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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


हमारे पाठक इस बात को समझ ही गए होंगे कि यह औरत कल्याणी वही है जिसके फेर में प्रभाकरसिंह कई दिनों तक पड़े हुए थे और अन्त में अपनी बेबसी ही हालत से दुखी हो साथ छोड़कर निकल गए थे। इस समय आगे का हाल लिखने के पहिले हम प्रभाकरसिंह का कुछ हाल लिखना मुनासिब समझते हैं।

उस विचित्र औरत (कल्याणी) की सूरत ने प्रभाकरसिंह पर कुछ ऐसा असर किया कि वे थोड़ी देर के लिए भौंचक-से हो गए और उन्हें तब होश हुआ कि कल्याणी उन्हें उसी हालत में छोड़ वहाँ से चली गई। जब उनके पूछने पर भी कल्याणी ने अपना कुछ नाम न बताया तो लाचार एक लम्बी साँस ले वे घूमे और कुछ सोचते हुए उत्तर की तरफ रवाना हुए।

हम कुछ कह नहीं कह सकते कि इस समय प्रभाकरसिंह क्या सोच रहे थे या क्या करने के इरादे से उन्होंने कल्याणी का हाथ छोड़ लोहगढ़ी के बाहर पैर निकालना पसन्द किया था, हाँ उनके चेहरे के भाव से इतना अवश्य प्रकट होता था कि इस समय वे किसी गहरी चिन्ता में निमग्न हैं। कभी-कभी सिर उठाकर अपना रास्ता देख लेने के सिवाय उनका ध्यान और किसी तरफ नहीं जाता था और किसी फिक्र में डूबे हुए सीधे जमानिया की तरफ बढ़े जा रहे थे।

उनको इस हालत में जाते हुए भूतनाथ ने देखा जो आजकल बराबर लोहगढ़ी के आसपास टोह लगाता हुआ घूमा करता था क्योंकि उसे विश्वास था कि प्रभाकरसिंह अवश्य इसके अन्दर ही रहते हैं। उन्हें कई बार एक औरत (कल्याणी) के साथ उस मकान के बाहर निकलते अथवा टीले पर जाते हुए उसके शागिर्दों ने देखा और भूतनाथ को खबर की थी।

इस समय प्रभाकरसिंह को देख (जो अपनी असली सूरत में थे) वह बहुत प्रसन्न हुआ और लपककर उनके पास पहुँचा। भूतनाथ का चेहरा एक मामूली नकाब से ढँका हुआ था मगर उसने नकाब पीछे उलट दी और अदब से प्रभाकरसिंह को सलाम किया। प्रभाकरसिंह ताज्जुब के साथ रुक गए और बोले, ‘‘हैं भूतनाथ, अरे तुम यहाँ कहाँ!’’

भूत० : (मुस्कुराता हुआ) यही सवाल तो मैं आपसे किया चाहता था। आपकी खोज में कितने ही आदमी न जाने कब से परेशान हैं और मैं भी आप ही की टोह लगाता फिर रहा हूँ। मगर हम लोगों को विश्वास था कि आप किसी कैद में हैं, अस्तु इस जगह ऐसी स्वतंत्रता के साथ आपको घूमते देख आश्चर्य होता है। आप इतने दिनों तक कहाँ थे या क्या करते रहे?

प्रभा० : मैं एक बड़े विचित्र फेर में पड़ गया था। मगर खैर इन सब बातों का तो जवाब तुम्हें पीछे दूँगा, पहिले मुझे यह मालूम हो जाना चाहिए कि तुम वास्तव में भूतनाथ ही हो और मेरे साथ दुश्मनी करने का तुम्हारा इरादा नहीं है।

भूत० : पहिली बात के सबूत में तो मैं उस दिन की घटना आपको स्मरण करा सकता हूँ जब मैं एक तिलिस्मी झिल्ली लगाकर इन्द्रदेवजी के मकान पर गया था और आप लोगों ने मुझे भैयाराजा मानकर...

प्रभा० : ठीक है, मुझे तुम्हारे भूतनाथ होने का विश्वास हो गया, अच्छा अब दूसरी बात का क्या सबूत देते हो?

भूत० : दूसरी बात का इस समय कोई सबूत मेरे पास नहीं है क्योंकि आपके पीछे कई घटनाएँ ऐसी हो गई हैं जिनका हाल जब आप सुनेंगे तो मुझसे बहुत रँज होंगे...

प्रभा० : जैसे तुम्हारे हाथों जमना-सरस्वती की मौत।

भूत० : (ताज्जुब से) आपको यह बात कैसे मालूम हुई?

प्रभा० : यह मेरा हाल सुनने पर तुम्हें मालूम हो जाएगा तुम पहिले अपनी बात पूरी करो।

भूत० : जब यह बात आपको मालूम ही हो चुकी है तो बाकी बातें भी कदाचित् आपसे छिपी हुई न होंगी अस्तु तय है कि आप उस समय तक कदापि मुझ पर विश्वास न करेंगे जब तक कि इन्द्रदेवजी से आपकी मुलाकात न हो जाए, अस्तु अपने बचाव में मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि इन्द्रदेवजी ने अब तक मेरे सब कसूर और पाप क्षमा कर एक बार पुन: मुझे अपना विश्वासपात्र बनाया है।

प्रभा० : (कुछ सोचकर) वे इस समय कहाँ हैं?

भूत० : जमानिया में। आपने दामोदरसिंहजी की मौत का हाल कदाचित् सुना होगा?

प्रभा० : हाँ मुझे मालूम है और इस खबर से मुझे बड़ा ही ताज्जुब और दु:ख हुआ! तो क्या इन्द्रदेवजी आजकल वहीं हैं?

भूत० : जी हाँ।

प्रभा० : मैं उनसे मिला चाहता हूँ।

भूत० : मैं भी यही मुनासिब समझता हूँ।

भूतनाथ प्रभाकरसिंह के साथ हो लिया और दोनों आदमी जमानिया की तरफ रवाना हुए, रास्ते में पुन: बातचीत होने लगी।

भूत० : यदि आप मुनासिब समझें तो अपना हाल बयान करें कि इतने दिन कहाँ रहे या क्या करते रहे।

प्रभा० : मैं एक विचित्र घटना के फेर में पड़ा हुआ था जिसे अगर तुम सुनोगे तो ताज्जुब करोगे?

भूत० : सो क्या?

प्रभा० : सुनो मैं कहता हूँ, यह तो तुम्हें मालूम ही होगा कि मैं दारोगा के कब्जे में पड़ा था।

भूत० : मैं यह मंजूर करके शर्माता हूँ कि यह कार्रवाई मेरी ही थी और मेरे ही सबब से आपको दारोगा के कैद की तकलीफ उठानी पड़ी। मुझे इस बात का बड़ा अफ...

प्रभा० : (बात काट कर) खैर इन बातों को थोड़ी देर के लिए जाने दो और जो मैं कहता हूँ उसे सुनो। दारोगा ने मुझे एक बड़े ही मजबूत कैदखाने में बन्द किया जिसमें से छूटने की कोई उम्मीद नहीं मगर एक दिन एक विचित्र आदमी ने आकर मुझे उसके बाहर किया और जब मैंने अपने छुटकारा देने वाले का परिचय पूछा तो यह जानकर प्रसन्न हुआ कि वे इन्द्रदेवजी हैं।

भूत० : (ताज्जुब से) इन्द्रदेव ने आपको दारोगा की कैद से छुड़ाया? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अभी कल ही मेरी उनकी भेंट हुई थी मगर उन्होंने आपके विषय में बहुत चिन्ता प्रकट करने पर भी मुझसे यह नहीं कहा कि उन्होंने आपको छुड़ाया या कहीं देखा था। जरूर वह कोई दूसरा आदमी होगा।

प्रभा० : हाँ बाद में मुझे इस बात का पता लगा, मगर उस समय तो मुझे यही विश्वास हुआ कि वे वास्त्व में इन्द्रदेवजी ही थे क्योंकि सूरत-शक्ल, रंग-ढंग सभी इन्द्रदेव का-सा था। खैर जो कुछ हो और वह इन्द्रदेव रूपधारी कोई ऐयार ही क्यों न हो मगर उसी ने तुम्हारा, मेघनाथ तथा जमना-सरस्वती का हाल मुझे सुनाया था और भी कई तरह की बातें बताकर मुझे बिदा किया। मैं अपने स्थान की तरफ रवाना हुआ मगर रास्ते में एक दूसरे फेर में पड़ गया।

दो सवारों को देख और यह गुमान कर कि वे मेरे दुश्मन हैं मैं एक पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ पेड़ के ऊपर ही न जाने कब से एक दूसरी औरत भी चढ़ी हुई थी जिसने मुझसे तरह-तरह की बातें कीं और अपने को मेरा दोस्त बताया।

(रुक कर) हाँ, बात ही बात में उसने मुझसे यह भी कहा कि मुझे छुड़ाने वाला व्यक्ति इन्द्रदेव नहीं, बल्कि भूतनाथ है।

भूतनाथ : (ताज्जुब से) ऐसा! वह कौन औरत थी? मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता और न मैंने आपको छुड़ाया ही।

प्रभाकर : तुम सुनते तो जाओ, मुझे उस औरत की बात पर विश्वास न हुआ और मैं उससे अलग हो पुन: अपने घर की तरफ रवाना हुआ। १ रात भर मैं बेखटके चला गया मगर सुबह जब एक अच्छी जगह देख रुक गया और जरूरी कामों तथा संध्या-पूजा आदि से निवृत्त होने का विचार करने लगा तो वह औरत पुन: आ मौजूद हुई जिससे रात के समय मुलाकात हुई थी। (१.देखिए भूतनाथ नौवाँ भाग, सातवाँ बयान।)

इस समय भी उसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी मगर मैं आवाज से उसे पहिचान गया। वह कुछ घबड़ाई हुई-सी थी और आते ही उसने मुझे कहा कि कई सवार जो शायद मेरे दुश्मन हैं इधर ही आ रहे हैं।

उसने मुझे भाग जाने को कहा मगर यह बात मुझे स्वीकार न थी कि एक तो मुझे उस पर विश्वास न था दूसरे थोड़े आदमियों से भागना भी अच्छा न मालूम हुआ। मगर उस औरत की बात सच निकली और चार सवारों ने वहाँ पहुँच कर मुझे घेर लिया। मैं उनसे लड़ने लगा।

गरज कि उनमें से दो मारे गए और दो भाग निकले। उस समय वह औरत जो सिपाहियों के आने पर कहीं हट गई थी पुन: आ मौजूद हुई और बोली, ‘‘अभी इतने पर ही बस नहीं है, और भी कई आदमी पीछे आ रहे हैं। आप अब भी मुझ पर विश्वास करें और यहाँ से पास ही जहाँ मेरा घर है वहाँ चले चलें।’’ मुझे कुछ साधारण जख्म भी लग गए थे। लाचार मैं उसके साथ हो लिया और वह मुझे लिए हुए एक पहाड़ी गुफा में पहुँची जहाँ उसके कई आदमी भी थे। मेरे जख्मों की मरहम-पट्टी की गई मगर इसके थोड़ी देर बाद मेरा सिर घूमने लगा और मालूम हुआ कि मेरे साथ दगा हुई।

भूत० : तो वे लोग आपके दुश्मन थे?

प्रभा० : हाँ, वह औरत बल्कि वे सभी आदमी राजा शिवदत्त के नौकर थे और मुझे गिरफ्तार करने के लिए आए थे!

भूत० : और इस तरह पर आपको उन्होंने अपने कब्जे में कर लिया!

प्रभा० : हाँ, मैं तीन दिन तक उनकी कैद में रहा।

भूत० : फिर आप छूटे किस तरह?

प्रभा० : एक दूसरी औरत ने बड़ी कारीगरी से मुझे उन लोगों के फन्दे से छुड़ाया!

भूत० : वह कौन औरत थी?

प्रभा० : यह मैं बिल्कुल नहीं जानता!

भूत० : क्या आपको उसका कुछ भी परिचय नहीं मालूम?

प्रभा० : नहीं, कुछ नहीं, मैंने उससे कितनी ही दफे पूछा पर उसने कुछ भी न बताया।

भूत० : हम लोगों ने कई बार आपको एक नकाबपोश औरत के साथ घूमते-फिरते देखा था, बल्कि यह भी पता लगा था कि आप उस टीले के ऊपर वाली इमारत में रहते हैं जिसे लोग लोहगढ़ी कहते हैं। मगर आप तो हर तरह से स्वतन्त्र मालूम होते थे!

प्रभा० : हाँ, कहने के लिए मैं जरूर स्वतन्त्र था पर ऐसे फेर में पड़ गया था कि जिससे किसी तरह अपना पिण्ड छुड़ा न सकता था।

भूत० : सो क्या?

प्रभा० : वह विचित्र औरत तिलिस्म का भी कुछ हाल जानती थी और उसने मुझसे वादा किया था कि तिलिस्म के अन्दर चल कर (जरा रुकते हुए) उन आदमियों का पता लगा देगी जो दारोगा की शैतानी से उसमें जा फँसे हैं, बल्कि वह मुझे लेकर तिलिस्म के अन्दर गई भी मगर नतीजा कुछ न निकला, लाचार यह सोच कर कि कहीं यह भी मुझे कोई धोखा न दे रही हो मैंने उसका साथ छोड़ दिया।

भूतनाथ और कुछ पूछना ही चाहता था कि एक आदमी को देख रुक गया जो सामने की तरफ से आ रहा था।

वह आदमी देखने में कम उम्र मगर फुर्तीला और चालाक मालूम होता था, साथ ही उसके बगल से लटकते हुए ऐयारी के बटुए की तरफ ध्यान देने से उसके ऐयार होने का भी विश्वास होता था। बात की बात में वह पास आ पहुँचा और प्रभाकरसिंह को सलाम कर खड़ा हो गया।

भूतनाथ और प्रभाकरसिंह दोनों में से कोई भी इसको नहीं पहिचानता था। अस्तु भूतनाथ ने उससे पूछा, ‘‘तुम कौन हो और क्या चाहते हो?’’ जिससे जवाब में उसने अपनी जेब में हाथ डालकर एक चीठी निकाली और प्रभाकरसिंह की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह आपके लिए है।’’

प्रभा० : (चीठी लेकर) इसे किसने भेजा है?

आदमी : नाम बताने की इज़ाजत तो नहीं है मगर इतना कह सकता हूँ, उसी ने जो लोहगढ़ी में रहती है। मगर उन्होंने साथ ही यह भी कहा है कि आप इस चीठी को एकान्त में पढ़े जहाँ आपके पास और कोई भी न हों।

प्रभा० : (ताज्जुब से) मेरे पास कोई न हो!

आदमी : और साथ ही इसका जवाब भी इसी समय मुझे मिलना चाहिए। मैं आपके सामने से हट जाता हूँ, आप जल्दी ही इसे पढ़ लें और जो मुनासिब समझें जवाब भी लिख मुझे दें, आवाज देते ही मैं यहाँ आ पहुँचूँगा।

इतना कह एक बार भूतनाथ की तरफ देखने के बाद वह आदमी घूमा मगर प्रभाकरसिंह ने रोककर कहा, ‘‘सुनो तो, (भूतनाथ की तरफ बता कर) क्या इनके सामने भी मैं इस चीठी को नहीं पढ़ सकता?’’

आदमी : मुझे जो कहा गया था वह मैंने अर्ज कर दिया, अब अख्तियार आपको है जो चाहे करें।

इतना कह वह आदमी वहाँ से कहीं हट गया। प्रभाकरसिंह ने भूतनाथ से कहा, ‘‘मैं नहीं कह सकता कि इस चीठी में ऐसी क्या बात लिखी है कि इसे मैं किसी के सामने नहीं पढ़ सकता।’’

भूतनाथ ने उनका मतलब समझ कर कहा, ‘‘मगर हर्ज ही क्या है, मैं हट जाता हूँ आप इसे पढ़ लें, जैसे ही आवाज दीजिएगा मैं पुन: आ पहुँचूँगा।’’

इतना कह भूतनाथ वहाँ से दूर चला गया और प्रभाकरसिंह उस चीठी को पढ़ने लगे।

थोड़ी देर क्या, बहुत देर बीत गई मगर प्रभाकरसिंह ने भूतनाथ को आवाज न दी। भूतनाथ को बड़ा ताज्जुब और साथ ही साथ कुछ सन्देह भी हुआ। वह उस जगह लौटा, देखा कि वहाँ कोई आदमी नहीं है और न प्रभाकरसिंह का ही कोई पता है। न मालूम वे अपनी मर्जी से कहीं चले गए या उनके दुश्मन कोई चालाकी खेल गए।

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