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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


अब हम पीछे की तरफ लौटते और जमानिया के दारोगा साहब के मकान पर पहुँचकर देखते हैं कि वे इस समय किस अवस्था में हैं या क्या कर रहे हैं।

एक दालान में जिसके एक तरफ लोहे का जंगला बना हुआ है वे एक कुरसी पर अकेले बैठे हुए हैं। उनकी एकटक निगाह उस जंगले के अन्दर जा रही है जिसमें कोई आदमी अधलेटा-सा किसी तरह की तकलीफ से करवटें बदल रहा है।

कुछ देर बाद दारोगा उठा और इस जंगले के पास पहुँचा। उसने गौर से उस आदमी की तरफ देखा और तब कहा, ‘‘कहो क्या हाल है?’’

कुछ देर के लिए उस आदमी का तड़पना बन्द हुआ तथा उसने अपनी आँखें जो कि एकदम सुर्ख हो रही थीं दारोगा के चेहरे की तरफ घुमाईं। न जाने उन आँखों में क्या ताकत थी कि दारोगा की निगाह नीची हो गईं पर तो भी उसने कहा, क्या इसी तरह तकलीफ उठाना मंजूर है या मेरा बात मानकर स्वतंत्र होना और बाकी जिन्दगी सुख के साथ बिताना पसन्द करते हो।’’

उस आदमी ने कुछ भी जवाब न दिया मगर घृणा के साथ दारोगा की तरफ देखा जिसने यह देख अपना पैर आगे बढ़ाया, साथ ही उस आदमी के मुँह से एक कराहने की आवाज निकली। न मालूम उसे किस तरह की तकलीफ थी कि उसने फिर तड़पना शुरू किया मगर मुँह से कुछ न कहा। दारोगा कुछ देर तक उसकी तरफ देखता रहा और तब बोला, ‘‘अच्छा ठहरो।’’ और तब जिस जगह उसने पैर रखा हुआ था उसे नीचे के पेंच को पैर से और दबा दिया।

आह, अब मालूम हुआ! जंगले के भीतर की जमीन जहाँ वह आदमी पड़ा हुआ था लोहे की नुकीली कांटियों से भरी थी। दारोगा के पेंच दबाने से वे कांटियें अपनी सतह से कुछ और ऊँची हो गईं।

वह आदमी जिसका तमाम बदन नंगा था और जो इन्हीं कांटियों पर पड़ा हुआ था मगर कमर में एक जंजीर द्वारा बँधा रहने के कारण कहीं टल न सकता था यकायक चीखकर फिर तड़पने लगा और इसके साथ ही उसकी पीठ में से जगह-जगह से खून की बूँदें टपकती हुई दिखाई देने लगीं। दारोगा यह हाल देख खिलखिला कर हँसा, तब उसने पुनः पूछा, ‘क्यों, अब भी मेरी बात मंजूर है या नहीं?’’

ऐसी तकलीफ ही हालत में होने पर भी उस आदमी ने भयानक आँखें दिखा कर कहा, ‘‘हरामजादा, पाजी, बेईमान! दूर हो मेरे सामने से!’’ दारोगा ने यह सुन कर कहा, ‘‘हूँ’’ और तब फिर पैर से उस पेंच को थोड़ा और दबा दिया। वे काँटियाँ कुछ और ऊँची होकर उस बेचारे के नंगे बदन में घुस गईं और खून के तरारे बहने लगे मगर इस बार उसने जुम्बिश नहीं खाई, एकटक दारोगा की तरफ देखा और तब कहा, ‘‘तू भले ही बोटी-बोटी काट डाल, मैंने तेरे मन वाली कभी करनी नहीं। अगर दुनिया में कोई ईश्वर है तो वह तेरी करनी का फल तुझे देगा। हाय!’’ कहकर उस आदमी ने एक लम्बी साँस ली और बेहोश हो गया।

दारोगा ने उसकी तरफ गौर से देखा। जब उसे विश्वास हो गया कि वह बेहोश हो गया है तो उसने कहा, ‘‘भारी जिद्दी है!’’ और झुककर कोई ऐसी तर्कीब की जिससे वे कांटियाँ जो जमीन से उभरकर उस बेचारे के जिस्म को छेद रही थीं फिर जमीन के अन्दर घुस गईं। इसके बाद वह अपनी जगह से उठा और उस जख्मी को उसी तरह छोड़ गुप्त राहों से होता हुआ अपने बैठने के कमरे में आ पहुँचा जहाँ इस समय केवल जैपाल बैठा हुआ कुछ लिख रहा था।

दारोगा को देखते ही जैपाल ने पूछा, ‘‘कहिए कुछ मालूम हुआ?’’ जिसके जवाब में दारोगा ने अपनी जगह पर बैठते हुए कहा, ‘‘कुछ भी नहीं, बड़ा भारी जिद्दी है, जहाँ तक मैं समझता हूँ वह मर जायगा मगर अपनी जुबान से एक बात भी नहीं बतावेगा।’’

जैपाल० : तो क्यों नहीं उसे मारकर बखेड़ा तय करते? आखिर कब तक उसकी उम्मीद में पड़े रहिएगा।

दारोगा : नहीं नहीं, अभी उसको मारने का मौका नहीं आया।

जैपाल० : अगर वह किसी तरह छूट गया तो आपकी जान की खैर नहीं रहेगी।

दारोगा : हाँ सो तो है मगर मैं उसे ऐसी जगह बन्द करूँगा जहाँ से ब्रह्मा भी उसे निकाल नहीं सकेंगे।

जैपाल० : सो कहाँ?

दारोगा : अजायबघर में!

जैपाल० : ताज्जुब की बात है कि आप उस जगह को ऐसा महफूज समझते हैं? क्या आपको याद नहीं कि उसी अजाबघर के अन्दर से आपके कई कैदियों को भूतनाथ और प्रभाकरसिंह वगैरह निकाल ले गए थे?

दारोगा : हाँ मगर उन सभों को मैंने तिलिस्म के अन्दर बन्द नहीं किया था केवल ड्योढ़ी में ही कैद रखा था।

जैपाल० : क्या इसे आप तिलिस्म में डाल देंगे

दारोगा : हाँ, अजायाबघर में एक ऐसा तिलिस्म है जिसके अन्दर यदि कोई चला जाय तो फिर औरों की तो बात ही क्या खास जमानिया का राजा भी उसे नहीं निकाल सकता।

जैपाल० : मगर क्या आप उस जगह जा सकते हैं?

दारोगा : (काँपकर) उस जगह जाना क्या हँसी-खेल है? मैं उस जगह के नाम से डरता हूँ, वहाँ जाना तो और बात है! हाँ यह जरूर कर सकता हूँ कि जिसे चाहूँ उसे वहाँ भेज दूँ।

जैपाल० : ऐसा है तो फिर क्या है, आप वहाँ अपने कैदियों को मजे में कैद कर सकते हैं बल्कि आपको चाहिए था कि उन दिवाकरसिंह और नन्दरानी वगैरह को भी वहीं बन्द करते। न मालूम वे लोग कहाँ हैं या इस समय आपके विरुद्ध क्या कार्रवाई कर रहे हैं।

दारोगा : उस समय मुझे उस स्थान का भेद मालूम न था, इसका अभी हाल में पता लगा है। मगर इस बात का खयाल तो मुझे भी होता है कि आखिर दिवाकरसिंह और नन्दरानी गए कहाँ?

इतने दिन उन लोगों को कैद से छूटे हो गए मगर अभी तक उनकी किसी भी कार्रवाई का पता न लगा

जैपाल : भूतनाथ से भी इन दिनों मुलाकात नहीं होती, न मालूम वह कहाँ रहा करता है। उसे इस बात का पता जरूर होगा, यद्यपि वह बहुत कुछ बातें ब...

इतने ही में दारोगा के एक नौकर ने कमरे के अन्दर आकर इत्तिला की—‘‘गदाधरसिंह आए हैं और मुलाकात किया चाहते हैं।

दारोगा : इस शैतान का भी जब नाम लो तभी मुस्तैद होता है। इस समय भी बड़े बेमौके आया क्योंकि मुझे अभी इसी समय... अच्छा सुनो, तुम उसके सामने बहुत देर तक मत रुको कुछ मामूली बातचीत करके उठ जाओ और इसी समय प्रभाकरसिंह को जिसे उन दोनों ऐयारों गोविन्द और मायासिंह ने गिरफ्तार करके यहाँ पहुँचा दिया है बेहोश करके ले जाकर अजायबघर की ड्योढ़ी में बन्द करो, तब लौटकर आओ तो उस कैदी को भी ले चलो जिसमें दोनों को एक साथ ही चक्रव्यूह में पहुँचाकर हमेशा की खटपट दूर कर दी जाय, क्योंकि...

इतने ही में भूतनाथ कमरे के दरवाजे पर आ मौजूद हुआ जिसे देखते ही दारोगा जैपाल से बातें करना छोड़ यह कहता हुआ उठ खड़ा हुआ, ‘‘आओ जी मेरे दोस्त, आज तो बहुत दिनों के बाद मुलाकात हुई, कहो किधर रास्ता भूल पड़े?’’

भूतनाथ : बस आ ही तो गए...

दारोगा ने भूतनाथ को गले से लगाया और बड़ी खातिर और खुशामद के साथ लाकर अपनी गद्दी पर बैठाया, इसके बाद आप उसके बगल में बैठता हुआ बोला, ‘‘आप तो मुझ गरीब को बिल्कुल ही भूल गए, धन्य भाग्य किसी तरह दर्शन तो हुए।’’

भूत० : मैं तो आपको नहीं भूला बल्कि आप ही मुझे भूल गए।

दारोगा : वाह वाह, खूब कही, भला सो कैसे हो सकता है?

भूत० : इस तरह कि मेरे स्वभाव को जाने हुए भी आपने पुनः मेरे बर्खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी।

दारोगा : (ताज्जुब के साथ) आपके बर्खिलाफ कार्रवाई! भला आपसे यह किसने कह दिया, क्या यह मेरी ताकत है कि मैं आपके साथ झगड़ा करूँ?

भूत० : मेरे साथ नहीं तो मेरे किसी दोस्त के या बुजुर्ग के साथ सही।

दारोगा : (चिन्ता के साथ) आपके किसी दोस्त के साथ? किसके, इन्द्रदेव के?

भूत० : (हँसकर) भला इन्द्रदेव के साथ आप क्या बुराई करिएगा! उनकी तो एक फूँक से आप उड़ जा सकते हैं, और मैं उनके बारे में आपसे कुछ कहता भी नहीं, मेरा मतलब किसी दूसरे से ही है।

दारोगा : अब आप साफ-साफ कहिए, इस तरह पहेली बुझौवल कराने से काम नहीं चलेगा।

भूत० : बहुत अच्छा तो साफ ही साफ सुनिए। आपने दामोदरसिंह के साथ क्या किया?

दामोदरसिंह का नाम सुनते ही दारोगा का चेहरा एक क्षण के लिए उतर-सा गया मगर उसने फौरन ही अपने को सँभाला और जिसमें उसके दिल का हाल भूतनाथ पर प्रकट न हो पाए इस नीयत से हँसकर कहा, ‘‘वाह जी गदाधरसिंह, तुम भी इतने बड़े ऐयार होकर धोखा खा जाते हो! क्या तुम्हें मालूम नहीं कि उनकी लाश जमानिया की एक चौमुहानी पर पाई गई! वे मेरे दिली दोस्त थे और महाराज भी उन्हें बहुत मानते थे। उनके मरने पर हम लोगों के दिल पर बहुत भारी सदमा बैठा है और बाद में खुद उनके खूनी की खोज कर अपने हाथ से उसको कत्ल करने की कसम खा चुका हूँ।’’

भूत० : (हँसकर) तब दारोगा साहब आपको अपने ही गले पर छुरी डालनी पड़ेगी।!

दारोगा : सो क्या, सो क्या?

भूत० : बस यही तो।

दारोगा : आखिर कुछ मालूम भी तो हो कि आपको मुझ पर कैसा शक है? क्या आप समझते हैं कि मैंने दामोदरसिंह को मार डाला है?

भूत० : नहीं नहीं, मार डालना तो मैं कहता नहीं, आपने मार नहीं डाला, सिर्फ कहीं छिपा रक्खा है, अगर मार डालते तो आप भी जीते क्योंकर बच जाते!

दारोगा : अच्छा अब मैं समझा, आप केवल यही नहीं कह रहे हैं कि दामोदरसिंह मरे नहीं जीते हैं, बल्कि साथ ही आपका खयाल भी है कि मैंने उन्हें कहीं कैद कर रक्खा है!

भूत० : जी हाँ, अबकी आप बिल्कुल ठीक समझ गए।

दारोगा : (हँसकर, मगर बेचैनी के साथ) मेरे दोस्त, तुम्हारी भी अक्ल कभी-कभी हवा खाने चली जाती है। मैं नहीं समझ सकता कि ऐसा बेहूदा खयाल तुम्हारे दिल में क्योंकर बैठ गया है? अपने दोस्तों, और खास कर मेरे बारे में ऐसा सोचना तुम्हें कभी मुनासिब नहीं है।

भूत० : यह आपकी गलती है जो आप मुझे अपना दोस्त समझते हैं। आपका दोस्त तो सिर्फ वही हो सकता है जो आप ही की तरह परले सिरे का पाजी, बेईमान और कमीना हो। कोई भला आदमी तो न आपका दोस्त ही बनेगा और...

दारोगा : बस अब आप बहुत बढ़ने लगे!

भूत० : नहीं, बल्कि मैं अपने आपको बहुत सँभाल कर बातें करता हूँ। खैर बातें बढ़ाने की जरूरत ही क्या है, आप कृपा कर साफ-साफ बता दीजिए कि दामोदरसिंह को मेरे हवाले कीजिएगा या नहीं?

दारोगा : भाई मेरे, मैं तो एक दफे नहीं सौ दफे कह चुका हूँ कि दामोदरसिंह किसी के हाथों मारा गया और मैं खुद उसके खूनी की खोज में हूँ।

भूत० : बस इससे ज्यादा आप कुछ नहीं बता सकते?

दारोगा : कुछ नहीं, या अगर कुछ कहना भी है तो यही कि तुम ऐसा बेहूदा खयाल दिल से दूर करो और मेरे ऊपर जो वृथा का शक कर रहे हो उसे हटा लो...

भूतनाथ यह सुन थोड़ी देर के लिए चुप हो गया और कुछ सोचने लगा जिस बीच दारोगा और जैपाल डर और घबराहट मिली निगाहें एक-दूसरे पर डालते रहे। कुछ देर बाद भूतनाथ ने सिर उठाया और दारोगा की तरफ देखकर कहा, ‘‘दारोगा साहब, आपका स्वभाव मैं अच्छी तरह जानता हूँ और साथ ही यह भी खूब समझता हूँ कि सीधी ऊँगली से घी नहीं निकलता।

मेरी भूल थी कि मैं यह सोचकर आपके पास चला आया कि अपने कामों से नहीं तो कम से कम मेरी सूरत से डर कर दामोदरसिंह का असली भेद मुझे बता देंगे। खैर मैं आपको होशियार कर देता हूँ कि अगर उन्हें छुड़ाने के लिए मुझे कोई कड़ी कार्रवाई आपके साथ करनी पड़े तो फिर मुझे दोष न दीजिएगा।

आप कितनी कोठरियों के अन्दर चाहे उन्हें छिपाकर रखें, अगर मेरा नाम भूतनाथ है तो मैं उन्हें छुड़ा ही लूँगा और साथ ही आपकी भी वह दुर्गति करूँगा कि जन्म भर न भूलिएगा। और मैं यह भी चिताए देता हूँ कि आप दामोदरसिंह को कष्ट चाहे जितना भी दे लीजिए पर उन्हें जान से मारने का इरादा भूल के भी न कीजिएगा।

शायद एक बात सुनकर आप समझ जायेंगे कि ऐसा करना कितनी बड़ी गलती होगी—वह कि दामोदरसिंह ने आपकी उस कम्बख्त सभा का जिसका वह मन्त्री था, सब हाल, मेम्बरों का नाम और कार्रवाई वगैरह लिखकर एक ऐसे आदमी के सुपुर्द कर दिया है जो दामोदरसिंह के मरने का निश्चय होते ही उसे महाराज गिरधरसिंह के हाथ में दे देगा, अस्तु मैं फिर कहे देता हूं होशियार!’’

इतना सुनते ही दारोगा ने एक बेचैनी की निगाह जैपाल पर डाली और जैपाल ने भी लाचारी की नजर से दारोगा को देखा, तथा भूतनाथ ने इस बात को बखूबी लक्ष्य किया मगर ऐसे ढंग से कि उन दोनों को कुछ मालूम न हुआ।

दारोगा ने भूतनाथ की बात का कोई जवाब न दिया।

भूतनाथ कुछ देर तक जवाब की राह देखता रहा पर उसे चुप पाकर बोला, ‘‘कहिए कुछ कहना है?’’

दारोगा : भाई, मैं कह जो चुका कि मैं दामोदरसिंह के विषय में कुछ नहीं जानता। अगर वह जीता ही हो या कहीं कैद ही हो तो उस काम को करने वाला कोई दूसरा होगा मैं नहीं, मुझ पर ऐसा शक करना तुम्हारी बड़ी भारी ज्यादती और जबर्दस्ती है।

भूत० : लात के देवता बात से नहीं मानते, तुम्हारी जब तक पूरी तरह से दुर्दशा नहीं की जायगी तब तक उगलने वाले नहीं! अच्छा होशियार रहना, इस समय तो मैं जाता हूँ पर बहुत जल्दी ही फिर मुलाकात करूँगा।

इतना कह भूतनाथ उठा और तेजी के साथ कमरे के बाहर निकल गया।

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