेकसूर को मार डाला! हाय अब मैं क्या मुँह लेकर दामोदरसिंह जी के पास जाऊँगी! मुनासिब तो यही है कि इसी जगह मैं अपनी जान दे दूँ हाय! मेरा कैसा पत्थर का कलेजा था जो प्यारी अहिल्या के मारे जाने का हाल सुनकर भी फट न गया। मुझे तो अब ताज्जुब होता है कि जो कुछ घटना मैंने उस समय देखी और सुनी उससे मेरी जान वहाँ ही क्यों न निकल गई!

खैर जो कुछ भी हो, यह बात सुन फिर मुझे भागने या अपनी जान बचाने की फिक्र न रही और यही चिन्ता पड़ गई कि जिस तरह हो सके पता लगाना चाहिये कि अहिल्या कहाँ और किस हालत में है। आवाज पर मैंने गौर किया तो मालूम हुआ कि कहीं पास ही से आ रही है पर कहाँ? इसका पता नहीं लगता था।

मैंने इधर-उधर चारों तरफ निगाह की और जब कुछ पता न लगा तो दालान के नीचे की तरफ झाँका और तब मेरी निगाह एक छोटे मोखे पर पड़ी जो रोशनदान की तरह दालान की बाहरी दीवार में नीचे की तरफ बना हुआ था। मैंने सोचा हो न हो यह किसी कोठरी में हवा और रोशनी जाने के लिए बनाया गया है और शायद इसी में से आवाज भी आ रही है।

मैं बहुत धीरे-धीरे दालान के नीचे उतर आई और उस मोखे के पास पहुँची जो जमीन से लगभग हाथ भर की ऊँचाई पर इस ढंग से बना हुआ था कि सीढ़ियों की आड़ होने के कारण यकायक उस पर निगाह नहीं पड़ सकती थी। मैं उसके पास जमीन पर बैठ गई और उसमें से झाँककर देखा।

मुझे एक छोटी कोठरी नजर आई जिसमें दिन के समय भी अंधकार था और यदि किसी तरह की तेज रोशनी जो एक कोने में बल रही थी वहाँ न होती तो उस कोठरी में कुछ दिखना असम्भव था। उस रोशनी में मैंने अपनी प्यारी अहिल्या की लाश को देखा।

जमीन पर मुर्दा पड़ी हुई थी, सिर अलग और धड़ अलग था, उसकी छाती में एक खञ्जर घुसा हुआ था और बहुत-सा खून निकल कर चारों तरफ फैला हुआ था। वह मामूली कपड़ा भी जो उसके ऊपर था खून से बिल्कुल तर था और दीवारों पर भी चारों तरफ खून के छींटे नजर आ रहे थे। महाराज, यह एक ऐसा भयानक दृश्य था कि कुछ देर के लिए मुझे गश आ गया और मैं बदहवास होकर सीढ़ी के पास उठंग गई। कुछ देर बाद जब मेरे होश ठिकाने हुए तो मैंने पुनः झांककर देखा। किसी कसाईखाने का भी वैसा भयानक दृश्य न होगा जैसा मैंने वहाँ पाया। जैपाल और हेलासिंह उस जगह बैठे हुए थे और खञ्जर से काट-काटकर उस लाश के टुकड़े कर रहे थे।

महाराज, ऐसा वीभत्स दृश्य देखकर एक औरत की क्या हालत हुई होगी यह आप खुद ही सोच सकते हैं! अहिल्या, मेरी और महाराज की प्यारी अहिल्या, और इस तरह दुर्गति को प्राप्त हो! अब तो मेरा भी इसी जगह मर जाना अच्छा है यह सोच मैंने अपना सिर पत्थर पर पटककर जान दे देना चाहा पर फिर उसी समय खयाल आया कि नहीं अपनी जान देने के पहिले उन पापियों से बदला लेना होगा जिन्होंने यह काम किया। बस बदले का ध्यान आते ही मैंने अपनी जान देने का इरादा छोड़ दिया और वहाँ से भागने का निश्चय किया।

मैंने दिल ही दिल में सोच लिया कि सीधे महाराज के पास जाऊँ और सब हाल कहूँ। फिर झाँककर नीचे देखने की हिम्मत न हुई, मैं वहाँ से उठी और बाहर को रवाना हुई। ईश्वर की दया से सदर दरवाजा सहज में ही खुल गया और उस भयानक स्थान के बाहर आ गई, पर फिर भी महाराज तक पहुँच न सकी और आपके दारोगा साहब के कारण एक नई मुसीबत में पड़ गई।

महाराज गिरधरसिंह चुपचाप मालती का किस्सा सुन रहे थे। इस समय उनकी आँखें भी आँसू से भरी हुई थीं क्योंकि अहिल्या के इस दुःखद वृत्तान्त ने उनके मुलायम दिल पर भी गहरा असर किया था। मालती ने जब कहना बन्द कर अपने आँसू पोछे तो उन्हें भी लाचार हो अपना रूमाल आँखों तक ले जाना ही पड़ा और थोड़ी देर के लिए वे उसी से अपना मुँह ढाँके रहे।

मगर इसके बाद एकाएक ही उनकी अवस्था बदली, आँखें गुस्से से लाल हो गईं, चेहरा तमतमा उठा और हाथ तलवार के कब्जे पर जा पड़ा। उन्होंने काँपती हुई आवाज कहा, ‘‘मैं इतने दिनों तक बड़े भारी भ्रम में पड़ा हुआ था। हीरा समझ मैंने संखिये को कलेजे से लगाया हुआ था!

आज तक मैं अपने दोस्तों, सलाहकारों और रिश्तेदारों के बर्खिलाफ इन कमीनों के ऊपर भरोसा किए हुए था, आज तेरे किस्से ने मेरी आँखें खोल दीं। मुझे अपनी भूल मालूम हो गई और मालती, मैं अपने क्षत्रित्व की प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि इन दुष्टों और हत्यारों को ऐसी सजा दूँगा कि जंगली जानवरों को भी इनके हाल पर रहम आवेगा! अब तू बस कर...।इसके आगे का हाल सुनने की ताब अब मुझमें नहीं।’’

गुस्से में काँपते हुए महाराज ने अपनी तिलिस्मी तलवार म्यान से निकाली और हेलासिंह तथा जैपाल की तरफ बढ़े जो कमरे में बँधे खड़े काँप रहे थे।

नजदीक ही था कि महाराज की तलवार ऊँचे उठती और दुनिया दो पापियों के बोझ से हलकी हो जाती कि एकाएक उस कमरे का दरवाजा खुला और किसी ने अन्दर आकर भारी आवाज में कहा—‘‘महाराज ठहरिये!’’ महाराज चौंककर रुक गये और उस तरफ देखने लगे।

एक बहुत ही बूढ़ा आदमी जिसके बाल और लंबी दाढ़ी सन की तरह सफेद हो रही थी नजर आया जो लाठी का सहारा लेकर खड़ा था। महाराज को देख उसने बड़े अदब से सलाम किया और कहा, ‘‘महाराज, इन दोनों हरामजादों के ऊपर मेरी भी नालिश है। इन्हें मारने के पहिले मेरा भी हाल सुन लें और मेरा भी फैसला कर दें।’’

महाराज ने ताज्जुब से पूछा, ‘‘तू कौन है, यहाँ क्योंकर आया, और क्या चाहता है?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘मैं बड़ा भारी दुखिया हूँ। अब से कई बरस पहले से इस तिलिस्म में कैद हूँ और इन्हीं दोनों की बदौलत (जैपाल और हेलासिंह की तरफ बताकर) तरह-तरह की तकलीफें भोग रहा हूँ।’’

आश्चर्य में डूबे महाराज और मालती उस बूढ़े को देखने लगे। बूढ़े का बदन उसकी उम्र का बोझ न सहकर टेढ़ा हो गया था और सिर, दाढ़ी तथा मोछों के बार एकदम सुफेद हो रहे थे। उसके कपड़े बड़े ही मैले, फटे पुराने थे, और उनमें से एक तरह की बड़ी ही बुरी बदबू आ रही थी।

मालूम होता था कि बरसों से ये बदले या साफ किये नहीं गये थे। उनके बदन का वह हिस्सा भी जो खुला हुआ था बहुत ही मैला और गन्दा हो रहा था। कुछ देर तक ताज्जुब और गौर के साथ इस अजीब बूढ़े को देखने के बाद महाराज ने उसकी तरफ बढ़ कर पूछा, ‘‘तेरा क्या नाम है और तू कहाँ कैद था?’’

बूढ़े ने फिर सलाम किया और काँपते हुए हाथों को जोड़कर कहा, ‘‘कृपानिधान, मेरा नाम गोविन्द है, बरसों से मैं इस तिलिस्म में बन्द हूँ और इसी कमरे की बगल वाली कोठरी में पड़ा रहता था। आज पहिले-पहिले यहाँ आदमियों की आवाज मैंने सुनी और बाहर निकलने पर महाराज के दर्शन पा कृतार्थ हुआ, अब मुझे पूरी आशा है कि महाराज के हाथों मेरा इन्साफ होगा और हम लोगों की यह दुर्दशा करने वाले पापी सजा पाएँगे।’’

महाराज : क्या तेरे साथ कोई और भी है?

बूढ़ा : (हाथ जोड़कर) जी हाँ महाराज, मेरे साथ एक गरीब दुखिया औरत है जिसे मैंने यहां ही पाया था और मेरे भी पहिले से यहाँ कैद और दुर्दशा के दिन बिता रही है। मेरी हालत से भी बदतर उसकी हालत हो रही है और मुझसे भी ज्यादा उसने दुष्टों के हाथों से कष्ट उठाया है।

महा० : उसकी यह दशा क्योंकर हुई और वह कहाँ है?

बूढ़ा : उसकी दुर्दशा के कारण भी जैपाल, हेलासिंह और आपके दारोगा साहब हैं उसका हाल सुनेंगे तो आपको बड़ी ही दया आयेगी। वह यहीं बगल में है और इस समय उसकी हालत इतनी खराब हो रही है कि वह उठकर यहाँ तक नहीं आ सकती। अगर महाराज उसे देख लें तो बड़ा ही अच्छा हो क्योंकि मुझे तो यह भी विश्वास नहीं होता कि वह घण्टे-दो घण्टे से ज्यादा जीती रह सकेगी।

महाराज ने गुस्से के साथ जैपाल और हेलासिंह की तरफ देखा और तब कहा, ‘‘अच्छा चल मैं तेरे साथ चलता हूँ। (मालती, तू यहीं खड़ी रह, मैं अभी आया)।’’

आगे-आगे वह बूढ़ा और उसके पीछे-पीछे तिलिस्मी तलवार हाथ में लिये गुस्से से होठ चबाते महाराज गिरधरसिंह उस कमरे के बाहर आये। बाहर का दालान पार कर बूढ़ा दक्षिण की तरफ घूमा जिधर एक छोटा दालान और उसके बीचोंबीच में वैसा ही काले पत्थर का एक शेर बना हुआ दिखाई पड़ रहा था जैसे कि चार उस कमरे के अन्दर थे जिसमें से महाराज अभी आये थे। बूढ़े ने पीछे घूमकर कहा, ‘‘कृपानिधान, उसी दालान में वह औरत है।’’

दोनों उस दालान में पहुँचे मगर वहाँ कोई कोठरी तो क्या दरवाजा तक नजर न आया, तीन तरफ संगीन दीवारें और एक तरफ पत्थर के खम्भे थे और बीचोबीच में वह शेर बना हुआ था। बूढ़े ने ताज्जुब के साथ इधर-उधर देखा और काँपते हुए कहा, ‘‘महाराज, यह तो कोई जादू-सा हो गया है! अभी तक इस सामने वाली दीवार में दरवाजा और एक कमरा था और अब यहाँ पक्की दीवार है! मैं नहीं कह सकता कि यह मेरी आँखों का भ्रम है या कोई तिलिस्मी कारीगरी!!’’ बूढ़ा ताज्जुब के साथ उस दीवार को दबाने, टटोलने और धक्का देने लगा। महाराज यह देख बोले, ‘‘ठहरो, मैं वह कमरा खोलता हूँ।’’ इतना कह वे उस शेर के पास गए और उसकी एक आँख में ऊँगली डाली। दबाने के साथ ही कुछ आवाज आई और उस जगह जहाँ बूढ़े ने बताया था एक खुला हुआ दरवाजा नजर आया।

महाराज ने घूमकर बूढ़े से कुछ कहना चाहा पर उसी समय बूढ़े ने एक कपड़ा जो कमर में लपेटे था खोलकर उनके ऊपर फेंक दिया और गरदन पर डालकर दबाया।

उस कपड़े में एक ऐसी बदबू थी कि महाराज बर्दाश्त न कर सके और कपड़ा हटाने की कोशिश करते-करते ही बेहोश होकर गिरने लगे। बूढ़े ने उन्हें सम्हाला और उसी कपड़े में उनकी गठरी बाँधी। इसके बाद उस गठरी को पीठ पर लाद वह उस कमरे में घुस गया और कमरे का दरवाजा बन्द हो गया!

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