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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


हेलासिंह को साथ लिए कल्याणी (सुन्दरी) तेजी से लोहगढ़ी की तरफ रवाना हुई। इस समय ये दोनों ही चुपचाप घोड़े फेंकते हुए जा रहे थे क्योंकि हेलासिंह अपने किसी विचार में डूबा हुआ था और कल्याणी अपने ही बाँधनू बाँध रही थी।

जब ये दोनों अजायबघर के पास पहुँचे जहाँ से लोहगढ़ी की इमारत बहुत ज्यादा दूर न थी तो हेलासिंह ने यकायक घोड़ा रोक दिया कल्याणी ने कहा, ‘‘क्यों, रुकते क्यों हैं, चले चलिए।

जिसके जवाब में हेलासिंह ने कहा, ‘‘अजायबघर का दरवाजा खुला हुआ है, मालूम होता है, दारोगा साहब यहाँ आए हुए हैं। यदि वे यहाँ हों तो मैं उनसे दो बातें करके तब यहाँ से चलना पसन्द कूरूँगा।’’ यद्यपि कल्याणी को यह बात पसन्द नहीं आई लेकिन फिर भी उसे लाचारी के साथ कहना पड़ा, ‘‘अच्छी बात है, आप हो आइए। मैं यहीं रुकी हूँ।’’

हेलासिंह घोड़े से उतर पड़ा और उसकी लगाम एक डाल से अटकाने के बाद अजायबघर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा जिसका दरवाजा वास्तव में खुला हुआ था।

उसके जाते ही कुछ सोचकर कल्याणी भी घोड़े से उतर पड़ी और अजायबघर की तरफ बढ़ी। इधर-उधर देख और कहीं किसी को न पा उसने भी सीढ़ियों पर पैर रक्खा और मकान के अन्दर घुसी एक दालान और कोठरी पार कर वह उस दालान में पहुँची जो नाले के ठीक ऊपर पड़ता था और यहाँ पहुँचते ही उसे एक ऐसी चीज दिखाई पड़ी जिसने उसे ताज्जुब, डर, घबराहट और अफसोस में डुबा दिया, लाश थी जो कम्बल में लपेटी हुई दालान के बीचोबीच में पड़ी हुई थी। लाश का मुँह खुला हुआ था और पहली निगाह में कल्याणी ने पहचान लिया कि वह प्रभाकरसिंह की है।

कल्याणी ने बड़ी मुश्किल से उस दुःख भरी चीख को रोका जो बेतहाशा उसके गले से निकला चाहती थी। उसने आगे बढ़कर चाहा कि देखें प्रभाकरसिंह अभी जीते हैं या वास्तव में यह उनकी लाश ही है कि इसी समय बगल के कमरे में से आती कुछ बातचीत की आवाज की तरफ उसका ध्यान चला गया और वह बड़े गौर से सुनने लगी।

एक आवाज : हाँ वह चीठी तो ठीक थी और जिस औरत को दारोगा साहब ने चीठी देकर आपके पास भेजा था वह भी विश्वासपात्र थी, पर यह औरत वह नहीं है जिसके साथ इस समय आप जा रहे हैं, यह एक धूर्त ऐयारा है जिसने असली सुन्दरी को गिरफ्तार कर लिया और खुद उसकी सूरत बन आपको धोखा दिया चाहती है।

दूसरी आवाज : (जो हेलासिंह की थी) तो क्या मैं उसका साथ छोड़ दूँ?

पहला नहीं, बल्कि उसके साथ-साथ जाएँ मगर हर तरह से चौकन्ने रहें और जिस तरह हो उसे गिरफ्तार करने की कोशिश करें। मैं भी प्रभाकरसिंह को ठिकाने लगा लोहगढी की तरफ आता हूँ। आप आगे बढ़िए।

इस बातचीत ने कल्याणी के कान खड़े कर दिए, वह समझ गई कि उसका भेद खुल गया और अब उसे अपनी जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए, इस जगह अब एक पल के लिए भी ठहरना अनुचित था अस्तु लाचारी के साथ बिना प्रभाकरसिंह की किसी तरह जाँच-पड़ताल किए उसे तेजी के साथ वहाँ से लौट जाना पड़ा, मुश्किल से वह घोड़ों के पास तक पहुँची थी कि हेलासिंह भी आ पहुँचा।

कल्याणी : कहिए दारोगा साहब से मुलाकात हुई?

हेला० : नहीं, मुझे धोखा हुआ, दरवाजा खुला देख मैंने समझा था कि शायद दारोगा साहब आए हों मगर वहाँ कोई नहीं था। अच्छा चलो, देर करने की जरूरत नहीं।

कल्याणी ने इसका कोई जवाब न दिया और न किसी तरह से यही जाहिर होने दिया कि वह इन दोनों की बातें सुन चुकी है। वह चुपचाप अपने घोड़े पर सवार हुई और हेलासिंह के साथ लोहगढ़ी की तरफ बढ़ी मगर इस बात से हर तरह चौकन्नी रही कि हेलासिंह कहीं धोखे से उस पर वार न कर बैठे। उधर हेलासिंह भी हर तरह से होशियार था और छिपी निगाहें बराबर कल्याणी पर डाल रहा था।

दोनों लोहगढ़ी के पास पहुँचे। टीले से कुछ दूरी पर कल्याणी ने अपना घोड़ा रोका और हेलासिंह ने पूछा, ‘‘क्यों रुकी क्यों?’’ कल्याणी ने कहा, ‘‘मैं अपने साथी को यहाँ छोड़ गई थी, पहिले उससे मिलकर हाल-चाल दरियाफ्त कर लूँ तो आगे बढ़ूँ, आप यहीं रहिए मैं अभी आई।’’

इतना कह बिना जवाब की राह देखे कल्याणी घोड़े से उतर पड़ी और टीले पर चढ़ने लगी, हेलासिंह ने उसे कुछ कहना या रोकना चाहा पर न जाने क्या सोचकर चुप रह गया, पर सब तरफ से चौकन्ना और होशियार जरूर बना रहा।

आधा रास्ता चढ़कर कल्याणी रुकी और एक पेड़ की आड़ में पहुँच उसने धीरे से सीटी बजाई, मगर उसे किसी तरह का जवाब न मिला जिससे वह कुछ बेचैन हुई क्योंकि यहां से जाते समय वह इन्दु से कहती गई थी कि इसी जगह पर मौजूद रहना, कुछ सोचती हुई वह टीले के ऊपर चढ़ गई और यहाँ पहुँचते ही जमीन पर उसे कुछ ऐसे निशान दिखाई पड़े जिसने उसकी घबराहट को और भी बढ़ा दिया क्योंकि यहाँ कई आदमियों के लड़ने-भिड़ने के निशान साफ मालूम हो रहे थे।

जगह-जगह खून के छींटे पड़े हुए थे और एक तरफ टूटा हुआ एक खंजर भी पड़ा था जो खून से तर था। कल्याणी का माथा ठनका और विश्वास हो गया कि बेशक मामला कुछ गड़बड़ है। वह लपकी हुई मकान के पास पहुँची, फाटक इस समय खुला हुआ था और वहाँ भी खून के छींटे और मारकाट के निशान मौजूद थे।

ड्योढ़ी के अन्दर पड़े हुए एक कपड़े पर कल्याणी की निगाह पड़ी और उसने उसे उठाकर देखा। यह इन्दु की चादर थी जिसे वह अच्छी तरह पहिचानती थी, और यह भी खून से तर थी। उसने अपने सिर पर हाथ मारा और बदहवास होकर उसी जगह बैठ गई।

मगर यह मौका ऐसा न था कि बेचैनी या बदहवासी को जगह दी जाए और कल्याणी भी इस बात को बखूबी समझती थी। वह तुरंत ही उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई लोहगढ़ी के अन्दर घुसी-‘‘प्रभाकरसिंह की लाश तो देखती ही आ रही हूँ अब क्या इन्दु की मौत का भी विश्वास करना पड़ेगा!’’

लोहगढ़ी के अन्दर पहुँच कल्याणी ने रत्ती-रत्ती जगह देख डाली, सब कोठरी और दालान खोज डाले, मगर न तो इन्दु ही दिखाई पड़ी और न अर्जुन पर ही निगाह पड़ी। आखिर वह बदहवास होकर जमीन पर बैठ गई और गाल पर हाथ रख आँखों से गर्म आँसू गिराने लगी।

बड़ी देर तक कल्याणी इसी तरह बैठी रही और न जाने कब तक बैठी रहती अगर पास ही एक कोठरी के अन्दर से उसे यह आवाज न सुनाई पड़ती, ‘‘बस अब कम्बख्त कहाँ जा सकती है!’’ सुनते ही वह चौंककर उठ खड़ी हुई और इसके साथ ही बगल की कोठरी के अन्दर से जैपाल और हेलासिंह को निकलते पाया। कल्याणी को देखते ही हेलासिंह बोला, ‘‘वाह, तुम यहाँ बैठी आँसू गिरा रही हो और मैं बाहर खड़ा तुम्हारी राह देखता-देखता घबड़ा गया, अब बताओ वह गौहर कहाँ है जिसे गिरफ्तार कराने तुम मुझे यहाँ लाई हो?’’ इतना कह हेलासिंह उसकी तरफ बढ़ा मगर कल्याणी डर कर कई कदम पीछे हो गई क्योंकि वह अच्छी तरह समझ गई थी कि ये दोनों उसे गिरफ्तार कर लिया चाहते हैं।

कल्याणी को हटते देख हेलासिंह उसके पीछे लपका, कल्याणी भागी और इन दोनों ने उसका पीछा किया। कुछ देर तो कल्याणी ने इधर-उधर दौड़-धूप कर अपने को बचाया मगर आखिर दो दुष्टों के आगे एक नाजुक और कमजोर औरत क्योंकर और कहाँ तक अपने को बचा सकती थी! अन्त में उन दोनों ने इस पकड़ लिया।

हेलासिंह ने कल्याणी को जमीन पर पटक दिया और जैपाल ने उसकी नाक में जबर्दस्ती बेहोशी की दवा ठूँस उसे बेहोश कर दिया।

अपनी कामयाबी पर दोनों बड़े ही प्रसन्न हुए जैपाल ने कहा अब इसकी सूरत धोकर देखना चाहिए कि यह वास्तव में कौन है?’’

पास ही के एक हौज में से पानी लेकर दोनों ने कल्याणी का चेहरा अच्छी तरह साफ किया और संध्या समय की मद्धिम रोशनी में उसकी असली सूरत देखते ही हेलासिंह बदहवास होकर बोल उठा, ‘हैं, यह तो मालती है! यह यहाँ कहाँ से आ गई?’’

जैपाल यह सुन बोला, ‘‘आपको शायद नहीं मालूम कि कुछ समय हुआ यह दारोगा साहब की कैद से छूट गई थी, वे इसके लिए सख्त परेशान हो रहे थे और गहरे तरद्दुद में थे, अब इसके गिरफ्तार हो जाने से बड़े प्रसन्न होंगे।’’

हेलासिंह ने कुछ जवाब न दिया मगर इसमें शक नहीं कि वह धूर्त इस समय किसी गहरे सोच में पड़ गया था और कितने ही तरह की बातें सोच रहा था। उसकी गर्दन झुक गई थी और माथे पर सिकुड़ने पड़ गई थीं।

उसकी छिपी निगाहें कभी मालती और कभी जैपाल पर पड़ रही थीं और इसके साथ जैपाल भी गहरी निगाह से हेलासिंह की तरफ देखता हुआ उसके चेहरे से उसके मन की बातें जान लेने का उद्योग कर रहा था। आखिर कुछ देर बाद उसने हेलासिंह से कहा, ‘‘आप सोच क्या रहे हैं, चलिए मालती को बाहर निकाल ले चलिए, यहाँ अगर, इसका साथी आ गया तो मुश्किल हो जाएगी।’’

हेलासिंह ने जवाब दिया—‘‘हाँ, वही तो मैं भी सोच रहा हूँ कि इसके साथ क्या बर्ताव करना चाहिए’’

जैपाल० : करना क्या है, इसे गठरी में बाँधिए और बाहर निकालकर दारोगा साहब के सुपुर्द कीजिए जिनकी कैद में अब तक यह थी।

हेला० : मगर मैं सोच रहा हूँ कि यदि इसे लेकर निकले और इसके किसी साथी से मुठभेड़ हो गई तो मुश्किल हो जाएगी।

जैपाल० : मगर यहाँ रहने में भी यही खतरा है!

हेला० : नहीं, यहाँ मेरे रहते किसी गैर की कार्रवाई नहीं चल सकती जब तक कि मैं जागता हूँ या होशहवास में हूँ।

जैपाल० : बेशक आप इस मकान के भेदों से बखूबी वाकिफ हैं फिर भी इस समय यह दुश्मन का घर हो रहा है इससे मेरी समझ में तो इसे यहाँ से बाहर निकाल ले जाना ही मुनासिब होगा।

हेला० : अगर ऐसा ही है तो फिर सुबह ले चलेंगे, आज की रात यहाँ काटिए क्योंकि अँधेरा बढ़ रहा है और इस समय लेकर बाहर निकलना भी मुनासिब नहीं है ।

जैपाल और हेलासिंह दोनों ही अपनी-अपनी चालाकी में लगे हुए थे। जैपाल चाहता था कि जिस तरह भी हो मालती को दारोगा साहब के पास पहुँचावे और उधर हेलासिंह सोचता था कि अब यह कब्जे में आ गई है तो इसे हाथ से बाहर न जाने देना चाहिए। आखिर मौका देख इस समय जैपाल को ही तरह देना पड़ा और उसने बहुत कुछ सोच-विचार कर कहा, ‘‘अच्छा आपकी ऐसी मर्जी है तो यही सही, मगर इस बात का इन्तजाम पूरा-पूरा होना चाहिए कि रात को इसका कोई मददगार आकर छुड़ा न ले जाए।’’

हेलासिंह यह सुन हँसकर बोला, ‘‘भला यह भी मुमकिन है कि मेरे रहते कोई इसे छुड़ा ले जाए और सो भी इस लोहगढ़ी के अन्दर से? यहाँ कैद करने लायक जगहों की कुछ कमी नहीं है। आइए मेरे साथ चलिए, मैं आपको एक तहखाना दिखाता हूँ, अगर मुनासिब समझिए तो रात-भर के लिए इसे उसी में बन्द कर दीजिए!’’

जैपाल बोला, ‘‘हाँ, अगर कोई ऐसी जगह मिल जाए तो बहुत अच्छा है।’’ जिसे सुन हेलासिंह उठा और जैपाल का हाथ पकड़े यह कहता बाईं तरफ वाली कोठरी में घुस गया—‘‘आइए मैं आपको वह जगह दिखाऊँ।’’ हेलासिंह और जैपाल के कोठरी के अन्दर जाते ही एक नकाबपोश जो दाहिनी तरफ की कोठरी में जाने कब से छिपा खड़ा था बाहर आया और उस जगह पहुँचा जहाँ बेहोश कल्याणी (मालती) जमीन पर पड़ी हुई थी। मालती का एक हाथ बाहर निकला हुआ था और उसकी उंगली में एक पन्ने की अंगूठी चमक रही थी।

इस आदमी ने कोशिश करके वह अंगूठी जो मुद्दत से पड़ी रहने के कारण कुछ सख्त बैठ गई थी निकाल ली और तब पुनः उसी कोठरी में घुस गया जहाँ से निकला था। उसके छिपते ही छिपते जैपाल और हेलासिंह वहाँ आ पहुँचा, दोनों में कुछ बातें हुईं और तब मालती को उठा दोनों फिर उसी कोठरी के अन्दर घुस गए जिसमें से निकले थे।

निराला पाते ही वह नकाबपोश पुनः बाहर आया। उसने क्रोध भरी एक निगाह उस तरफ डाली जिधर ये दोनों दुष्ट मालती को उठाकर ले गए थे और तब यह कहता हुआ लोहगढ़ी के बाहर की तरफ चला, ‘‘भला कम्बख्तों, कोई हर्ज नहीं मैं भी बिना पूरा बदला लिए छोड़ने वाला नहीं!’’

मालूम होता कि इस नकाबपोश को भी लोहगढ़ी के भेदों से पूरी वाकफियत थी, क्योंकि वह बेखटके यहाँ के गुप्त दरवाजों को खोलता और बन्द करता हुआ बाहर आ गया। सदर दरवाजे के पास ही कहीं छिपा हुआ एक आदमी खड़ा था जो इसे देखते ही आड़ के बाहर आ गया और बोला, ‘‘कहिए क्या हुआ?’’ नकाबपोश ने जवाब दिया, ‘‘जो सोचा था वही हुआ, ‘‘उन दुष्टों ने बेचारी मालती को गिरफ्तार कर लिया और अन्दर ही कहीं बन्द कर रखा है!’’

उसने मुख्तरसर में सब हाल अपने साथी को सुनाया जिसे सुन उसने कहा, ‘‘तब क्या होगा?’’

नकाबपोश बोला, ‘‘अब सिवाय इसके ओर कोई उपाय नहीं है कि महाराज को इन बातों की खबर कर दी जाए, क्योंकि इस बार मालती दारोगा के कब्जे में पड़ी तो वह उसे कदापि जीता न छोड़ेगा।’’

साथी : समझ लीजिए, महाराज को खबर देने का कोई उलटा नतीजा न निकल पड़े।

नकाब० : अब जो होना हो सो हो, जो कुछ उलटा आजकल हो रहा है उससे बढ़ कर और क्या हो सकता है?

साथी : खैर मर्जी आपकी, इस मामले में आप मुझसे बहुत ज्यादे समझ रखते हैं।

नकाब० : तुम्हारे बटुए में कलम-दवात और कागज है?

साथी : हाँ-हाँ, लीजिए।

कहते हुए उसने कलम-दवात और कागज निकालकर नकाबपोश के आगे रख दिया जिसने कागज पर यह लिखा:—

‘‘बड़े ही अफसोस की बात है कि महाराज तिलिस्म के राजा होकर भी और असाधारण ताकत रखने पर भी अपने दोस्त और दुश्मन के पहिचानने में भूल रखते हैं! बड़े ही दुख की बात है कि महाराज के ही नौकर और गुलाम महाराज ही के साथ दगा करें और साफ बच जाएं।

‘‘इस समय आप कुँवर गोपालसिंह के गायब हो जाने के कारण परेशान हैं, मगर खूब खयाल रखिए कि वे इस समय भी आप ही के राज्य और आप ही की हुकूमत के अन्दर हैं और फिर भी आप उनका पता नहीं लगा सकते! अफसोस की बात है!

‘‘अगर-अब भी आप तिलिस्म के अन्दर, या अपने उस मकान में जो लोहगढ़ी के नाम से पुकारा जाता है, अथवा उस अजायबघर में जिसे दारोगा साहब पा गए हैं, तलाश करें तो कई ऐसी बातें जानेंगे और ऐसे कैदियों को देखेंगे कि ताज्जुब होगा!’’

नकाबपोश ने यह चीठी लिख कर उसी पन्ने की अंगूठी के साथ जो मालती की उंगली से निकाली थी एक लिफाफे में बन्द की और उसे एक मजबूत मोमजामें में लपेटकर मुहर कर दी।

इसके बाद लिफाफे को अपने साथी के हाथ में देकर कहा, ‘‘यह आज ही रात को महाराज के पास पहुँच जाना चाहिए।’’ उसने ‘‘बहुत अच्छा’’ कह लिफाफा ले लिया और तब दोनों आदमी कुछ बातें करते हुए टीले के नीचे उतर गए।

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