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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

।। बारहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

सूर्योदय हुए दो घण्टे के लगभग हो चुके हैं। इन्द्रदेव संध्या-पूजा से छुट्टी पाकर अभी-अभी उठे हैं और जमानिया के अपनी ससुराल वाले मकान के एक एकान्त कमरे में बैठे दलीपशाह से कुछ बातें कर रहे हैं। इन्द्रदेव के सामने एक छोटी चौकी है जिस पर बहुत-से कागज-पत्र पड़े हुए हैं, इनमें से एक कागज इन्द्रदेव के हाथ में है और उसी के विषय में दलीपशाह से कुछ कह रहे हैं।

इन्द्रदेव : यह कागज बड़े काम का मिला। इसमें दारोगा की शैतानी साफ प्रकट होती है क्योंकि इसमें वह शिवदत्त को लिख रहा है कि ‘यद्यपि प्रभाकरसिंह महाराज के रिश्तेदार हैं तथापि आपकी दोस्ती निबाहने के लिए मैं उनसे भी दुश्मनी करने को तैयार हूँ और जैसे हो सकेगा वैसे आठ रोज़ के अन्दर उन्हें गिरफ्तार करके आपके हवाले करूँगा’।

दलीप० : केवल एक यह ही नहीं बल्कि ये सभी कागजात जरूरी हैं। दारोगा के बर्खिलाफ ये सब बहुत अच्छे सबूत हैं और आपको इन्हें बहुत सम्हाल कर रखना चाहिए ।

इन्द्र० : बेशक सम्हाल कर तो मैं इन्हें जरूर ही रक्खूँगा मगर...

दलीप ० : मगर क्या?

इन्द्र० : मगर यही कि मैं इनसे अभी कोई काम ले न सकूँगा। दारोगा मेरा गुरुभाई है और मुझे इस बात का अवश्य खयाल रखना होगा कि जहाँ तक हो सके मेरे हाथ से उसे कोई तकलीफ न पहुँचे।

दलीप० : चाहे उसकी बदौलत आपको कितनी ही तकलीफ क्यों न पहुँचे, आपके रिश्तेदारों पर क्यों न आफतें आवें, महाराज की जान पर क्यों न वार हो, और खुद आप ही पर क्यों न दुःख पड़े, पर आप अपने गुरुभाई के साथ सख्ती से न पेश आवेंगे!

आपके सामने आपके रिश्तेदार एक-एक करके क्यों न मारे जावें, आपके दोस्तों के गले पर क्यों न छुरी चलाई जावे, पर आप चुपचाप बैठे देखते ही रहेंगे, आपसे उनको बचाने के लिए ऊँगली न उठाई जायेगी। क्यों न हो भाई साहब, गुरुभाई के आगे दोस्त और रिश्तेदारी चीज ही क्या है!

इन्द्र० : नहीं भाई दलीप, सो तो नहीं है। दारोगा की कार्रवाइयाँ देख-देख कर मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाता है पर क्या करूँ लाचार हूँ, कुछ कर नहीं सकता। एक दफे नहीं बल्कि सैकड़ों दफे उसे भाई और दोस्त के नाम से सम्बोधन कर चुका हूँ, कुछ उसका भी लेहाज करना ही पड़ता है।

दलीप० : यह मैं मानता हूँ पर उस लेहाज का कहीं अन्त भी तो होना चाहिए! यह कोई बात नहीं कि आप लेहाज के मारे उससे कुछ न बोलें और वह आपके ही गले पर छुरी रगड़ता जाय! हर चीज का एक खातमा होता है, आपके लेहाज का भी कहीं खातमा होना चाहिए।

इन्द्र० : हाँ, सो तो मैं मानता हूँ और जहाँ तक मैं देखता हूँ एक न एक दिन मुझे भी ऐसा करना पड़ेगा, पर फिर यह भी तो एक बात है कि कसूरवार को सजा देने के पहिले उसे चेतावनी देना और सुधारने की कोशिश करना अच्छा है जिसमें भविष्य में उससे कोई खतरा न रह जाय, लाचारी की हालत में ही सजा देनी चाहिए।

दलीप० : आपका मतलब शायद यह है कि अभी तक आप दारोगा के साथ अप्रत्यक्ष रूप से जो कुछ करते आये हैं वह एक चेतावनी की तरह है। मगर भाई साहब मैं सैकड़ों दफे कह चुका और फिर भी कहता हूँ कि आप इस धोखे में न रहिए। ये सब दुष्ट आपकी चेतावनी की पहुँच के बाहर हो चुके हैं। आप उनके साथ रिआयत करते तथा तरह ही देते रह जाइयेगा और उनका कोई वार ऐसा पड़ जायगा कि आप खुद बेकार हो जाएँगे।

भला दारोगा, गदाधरसिंह, जैपाल और हेलासिंह आदि शैतानों को आपने काले साँप से कम समझा है? आप का इनके साथ रिआयत से पेश आना इन्हें दूध पिलाने का काम कर रहा है, इनका जहर बढ़ रहा है, और मौका पाने पर ये लोग ऐसा डसेंगे कि फिर हाथ मलने लायक भी न रहियेगा।

इन्द्र० : तुम ठीक कहते हो, मगर साथ ही इस बात को भी खूब खयाल रक्खो कि आदमी का पाप आदमी को खाता है। इन सभों के काम इन्हें खायेंगे। अगर मैं बेकसूर हूँ, अगर मेरे दोस्त और रिश्तेदार बेकसूर हैं, तो हम लोगों का बाल भी बाँका न होगा और ये अपनी करनी की बदौलत आपसे आप मर मिटेंगे।

दलीप० : खैर आपकी जो मर्जी में आवे सो कीजिए, मैं इस विषय में आपसे एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों दफे बहस कर चुका हूँ अब कभी करूँगा नहीं, हाँ जहाँ तक हो सकेगा इन कम्बख्तों के हाथों से आपको और अपने को बचाने की कोशिश करूँगा, आखिर तो जो आपकी गति है सो मेरी भी होगी ही!

इन्द्र० : (जरा हँसकर) मेरे दोस्त, क्या मामला है जो तुम्हारी हिम्मत ने इस तरह पर आज तुम्हारा साथ छोड़ दिया है? क्या तुम दुनिया में दारोगा और उसके साथियों को ही सबसे ज्यादा ताकतवर और सबसे ज्यादा कुदरत रखने वाला मानते हो ? क्या तुम समझते हो कि इन्हीं लोगों की कार्रवाई कारगर होगी और हम लोगों की धूल में मिल जायगी, इन्हीं लोगों की चालाकी पूरी उतरेगी और हम लोगों की फिजूल होगी? ये ही लोग अन्याय के पथ पर चलते हुए भी जीत जाएँगे और हमलोग न्याय के पथ पर चलते हुए भी हार जायेंगे? जरा हिम्मत के साथ बातें करो, जोश के साथ कार्रवाई करो! सफर के शुरू में ही पस्त न हो जाओ! जरा भले-बुरे में दो-दो चोटें तो हो जाने दो। आखिर इन और हम सभी के ऊपर एक ईश्वर भी तो है!

दलीप० : मैं तो कह चुका कि अब आपसे बहस न करूँगा और न समझाने की ही कोशिश करूँगा।

आपके जो जी में आवे कीजिए, मैं चुपचाप बैठा तमाशा देखा करूँगा। अच्छा अब आप इन कागजों को उठाकर कहीं ठिकाने से रखिये जिन्हें मैं बड़ी मुश्किल से शिवदत्त के ऐयारों को धोखा दे उनके कब्जे से निकाल लाया हूँ और मुझे बताइए कि आज कल यह जमानिया में क्या उपद्रव हो रहा है और कुँअर गोपालसिंह कई दिनों से कहाँ गायब हो रहे हैं? मुझे तो इस मामले में भी दारोगा ही की कोई कार्रवाई मालूम होती है।

इन्द्र० : (कागजों को उठाकर हिफाजत से रखते हुए) हाँ, विश्वास तो मुझे भी ऐसा ही हो रहा है। मैं खुद गोपालसिंह के गायब हो जाने से बड़े तरद्दुद में हूँ और दिलोजान से उन्हें खोज निकालने की कोशिश कर रहा हँ। परन्तु अब दो-एक रोज के अन्दर ही उसके पता लगने की पूरी उम्मीद है क्योंकि गदाधरसिंह मुझे बड़ा भरोसा दिला कर गया है।

दलीप० : गदाधरसिंह! क्या वह अब पुनः आपका साथी बना है?

इन्द्र० : (हँसते हुए) हाँ, क्या तुम्हें ताज्जुब है?

दलीप० : ख्याल रखिए, आप साँपों के साथ खेल रहे हैं!

इन्द्र० : नहीं, इस बार तो गदाधरसिंह सचमुच खूबूसूरती के साथ हम लोगों का काम कर रहा है।

दलीप० : इसके पहले भी वह कई बार ऐसा कर चुका है।

इन्द्र० : सो तो ठीक है पर इस बार उसे कुछ ऐसी चटपटी सजा दे दी गयी है कि मुझे तो आशा है वह अवश्य सुधर जायगा।

दलीप० : सो क्या?

इन्द्र० : इस दफे उसे कुछ तिलिस्मी चक्कर में डालकर उसका मजा चखाया गया है जिससे वह बिल्कुल डर गया है और कसम खा बैठा कि अब वह कभी हम लोगों को छोड़ दारोगा वगैरह का साथी नहीं बनेगा।

इतना कह इन्द्रदेव ने वह सब हाल मुख्तसर में कह सुनाया जो हमारे पाठक दसवें भाग के चौथे बयान में उस जगह पढ़ आये हैं जहाँ भूतनाथ ने तिलिस्मी चक्कर में पड़कर दयाराम आदि की अद्भुत बातचीत सुनी और कई डरावनी चीजें देखी थीं।

हमारे बुद्धिमान पाठक तो समझ ही गए होंगे कि वह सब इन्द्रदेव की कार्रवाई थी जो शुरू ही से यह कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह यदि यह बिगड़ा हुआ ऐयार (भूतनाथ) सुधर जाय तो संसार का बड़ा ही उपकार हो और इसलिए बहुत कुछ तकलीफें उठाने पर भी बाज नहीं आते।

इन्द्रदेव ने दलीपशाह से वह सब बातें भी कह सुनाईं जो उनसे और घबराये हुए भूतनाथ से हुई थीं? और तब कहा, ‘‘इस बात को यद्यपि कुछ ही दिन हुए हैं परन्तु इसी बीच में भूतनाथ ने कई अद्भुत काम किए हैं और कितनी ही गुप्त बातों का पता लगाया है...’’ (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, ग्यारहवाँ बयान।)

कहते हुए इन्द्रदेव चुप हो गए क्योंकि बाहर से किसी के ताली बजाने की आवाज सुनाई पड़ी। उन्होंने पुकारा, ‘‘कौन है, भीतर आओ।’’ जिसके साथ ही उनका नौकर कमरे के अन्दर आया और बोला, ‘‘गदाधरसिंह ऐयार आए हैं और किसी जरूरी काम से अभी आपसे मिलना चाहते हैं।’’

इन्द्रदेव ने दलीपशाह की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘बुला लाओ।’’ जिससे कुछ ही देर बाद भूतनाथ ने कमरे के अन्दर पैर रक्खा, दलीपशाह को वहाँ बैठे हुए देख वह झिझका पर फिर दोनों आदमियों को सलाम कर इन्द्रदेव का इशारा पा एक तरफ बैठ गया।

इस समय भूतनाथ का चेहरा कुछ उदास-सा हो रहा था जिस पर इन्द्रदेव का ध्यान तुरन्त गया और उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों क्या मामला है?’’

भूतनाथ ने कहा, ‘‘एक विचित्र घटना हुई है जिसके लिए आपकी सलाह लेने आया हूँ, मगर...।’’ इतना कह भूतनाथ ने दलीपशाह की तरफ देखा और तब चुप हो रहा। इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘तुम इनके सामने कोई बात कहते हुए हिचकिचाओ मत। ये तुम्हारे और हमारे सच्चे दोस्त हैं अभी हम इनसे तुम्हारी ही बात कर रहे थे। इन्होंने आज ही कल में दो-एक ऐसी बातों का पता लगाया है जिन्हें जब मैं तुम्हें सुनाऊँगा तो तुम बहुत खुश होगे, तुम बेखटके कहो।’’

भूत०: जो आज्ञा, पर इनकी कार्रवाइयों का हाल जानकर मैं इन्हें अपना दोस्त समझते डरता हूँ, आपके ये भले ही दोस्त हों मगर मेरे साथ...।

दलीप० : भूतनाथ, मैं नहीं कह सकता कि मेरे बारे में तुम्हारे दिल में क्या शक बैठा हुआ है, पर इतना मैं जरूर कह सकता हूँ कि तुम कभी और कदापि मेरी किसी ऐसी कार्रवाई का हाल नहीं कह सकते जिससे साबित हो कि मैंने तुम्हारे साथ दुश्मनी की है।

भूत०: कदाचित् ऐसा ही हो, (इन्द्रदेव की तरफ देखकर) खैर तो मैं कहता हूं।

इन्द्र० : हाँ हाँ कहो।

भूत० : आपसे उस दिन मैं बिदा हुआ तो तीन बातों की फिक्र में लगा, एक तो दामोदरसिंह के भेद का पता लगाना, दूसरे प्रभाकरसिंह को ढूँढ़ना और तीसरे कुँअर गोपालसिंह को खोज निकालना। इस तीसरे काम में मुझे सबसे ज्यादा सफलता मिली। आपको शायद यह जानकर ताज्जुब होगा कि कुँअर साहब जमानिया की सरहद के बाहर नहीं है।

इन्द्र० : क्या? जमानिया के बाहर नहीं हैं! तुमने उन्हें खोज निकाला।

भूत० : जी हाँ, एक गुप्त कमेटी है...

इन्द्र० : हाँ हाँ, मैंने उसका नाम अच्छी तरह सुना है।

भूत० : उस गुप्त कमेटी ने ही कुँअर को गिरफ्तार किया, उसी के कब्जे में कुँअर साहब अभी तक हैं, उसी ने दामोदरसिंह का खून किया और वही इस समय महाराज साहब को इस दुनिया से उठाने की फिक्र में हैं।

भूतनाथ की बातें सुन दलीपशाह और इन्द्रदेव ताज्जुब में भर उसका मुँह देखने लगे।

भूतनाथ बोला—‘‘दो नये ऐयारों को जिनका नाम मायासिंह और गोविन्द है और जो अकसर दारोगा साहब का काम किया करते हैं मैंने गिरफ्तार किया क्योंकि उनकी बातचीत से मुझे मालूम हुआ था कि वे दोनों उस कमेटी के सदस्य हैं।

इसके पहिले ही मैं कमेटी के स्थान वगैरह का पता लगा चुका था अस्तु मैंने अपने दो शागिर्दों को उनका रूप बना उस सभा में भेजा। उन शागिर्दों के जाने से बहुत बड़ा काम निकला क्योंकि भाग्यवश वे ऐसे समय में वहाँ पहुँचे जब कि कमेटी बैठी हुई थी।

उनके सामने ही गोपालसिंह वहाँ लाये गये और कमेटी के सभापति ने उनसे कुछ बातें कीं जिनके सुनने से वे समझ गए कि यह कमेटी बड़ी कातिल है। दामोदरसिंह भी उसी सभा के सदस्य थे पर उनके दुष्ट कामों से लाचार होकर उसके दुश्मन बन बैठे जिसका नतीजा यह निकला कि उनको शायद जान से ही हाथ धोना पड़ा। उस कमेटी के सभापति की बातों से मालूम हुआ कि सभा बड़े महाराज की भी जान लेने की फिक्र में है।

इन्द्र० : अच्छा गोपालसिंह अब कहाँ हैं?

भूत० : इसका ठीक पता मेरे शागिर्दों को नहीं लगा पर जहाँ तक मैं समझता हूँ आज या कल तक वे वापस आ जाएँगे।

इन्द्र० : वे आवें तो कुछ पता लगे और उस कमेटी का भी कुछ खुलासा हाल मालूम हो।

भूत० : शायद—मगर मुझे विश्वास नहीं होता कि उन्हें कमेटी के किसी हाल का पता लगेगा। अब इस समय तो सबसे जरूरी बात बड़े महाराज की जान बचाना है।

इन्द्र० : तो क्या उनकी जान ऐसे खतरे में है?

भूत० : खतरा! अगर मेरा ख्याल ठीक है तो वे कल का सूर्य नहीं देखने पावेंगे।

इन्द्र० : क्यों, क्यों?

भूत० : मेरे वे दोनों शागिर्द बड़े ही धूर्त और अपने काम में होशियार हैं। वे कमेटी में जाकर केवल चुपचाप बैठे ही नहीं रहे बल्कि और भी कई बातें को उन्होंने पता लगाया, उन्हीं की जुबानी मुझे मालूम हुआ कि कमेटी के किसी सदस्य ने महल की एक लौंडी को अपने मेल में मिला लिया है और उसी की मारफत महाराज साहब को आज ही जहर दिया जायगा।

इन्द्र० : पर वह कौन लौंडी है? उसका नाम मालूम हुआ?

भूत० : केवल नाम ही मालूम नहीं हुआ बल्कि मैंने उसका पता लगाया है और उसे गिरफ्तार किया और तब उसकी सूरत बना अपने एक शागिर्द को महल अन्दर भेजा और भाग्यवश मेरी कार्रवाई ठीक उतर भी गई क्योंकि पहुँचने के कुछ ही देर बाद उस लौंडी की (अर्थात् मेरे शागिर्द की) जरूरत पड़ी।

कमेटी के वे मेम्बर साहब उससे मिले—और क्या आप गुमान कर सकते हैं कि वे मेम्बर कौन हजरत थे?

इन्द्र० : कौन था?

भूत० : खास आपके गुरुभाई साहब।

इन्द्र० : दारोगा साहब?

भूत० : जी हाँ, दारोगा साहब!

इन्द्रदेव ने ताज्जुब और अफसोस की निगाह दलीपशाह पर डाली। दलीपशाह ने कहा, ‘‘शायद अब आप इस कमीने की तरफ से होशियार हों!’’

इन्द्र० : (भूतनाथ से) अच्छा तब?

भूत० : दारोगा साहब से और मेरे शागिर्द से खूब लम्बी-चौड़ी बातें हुईं! उन्होंने उसे बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए और बड़े-बड़े वादे किए, मुख्तसर यह कि (कमर से एक शीशी निकाल और इन्द्रदेव के सामने रख कर) यह शीशी उसके सुपुर्द करके उसे हुक्म दिया गया कि जिस तरह से भी हो सके यह दवा आज शाम के पहिले महाराज के पेट के अन्दर पहुँचा दी जाय।

भूतनाथ की बात सुनने और उसी शीशी की दवा देखने के साथ ही इन्द्रदेव कांप उठे और घबराकर बोले, ‘‘ओफ, यहाँ तक नौबत आ गई! मैं इस जहर को बखूबी जानता हूँ, हाय हाय, बेचारे वृद्ध महाराज की मौत क्या इस तरह बदी है!!’’

इन्द्रदेव ने अपना सिर झुका लिया और कुछ देर के लिए गहरी चिन्ता में डूब गये। दलीपशाह और भूतनाथ बेचैनी के साथ उनकी तरफ देखने लगे। कुछ देर बाद अपने परेशान दिमाग को दुरुस्त कर इन्द्रदेव ने लम्बी साँस खींची और तब दलीपशाह की तरफ देख कर कहा, ‘‘दोस्तों की सलाह न मानने का कभी-कभी कैसा भयानक नतीजा निकलता है यह अब मुझे मालूम हो रहा है।

आप लोग बराबर दारोगा की तरफ से होशियार रहने के लिए मुझे कहते थे पर मैं समझ-बूझ कर भी उस पर कुछ विशेष ध्यान नहीं देता था और अब उस भूल का फल दिखता है। आज अगर हमारे भाई गदाधरसिंह हमारी मदद न करते तो कैसा अनर्थ हो जाता।

यह जहर जरूर महाराज के पेट में उतर जाता और तब ब्रह्मा भी आकर उन्हें बचा नहीं सकते थे।’’

दलीप० : बेशक ऐसा ही है, और उस हालात में हम लोगों को कितना सन्ताप होता इसका ठिकाना नहीं!

इन्द्र० : बेशक क्योंकि हम लोग अब तक जानबूझकर आग के साथ खेल रहे थे!

दलीप० : खैर इसे भी ईश्वर की दया समझिये कि अब भी पता लग गया और विशेष अनर्थ नहीं होने पाया। मगर अब तो आप दारोगा की तरफ से...

इन्द्र० : (जोश के साथ) हाँ, अब तुम उस कम्बख्त के प्याले को लबरेज समझो! अब मैं उसे किसी तरह माफ नहीं कर सकता, मैं आज ही और अभी अभी उसका प्रबन्ध करता हूँ क्योंकि अब वह खुला रहने के काबिल नहीं है!

(भूतनाथ से) भाई साहब, हम लोग सब कोई तुम्हारे एहसानमन्द हैं कि तुमने महाराज की जान बचाई! अगर तुम न होते तो इस समय अनर्थ हो चुका था!!

भूत० : (सिर नीचा करके) जी हाँ, इसे ईश्वर की कृपा कहनी चाहिये कि मैं मौके पर पहुँच गया और कुछ कर सका नहीं तो अनर्थ हो जाने में सन्देह ही क्या था, पर फिर भी आप यह न समझिये कि केवल इसी तक बस है, न जाने दारोगा और भी क्या-क्या कर रहा है या महाराज की जान लेने का और कैसा प्रबन्ध कर चुका है। मुमकिन है उसने किसी और के सुपुर्द भी यह काम किया हो जिसमें अगर वह लौंडी इसे पूरा न कर सके तो भी उसका वार खाली न जाने पावे।

इन्द्र० : सम्भव है, मगर कोई हर्ज नहीं, अगर इस वक्त तक महाराज जीते हैं तो कोई परवाह नहीं, अब मैं सब सम्हाल लूँगा। मेरे दोस्त, तुम निश्चय रक्खो कि अब दारोगा के सबब से महाराज का एक बाल बाँका होने न पावेगा। ओफ अब हद्द हो गई! क्या इससे बढ़ कर भी हरामजदगी और निमकहरामी की कोई बात हो सकती है? अच्छा भूतनाथ, क्या तुम कह सकते हो कि इस समय महाराज कहाँ हैं!

भूत० : हाँ अच्छी तरह, क्योंकि दारोगा के लौट जाने के बाद ही फौरन मैंने इस बात का पता लगाया। महाराज को आज सुबह किसी सवार ने एक चीठी दी जिसे पढ़ने के साथ ही वे बेचैन हो गए और उसी समय उठ कर तिलिस्म के अन्दर चले गये जहाँ से इस समय से घण्टे भर पहिले तक वे नहीं लौटे थे!

इन्द्र० : (कुछ सोच कर) अच्छा तो भूतनाथ, इस समय मैं तुमसे विदा माँगता हूँ, तुमने जो कुछ किया उसका बदला तो परमेश्वर तुम्हें देगा ही पर मैं भी सच्चे दिल से यह प्रार्थना करता हूँ कि वह तुम्हारी बुद्धि नेक राह पर बनाये रक्खे जिसमें तुम नामवरी के साथ सुकर्म करते हुए नेक ऐयार कहलाओ और तुम्हारे हाथ से लोगों का उपकार हो!

मगर तुम अब एक सायत के लिए भी बेफिक्र न रहना, बराबर दारोगा की तरफ से होशियार रहना और पता लगाते रहना कि वह क्या करता है। (दलीपशाह से) मित्र, अब कुछ देर के लिए मैं तुमसे भी छुट्टी माँगूँगा। तुम खुशी से यहां आराम करो और सफर की थकावट मिटाओ। मैं इस समय जाता हूँ, कब तक लौट सकूँगा सो तो नहीं कह सकता पर आज अगर मेरा नाम इन्द्रदेव है तो इस जहरीले साँप से भी भयानक दारोगा के दाँत हमेशा के लिए तोड़ दूँगा।

इतना कह इन्द्रदेव उठ खड़े हुए और तेजी के साथ कमरे के बाहर चले गये।

मगर इन्द्रदेव, क्या तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर सकोगे? क्या दारोगा की कार्रवाइयों के जाल में अच्छी तरह फँस गए हुए महाराज को बचा सकोगे?

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