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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


महल से लौटने के बाद दारोगा साहब जब अपने घर पहुँचे तो दरवाजे ही पर उन्हें महाराज का एक खास खिदमतगार मिला जिसे देख उन्होंने इशारे से पूछा, ‘‘क्या है?’’

खिदमतगार ने उन्हें देखते ही अदब से सलाम किया और तब कोई गुप्त इशारा किया जिसे देख दारोगा साहब ने उसे अपने पीछे-पीछे आने का हुक्म दिया और अपने बैठने के कमरे में पहुँचे जहाँ इस समय बिल्कुल निराला था।

दारोगा गद्दी पर बैठ गया और वह खिदमतगार भी उनके सामने जा बैठा। दारोगा ने पूछा क्या मामला है?’’

उस खिदमतगार ने इधर-उधर देख धीरे से कहा, ‘‘कल रात को एक सवार महाराज के लिए एक खत लाया था जिसे मैंने आज सुबह महाराज को दिखाया। न जाने महाराज ने उसमें क्या पढ़ा कि बहुत बेचैन हो गये, देर तक किसी फिक्र में डूबे रहे और तब मुझसे यह कह कि मैं ‘तिलिस्म में जाता हूँ’ कहीं चले गये। उनके जाने के बाद मैंने वह चीठी तथा एक अंगूठी जो उसके साथ थी उठा ली और अब उसे आपको दिखाने के लिए ही यहाँ आया हूँ।

इतना कह खिदमतगार ने अँगूठी और चीठी निकाल कर दारोगा साहब के सामने रख दी, जिसने महाराज पर वह विचित्र असर पैदा करके उन्हें तिलिस्म के अन्दर जाने पर मजबूर किया था। दारोगा साहब उस अंगूठी को देखते ही चौंक पड़े क्योंकि एक ही निगाह में उन्हें मालूम हो गया कि यह वही है जो बराबर मालती की उंगली में पड़ी रहा करती थी—मगर जब उन्होंने वह चीठी पढ़ी तो उनके होशहवाश गायब हो गए। हमारे पाठक इस चीठी को पढ़ चुके हैं, अस्तु उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि उसका क्या मजमून था पर हमारे दारोगा साहब को बेचैन करने के लिए वह खत काफी था। उन्होंने उसे पढ़ने के साथ ही सिर पर हाथ मारा और तब बड़ी मुश्किल से अपने के सम्हाल कर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। कुछ देर बाद उन्होंने नौकर से पूछा—

दारोगा : इस चीठी को पढ़ महाराज क्या तिलिस्म में चले गये?

खिद० : जी हाँ, तुरन्त ही।

दारोगा : किस रास्ते से गये?

खिद० : वही महल के अन्दर वाली राह से, खास महाराज के कमरे में से जो राह है उसी से—क्योंकि महाराज सोकर उठे ही थे जब यह चीठी मैंने उन्हें दी।

दारोगा : हाँ हाँ, मैं उस राह को खूब जानता हूँ। अच्छा महाराज के पास कोई हथियार भी है?

खिद० : जी हाँ, अपनी तिलिस्मी तलवार वे साथ लेते गये हैं।

न जाने दारोगा ने क्या सोचा हुआ था कि खिदमतगार के इस जवाब से वह एकदम घबड़ा उठा, पर इस समय उस आदमी के सामने अपनी घबड़ाहट जाहिर करना शायद उसने उचित न समझा और कहा, ‘‘तुमने इनाम पाने का काम किया जो यह चीठी और अंगूठी मुझे ला दी, अब तुम जाओ मगर जैसे ही महाराज तिलिस्म से लौटें खबर कर देना।’’

खिद० : बहुत खूब, तो वह चीठी और अंगूठी मुझे मिल जाय, शायद लौटने पर महाराज उसे तलब करें।

दारोगा : नहीं, यह तुम्हें न मिलेगी, अगर माँगे तो कुछ बहाना कर देना।

खिद० : सो कैसे हो सकता है, महाराज तुरन्त शक करेंगे और मुझे ही चोर ठहरावेंगे।

दारोगा : नहीं ऐसा न होने पावेगा, तुम मुझ पर विश्वास रक्खो। बस उनके आते ही मुझे खबर देना, मैं सब सँभाल लूँगा।

‘‘बहुत खूब’’ कह खिदमतगार ने उसे सलाम किया और बाहर चला गया। उसके जाने के बाद दारोगा बैठे-बैठे तरह-तरह की बातें सोचने लगा।

‘‘यह कौन आदमी है जिसने यह चीठी भेजी? इसके अक्षर कुछ-कुछ पहिचाने हुए तो मालूम होते हैं पर जान-बूझ कर बहुत बिगाड़ कर लिखे गये हैं इसलिए यह जरूर मेरे जान-पहिचान वालों में ही कोई है। क्या यह मालती की लिखावट हो सकती है? मुमकिन है कि उसने ही मुझे सत्यानाश करने के लिए इसे भेजा हो क्योंकि यह अँगूठी बराबर उसकी उंगली में देखा करता था।

मगर नहीं, उसके पीछे हेलासिंह और जैपाल लगे हुए हैं और अब तक उसे जरूर गिरफ्तार कर चुके होंगे। पर सम्भव है कि वह उनके हाथ से निकल गई हो। बेशक यही बात है और जरूर यह उसी की शैतानी है। अफसोस, नाहक झूठी लालच में पड़ मैंने इसे जीता रख छोड़ा, अगर हाथ में आते ही खतम कर दिया होता तो आगे की यहाँ तक नौबत न आती? अब देखें यह कम्बख्त कहाँ तक आफत बरपा करती और मुझे क्या-क्या दुःख पहुँचाती है! महाराज को बड़े बेमौके इसने चैतन्य किया, अगर आज भर और कुछ न करती तो बस फिर कल तो...अब देखें महाराज क्या करते हैं?

इस चीठी को पाते ही एक दफे तो उनके कान खड़े हो गये होंगे, और जब वे तिलिस्म में गए हैं तो जरूर उन्होंने इस चीठी की सचाई जाँचने का निश्चय कर लिया है! तो क्या वे इतने बड़े तिलिस्म के अन्दर से मेरे कैदियों को खोज निकालेंगे, क्योंकि सिवाय कैदियों के और तो मेरे बर्खिलाफ कोई सबूत उन्हें मिल ही नहीं सकता।

अगर कैदी उन्हें न मिले तब तो फिर कोई बात नहीं पर यदि एक भी कैदी उनके हाथ लगा तो मेरी कुशल नहीं। पर उनके हाथ कोई लगेगा क्यों? क्या वे एक-एक कोठरी में घुसकर खोजते फिरेंगे? क्या इस पचीसों कोस तक फैले हुए तिलिस्म में किसी को ढूँढ़ना एक या दो दिन का काम है?

पर मुमकिन है कि तिलिस्म बनाने वालों ने इसकी भी कोई तरकीब कर रक्खी हो कि यहाँ का मालिक जब चाहे देख सके कि कहाँ क्या हो रहा है, ऐसा होना कोई असम्भव नहीं है और ऐसा हुआ तो महाराज बड़े सहज में पता लगा लेंगे कि कहाँ कौन आदमी बन्द है। तब फिर क्या करना चाहिए? क्या महाराज का पीछा करके देखूँ कि वे कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं? नहीं, यह तो नहीं हो सकता, इस समय वे किस जगह हैं इसका पता क्योंकर लग सकता है! व्यर्थ का समय नष्ट होगा और कुछ नहीं।

तब फिर क्या अजायबधर, लोहगढ़ी आदि में बन्द कैदियों को निकाल लूँ? हाँ, यह हो सकता है, कोई मुश्किल बात नहीं है, जहाँ–जहाँ मेरे कैदी बन्द हैं वहाँ-वहाँ से उन्हें हटा लूँ फिर जो होगा देखा जाएगा। अभी तो महाराज अपने ही तिलिस्म में होंगे वहाँ तक पहुँचे भी नहीं होंगे और जब उन्हें कहीं कोई मिलेगा नहीं तो फिर डर कैसा?

यों भी अब डर क्या! जब ओखली में सिर डाला है तो मूसल से क्या डरना। आज के बाद तो महाराज का डर हमेशा के लिए दूर कर दूँगा, पर आज भर तो बेशक खौफ खाना पड़ेगा। न जाने आते ही क्या हुक्म दे बैठें! बल्कि अच्छा तो यह हो कि आज तिलिस्म के अन्दर ही...।हाँ यह तो ठीक बस बस यही ठीक है!’’

यकायक दारोगा को न जाने क्या सूझ गया कि वह उसी से खिल उठा! कुछ देर तक तो आँखें बन्द कर कुछ सोचता रहा और इसके बाद उठ खड़ा हुआ।

बगल ही में एक कोठरी थी जिसमें दारोगा तरह-तरह की पोशाकें, कपड़े, हथियार और ऐयारी के सामान रक्खा करता था। दारोगा इसी कोठरी में पहुँचा, एक आलमारी में से कुछ रंग-रोगन निकाला और एक आईना सामने रख अपने चेहरे पर मामूली सा फर्क डाला, इसके बाद जो कपड़े वह पहिने था सो उतार डाले। एक मुसलमानी ढंग की पोशाक जो बहुत ही फटी-चिथी और मैली थी निकाल कर पहिनी।

ऊपर से एक बहुत ही मैली चादर ओढ़ी पर फिर कुछ सोच उसे कमर से बाँधा और तब एक लबादा निकाल बदन पर डाल लिया। इसके बाद खूँटियों से टंगे हुए हथियारों में से एक खुखड़ी निकाल कपड़े के अन्दर छिपाई और वह बेहोशी का तमंचा भी ले लिया जिससे कई बार काम ले चुका था। इसके बाद आईने की तरफ गौर से देखा और जब विश्वास हो गया कि यकायक कोई उसे देखकर पहिचान नहीं सकता तो यह कहता हुआ बाहर निकला—‘‘अफसोस, अगर मैं कुछ ऐयारी जानता होता तो क्या बात थी!’’

बाहर आ दारोगा ने एक दूसरी आलमारी खोली। उसमें कई तरह के सामान से भरे छोटे-बड़े बटुए पड़े हुए थे जिनमें से एक निकाल लिया और तब कई कोठरी-दालानों में से होता हुआ एक चोर दरवाजे की राह मकान के बाहर निकल गया।

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