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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


इस चीठी को पाकर महाराज गिरधरसिंह की जो दशा हुई हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं। चीठी से ज्यादे उस अंगूठी ने उन्हें बेचैन कर दिया था जिसे नकाबपोश ने चीठी के साथ रख दिया था और जिसे महाराज अच्छी तरह पहिचानते थे, क्योंकि उन्होंने खुद अपने हाथ से यह अंगूठी मालती को दी थी जिसे वे अपनी लड़की से बढ़कर प्यार करते थे और जिसकी मौत ने उन्हें किसी समय में बड़ा ही दुःखी कर दिया था। इस अँगूठी ने उन्हें गुजरे हुए जमाने की याद दिला दी और चीठी के मजमून ने इस बात पर मजबूर किया कि वे तिलिस्म में जाएं और जाँच करें, चीठी लिखने वाले का कहना कहाँ तक सही है। अस्तु वे उठे और कुछ सोचते-विचारते तिलिस्म को चौथे दर्जे की तरफ बढ़े।

जमानिया तिलिस्म के चौथे दर्जे और वहाँ के रास्तों का कुछ हाल हम चन्द्रकान्ता सन्तति में लिख आए हैं जिसे यहाँ पुनः लिखना व्यर्थ होगा अस्तु हम अपने पाठकों के लिए महाराज के साथ-साथ सीधे देवमन्दिर में पहुँचते हैं जहाँ से तिलिस्म के दूर से दूर हिस्सों में जाने के रास्ते हैं।

पाठकों को याद होगा कि इस देवमन्दिर के चारों तरफ चार इमारतें थीं। पूरब तरफ के मकान को पीतल की दीवार ने घेरा हुआ था, उत्तर की तरफ वाला मकान स्याह पत्थर का बना हुआ था जिसके चारों तरफ तरह-तरह के कल पुरजे लगे हुए थे, दक्खिन तरफ के मकान के चारों कोनों पर चार बुर्जियाँ थीं, और पश्चिम तरफ वाले मकान के दरवाजे पर हड्डियों का ढेर था जिसके बीच में से निकल कर लोहे की एक जंजीर पास के कुएँ के अन्दर गई हुई थी। महाराज सीधे इसी मकान के दरवाजे पहुँचे। (१. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति-3, नौवाँ भाग, पहिले बयान।)

इस मकान के दरवाजे पर इतनी अधिक हड्डियाँ पड़ीं थीं कि उनका ऊँचा ढेर लग गया था। महाराज बेधड़क इस हड्डियों के ढेर पर चढ़ गए और गौर से दरवाजे की ऊपरी चौखट पर निगाह डालने लगे जिस पर कुछ अक्षर खुदे हुए थे। महाराज ने उन अक्षरों को किसी क्रम से दबाया और तब अलग हट कर खड़े हो गये।

अक्षरों के दबते ही मकान के अन्दर से बाजे की आवाज आने लगी और ऐसा मालूम हुआ मानों भीतर कोई फौज खड़ी है

जिसका बाजा बड़े सुर और लय के साथ बजने लग गया है। लगभग पाँच मिनट तक बाजे की आवाज आती रही और तब बन्द हो गई, इसके बाद तुरत ही मकान का दरवाजा खुल गया और महाराज ने अन्दर कदम रक्खा।

एक लम्बा-चौड़ा आलीशान कमरा नजर आया जिसके चारों तरफ की दीवार में तीन-तीन दरवाजे अर्थात् कुल बारह दरवाजे थे। जिस दरवाजे की राह महाराज अन्दर गये थे उसके बगल में बने हुए दो दरवाजे तो नकली थे मगर बाकी के सब असली थे, जिनमें से हर एक के बगल में पीतल के बने दो सिपाही नंगी तलवारें हाथ में लिए खड़े थे।

उस तरफ वाले हिस्से से जिधर दो नकली दरवाजे बने थे अथवा जिधर से महाराज आए थे, बीस फौजी बाजे वाले कतार से दीवार के साथ सट कर खड़े थे जिनमें से दो को छोड़कर बाकी हर एक के हाथ में कोई-न-कोई बाजा था और बेशक इन्हीं बाजे वालों की आवाज बाहर से सुनाई पड़ी होगी। ये आदमी भी पीतल ही के बने हुए थे।

महाराज के कमरे के अन्दर घुसते ही इन पीतल के सिपाहियों में से उन दो के बदन में हरकत पैदा हुई जो दरवाजे के दोनों बगल पड़ते थे। दोनों का तलवार वाला हाथ उठा और माथे तक पहुँचा मानों उन्होंने महाराज की सलामी उतारी और इसके बाद दोनों ज्यों-के-त्यों हो गये।

कुछ देर तक महाराज वहीं खड़े कुछ सोचते रहे इसके बाद धीरे-धीरे चल कर बाईं तरफ के एक दरवाजे के पास पहुँचे जिसके ऊपर लगी हुई पीतल की एक पटड़ी पर मोटे-मोटे हरफों में लिखा हुआ था—‘‘चौथा दर्जा।’’

महाराज के इस दरवाजे के सामने जाते ही दोनों बगल वाले पीतल के सिपाही अपनी जगह से हटकर दरवाजे के सामने आ खड़े हुए, इसके साथ ही उनका तलवार वाला हाथ इस तरह ऊँचा हुआ मानों वे वार किया चाहते हैं, मगर महाराज ने इसका कोई खयाल न किया। उन्होंने अपने म्यान से तिलिस्मी तलवार निकाल ली और उसे बारी-बारी से हर सिपाही के साथ छुला दिया। तलवार के छूते ही सिपाहियों ने सलामी दी और हटकर पुनः अपने ठिकाने जा खड़े हुए, साथ ही उस कमरे का दरवाजा भी एक हल्की आवाज देता हुआ खुल गया और महाराज ने अन्दर कदम रक्खा।

इस कमरे में जिसमें अब महाराज पहुँचे किसी तरह का कोई सामान, यहाँ तक कि कोई आलमारी, खिड़की या दरवाजा तक भी न था। चारों तरफ साफ दीवारें थीं जिन पर किसी तरह का चमकदार रोगन चढ़ा हुआ था और छत भी बहुत ऊँची न थी वैसी पालिशदार और बिल्कुल साफ बनी हुई थी।

हाँ इस जगह जमीन में कुछ कारीगरी अवश्य थी अर्थात् इस कमरे के फर्श पर जो सुफेद संगमर्मर का था रंगीन पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़े इस क्रम से जुड़े हुए थे कि एक पूरी और बड़ी इमारत की तसवीर पच्चीकारी के काम में बन गई थी और गौर से देखने वाला तुरंत कह देगा कि बेशक यह तिलिस्मी बाग के चौथे हिस्से का नक्शा है, क्योंकि बीच का देवमन्दिर उसके चारों तरफ का नकली बाग तथा उसके बाद वाले चारों कोनों की इमारतें इस जगह बहुत सफाई और कारीगरी के साथ बनी हुई थीं।

महाराज ने इस नक्शे का वह हिस्सा देखना शुरू किया जिसमें पश्चिमी तरफ वाली अर्थात् उस इमारत की तस्वीर थी जिसमें इस समय वे स्वयं मौजूद थे।

उस नक्शे में जिस जगह इस इमारत का दरवाजा दिखाया गया था उसी जगह किसी धातु के कुछ उभरे हुए छोटे-छोटे बहुत-से फूल भी बने हुए थे। ये फूल जो देखने में मोतियों के मालूम होते थे बन्द थे, सिर्फ एक फूल खिला हुआ था। महाराज ने उसी फूल पर उंगली रक्खी और इशारे से कहा, ‘‘ठीक है, इस इमारत में मैं मौजूद हूँ इसी से यह एक फूल खिला हुआ है।’’

महाराज ने चारों तरफ के बाकी फूलों पर निगाह डाली मगर सिवाय उस एक के और किसी को खिला हुआ न पाया जिससे वे कुछ प्रसन्न से होकर बोले, ‘‘इस समय चौथे दर्जे में सिवाय मेरे और कोई नहीं है।’’

कुछ देर तक महाराज खड़े रहे। तब कमरे के बाहर निकल आए। उनके आते ही दोनों तरफ के सिपाहियों ने फिर सलामी दी और कमरे का दरवाजा आप से आप बन्द हो गया।

अब महाराज एक दूसरे दरवाजे के पास पहुँचे। इसके ऊपर जो पीतल की पटरी थी उस पर लिखा था, ‘‘अजायबघर’’। महाराज के पास आते ही इस दरवाजे के नकली सिपाहियों ने भी पहिले वाले सिपाहियों की तरह रास्ता रोका मगर तिलिस्मी तलवार छुलाते ही सलामी दे अलग हो गए। दरवाजा खुल गया और महाराज कमरे के अन्दर घुसे।

यह कमरा भी भीतर से ठीक पहिले वाले कमरे की ही तरह था, कुछ फर्क था तो केवल यही कि इस कमरे की जमीन में पच्चीकारी के काम की अजायबघर की बहुत बड़ी और खुलासी तस्वीर बनी हुई थी। महाराज ने पहिले की तरह इस नक्शे को भी बड़े गौर से देखना शुरू किया। नक्शे में जहाँ पर अजायब घर का भारी फाटक और सीढ़ियाँ दिखाई गई थीं वहीं पर किसी धातु से बेले के बहुत से फूल बने हुए थे। इस समय इन फूलों में से चार फूल खिले हुए देखते ही महाराज चौंक पड़े और आप ही आप इस तरह कहने लगे—

‘‘हैं, अजायबघर में ये चार आदमी इस समय कौन हैं? क्या दारोगा तो नहीं, मगर उसे तिलिस्म के अन्दर जाने की जरूरत क्या पड़ी क्योंकि ये फूल तो तिलिस्म के अन्दर होने वालों की संख्या के द्योतक हैं। दारोगा तो सिर्फ उस बंगले की इमारत का ही मालिक है, वहाँ के तिलिस्म से तो उसे कोई सरोकार नहीं, और न उसे वहाँ का कुछ भेद ही मालूम है कि अन्दर जा सके। मगर तब फिर ये आदमी कौन हैं और वहाँ पहुँचे भी किस तरह?

ये मेरे दोस्त हैं या दुश्मन? जरूर दुश्मन ही होंगे, नहीं तो मेरे तिलिस्म के अन्दर इनके घुसने की जरूरत? (रुक कर) नहीं, यह भी मुमकिन है कि मेरे दोस्त हों और किसी तिलिस्मी मुसीबत में गिरफ्तार हो गए हों।’’

सोचते-सोचते महाराज किसी गम्भीर चिन्ता में डूब गए मगर फिर तुरंत ही बोले, ‘‘तो क्यों न वहाँ चलकर देख ही लें, अच्छा ये चारों हैं किस जगह?’’ इस नक्शे के एक किनारे पर लगभग बालिश्त के चौड़ा और उतना ही लम्बा तथा चार अंगुल ऊँचाई का एक लोहे का डिब्बा-सा जमीन में जड़ा था, महाराज ने अपनी तिलिस्मी तलवार निकाली और उसकी नोक से उस डिब्बे के साथ छुला दी।

छुलाने के साथ ही डिब्बे के अन्दर से ऐसी आवाज आने ली मानो कुछ कल-पुरजे उसके अन्दर चलने लगे हैं। इसके साथ ही वे बेले के फूल भी अपनी-अपनी जगह हिलने और काँपने लगे।

धीरे-धीरे उनमें हरकत पैदा हुई और वे अपनी जगह से हटकर एक ऐसी जगह जमा होने लगे जहाँ बहुत-सी बारीक नालियाँ बनी हुई नजर आ रही थीं, ये फूल एक खास क्रम के साथ इकट्ठे हो रहे थे और थोड़ी ही देर बाद महाराज ने देखा कि उन फूलों के कुछ अक्षर उस जगह बन गए। महाराज ने उसे पढ़ा, यह लिखा था—‘‘चक्रव्यूह।’’

‘‘चक्रव्यूह’’ पढ़ते ही महाराज काँप उठे और उनके मुँह से आश्चर्य की एक आवाज निकल गई। उन्होंने घबड़ाई आवाज में कहा, ‘‘चक्रव्यूह में आदमी! वहाँ तो स्वयं मेरा जाना कठिन है जो तिलिस्म का राजा हूँ, औरों की तो बात ही क्या? तब ये आदमी कौन हैं!’’ महाराज ने फिर गम्भीर चिन्ता में पड़ गर्दन झुका ली।

कुछ देर बाद एक लम्बी साँस ले महाराज वहाँ से चल खड़े हुए। अपनी तिलिस्मी तलवार उन्होंने उठा ली जिसके साथ ही ये फूल पुनः अपनी-अपनी जगह लौटने लगे और महाराज यह कहते हुए दरवाजे की तरफ बढ़े, ‘‘अब तो मुझे उस चीठी की बातें सच मालूम होती हैं, सचमुच मुझे अपने घर ही का हाल अभी तक नहीं मालूम था।

चक्रव्यूह के अन्दर जाना किसी मामूली ताकत वाले का काम नहीं है, या तो तिलिस्म को तोड़ने वाला ही वहाँ पहुँच सकता है और या फिर...।खैर अब इसी समय वहाँ जाना पड़ेगा, मगर इसके पहिले लोहगढ़ी की भी हालत देख लेनी चाहिए।’’

महाराज उस कमरे के बाहर निकले और कई दरवाजों के सामने से होते हुए एक कमरे के अन्दर घुसे जिसके दरवाजे पर ‘‘लोहगढ़ी’’ लिखा हुआ और अन्दर वहीं का नक्शा बना हुआ था। इस नक्शे के एक किनारे पारिजात के फूल बने हुए थे जिनमें से पाँच इस समय खिले हुए थे। महाराज ने इन खिले हुए फूलों को भी देखा और ताज्जुब तथा घबराहट के साथ कहने लगे, ‘‘यह लो, यहाँ पाँच आदमी मौजूद हैं!

अब मालूम नहीं, ये कौन हैं और किस तरह यहाँ जा पहुँचे? इनका भी पता लगाना जरूरी है। तब फिर मैं पहिले कहाँ चलूँ, अजायबघर में या लोहगढ़ी में? पहिले लोहगढ़ी में ही चलना ठीक मालूम होता है क्योंकि ‘चक्रव्यूह’ में जाना कठिन और जोखिम का काम है।’’

महाराज इस कमरे के बाहर निकले और दरवाजे के बाईं तरफ वाले दोनों सिपाहियों के सामने आकर खड़े हो गए। तिलिस्मी तलवार महाराज के हाथ में थी जिसे उन्होंने इस तरह पकड़ा कि कब्जा बाईं तरफ और नोक दाईं तरफ हो गई और तब इस तलवार उन्होंने ने उन दोनों सिपाहियों के सिर को एक साथ छुआ। साथ ही दोनों का तलवार वाला भाग ऊँचा हो गया, महाराज ने उनकी दोनों तलवारों को पकड़ और खैंच कर एक साथ मिला दिया और तब हटकर अलग खड़े हो गए।

तलवारों के मिलने के साथ ही एक हलकी आवाज आई और वे दोनों सिपाही अपनी जगह से कुछ दूर हटकर खड़े हो गए। उनके पैरों के नीचे एक खाली गढ़ा-सा नजर आया जिसमें उतरने के लिए पतली-पतली सीढ़ियाँ दिखाई पड़ रही थीं। हाथ में तिलिस्मी तलवार लिए महाराज इन सीढ़ियों की राह नीचे उतर गए। नीचे और अंधकार था मगर महाराज उस अँधेरे में ही टटोलते हुए एक तरफ को जाने लगे।

थोड़ी देर बाद एक तरह की आवाज आई और वे दोनों सिपाही पुनः अपनी जगह आकर खड़े हो गए। उस सुरंग का मुँह भी पहिले की तरह बन्द हो गया।

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