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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान


भूतनाथ के जाने के बाद कुछ देर तक तो कमरे में पूरा सन्नाटा रहा इसके बाद जैपाल ने लाचारी की निगाह से दारोगा साहब की तरफ देखा और कहा, ‘‘यह कम्बख्त तो सब मामला बिगाड़ना चाहता है।’’

दारोगा : न मालूम उसे इस बात की खबर क्योंकर लगी!

जैपाल : चाहे जैसे भी लगी हो पर इसमें कोई शक नहीं कि यह अब बिना कुछ उत्पात मचाए न रहेगा। उसने जो यह कहा कि दामोदरसिंह ने सभा का सब हाल...।

दारोगा : हाँ, उसका यह कहना बिल्कुल ठीक है, मुझे इस बात का पक्का पता लग चुका है और मैं इसी कोशिश में था कि उसके मार-पीट या तकलीफ देकर पता लगाऊँगा कि किसको उसने वे कागजात दिए हैं, क्योंकि वे यदि हाथ न आए तो सब भण्डा फूट जायगा और मैं कहीं का भी न रहूँगा, पर उस कम्बख्त ने बहुत तकलीफ उठाने पर भी कुछ नहीं बताया, मगर अब सवाल यह है कि भूतनाथ को यह बात क्योंकर मालूम हुई।

जैपाल : बेशक, मगर अब सब से पहिले आपको दामोदरसिंह की हिफाजत का बन्दोबस्त करना चाहिए, क्योंकि अब अगर किसी तरह भूतनाथ ने उसका पता लगा लिया तो बड़ी ही मुश्किल होगी।

दारोगा : तुम्हारा कहना बिल्कुल ठीक है, इसी बात का बन्दोबस्त करूँगा। अब संध्या तो हुआ ही चाहती है, कुछ और अंधेरा होने दो तो इन्तजाम किया जाय।

इतने ही में दरबान ने आकर कहा, ‘‘ऐयार मायासिंह आए हैं और कोई जरूरी बात कहना चाहते हैं।’’

दारोगा ने ‘‘भेज दो’’ कहा और थोड़ी ही देर बाद मायासिंह कमरे के अंदर आता हुआ दिखाई पड़ा। दारोगा को सलाम कर इशारा पा वह सामने बैठ गया और जैपाल ने उससे पूछा, ‘‘क्या है? कोई नई बात है।’’

माया० : जी हाँ हम लोगों को पता लगा है कि जिस औरत को उस दिन मनोरमा अपने साथ लाई थी और जिसने अपना नाम सुन्दरी बताया था तथा जिसे आपने कोई बहुत ही गुप्त काम सौंपा था...

जैपाल : हाँ हाँ, उसका क्या हुआ?

माया० : उसे किसी दूसरी धूर्त ऐयारा ने गिरफ्तार कर लिया है जो अब स्वयं उनकी सूरत बन आप लोगों से मिलना और अपना कोई काम निकालना चाहती है।

दारोगा : (चौंक कर) क्या सचमुच सुन्दरी गिरफ्तार हो गई? जिसने उसे गिरफ्तार किया वह औरत कौन है?

माया० : यह तो मैं नहीं जानता कि कि वास्तव में कौन है वह लौहगढ़ी में रहती है।

इतना सुनते ही दारोगा ने एक भेद भरी निगाह जैपाल पर डाली और उसने भी विचित्र मुद्रा से गर्दन हिलाई, इसके बाद दारोगा ने मायासिंह से कहा, ‘‘अच्छा तुम्हें क्योंकर इस बात का पता लगा, सब खुलासा कह जाओ।’’

‘‘बहुत खूब कह कर मायासिंह ने इस प्रकार कहना शुरू किया—‘‘आपकी आज्ञानुसार मैं आज लोहगढ़ी वाले जंगल में चक्कर लगा रहा था कि दो आदमियों के बातचीत करने की आवाज मेरे कान में पड़ी। मैं एक पेड़ की आड़ में हो गया और यह जानने की कोशिश करने लगा कि यह आवाज किधर से आती है या किसकी है। थोड़ी ही देर बाद मेरी आँखों ने दो आदमियों को ढूँढ़ निकाला जो काले कपड़े पहिने और नकाबों से अपने चेहरों को छिपाये हुए पेड़ों की आड़ देते लोहगढ़ी की तरफ से आ रहे थे। उनकी चाल ढाल देखकर मुझे शक मालूम हुआ और मैं भी छिपता हुआ उनके पीछे-पीछे जाने लगा।

उन दोनों की पोशाकें तो एक ही रंग-ढंग की थीं पर बातचीत से मालूम हुआ कि एक तो वही औरत यानी आपकी ऐयारा सुन्दरी है और दूसरा उसका कोई साथी।

‘‘जब वे दोनों अजायबघर के पास पहुँचे तो वह आदमी सुन्दरी से विदा हो किसी दूसरी तरफ चला गया और मैं यह सोचने लगा कि आगे बढ़ कर उससे मिलूँ और कुछ बातचीत करूँ मगर इसी समय सामने से घोड़े पर सवार दो आदमी आते दिखाई पड़े जिन्हें देख मैं रुक गया और सुन्दरी भी एक पेड़ की आड़ में होने की कोशिश करने लगी पर उन दोनों की निगाहें उस पर पड़ चुकी थीं क्योंकि उनमें से एक सवार जिसका चेहरा नकाब से ढका था लपक कर उसके पास पहुँचा और कमर से तलवार खींच डपट कर बोला, ‘‘सच बता तू कौन है!’’

सुन्दरी यह हाल देख कर कुछ सहम-सी गई और उसने कुछ बहाना कर अपनी जान बचानी चाही पर सवार ने मौका नहीं दिया और अपने घोड़े का ऐसा झपेटा उसे दिया कि वह सम्हल न सकी और जमीन पर गिर पड़ी। वह सवार घोड़े से कूद उसकी छाती पर चढ़ बैठा पर तुरन्त ही यह कर अलग हो गया कि ‘ओह, यह तो कोई औरत है’। उसका साथी सवार भी पास आ गया और तब दोनों ने मिल जबरदस्ती सुन्दरी की तलाशी ली। दोनों आपुस में कुछ बातें भी करते जाते थे पर दूर होने के कारण मैं उन्हें सुन न सका।

सुन्दरी के बटुए की तलाशी ले उन लोगों ने उसमें से कोई जरूर चीज निकाल ली और तब उस दूसरे सवार ने, जो बातचीत से औरत मालूम होती थी सुन्दरी को अपने साथी के हवाले करके कहा कि ‘‘हम लोगों का काम अब बड़ी खूबसूरती से निकलेगा।

तुम इस कम्बख्त को ले जाकर कैद करो और मैं इसकी सूरत बन कर दारोगा को धोखा दे अपना काम निकालती हूँ’। उसकी इस बात से मैंने समझा कि वह औरत है।’’

दारोगा : (ताज्जुब से) अच्छा तब?

माया० : उसका साथी सुन्दरी को बेहोश कर घोड़े पर लाद लोहगढ़ी की तरफ चला गया और इधर वह औरत अपने घोड़े पर सवार हुई। मैंने चाहा कि उसका पीछा करूँ और यदि हो सके तो उसे गिरफ्तार कर लूँ पर ऐसा न हो सका, क्योंकि वह घोड़ा तेज कर निकल गई अस्तु मैंने उस दूसरे आदमी का पीछा किया जो सुन्दरी को ले गया था और अभी बहुत दूर नहीं जा पाया था। सुन्दरी को लिए हए वह सीधा लोहगढ़ी तक चला गया और मेरे सामने ही फाटक खोल अन्दर घुस गया। मैंने कुछ देर तक इधर-उधर घूम-फिर कर उसकी राह देखता रहा कि शायद वह पुनः बाहर निकले पर वह जब नहीं आया तो आपको खबर देना जरूरी समझ मैं इधर आ रहा हूं।

दारोगा : यह तुमने बहुत अच्छा किया, मगर खबर बुरी सुनाई। सुन्दरी का गिरफ्तार हो जाना अच्छा नहीं हुआ। यद्यपि यह तो मैं नहीं जानता कि वास्तव में वह कौन थी पर इसमें शक नहीं कि बहुत चालाक औरत थी। हम लोगों के कई भेद उसे मालूम थे और साथ ही उससे बहुत से काम निकलने की भी आशा थी।

जैपाल : इसमें कोई शक नहीं कि उसके पकड़े जाने से हम लोगों का बहुत नुकसान होगा।

दारोगा : जरूर क्योंकि (धीरे से) बलभद्रसिंह वाली चीठी तो उसके पास थी ही, मेरी वह चीठी भी उसके पास होगी जो मैंने हेलासिंह के नाम लिख दी थी।

जैपाल : तब तो जहाँ तक मैं समझता हूं इस समय सबसे जरूरी यह है कि आप फौरन हेलासिंह को इस बात की खबर दे दें, क्योंकि सुन्दरी को गिरफ्तार करने वाली चाहे कोई भी क्यों न हो— वह जरूर हेलासिंह से मिलेगी और चीठी द्वारा उन्हें धोखे में डालेगी।

इतना कह कर जैपाल ने झुक कर बहुत धीरे से दारोगा के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही दारोगा एकदम चौंक कर बोल उठा, ‘‘बेशक तुम्हारा ख्याल बहुत ठीक है, हेलासिंह के पास लोहगढ़ी की ताली है और उस ताली के बिना लोहगढ़ी में पूरा दखल कोई भी जमा नहीं सकता, अस्तु कोई ताज्जुब नहीं कि मालती उस ताली को लेने के वास्ते ही...।’’ इतना कहते-कहते दारोगा एकाएक रुक गया, माने उसके मुँह से कोई ऐसी बात निकल गई जिसे मायासिंह के सामने निकालना मुनासिब नहीं था।

कुछ देर तक दारोगा गम्भीर चिन्ता में डूबा तरह-तरह के सोच-विचार करता रहा, इसके बाद उसने सिर उठा कर मायासिंह की तरफ देखा और कहा, ‘‘अच्छा मायासिंह, तुम एक काम करो।’’

माया० : जो हुक्म।

दारोगा : तुम इसी समय हेलासिंह के पास जाओ।

माया० : बहुत खूब।

दारोगा : उस ऐयारा सुन्दरी को मैंने एक जरूरी काम के लिए हेलासिंह के पास भेजा था, बल्कि अपनी चीठी भी उसे दी थी। मैं समझता हूँ कि जब सुन्दरी गिरफ्तार हो गई तो उसके पकड़ने वाली औरत उसकी सूरत बन हेलासिंह के पास जायगी और उन्हें धोखा देगी।

माया० : तो क्या मैं जाकर हेलासिंह को होशियार कर दूँ?

दारोगा : सिर्फ होशियार ही न करो बल्कि जिस तरह से हो सके उस औरत को भी गिरफ्तार कर लाओ जिसकी यह कार्रवाई है।

माया० : बहुत अच्छा।

दारोगा : तो बस तुम इसी समय चले जाओ क्योंकि मुझे तुम्हारी बात सुनकर बहुत सख्त तरद्दुद हो गया है अगर तुम उस औरत को गिरफ्तार करके ला सके तो मैं बहुत खुश हूँगा और तुमको मुँहमाँगा इनाम दूँगा।।

माया० : (सलाम करके) बहुत खूब, मैं अभी रवाना होता हूँ।

दोरागा : हाँ जाओ।

मायासिंह ने खड़े होकर पुनः सलाम किया और कमरे के बाहर निकल गया। दारोगा और जैपाल को इसी तरह छोड़ हम अब कुछ देर के लिए मायासिंह के साथ चलते हैं और देखते हैं कि वह किधर जाता या क्या करता है।

दारोगा साहब के मकान से निकल जिस समय मायासिंह जमानिया के बाहर हुआ उस समय संध्या होने में दो घण्टे से ऊपर न बाकी होगा।

अब तक तो मायासिंह तेजी के साथ चलता आया पर अब उसने अपनी चाल कम कर दी और कुछ सोचता हुआ सिर नीचा किए इस तरह जाने लगा मानो उसे दारोगा साहब के काम की कोई फिक्र न रह गई और वह अपनी ही किसी चिन्ता में पड़ गया है, यहाँ तक कि एक कूँए के पास पहुँचकर तो वह बिल्कुल ही रुक गया और उसकी जगत पर बैठ कुछ सोचने लगा।

लगभग आधी घड़ी तक वह इसी तरह बैठा रहा। इसके बाद एक लम्बी साँस के साथ यह कहता हुआ उठ खड़ा हुआ, ‘‘खैर तो उधर ही चलूँ, शायद कुछ काम बन जाय।’’ पर उसी समय उसकी निगाह एक नकाबपोश पर पड़ी जो कुएँ की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जगत पर आ रहा था और अपनी चिन्ता में मग्न रहने के कारण जिसके आने की कोई भी आहट मायासिंह ने नहीं पाई थी। इस नकाबपोश की पीठ पर एक बड़ी गठरी थी जिसमें किसी आदमी के होने का शक हर एक ऐयार को हो सकता था।

इस नकाबपोश को आता देख न जाने क्यों मायासिंह कुछ सहम-सा गया उसने एक गहरी निगाह उस पर तथा उसकी पीठ वाली गठरी पर डाली तब बगल देता हुआ उस नकाबपोश के दूसरी तरफ निकल जाने के लिए घूमा मगर नकाबपोश के डपट कर यह कहने पर कि ‘खबरदार, मेरी बातों का जवाब दिए बिना कहीं जाने का इरादा न करना’ वहीं रुका रह गया।

नकाबपोश ने पीठ की गठरी उतार धीरे से जमीन पर रख दी और तब मायासिंह के सामने आ बहुत गौर से उसकी सूरत देखने बाद कहा, ‘‘तुम कौन हो?’’

माया० : मैं कोई भी होऊँ तुम्हें इसके पूछने से मतलब?

नकाब० : कुछ मतलब होगा तभी तो पूछते हैं।

माया० : जब तक मैं यह न जान लूँ कि तुम मेरे दोस्त हो या दुश्मन मैं तुम्हें अपना परिचय नहीं दे सकता।

नकाब० : (जोर से हँसकर) तो क्या तू समझता है कि मैं तुझे पहिचानता नहीं हूँ!

माया० : अगर पहिचानते हो तो फिर पूछते क्यों हो?

नकाब० : इसीलिए कि जब एक मायासिंह (गठरी की तरफ बताकर) इस गठरी में मौजूद है तो मेरे सामने यह दूसरा मायासिंह कौन दिखाई पड़ रहा है!

माया० : (जिसकी आवाज से मालूम होता था कि वह घबड़ा गया है) नहीं नहीं, सो भला कैसे हो सकता है?

नकाब० : (पुनः हँसकर) अगर विश्वास न हो तो गठरी खोलकर देख ले।

माया० : (लड़खड़ाती हुई आवाज में) भला मेरे रहते दूसरा मायासिंह कहाँ से आ सकता है! अगर तुमने किसी मायासिंह को पकड़ा है तो वह जरूर कोई दगाबाज है।

नकाब० : अगर ऐसा ही है तो क्यों नहीं तुम उसे देखकर अपना और साथ ही में मेरा भी शक दूर कर देते! इसमें कोई तरद्दुद नहीं क्योंकि वह ऐयार सामने मौजूद है और अगर तुम्हारे पास नहीं तो कम-से-कम मेरे पास लोटा–डोरी भी तैयार है।

माया० : हाँ-हाँ, मैं जरूर ऐसा करूँगा और देखूँगा कि तुम किस आदमी को मायासिंह बनाकर ले आए हो। मगर मैं डरता हूँ कि कहीं तुम्हारी बातों में किसी तरह का धोखा न हो और तुम पीछे से मुझ पर वार न कर बैठो।

इतने सुनते ही उस नकाबपोश ने यह कहकर अपनी नकाब पीछे उलट दी ‘‘छीः छीः, क्या तैने गदाधरसिंह को ऐसा समझ रक्खा है कि तेरे ऐसे नौसिखे लौंडे के साथ वह इस तरह की गन्दी धोखेबाजी करेगा!’’

यह बात सुनते ही और भूतनाथ की शकल देखते ही मायासिंह के रहे-सहे हवास भी गायब हो गए और वह एकदम कुएँ पर से कूदकर मैदान की तरफ भागा, मगर भूतनाथ इसके लिए भी तैयार था। मायासिंह के साथ वह कुएँ पर से कूदा और थोड़ी दूर जाते-जाते उसको पकड़ लिया। इस छीना-झपटी में मायासिंह का मुंडासा जमीन पर गिर पड़ा और लम्बे जनाने बाल पीठ पर लहराने लगे जिसे देख भूतनाथ ने ताज्जुब से कहा, ‘‘हैं, क्या तू औरत है?’’

नकली मायासिंह ने कुछ जवाब न दिया मगर भूतनाथ उसका हाथ पकड़े घसीटता हुआ उसे पुनः कुएँ पर ले आया और डपट कर बोला, ‘‘सच बता तू कौन है?’’ अपने बचाव की कोई सूरत न देख लाचार हो उस ऐयारा ने कहा, ‘‘मेरा नाम गिल्लन है।’’ भूतनाथ यह सुन बोला, ‘‘कौन गिल्लन? वही जो शेरअलीखाँ की लड़की के साथ रहा करती है?’’

गिल्लन : जी हाँ।

भूत० : इसके पहिले कि मैं तुझसे पूँछूँ कि तुझे मायासिंह की सूरत बनने की क्या जरूरत पड़ी मैं तेरा चेहरा धोकर अपना शक दूर किया चाहता हूँ। खबरदार भागने का इरादा मत करियो!

भूतनाथ ने अपने बटुए में से कपड़े का छोटा डोल और पतली रस्सी निकाली और कूएँ से पानी खैंच गिल्लन के सामने रक्खा। उसने पानी से अपना मुँह अच्छी तरह धोकर साफ किया और भूतनाथ ने गौर के साथ उसका चेहरा देख कर कहा, ‘‘हाँ अब मुझे विश्वास हो गया, तू इधर आकर बैठ और मेरी बातों का जवाब दे। घबड़ा मत, अगर तू सच-सच मेरी बातों का जवाब देगी तो तुझे कुछ भी तकलीफ न दूंगा बल्कि एकदम छोड़ दूँगा, लेकिन अगर तूने कोई झूठी बात कहकर धोखा देना चाहा तो फिर समझ रख कि तेरी जान की खैर नहीं।’’

गिल्लन : मैं कसम खाकर कहती हूं कि जो कुछ आप पूछेंगे उसका ठीक-ठीक जवाब दूँगी।

भूत० : (जगत के एक कोने पर बैठकर और गिल्लन को सामने बैठने का इशारा करके) अच्छा तो यहाँ बैठ जा और बता कि तुझे मैं इस सूरत में क्यों देख रहा हूँ और तेरी सखी गौहर कहाँ है?

गिल्लन : गौहर गिरफ्तार हो गई और मैं उसी को छुड़ाने के लिए इस समय भेष में घूम रही हूँ।

भूत० : उसे किसने गिरफ्तार किया?

गिल्लन : यह तो मैं नहीं कह सकती कि उसे गिरफ्तार करने वाला कौन है या उसका नाम क्या है पर इतना जानती हूँ कि वह एक औरत है जो लोहगढ़ी में रहती है।

लोहगढ़ी का नाम सुन भूतनाथ कुछ चिहुँका और उसके माथे पर दो-तीन बल इस तरह के पड़ गए मानों वह कुछ सोच रहा है। कुछ देर बाद उसने कुछ कड़ी आवाज में कहा, ‘‘देख गिल्लन, मैं तुझे और तेरी गौहर दोनों ही को बखूबी जानता हूँ और यह भी अच्छी तरह समझता हूँ कि तुम दोनों परले सिरे की मक्कार और बदकार हो, साथ ही यह भी मुझे मालूम हो चुका है कि तुम दोनों का वार मुझ पर भी हो चुका और फिर होने वाला है। मैं तुम दोनों ही को गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़ा था, बल्कि गौहर को गिरफ्तार कर भी चुका था पर न जाने किस तरह वह मेरी घाटी में से गायब हो गई।

अब तुझे मैं कब्जे में कर पाया हूँ तो यह अच्छी तरह समझ रख कि तुझे खूब सताऊँगा और इस दरजे की तकलीफ पहुँचाऊँगा कि तू भी जन्म भर याद रक्खेगी। हाँ अगर तू अपना और गौहर का सब हाल साफ-साफ कह दोगी और कोई बात मुझसे छिपा के न रक्खेगी तो मैं वादा करता हूँ कि तुझे छोड़ दूँगा, नहीं तो...।।

गिल्लन : मैं सच-सच कहती हूँ कि आपसे कुछ भी न छिपाऊँगी,

भूत० : अच्छा तो तू ठीक-ठीक बता तेरे और गौहर के यहाँ आने जाने का कारण क्या है और अब तक तुम लोग क्या कर चुकी हो। मगर इस बात को खूब समझे रख कि तुम दोनों की बहुत कुछ बातें मुझे मालूम हो चुकी हैं और अगर तू कहीं भी झूठ बोलेगी तो मैं तुरन्त पकड़ लूँगा, फिर तेरे लिए कुशल नहीं रहेगी।

गिल्लन : मैं बिल्कुल ठीक-ठीक सब हाल बताऊंगी।

भूत० : अच्छा तो फिर शुरू कर क्योंकि समय कम है और मुझे बहुत कुछ काम करना है।

गिल्लन कुछ देर तक चुप रही और तब उसने इस तरह कहना शुरू किया :—

‘‘आपको मालूम ही होगा कि गौहर की असली माँ लगभग साल भर के हुआ गुजर गई और उसकी सौतेली माँ रह गई है।’’

भूत० : हाँ यह मुझे मालूम है!

गिल्लन : कुछ तो अपनी माँ के मरने और कुछ और भी सबबों के गौहर का मिजाज बिगड़ गया और वह बीमार पड़ गई।

बहुत कुछ दवा–इलाज के बाद वह कुछ राह पर आई और हकीमों ने उसको बाहर घूमने-फिरने को कहा। खुद गौहर की भी वही मर्जी थी इसलिए बहुत कुछ कह-सुनकर उसने खाँ साहब से इसकी इजाजत ले ली खाँ साहब ने बहुत से आदमी भी उसके साथ कर दिए पर कुछ दिनों के बाद उसने सभों को धता बताया और सिर्फ मुझे अपने साथ रक्खा। उसे ऐयारी का बहुत शौक था और मेरी मदद से उसने कुछ ऐयारी करना सीखा भी।

घूमती-फिरती हम दोनों शिवदत्तगढ़ पहुँची जहाँ गौहर ने शिवदत्तसिंह से मुलाकात की। (कुछ रुककर) मुख्तसर यह कि शिवदत्त ने अपनी मीठी बातों में गौहर को अच्छी तरह फँसा लिया और गौहर ने उसके कहे मुताबिक काम करना मंजूर कर लिया। शिवदत्तसिंह के बहुत से दुश्मन भागकर जमानिया आ गए थे जिनको गिरफ्तार करने का बीड़ा गौहर ने उठाया शिवदत्तसिंह ने कई तरह से उसकी मदद की और उन दुश्मनों के नाम-धाम पते-ठिकाने से आगाह किया।

भूत० : वे दुश्मन कौन हैं?

गिल्लन : सभों के नाम तो मुझे इस समय याद नहीं हैं तो भी प्रभाकरसिंह, इन्दुमति, दलीपशाह और शेरसिंह और आप उनमें जरूर हैं।

भूत० : दलीपशाह और शेरसिंह भी?

गिल्लन : जी हाँ, अगर मेरी याददाश्त मुझे धोखा नहीं देती तो बेशक ये दोनों भी।

भूत० : (कुछ सोचकर) क्या तू कह सकती है कि शिवदत्त को इन दोनों से दुश्मनी की क्या वजह हो गई?

गिल्लन : जी नहीं, मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती, गौहर शायद कुछ जानती हो।

भूत० : खैर अच्छा तब?

गिल्लन : हम दोनों जमानिया पहुँचे और गौहर को दारोगा साहब और हेलासिंह वगैरह की एक ऐसी कार्रवाई का पता लगा कि जिसका ख्याल कभी स्वप्न में भी नहीं हो सकता था, मगर आपको खाँ साहब की चीठी की बदौलत वह सब हाल मालूम हो ही चुका होगा।

भूत० : कैसा हाल? कैसी चीठी? मुझे कुछ नहीं मालूम!

गिल्लन : आपने जब गौहर को गिरफ्तार किया तो उसकी तलाशी में एक चीठी पाई होगी।

भूत० : नहीं, न तो मैंने उसी तलाशी ही ली थी और न मुझे चीठी ही मिली। वह कैसी चीठी थी, उसमें क्या लिखा था?

गिल्लन : सुनिए मैं सब हाल कहती हूँ। हम दोनों के जमानिया जाने पर पता लगा कि दारोगा साहब और हेलासिंह बलभद्रसिंह के दुश्मन हो रहे हैं और उनकी तथा उनकी लड़कियों की जान लिया चाहते हैं।

भूत० : (चौंक कर) क्या कहा?

गिल्लन : जी यही कि हेलासिंह वगैरह बलभद्रसिंह और उनकी लड़कियों की जान लिया चाहते हैं।

भूत० : यह तुम लोगों ने कैसे समझा?

गिल्लन : केवल समझा ही नहीं हम लोगों को इस बात का पक्का सबूत भी मिला मगर जरूर आपको भी यह बात मालूम होगी?

भूतनाथ : (कुछ सोचता हुआ) हाँ... शक... तो... वह... मामला... हाँ... खैर आगे कह फिर क्या हुआ?

गिल्लन : गौहर को पता लगा कि इस मामले में दारोगा साहब बहुत गहरी कार्रवाही कर रहे हैं अस्तु हम लोगों ने यह निश्चय किया कि इसकी खबर खाँ साहब को दे देनी चाहिए, क्योंकि बलभद्रसिंह से खाँ साहब की दिली दोस्ती है, अस्तु हम दोनों खाँ साहब के पास लौटे और वहाँ इस मामले में जो कुछ गौहर ने पता पाया था वह उनसे कहा।

सुन कर वे दारोगा साहब से बड़े ही नाराज हुए और उसी समय अपने हाथ से एक चीठी बलभद्रसिंह को इस बारे में लिखकर गौहर के सुपुर्द कर सख्त ताकीद की कि बलभद्रसिंह से मिलकर इन सब बातों की खबर दे दे मगर साथ ही यह भी हुक्म दिया कि सिवाय खबर देने के इस मामले में और कोई काम न करे क्योंकि वैसा करने से दारोगा से दुश्मनी होने का डर था। वह चीठी लेकर गौहर यहाँ पहुँची मगर अपने को बचा न सकी और दुश्मनों के फन्दे में पड़ गई।

भूत० : अच्छा अच्छा, अब तू यह बता कि जब मैंने गौहर को गिरफ्तार कर लिया तो वह कैसे छूटी और छूटकर उसने क्या-क्या किया तथा वह चीठी अब कहाँ है?

गिल्लन यह सवाल सुन कुछ रुकती हुई बोली, ‘‘शिवदत्त के कई ऐयार यहाँ आये हुए हैं, उन्होंने आपकी घाटी में से गौहर को छुड़ाया था।’’

भूतनाथ : (गौर से गिल्लन की सूरत देखकर) क्या तू ठीक कहती है?

गिल्लन : जी हाँ, मैं बिल्कुल ठीक कहती हूँ।

भूत० : खैर तब? छूट कर उसने क्या किया?

गिल्लन : जब आपकी कैद से गौहर छूटी तो उसे सबसे पहिले बलभद्रसिंह से मिलकर चीठी उन्हें देने की फिक्र हुई, पर वह चीठी उसके पास से गायब हो चुकी थी और हम लोगों का ख्याल हुआ कि आप ही ने उसे निकाल लिया है।

भूत० : नहीं-नहीं, मैंने कहा न कि न तो मैंने गौहर की तलाशी ली और न कोई चीठी ही पाई।

गिल्लन : तो जरूर उसने कहीं और गंवा दी होगी।

भूत० : खैर तो फिर तुम लोग बलभद्रसिंह के पास गईं?

गिल्लन : जी नहीं, चीठी खो जाने का गौहर को बहुत अफसोस हुआ और यद्यपि मैंने बहुत कहा चीठी गई तो जाने दे तू खुद चलकर जुबानी ही सब हाल बता दे, मगर वह राजी न हुई और बोली कि इस बारे में मैं और कुछ पता लगा कर तभी चलूंगी। इसी फिक्र में वह मनोरमा से मिली।

भूत० : मनोरमा से? गौहर उसको कैसे जानती है?

गिल्लन : गौहर उससे असली भेष में नहीं मिली बल्कि ऐयारी के ढंग से सूरत बदल कर मिली।

भूत० : मगर क्यों?

गिल्लन : जिसमें उसकी मदद से वह दारोगा और हेलासिंह से मिल सके, पर इस काम में भी उसे धोखा खाना पड़ा।

भूत० : वह कैसे?

गिल्लन : गौहर मनोरमा को कुछ मामूली भेद की बातें बता कर अपने ऊपर मेहरबान बना लिया और उसने इसे दारोगा से मिलाने का वादा किया।

उसी के कथानानुसार गौहर दारोगा साहब से मिलने के लिए जमानिया पहुँची पर मुलाकात होने के पहिले ही किसी ने उसे गिरफ्तार कर लिया। पहिले तो मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि गिरफ्तार करने वाला कौन है पर कल मुझे इस बात का पता लगा कि वह एक औरत है जो लोहगढ़ी में रहती है।

भूत० : यह कैसे मालूम हुआ?

गिल्लन : अपनी सखी की खोज में मैं इधर-उधर घूम रही थी कि रात के समय एक कुएँ के पास पहुँची जहाँ एक औरत और मर्द खड़े हुए बातें कर रहे थे मैंने उन दोनों को देख अपने को छिपा लिया जिससे वे मुझे देख न सके और कुछ बातें करने के बाद अजायबघर की तरफ रवाना हुए और मैं भी उनकी बातें सुनती हुई उनके पीछे-पीछे जाने लगी।

थोड़ी ही देर में मालूम हो गया कि उसी औरत ने गौहर को गिरफ्तार किया था और स्वयं उसकी सूरत बन दारोगा साहब से मिली थी। वह मर्द थोड़ी ही देर बाद कहीं चला गया पर मैंने उस औरत का पीछा करके पता लगा लिया कि वह लोहगढ़ी में रहती है। (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, चौदहवाँ बयान।)

भूत० : अच्छा तू इस समय मायासिंह का रूप किस नीयत से धारण किये हुए?

गिल्लन : सो भी बताती हूं। सखी गौहर को छुड़ाना तो जरूरी था पर उस लोहगढ़ी के अन्दर जाना मेरी सामर्थ्य के बाहर है अस्तु सिवाय दारोगा साहब या हेलासिंह की मदद के गौहर को उस जगह से छुड़ा नहीं सकती थी।

यदि मैं असली रूप में दारोगा साहब से मिलती और सब हाल ठीक-ठीक कहती तो भला दारोगा गौहर को क्यों छुड़ाने लगा था जिसको वह अपना दुश्मन समझता होगा, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह मुझे भी गिरफ्तार कर लेता, अस्तु मैंने यही मुनासिब समझा कि ठीक हाल न कह उसे यह कहूँ कि सुन्दरी (गौहर) को लोहगढ़ी में रहने वाली किसी ऐयारा ने गिरफ्तार कर लिया है और स्वयं उसकी सूरत बन आपको धोखा दिया चाहती है।

ऐसी हालत में जरूर दारोगा साहब लोहगढ़ी में जा उस ऐयारा को गिरफ्तार करते और इस तरह पर गौहर को भी रिहाई मिलती, अस्तु यही सोच कर मैंने दारोगा साहब के ऐयार मायासिंह को गिरफ्तार किया जो आजकल अजायबघर के चारों तरफ चक्कर लगाया करता है और उसकी सूरत बन दारोगा साहब से मिली।

सच-झूठ बोल कर मैंने उन्हें विश्वास दिला दिया कि सुन्दरी (गौहर) गिरफ्तार हो गई। वे सुनकर बहुत घबड़ाये और अपने दोस्त जैपालसिंह से सलाह कर मुझे हेलासिंह के पास जाने का हुक्म दिया। उन्हीं की आज्ञानुसार मैं यहाँ आकर बैठी थी और सोच रही थी कि अब क्या करना चाहिये कि आप नजर आये।

भूत० : मगर दारोगा ने तुझे हेलासिंह के पास जाने के वास्ते किसलिए कहा?

गिल्लन : ऐसा मालूम होता कि कि गौहर की सूरत बन वह ऐयारा दारोगा साहब से मिली थी और उन्होंने उसे किसी गुप्त विषय की चीठी दे हेलासिंह के पास भेजा था। उसी के बारे में होशियार करने के लिए मुझे हेलासिंह के पास जाने का हुक्म हुआ है। (रुक कर) जो कुछ हाल था सो सब मैंने सच-सच कह सुनाया, अब उम्मीद है कि आप अपने वादे का ख्याल कर मुझ बेकसूर को छोड़ देंगे।

कम्बख्त गिल्लन कई मौकों पर झूठ बोल गई और कई बातों को छिपा भी गई, जैसा कि हमारे पाठक अवश्य समझ गये होंगे, परन्तु भूतनाथ भी एक ही काइयाँ था। वह समझ गया कि इस ऐयारा ने सब बातें ठीक-ठीक कभी न कही होंगी अस्तु इसे अभी छोड़ा मुनासिब न होगा। यह सोच उसने कहा, ‘‘मैं तुझे छोड़ तो अवश्य दूँगा पर इस बात का इतमीनान कर लेने के बाद कि जो कुछ तैने कहा वह सच है।

इतना कह भूतनाथ ने जोर से जफील बजाई। जवाब में दूर से सीटी बजने की आवाज आई और थोड़ी देर बाद दो आदमी दौड़ते हुए उसी तरफ आते दिखाई पड़े जो एक बेहोश को उठाये ला रहे थे। यो दोनों भूतनाथ के शागिर्द थे जिन्होंने उसका इशारा पा उस बेहोश को जमीन पर लिटा दिया और सामने आ खड़े हुए।

भूत० : (दोनों शागिर्दों से) किसको लाए, गोविन्द को?

एक शागिर्द : जी हाँ, आपने मायासिंह को कब्जे में कर लिया? (गिल्लन की तरफ देखते हुए) या...

भूत० : (हँसते हुए) इस कम्बख्त की तरफ मत देखो, यह गौहर की सखी गिल्लन है जो मायासिंह बनी हुई थी। असली मायासिंह उस गठरी में बंधा हुआ है इस कम्बख्त ने बेहोश करके एक झाड़ी में डाल दिया था। तुम्हें गोविन्द को गिरफ्तार करने में कोई तरद्दुद तो नहीं उठाना पड़ा?

शागिर्द : जी कुछ भी नहीं, ये लोग भी क्या ऐयार कहलाने लायक हैं! व्यर्थ ही ऐसे लोगों ने ऐयारी के नाम को बदनाम कर रक्खा है। मेरी एक मामूली चालाकी में यह फँस गया।

भूत० : ठीक है, अच्छा तुम अपनी सूरत गोविन्द की बनाओ मगर जल्दी करो। (दूसरे शागिर्द से) और तुम फुर्ती से मेरी सूरत मायासिंह की सी बना दो। मैं खुद ही बना लेता पर इसमें देरी लगेगी और इस समय वक्त बिल्कुल नहीं है।

थोड़ी ही देर बाद भूतनाथ का एक शागिर्द गोविन्द की सूरत में और खुद भूतनाथ मायासिंह की शक्ल में दिखाई पड़ने लगा। भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और अपने दूसरे शागिर्द से बोला, ‘‘देखो गोपीनाथ, यह कम्बख्त गिल्लन और ये दोनों बेहोश गोविन्द और मायासिंह तुम्हारी हिफाजत में छोड़े जाते हैं। इनको चाहे जहाँ ले जा कर रक्खो मगर होशियार रहो क्योंकि अगर इनमें से कोई भी छूट जाएगा तो मुझे सख्त मुश्किल में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि मैं एक नाजुक काम पर जा रहा हूँ।’’ इसके जवाब में गोपीनाथ ने कहा, ‘‘आप बेफिक्र रहें, मैं इन तीनों पर पूरी खबरदारी रक्खूँगा।’’

भूतनाथ ने गोविन्द बने अपने शागिर्द को साथ आने का इशारा किया और जंगल में घुस कर देखते-देखते कहीं गायब हो गया।

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