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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


रात का समय है, चन्द्रदेव की शीतल किरणें उस जंगल में घुस कर अपनी चाँदनी फैला रही हैं जो अजायबघर के चारों तरफ फैला हुआ है और जिसमें अब से थोड़ी ही देर पहिले अंधकार अपने काले शरीर को छिपाये बैठा हुआ था।

वही जंगल जो अभी तक भयानक और डरावना लगता था अब कुछ सुहावना-सा मालूम होने लगा लगा है और अजायबघर की कोठरियों और दालानों के भीतर भी चन्द्रमा की किरणों ने पहुँच कर वहाँ के अंधकार को कुछ कम कर दिया है।

ऐसे समय में एक रथ, जिसमें दो मजबूत बैल जुते हुए थे आकर अजायबघर के दरवाजे के सामने खड़ा हुआ। रथ पर पर्दा पड़ा हुआ था जिससे इस बात का पता लगाना असम्भव था कि भीतर कौन है पर थोड़ी ही देर में शक जाता रहा जब रथ के रुकने पर दारोगा ने पर्दे के बाहर सिर निकाला और कहा, ‘‘जैपाल, क्या बंगले पर पहुँच गए?’’ इसके जवाब में जैपाल ने, जो बैलों को हाँक रहा था कहा, ‘‘जी हाँ’’ और तब रथ से उतर कर पर्दा हटाता हुआ बोला, ‘‘लाइये एक गठरी मुझे पकड़ाइये।’’

दारोगा साहब ने एक बड़ा गट्ठर रथ से किनारे पर किया जिसमें जरूर कोई आदमी था। जैपाल ने गट्ठर पीठ पर लादा और सीढ़ियों पर चढ़ बंगले के अन्दर घुस गया थोड़ी देर बाद वह उस गट्ठर को कहीं रख लौट आया और बोला, ‘‘लाइए, दूसरे को भी दीजिए’’। एक और गट्ठर उसे दिया गया और उसे भी जैपाल ने उठा लिया। अब दारोगा साहब भी उतर पड़े और दोनों बंगले के अन्दर घुस गए। दाहिनी तरफ के एक दालान में जिसमें चन्द्रमा की किरणें आड़ी होकर पहुँच रही थीं ये दोनों पहुँचे। उसी जगह वह पहिले गट्ठर भी रक्खा हुआ था जिसके बगल में जैपाल ने वह दूसरा गट्ठर रख दिया और तब कहा, ‘‘आप इन लोगों का कुछ बन्दोबस्त कीजिए तब तक मैं जाकर रथ को कहीं आड़ में खड़ा कर आता हूँ।

दारोगा ने कहा,, ‘‘जाओ मगर जल्दी ही लौट आना क्योंकि मैं एक कैदी को लेकर भीतर जाता हूँ।’’

जैपाल ‘‘बहुत खूब’’ कहकर चला गया, उधर दारोगा घूमा और सामने वाली कोठरी के पास पहुँचा जिधर दरवाजा बन्द था। दारोगा ने इस दरवाजे के दाहिनी तरफ पैर से ठोकर देना शुरू किया। कुछ ही ठोकरों के बाद उस जगह से लकड़ी का एक तख्ता बगल हो गया और एक सूराख दिखाई पड़ने लगा। दारोगा ने जेब से एक ताली निकाली और उसे छेद में डाल कर घुमाया जिसके साथ ही कोठरी का दरवाजा खुल गया और वहां किसी जगह से सामान पैदा कर उसने रोशनी की, क्योंकि यद्यपि बाहर के दालान में चन्द्रमा की पूरी रोशनी थी पर इस कोठरी में अंधेरा ही था, इसके बाद दारोगा बाहर आया और उन दोनों गट्ठरों में से एक को उठा उसी कोठरी में घुस गया, दरवाजे को उसने मामूली ढंग पर भिड़का कर छोड़ दिया।

हमारे पाठक कई बार अजायबघर में आ चुके हैं और यहाँ की ड्योढ़ी में जाने के रास्ते से भी बखूबी परिचित हैं अस्तु उसी मामूली राह से चर्खी घुमाता हुआ दारोगा उस गट्ठर को लिए हुए नीचे के हिस्से में जा पहुँचा। इसके बाद गट्ठर को पीठ पर लादे हुए पूरब तरफ वाली सुरंग में घुसा। इस सुरंग के दोनों तरफ जंगलेदार कोठरियाँ और सामने की तरफ एक महराबदार फाटक था जिसके बीचोंबीच में जंजीर के सहारे एक पुतली लटक रही थी। दारोगा इस पुतली के पास पहुँचा और पीठ के बोझ को जमीन पर रख स्वयं वहीं बैठ गया।

अपने कपड़ों के अन्दर से दारोगा ने सोने का एक जड़ाऊ डिब्बा निकाला और लालटेन के सामने रख उसे खोला। इसके अन्दर एक छोटी पुस्तक थी जिसे निकाल लिया और पढ़ना शुरू किया।

लगभग एक घड़ी तक दारोगा उस पुस्तक के पन्ने इधर-उधर उलटता-पलटता रहा और इसी बीच में उसने एक सादे कागज पर जस्ते की कलम से इस पुस्तक में से देख-देखकर कुछ लिख भी लिया। शायद जब उसने जानने वाली सब बातों को पढ़ या जान लिया तो एक लम्बी साँस के साथ यह कहा, ‘‘बड़ी नायाब किताब है, मगर लाचार लौटाना ही पड़ेगा।’’ उस किताब को उसी डिब्बे के हवाले किया और डिब्बे को पुनः अपने कपड़ों में छिपा लिया।

डिब्बा छिपाने के बाद दारोगा उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे बल्कि कुछ हिचकिचाहट के साथ चलता हुआ उस पुतली के पास पहुँचा जो महराब के बीचोंबीच में लटक रही थी। दारोगा ने पुतली का बायाँ पैर पकड़ा और उसके अंगूठे को नीचे की तरफ झुका दिया। इसके बाद दाहिने पैर के अंगूठे के साथ भी ऐसा ही किया और तब अलग हटकर खड़ा हो गया।

अंगूठों को झुकाने के साथ ही एक किस्म की आवाज आई और वह पुतली अपनी जगह पर घूमने लगी। कुछ देर बाद दारोगा को मालूम हुआ कि घूमते-घूमते वह पुतली धीरे-धीरे ऊपर की तरफ चढ़ी जा रही है।

यहाँ तक कि लगभग आधी घड़ी में वह पुतली बहुत ऊपर खिंच गई और किसी गुप्त स्थान में जा नजरों की ओट हो गई। उसी समय एक आवाज हुई, वह फाटक घड़घड़ करता हुआ नीचे जमीन के अन्दर धंस गया, और सामने जाने के लिए रास्ता दिखाई पड़ने लगा।

दारोगा के मुँह से खुशी की आवाज निकली, उसने वह गठरी पीठ पर उठा ली। लालटेन हाथ में ले ली और तब उसी फाटक के अन्दर घुस गया। थोड़ी देर बाद पुनः एक आवाज हुई, वह फाटक अपनी जगह पर आ गया, और वह पुतली भी नीचे उतरकर पुनः ज्यों-कि-त्यों अपनी जगह पर लटकने लगी पर इस समय उसका घूमना बंद था।

दारोगा को भीतर गए बहुत देर हो गई, यहाँ तक कि दो घण्टे के ऊपर हो गया मगर वह लौटता दिखाई न पड़ा। अजायबघर के ऊपर की दालान में बैठ बेहोश प्रभाकरसिंह की गठरी की निगहबानी करते-करते जैपाल घबरा गया और बार-बार कहने लगा, ‘‘न मालूम दारोगा साहब कहाँ चले गये!’’ कई बार उसने ड्योढ़ी तक भी जाकर देखा मगर वहाँ दारोगा साहब थे कहाँ जो दिखाई पड़ते।

आखिर जैपाल एकदम परेशान हो गया और उसे विश्वास हो गया कि दारोगा साहब किसी तिलिस्मी चक्कर में फँस गए, क्योंकि अन्दर जाने के पहिले दारोगा साहब किसी कैदी को चक्रव्यूह तक पहुँचा देने में दो घड़ी से ज्यादा समय की जरूरत न पड़ेगी और जब दो घण्टे के ऊपर समय बीत गया तो जरूर कुछ मामला गड़बड़ हुआ है।

अस्तु इस समय क्या करना चाहिए? बहुत कुछ सोच-विचारकर जैपाल ने यही मुनासिब समझा कि बेहोश प्रभाकरसिंह को नीचे के कैदखाने में बन्द कर दे और तब दारोगा के बारे में कुछ जाँच करे।

जैपाल ने प्रभाकरसिंह को नीचे के कैदखाने (लोहे वाले जंगले) में ले जाकर बन्द कर दिया, उनकी मुश्कें खोल हथकड़ी-बेड़ी पहिना दी और दरवाजे में ताला बन्द कर दिया। इसके बाद घूमता-फिरता उधर गया जिधर अजायबघर का वह महराबदार फाटक था जिसके अन्दर दारोगा साहब जाकर गायब हो गए थे। जैपाल को इस तिलिस्मी फाटक को खोलने की तर्कीब मालूम न थी अस्तु कुछ देर तक यों ही देखभाल कर लाचारी की मुद्रा से गर्दन हिलाता हुआ वह वहाँ से लौटा और बाहर आकर पुनः दालान के एक कोने में यह कहता हुआ बैठ गया ‘‘कुछ देर और राह देख लूँ तब लौटूँ।’’

कुछ देर तक जैपाल उसी जगह बैठा रहा। इस बीच में कई बार उसे भारी धम्माकों की आवाज सुनाई पड़ी जो कि कहीं नीचे की तरफ से आ रही थी पर उसकी हिम्मत यह न पड़ी कि उठकर देखभाल करे और इस तरह पर अपनी जान आफत में डाले। वह अपनी जगह पर ही बैठा रहा मगर थोड़ी देर बाद पीछे की कोठरी में से कुछ आहट सुन चौंका और जब घूमकर देखा तो दारोगा साहब पर निगाह पड़ी।

इस समय दारोगा साहब की बुरी हालत हो रही थी। चेहरा पीला हो गया था, आँखें चौंधियाई हुई और बदन काँप रहा था। उसके कपड़े कई जगह से फट गए थे और बदन पर कई जख्म भी लगे हुए दिखाई दे रहे थे। आते ही जैपाल के बगल में बैठ, बल्कि धम्म से गिर गया।

दारोगा साहब की यह विचित्र हालत देख जैपाल घबरा गया। उसने अपनी जेब से उम्दा लखलखा निकालकर कई बार दारोगा को सुंघाया और देर तक दुपट्टे से हवा करता रहा तब जाकर दारोगा साहब के होश-हवाश कहीं ठिकाने हुए और उन्होंने आँखें खोलकर अपने चारों तरफ देखा। जैपाल ने उनकी बदहवासी का कारण पूछा जिसके जवाब में उसने कहा, ‘‘उस कैदी को चक्रव्यूह में फँसाने जाकर मैं स्वयं भारी मुसीबत में फँस गया और ऐसी-ऐसी डरावनी बातें देखीं कि कुछ पूछो मत, बस जान सलामत लेकर लौट आया यही गनीमत समझो।

अभी तक कलेजा काँप रहा है। अब कान पकड़ता हूँ जो कभी उस तरफ जाने का नाम भी लूँ। तुम अब मुझे जल्दी से घर पहुँचाओ तो जी ठिकाने हो (इधर-उधर देखकर) प्रभाकरसिंह नहीं दिखाई पड़ते!’’

जैपाल : आपको आने में बहुत देर हुई तो लाचार उन्हें मैं ड्योढ़ी में बंद कर आया, शायद यहाँ कोई देख लेता। अब अगर आप चाहें तो उन्हें भी...

दारोगा : (काँपकर) अरे राम राम, अब क्या पुनः उस भयानक जगह में जाने की हिम्मत पड़ सकती है! उन्हें मजबूती से बन्द किया है तो?

जैपाल : हाँ, बहुत अच्छी तरह, हथकड़ी-बेड़ी डाल लोहे वाले जंगले में बन्द कर दिया है, ताली यह देखिए मौजूद है।

दारोगा : तो बस इस समय उन्हें वहीं बन्द रहने दो फिर किसी दिन देखा जायगा, इस वक्त तुम मुझे घर पहुँचाओ।

जैपाल : आपको रथ तक पहँचाये देता हूँ जहाँ से अगर आप स्वयं ही हाँकते हुए चले जा सकें तो बहुत ही अच्छा हो।

दारोगा : क्यों सो क्यों?

जैपाल : आपके जाने के कुछ ही देर बाद हेलासिंह यहाँ आए थे।

दारोगा : हेलासिंह! सो किस लिए?

जैपाल : वह ऐयारा जिसने सुन्दरी को पकड़ लिया था उन्हें धोखा देकर लोहगढ़ी ले जा रही थी।

दारोगा : तो तुमने उसको होशियार कर दिया?

जैपाल : जी हाँ, बल्कि यह भी बता दिया कि जिस तरह से भी हो उस औरत को गिरफ्तार करना चाहिए। वे सब बात समझ तो गए हैं पर फिर भी मैं सोचता हूँ कि उनके साथ खुद भी मौजदू रहूँ क्योंकि...।

जैपाल ने झुककर दारोगा के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही वह चौंक पड़ा और बोला, ‘‘बेशक तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, तुम्हें जरूर वहाँ जाना और अभी जाना चाहिए।

जैपाल : मगर आप अकेले लौट सकेंगे?

दारोगा : हाँ, पहुँच जाऊँगा, तुम मेरी फिक्र छोड़ दो और जाओ।

दारोगा ने वह कोठरी बन्द की जिसमें से नीचे जाने का रास्ता था और तब जैपाल का हाथ पकड़े हुए बंगले के बाहर आया। जैपाल ने उसे रथ के पास पहुँचा दिया जो पेड़ों की झुरमुट में खड़ा था।

दारोगा साहब रथ पर चढ़ गए और तब उन्हें जमानिया की तरफ रवाना कर जैपाल तेजी से लोहगढ़ी की तरफ रवाना हुआ। वहाँ पहुंच कर हेलासिंह के साथ मिल इन दोनों ने जो कुछ किया सो पाठक ऊपर के बयान में पढ़ चुके हैं, अस्तु इनका हाल न लिखकर हम इस समय दारोगा साहब के साथ चलते हैं जिनका परेशान दिमाग कोई नया बाँधनूँ बाँध रहा है और जो इस समय अपने खास कमरे में ऊँची गद्दी पर बैठे हुए हथेली पर गाल रक्खे कुछ सोच रहे हैं।

आखिर बहुत देर बाद एक लम्बी साँस लेकर दारोगा ने सिर उठाया और आप ही आप कहा, ‘‘जो कुछ भी हो, अब तो महाराज का उठ जाना ही मेरे लिए आवाश्यक है और यह काम जल्द होना चाहिए क्योंकि गोपालसिंह...हाँ ठीक याद आया, पहले उस अजायबघर की ‘ताली’ को तो ठिकाने पहुँचा दूँ।’’

दारोगा अपनी जगह से उठा और एक दूसरी कोठरी के अन्दर चला गया जिसके दरवाजे पर रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था। कुछ देर बाद जब वह उस कोठरी के बाहर निकला तो उसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी और तमाम बदन भारी काले लबादे से अच्छी तरह ढंका हुआ था जिसके कारण इस बात का पता नहीं लग सकता था कि भीतर से दारोगा साहब का क्या ठाट है या क्या सामान इस समय उनके बदन पर मौजूद है।

सुबह होने में अभी बहुत देर थी जब दारोगा साहब पिछले दरवाजे की राह अपने मकान के बाहर निकले। कई पेचीली तंग और अँधेरी गलियों में से होते हुए वे बहुत ही तेजी के साथ चलकर थोड़ी देर में खास राजमहल के पिछवाड़ेवाले बाग के पास जा पहुँचे जिधर इस समय सन्नाटा था।

कुछ देर आहट लेने बाद जब दारोगा को विश्वास हो गया कि इस समय उनके आस पास में कोई नौकर-चाकर या सिपाही-पहरेदार उनकी कार्रवाई देखने वाला नहीं है तो उन्होंने अपने लबादे के अन्दर से एक कमन्द निकाली और उसकी मदद से बाग की ऊँची चहारदीवारी पार कर उसके अन्दर जा पहुँचे।

वहाँ पहुँच उन्होंने फिर कुछ देर तक आहट ली और जब सन्नाटा पाया तो आगे बढ़े। लम्बे-चौड़े बाग में इधर-उधर दबते और पेड़ों की आड़ में छिपते दारोगा साहब धीरे-धीरे उस तरफ बढ़ने लगे जिधर खास महल का वह हिस्सा था जिसमें कुँअर गोपालसिंह रहा करते थे। दारोगा साहब ने जब निश्चय कर लिया कि किसी कमरे या खिड़की से कोई उनकी कार्रवाई देख नहीं रहा है तो उन्होंने पुनः कमन्द निकाली और एक खिड़की की तरफ फेंकी। कमन्द खिड़की में अटक गई और दारोगा साहब ऊपर चढ़ गये।

यद्यपि इस खिड़की का पल्ला भीतर की तरफ से बन्द था पर उन औजारों की मदद से जिन्हें दारोगा साहब अपने साथ लाये थे थोड़ी ही तरद्दुद से खुल गया और दरोगा ने खिड़की की राह कमरे के अन्दर हो कमन्द खींच खिड़की भीतर से बन्द कर ली।

कमरे के अन्दर पहुँच दारोगा साहब ने लबादा उतारकर एक तरफ रखा दिया और एक छोटी गठरी खोली जिसे वे अपनी कमर के साथ बाँधे हुए थे। इस गठरी में वही जड़ाऊ डिब्बा था जिसके अन्दर अजायबघर की वह ताली थी जिसे भैया राजा ने दिया था। गोपालसिंह ने यह चीज बड़ी हिफाजत के साथ एक लोहे के सन्दूक में बन्द कर दी थी पर दारोगा को किसी तरह पता लग गया और वह कुँअर गोपालसिंह के गायब होते ही इसे वहाँ से चुरा ले गया था।

इस तीन दिन के भीतर दारोगा इस किताब को अच्छी तरह पढ़ गया था बल्कि कई बातें उसने कागज पर उतार भी लीं जिसमें वक्त पर काम आए क्योंकि इस किताब को हमेशा के लिए अपने कब्जे में रख लेने की शायद उसकी हिम्मत या चेष्टा उस समय न हुई थी।

दारोगा को अगर कोई अफसोस था तो यही कि इस किताब से वह पूरी तरह से काम नहीं ले सकता था क्योंकि इसमें कई शब्द ऐसे थे जिनका मतलब वह कुछ भी समझ नहीं पाता था।

इस जगह पहुँच दारोगा ने पुनः उन अद्भुत औजारों से काम लिया जिन्हें वह अपने साथ लाया था। उसने लोहे वाले उस सन्दूक का ताला खोल डाला जिसके अन्दर कुँअर गोपालसिंह ने यह कीमती किताब रखी थी और डिब्बे को ठिकाने रख पुनः वह सन्दूक बन्द भी कर दिया। इसके बाद वह अपना सब सामान बटोर कर उठा और लबादा ओढ़ पुनः उसी खिड़की की राह नीचे उतर आया।

इस समय पूरब तरफ का आसमान सुफेदी पकड़ रहा था और दक्षिणी हवा के हलके झोंके शुरू हो गये थे। दारोगा ने नीचे पहुँचने और कमन्द उतारकर छिपा लेने के बाद पूरब के आसमान की तरफ देखा और तब कुछ सोचकर बाग के बाहर की तरफ न जा पश्चिम को कदम बढ़ाया, जिधर जनाने महल का पिछला हिस्सा पड़ता था। अपने को छिपाता हुआ वह एक छोटे से दरवाजे के पास जाकर रुका जो भीतर से बन्द था। इसके नीचे की तरफ गौर करने पर दारोगा को एक बहुत पतली लोहे की तार नजर पड़ी जिसे उसने किसी इशारे के साथ खींचा और तब अलग हट कर खड़ा हो गया।

थोड़ी ही देर बाद वह दरवाजा बहुत ही आहिस्तगी के साथ खुल गया और एक कमसिन औरत ने सिर निकाल बाहर की तरफ झाँका। दारोगा जिसका ध्यान इसी तरफ था इस औरत को देखते ही उसके सामने आ गया। दोनों में कुछ इशारा हुआ और तब उस औरत ने दारोगा को अन्दर करके दरवाजा बन्द कर लिया।

दरवाजा बन्द हो जाने के कारण यद्यपि उस जगह अंधकार हो गया मगर दोनों में से किसी ने इस बात का ख्याल न किया और वह औरत अंधेरे ही में चलती हुई आगे की तरफ बढ़ी तथा दारोगा उसके पीछे रवाना हुआ। कई अंधेरे रास्तों और तंग जगहों से घुमाती वह दारोगा को लिए हुए एक तहखाने के मुहाने पर पहुँची और वहाँ भी न रुककर दोनों आदमी काठ की सीढ़ियों पर से होते हुए तहखाने के अन्दर उतर गए। औरत ने तहखाने का दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया और तब कहीं से सामान निकाल रोशनी की। दारोगा ने एक निगाह अपने चारों तरफ देखा और तब उस औरत से पूछा—‘‘यहाँ कोई हम लोगों की बातें सुननेवाला तो नहीं है?’’

औरत ने मुस्कराकर कहा, ‘‘अगर कोई सुन ही ले तो फिर आपको यहाँ लाने से फायदा ही क्या हुआ? आप इस तरफ से बिल्कुल निश्चिन्त रहें।’’

दारोगा : अच्छा तो अब बताओ कि जो कुछ मैंने कहा उसके मुताबिक कार्रवाई करने को तुम तैयार हो?

औरत : (सिर नीचा कर कुछ देर चुप रहने के बाद) देखिए दारोगा साहब, बात यह है कि आपके हुक्म के मुताबिक करने को तो मैं हमेशा तैयार हूँ परन्तु आपको भी अपने वादों को पूरा करने का खयाल रखना चाहिए।

दारोगा : (अपनी छाती पर हाथ रख कर) मैं अपनी ही कसम खाकर कहता हूँ कि जो कुछ वादा मैंने तुमसे किया है उसे पूरा-पूरा अदा करूँगा, बशर्ते कि तुम भी इस काम को खूबसूरती, होशियारी और चालाकी के साथ पूरा उतार दो, मैं कसम खाकर कहता हूँ कि केवल अपना वादा ही पूरा नहीं करूँगा और हमेशा के लिए तुम्हारी जरूरतें ही दूर नहीं हो जाएँगी बल्कि अगर तुम चाहोगी तो कुँअर गोपालसिंह के साथ तुम्हारी शादी भी करा दूँगा।

यह बात सुनने के साथ ही उस औरत के गालों पर गुलाबी रंग दौड़ गया और उसकी आँखें कुछ देर के लिए नीचे की तरफ झुक गईं, मगर उसने बहुत जल्दी ही अपने को सम्हाल लिया और मुस्कुराकर कहा, ‘‘यह बात तो दारोगा साहब अब आप बहुत ही बढ़ाकर कहने लगे।’’

दारोगा : (उसका हाथ पकड़कर) नहीं-नहीं, तुम ऐसा कभी खयाल न करो कि दारोगा तुमसे मीठे-मीठे वादे करके और झूठे सब्जबाग दिखा के अपना काम निकाला चाहता है और पीछे मुकर जाएगा।

औरत : (उत्कण्ठा के साथ) तो जो कुछ आप कहते हैं उसे पूरा करेंगे?

दारोगा : जरूर-जरूर।

औरत : मगर मुझे विश्वास नहीं होता, भला कुँवर साहब मुझे...

दारोगा : तुम यह न सोचो कि गोपालसिंह तुम्हें चाहेगा नहीं अथवा तुमसे शादी करना पसन्द नहीं करेगा। यह लड़का इस समय पूरी तरह से मेरे काबू में है और जो कुछ मैं कहूँगा वह उसे पूरा करना ही पड़ेगा

औरत : तो दारोगा साहब, अगर आप ऐसा करा दें और वादा पूरा करने की कसम खा जाएं तो मैं भी कसम खाकर कहती हूँ कि आपका काम ऐसी खूबी के साथ करूँ और ऐसी सफाई के साथ बड़े महाराज को दुनिया से उठा दूँ...

दारोगा : (औरत के ओठों पर उंगली रखकर) चुप-चुप, दीवार के भी कान होते हैं!

औरत : ओह, आप निश्चिन्त रहिए, यहाँ कोई भी हम लोगों की बातें सुनने वाला नहीं है

दारोगा : तो भी अपने को भरसक होशियार ही रहना चाहिए। खैर तो मैं कमस खाता हूँ कि अगर तुम यह काम ठीक-ठीक कर दो जिस तरह से भी होगा तुम्हारी शादी कुअँर गोपालसिंह से करा कर ही छोड़ूँगा। मगर देख, काम बड़ी खबरदारी से होना चाहिए, क्योंकि अगर किसी को जरा भी शक हो जाएगा तो फिर मेरी-तुम्हारी दोनों की ही जान बड़ी बुरी तरह से मारी जाएगी।

औरत : नहीं-नहीं दारोगा साहब, अगर ऐसा हो तो फिर बात ही क्या हुई। किसी को कानोकान पता तो लगने ही नहीं पावेगा, इस बात से तो आप बिल्कुल ही बेफिक्र रहें। मैं ऐसी बेवकूफ नहीं हूँ जो इतना न सोच सकूँ कि इस भेद के खुल जाने पर हम लोगों की क्या दुर्दशा होगी।

दारोगा : हाँ-हाँ, सो तो मुझे बखूबी विश्वास है कि तुम परले सिरे की होशियार हो, अगर यह न हो तो मैं ऐसा नाजुक काम तुम्हें सौंपता ही क्यों, मगर तो भी चेतावनी के तौर पर मैंने कहा, क्योंकि काम बड़ी जोखिम का है।

औरत : सो सब मैंने सोच लिया, काम जोखिम का जरूर है पर साथ ही हो जाने पर मुझे और आपको दोनों ही को फायदा भी बहुत है।

दारोगा : खैर फायदे की मुझे कोई इच्छा नहीं है क्योंकि मैं किसी अपने स्वार्थ के लिए यह काम कर नहीं रहा हूँ, मुझे तो राज्य का भला देखना और रिआया का दुःख दूर करना है। मेरा अपना तो इसमें कोई फायदा है नहीं, मैं संसार-त्यागी विरक्त आदमी, लेकिन राज्य का, रिआया का और खास कर तुम्हारा फायदा देखना ही पड़ता है।

औरत : बेशक-बेशक।

दारोगा : खैर तो अब बात खत्म होनी चाहिए क्योंकि सवेरा हुआ ही चाहता और इस समय कोई अगर मुझे और तुम्हें यहाँ देखेगा तो शक कर सकता है, अच्छे लो मैं तुम्हें वह दवा देता हूँ।

इतना कह दारोगा ने अपने पास से सोने की एक छोटी डिबिया निकाली और उसे खोला, उसमें तरह-तरह की दवाएँ पुड़ियों और छोटी-छोटी शीशियों में भरी हुई रखी हुई थीं। जिनमें से चुनकर उसने एक छोटी शीशी जिसमें सफेद रंग की कोई बुकनी थी निकाली। उसके बाद उस डिबिया को ठिकाने रख उस औरत से कहा, ‘‘देखो यह बड़ी तेज और कातिल जहर है और इसको खा लेने वाला किसी तरह से बच नहीं सकता। ऊपर से तारीफ यह है कि वैद्य और हकीम लोग लाख सिर पटककर रह जाएँ पर यह कभी नहीं कह सकते कि जानेवाला जहर के असर से मरा है, क्योंकि काम पूरा कर लेने के बाद यह दवा अपना कोई भी निशान बदन में नहीं छोड़ जाती।

न तो बदन के भीतरी हिस्सों में कोई फर्क आता है और न बाहरी जिस्म में ही कोई खराबी पैदा होती है। इसे बहुत होशियारी से रखो और आज ही जिस तरह से भी हो इसे महाराज के पेट में पहुँचा दो। आज सुबह से लेकर शाम छः बजे तक के भीतर-भीतर इस शीशी की पूरी दवा ठिकाने पहुँच जानी चाहिए।

औरत : क्या आज ही?

दारोगा : हाँ, आज ही, और शाम के पहिले ही। अब देर करने का बिल्कुल मौका नहीं है।

औरत : बहुत खूब, यह किस तरह दी जा सकती है?

दारोगा : जिस तरह से चाहो और जै दफे करके चाहो दे सकती हो, क्योंकि इस दवा में न तो किसी तरह का रंग है न बू है और न जायका है। इसकी बहुत थोड़ी मिकदार भी बहुत काफी है पर तो भी एहतियातन यह पूरी शीशी दे दी जानी चाहिए।

औरत : बहुत अच्छा।

दारो० : मगर काम आज ही होना चाहिए और बड़े होशियारी से होना चाहिए।

औरत : आप इन दोनों बातों से बेफिक्र रहिए।

दारोगा : खाली हो जाने के बाद इस शीशी को किसी ऐसी जगह फेंकना कि...

औरत : ओह इन बातों की फिक्र आप न कीजिए, इस शीशी को मैं ऐसा गायब कर दूँगी कि मौत को भी पता नहीं लगेगा।

दारोगा : अच्छा तो इसे लो और मुझे पुनः उसी दरवाजे पर पहुँचा दो, क्योंकि जहाँ तक मैं समझता हूँ अब सूरज निकल आया होगा। अगर कोई मुझे यहाँ देखेगा...!

औरत : नहीं, कोई नहीं देखेगा, आजकल महल का यह हिस्सा बिल्कुल सन्नाटा रहता है और सिवाय मेरे इस तरफ कोई कभी नहीं आता।

औरत ने वह शीशी दारोगा से लेकर अपनी कमर में छिपा ली और तब तहखाने का दरवाजा खोल ऊपर आई। दारोगा कुछ देर तक तहखाने के अन्दर ही रहा और जब उस औरत ने चारों तरफ घूम-फिर कर इस बात का विश्वास कर लिया कि वहाँ कोई उन लोगों को देखने वाला नहीं है तो उसने दारोगा साहब को भी ऊपर बुला लिया।

दोनों आदमी पुनः उसी दरवाजे के पास पहुँचे जिसकी राह उस औरत ने दारोगा को महल के भीतर किया था। उस औरत ने दरवाजा खोला और बाहर की तरफ झाँका। यद्यपि सुबह हो गई थी तथापि उस जगह या आस-पास में कहीं कोई आदमी चलता-फिरता दिखाई नहीं देता था।

औरत ने दारोगा को यह बात बताई और दारोगा लबादे से अपने को अच्छी तरह लपेटे हुए महल के बाहर निकला। बाहर निकलते-निकलते उसने धीमे स्वर में औरत से कहा, ‘‘देखे, काम अगर होशियारी से और आज ही समय के अन्दर हो गया तो फिर तुम्हारे ऐसा भाग्यवान कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ेगा।

दारोगा : आज से दो बरस के भीतर ही सबसे पहिले मैं तुम्हें जमानिया की महारानी कहकर पुकारूँगा।’’ उस औरत ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘आप ऐसे मेहरबान को पाकर मैं आज भी अपने बराबर भाग्यवान किसी को नहीं समझती। तो इस मामले में आप बिल्कुल बेफिक्र रहें और समझ लें कि आज शाम होने के पहिले आपकी दवा महाराज के पेट के अन्दर पहुँच जाएगी—आगे असर होना आपकी दवा के आधीन है।’’

दारोगा : ओह उस तरफ से मुझे पूरा इतमीनान है।

औरत : मगर देखिए आप केवल कुँअर साहब वाले वादे को ही नहीं बल्कि उस पहिले वादे को भी पूरा करने का खयाल रखिएगा।

दारोगा : हाँ-हाँ जी, उस बारे में तो मैं कसम खा ही चुका हूँ और यह भी कह चुका हूँ कि फिर तुम्हारी कोई जरूरत बाकी न रह जाएगी—बशर्ते कि तुम अपना काम ठीक तरह से पूरा करो।

औरत : (मुस्कुराते हुए) मुझे भी आप अपने काम और वादे में उतना ही सच्चा पाइएगा जितना कि अपने को।

दारोगा : अच्छा तो मैं जाता हूँ।

उस औरत ने दरवाजा भीतर से बंद कर लिया और दारोगा साहब अपने को छिपाए हुए बाग की चहारदीवारी की तरफ बढ़े। भाग्यवश उन पर किसी की निगाह न पड़ी और वे सहज ही में बाग के बाहर हो गए। इस समय वे बड़े ही प्रसन्न थे और काम पूरा होने की उम्मीद पाकर उनका चेहरा चमक रहा था।

लम्बे-लम्बे डग बढ़ाते हुए दारोगा साहब वहाँ से रवाना हुए और बहुत शीघ्र ही अपने मकान में आ पहुंचे।

।। ग्यारहवाँ भाग समाप्त ।।

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