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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


दो पहर दिन चढ़ चुका है और सूर्यदेव अपनी पूरी तेजी से चमक रहे हैं पर हवा के तेज झपेटों के कारण मुसाफिरों को उनकी गर्मी बहुत दुखद नहीं मालूम होती, फिर भी जब कभी आसमान पर दौड़ते हुए बादलों के टुकड़े सूर्य के सामने आ जाते हैं तो एक तरह का आराम मालूम होता है।

जमानिया से पश्चिम लगभग दस कोस पर एक छोटी सी बस्ती है। जिसका नाम रामपूर है। यह गंगा के किनारे ही पर है और उसी तरफ पड़ती है जिधर जमानिया है। रामपूर में जिसे वास्तव में एक गाँव ही कहना चाहिए, और रामपूर की तरफ चलने पर कुछ मामूली लोगों की आबादी ही सड़क से आने वालों को नजर आती है, पर यदि आप गंगा के किनारे-किनारे आइए तो एक स्थान पर जो बस्ती और सड़क दोनों ही से दूर और एकदम अलग पड़ता है गंगा के किनारे एक पक्का सुन्दर घाट, ऊपर एक छोटे शिवालय को घेरे हुए सुन्दर बागीचा और बगीचे के बाद एक बड़ी इमारत पर निगाह पड़ती है।

इस साधारण से गाँव में ऐसी इमारत को देख आश्चर्य होता है और उसमें रहने वालों की प्रकृति पर भी कुछ ताज्जुब करना पड़ता है जिन्होंने अपने रहने के लिए ऐसी जगह चुनी है मगर वास्तव में इस मकान में रहने वाला कोई साधारण आदमी नहीं है और अपने रहने के लिए उसका ऐसी जगह चुनना भी मतलब से खाली नहीं है।

यह स्थान, मकान, बगीचा, शिवालय और घाट सब कुछ जमानिया के पुराने दीवान हेलासिंह के हैं और वही यहाँ रहता है। इस जगह इसके रहन-सहन आदि के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, पाठकों को स्वयं ही मालूम हो जायगा क्योंकि इस समय हम इसी विषय में कुछ लिखना चाहते हैं।

मकान और शिवालय को घेरे हुए जो बड़ा बगीचा है उसमें इस समय सन्नाटा है क्योंकि दोपहर का समय होने के कारण सभी कोई भोजन अथवा आराम की फिक्र में हैं और इस जगह आदमियों की कोई चहल-पहल नहीं है। पर यदि सन्नाटे से पाठक समझें कि यहाँ कोई है नहीं तो यह भूल होगी।

बाग के पश्चिम तरफ वाले कोने में चहारदीवारी के संग सटा हुआ एक बुर्ज है, यद्यपि वह बुर्ज बड़ा नहीं है तथापि दोमंजिला है और इसके ऊपर की तरफ एक गुम्बददार बारहदरी ऐसी है जहाँ सात-आठ आदमी आराम के साथ बैठ सकते हैं।

ऊपर जाने के लिए घुमौवा सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और वह समूचा बुर्ज मालती की घनी लता के अन्दर ऐसे छिपा हुआ है कि देखने में सुहावना ही नहीं मालूम होता बल्कि लता के ढके रहने के कारण इसके अन्दर बैठने वाले आदमियों पर भी यकायक किसी की निगाह नहीं पड़ सकती। यद्यपि इसके अन्दर वाला अपने चारों तरफ बखूबी देख और दूर-दूर तक निगाहें डाल सकता है।

इस बुर्ज में ऊपर की तरफ एक चौकी पर इस समय दो आदमी बैठे हुए हैं जिनमें एक मर्द और दूसरी औरत है। मर्द की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी।

रंग साँवला, चेहरा गोल, सिर के बाल छोटे-छोटे, मूँछ और दाढ़ी भी खसखसी, आँखें गोल और कुछ भूरापन लिए तथा चमकती हुई, दाँत मजबूत मगर पीले और होठ मोटे हैं, कद नाटा, हाँथ-पाँव मजबूत और बदन कसरती मालूम होता है, मगर चेहरे पर निगाह पड़ते ही भास होता है कि यह आदमी बड़ा ही धूर्त चालाक है, इसी का नाम हेलासिंह है।

इसके सामने जो औरत है वह उसकी लड़की मुन्दर है जिससे हमारे पाठक चन्द्रकान्ता सन्तति में अच्छी तरह परिचित हो चुके हैं। यद्यपि यह कम-उम्र सुन्दर लड़की विधवा है परन्तु इस बात का कोई सबूत उसकी चाल-ढाल और पहरावे से नहीं मिलता। इस समय यह अपने पिता की तरफ झुकी हुई है और उसकी बातों को बड़े गौर से सुन रही है।

हेला० : देखो ईश्वर क्या करता है। अपने भरसक तो मैंने कोई कसर उठा नहीं रक्खी है। दारोगा साहब को मैंने अपने मेल में मिला लिया है और रघुबरसिंह तो शुरू ही से मेरी मदद कर रहा है। मेरी चले तो मैं तुम्हें राजरानी बनाकर छोड़ूँ मगर मुश्किल एक नजर आ रही है।

मुन्दर : वह क्या?

हेला० : जमानिया का दारोगा महाराज के रहते हुए कुछ करते डरता है। वह कहता है कि जब तक ये जीते रहेंगे तब तक कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। मगर खैर अब तो इस काँटे को भी रास्ते से दूर हुआ ही समझना चाहिए।

मुन्दर : सो कैसे?

हेला० : मैंने, दारोगा ने, और रघुबरसिंह ने मिल-जुल कर यह निश्चय किया है कि महाराज इस दुनिया से उठा दिए जाए बल्कि यह बात कमेटी में भी तय की जा चुकी है।

मुन्दर : यह तो मुझे मालूम है।

हेला० : अस्तु अब इसी बात की तैयारी हो रही है। महाराज का मारना निश्चय हो चुका है मगर किस तरह वह काम किया जाय यही सोचा जा रहा है। दारोगा साहब ने यह काम अपने जिम्मे लिया है और जल्दी ही वे इसका कोई-न-कोई ढंग निकाल लेंगे, गोपालसिंह इसी नीयत से गिरफ्तार भी किए गए हैं।

मुन्दर : अच्छा!

हेला० : हाँ, कमेटी ने उन्हें बुलाया था और अभी तक वह हमारे ही आदमियों के कब्जे में हैं, दो-एक रोज में छोड़े जायेंगे। उन्हें कमेटी का निर्णय बता दिया गया है और यह भी कह दिया गया है कि उनके बाप जल्दी ही इस दुनिया से उठा दिए जायँगे।

मुन्दर : मगर ऐसा करने से वे लोग होशियार हो जायँगे।

हेला० : होशियार होकर ही क्या कर लेंगे? कमेटी की ताकत का वे किसी तरह मुकाबला नहीं कर सकते। दामोदरसिंह की दशा तुम भूल गई? लेकिन गोपालसिंह के साथ ऐसा बर्ताव करने में और भी कई बातें हैं जिनमें एक तो यह कि उनके ऊपर कमेटी का रोब छा जायगा और भविष्य में हम लोगों से बराबर डरते रहेंगे।

मुन्दर : हाँ यह तो है, अच्छा तो अब मुझे आप क्या हुक्म देते हैं। क्या मैं पुन: जमानिया लौट जाऊँ?

हेला० : बेशक लौट जाओ, तुमने यहाँ आकर ठीक नहीं किया, इस समय तुम्हें जमानिया के बाहर नहीं रहना चाहिए क्योंकि न जाने कब क्या हो जाय, दूसरी दारोगा साहब की आज्ञा मानना भी बहुत जरूरी है, अगर वे रंज हो जायँगे तो फिर कुछ भी न हो सकेगा।

मुन्दर : देखा चाहिए आप लोगों की मेहनत का क्या नतीजा निकलता है।

हेला० : घबड़ाओ मत, हम लोगों की मेहनत ठिकाने ही लगेगी। बड़े महाराज के मरने की कसर है और इसमें ज्यादा देर न समझो। (बाहर की तरफ देखकर) हैं, यह सवार कौन है?

पत्तियों की आड़ में से मुन्दर ने देखा कि एक सवार तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाता इधर ही को आ रहा है। हेलासिंह कुछ देर तक गौर से उसकी तरफ देखता रहा और तब बोला, ‘‘तुम मकान में जाओ, मैं इसी जगह रुककर देखता हूँ कि यह कौन है, शायद दारोगा साहब का कोई आदमी न हो!’’

मुन्दर उठकर चली गई और हेलासिंह उस सवार के पहुँचने की राह देखने लगा। थोड़ी ही देर में सवार पास आ पहुँचा और तब हेलासिंह को यह देख बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि वह मर्द नहीं बल्कि कोई औरत है जो उम्दे और तेज घोड़े पर सवार नकाब से चेहरे को छिपाए चली आ रही है।

इस बाग का फाटक उस बुर्ज से थोड़ी ही दूर पर था जिसमें हेलासिंह बैठा था। सवार (औरत) इस फाटक के पास पहुँचा और घोड़े से उतर कुण्डा खटखटा रहा है, यह देख हेलासिंह बुर्ज से उतरा और फाटक के पास जा भीतर से बोला, ‘‘कौन है?’’

सवार : दरवाजा खोलो।

हेला० : क्या काम है, तुम कौन हो?

सवार : मैं जमानिया के दारोगा साहब का आदमी हूँ और उनकी जरूरी चीठी लेकर आया हूँ।

अब और देर न करके हेलासिंह ने दरवाजा खोल दिया और एक कमसिन नाजुक और हसीन औरत को अपने सामने पाया क्योंकि औरत ने यहाँ पहुँच अपनी नकाब उलट दी थी। हेलासिंह एकटक उसके चेहरे की तरफ देखने लगा मगर उसको देख उस औरत ने नकाब उलट कर चेहरा पुन: ढँक लिया और एक कदम पीछे हटकर कहा, ‘‘मैं हेलासिंह जी से मिला चाहती हूँ!’’

हेला० : मेरा ही नाम हेलासिंह है, कहिए आपको क्या काम है?

‘‘तब यह चीठी आप ही के लिए है’’ कहकर उस औरत ने एक चीठी अपने ऐयारी के बटुए से निकाली जो उसकी कमर से लटक रहा था और हेलासिंह के हाथ में दे दी। ताज्जुब करते हुए हेलासिंह ने गौर के साथ चीठी खोलकर पढ़ी और तब कहा, ‘‘क्या आप ही का नाम सुन्दरी है और इस पत्र में आप ही का जिक्र किया गया है!’’

औरत : जी हाँ।

हेला० : आप ऐयार हैं?

औरत : जी हाँ।

हेला० : आपको मुझसे मुन्दर के विषय में कुछ गुप्त बातें कहनी हैं?

औरत : जी हाँ, मगर मैं ज्यादा देर तक यहाँ रुक नहीं सकती शीघ्र ही आपको साथ लेकर लौटा चाहती हूँ।

हेला० : मुझे साथ लेकर!

औरत : जी हाँ, उस हालत में जब कि आपको इस पत्र पर और मुझ पर भरोसा हो।

हेला० : इस पत्र के कारण मैं आप पर पूरा भरोसा करने पर मजबूर हूँ, आप भीतर आइए तो मैं बातें करूँ।

औरत ने अपने घोड़े की लगाम उसी जगह एक कुण्डे में अटका दी और हेलासिंह उसे अपने साथ लिए हुए उसी बुर्ज पर पहुँचा जहाँ थोड़ी देर पहिले मुन्दर से बात कर रहा था। वह औरत यद्यपि ऊपर से लापरवाह मालूम होती थी मगर भीतर ही भीतर बड़ी होशियार और चौकन्नी थी और तेज निगाहों से चारों तरफ देखती जाती थी। दोनों आदमी बैठ गए और इस तरह बातें होने लगीं :-

औरत : मैं समझती हूँ कि इस जगह कोई गैर आदमी हम लोगों की बातें नहीं सुन सकता?

हेला० : नहीं कोई नहीं, आप इस बात से बिल्कुल बेफिक्र रहें।

उस औरत ने यह सुन अपने बटुए में से एक दूसरी चीठी निकाली और यह कहकर हेलासिंह के हाथ में दी, ‘‘इस चीठी को पढ़कर आप मेरे आने का कारण समझ जायँगे।’’

हेलासिंह ने वह चीठी ले ली और पढ़ना शुरू किया, मगर ज्यों-ज्यों वह चीठी पढ़ता जाता था उसके चेहरे से घबराहट टपकती जाती थी जो अन्त में यहाँ तक बढ़ी कि चीठी उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी।

पाठक समझ ही गए होंगे कि यह चीठी कौन-सी थी। यह वही थी जो शेरअलीखाँ ने गौहर के हाथ बलभद्रसिंह को भेजी थी अथवा जिसे पढ़कर दारोगा बदहवास हो गया था। पाठक यह भी समझ गए होंगे कि यह ऐयार वही है ‘सुन्दरी’ है जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है और जिसे दारोगा साहब ने अपना विश्वासपात्र बनाकर हेलासिंह के पास भेजा है।

बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाल कर हेलासिंह ने उस चीठी को पुन: उठाया और दुबारा पढ़ा। सुन्दरी उसके चेहरे की हालत बड़े गौर से देख रही थी। जब वह पढ़ चुका तो उसने चीठी उससे ले ली और अपने बटुए में रखती हुई बोली, ‘‘यह चीठी शेरअलीखाँ ने बलभद्रसिंह के पास भेजी थी।’’

हेला० : ठीक है, मगर तुम्हारे हाथ क्योंकर लग गई?

सुन्दरी : इसे बलभद्रसिंह को देने के लिए शेरअलीखाँ ने अपनी लड़की गौहर के सुपुर्द किया था जिसके कब्जे से मैंने उड़ा लिया!

हेला० : तो क्या अभी तक यह बलभद्रसिंह के पास नहीं पहुँची है?

सुन्दरी : नहीं।

हेला० : (लम्बी साँस लेकर) खैर इतनी ही कुशल है, अगर पहुँच गई होती तो अब तक मैं बर्बाद हो गया होता। वह बिना महाराज से कहे न रहता और महाराज मेरे घर भर को सूली दे देते तो आश्चर्य नहीं!

सुन्दरी : मगर फिर भी आप अपनी कुशल न समझिए।

हेला० : सो क्यों?

सुन्दरी : गौहर ने स्वयम् ही कोई ऐयारी कर आपके इस गुप्त भेद और मनसूबों का पता लगाया था।

हेला० : हाँ चीठी से तो यही जाहिर होता है, मगर जिस बात को मैं अपनी जान से बढ़कर हिफाजत के साथ छिपाए रहता था उसका भेद उस पर क्योंकर जाहिर हो गया!

सुन्दरी : यह क्या कोई ताज्जुब की बात है? ऐयारों के आगे किसी भेद का छिपा रहना बड़ा ही कठिन है। आप यही देखिए कि जब मुझे जिसे आज के पहले शायद आपने कभी देखा न होगा, इन बातों की खबर लग गई, तब गौहर का पूछना ही क्या है जिसकी मदद पर कई ऐयार हैं। खैर, जिस किसी तरह भी हो गौहर ने आपके इस भेद का पता लगाया और अब वह इस फिराक में है कि जल्दी से जल्दी बलभद्रसिंह से मिले और उन्हें आपकी कार्रवाइयों से आगाह करे।

हेला० : लेकिन अगर ऐसा हुआ तो मैं कहीं का न रहूँगा!

सुन्दरी : बेशक कहीं के न रहेंगे। केवल आप ही नहीं, ऐसा होने पर आपके दोस्त दारोगा साहब और रघुबरसिंह वगैरह की भी कुशल नहीं रह जाएगी क्योंकि बलभद्रसिंह को जैसे ही इन इरादों और कार्रवाइयों का पता लगेगा, वे फौरन महाराज से कहेंगे और इसका नतीजा बहुत बुरा होगा।

हेला० : बेशक हम लोग बेमौत मारे जाएंगे, मगर अफसोस, बना-बनाया काम बिगड़ा चाहता है!

सुन्दरी : हाँ, अगर मैं आपकी मदद करने को तैयार न होती जाती तो बेशक ऐसा ही होता।

हेला० : तुम भला क्या मदद मुझे पहुँचा सकती हो?

सुन्दरी : यह मैं उस समय बताऊँगी जब मुझे विश्वास हो जायगा कि आप मुझ पर पूरी तरह से भरोसा करते हैं।

हेला० : तुम्हारा यह कहना तो बिल्कुल व्यर्थ की बात है। जब दारोगा साहब ने तुम्हें अपना विश्वासपात्र बनाया है तो मेरी क्या मजाल है कि तुम्हारा विश्वास न करूँ।

सुन्दरी : खूब अच्छी तरह सोच लीजिए, क्योंकि ऐसा नाजुक मामला है कि बिना एक-दूसरे पर विश्वास किए कोई अच्छा नतीजा नहीं निकल सकता। यदि आपको मुझ पर कुछ भी सन्देह हो तो अब भी साफ-साफ कह देना मुनासिब होगा।

हेला० : नहीं-नहीं, मुझे तुम पर किसी तरह का सन्देह नहीं है, यद्यपि मैंने तुम्हें आज के पहिले कभी नहीं देखा है और मैं कुछ नहीं जानता कि तुम कौन हो अथवा तुम्हें इन मामलों में दखल देने की क्या वजह है तथापि दारोगा साहब की चीठी की बदौलत मैं तुम पर पूरा-पूरा विश्वास और भरोसा करता हूँ क्योंकि तुम्हारे ढंग से यह मालूम होता है कि तुम हमारे भेदों से बखूबी वाकिफ हो।

सुन्दरी : बेशक, इस समय तक की सब बातें और आप लोगों की सब कार्रवाइयाँ मैं बाखूबी जानती हूँ जिनमें से कुछ का पता तो मुझे खास मनोरमा जी से लगा है।

हेला० : क्या तुम मनोरमा को भी जानती हो?

सुन्दरी : हाँ अच्छी तरह, बल्कि यह कहना चाहिए कि मेरी और उनकी कुछ रिश्तेदारी भी है और उन्हीं की बदौलत मेरी मुलाकात दारोगा साहब से हुई।

हेला० : ठीक है, अच्छा तो फिर जल्दी बताओ कि इस समय बचाव की क्या तरकीब हो सकती है?

सुन्दरी : सुनिए, गौहर का इरादा है कि आपकी लड़की मुन्दर को जो आजकल जमानिया में सुजानसिंह के यहाँ छिपकर रहती है गिरफ्तार कर ले।

हेला० : (काँपकर) यह पता उसे क्योंकर लगा कि मुन्दर जमानिया में रहती है?

सुन्दरी : यह मैं नहीं कह सकती।

हेला० : अच्छा खैर, तब?

सुन्दरी : अगर वह अपने इस काम में एक दिन के अन्दर-अन्दर कामयाब हो गई तब ठीक है नहीं तो उसका इरादा है कि खुद बलभद्रसिंह या कुंअर गोपालसिंह के पास चली जाय और उन लोगों की चालबाजियाँ उन्हें बता दें। वह तो अभी तक ऐसा कभी का कर गुजरी होती पर सच तो यह है कि मेरे ही सबब से ऐसा कर नहीं पाई है। मैं उसकी ही एक ऐयारा का रूप बनाकर उसके साथ थी और उसे भुलावे में डाले हुई थी, मगर आज...

हेला० : मगर आज क्या!

सुन्दरी : मगर आज न जाने कैसे मुझपर शक पैदा हो गया और वह समझ गई कि मैं उसे धोखा दे रही हूँ अस्तु वह घबड़ा गई है और चाहती है कि जितनी जल्दी हो सके बलभद्रसिंह के पास पहुँच जाय।

ऐसी हालत में सबसे अच्छी कार्रवाई यही हो सकती है कि पहिले गौहर को गिरफ्तार करके कैद कर लिया जाय और तब जो कुछ मुनासिब हो या समझा जाय वैसा किया जाय।

हेला० : बेशक इस समय अगर उसे गिरफ्तार कर लिया जाय तो बहुत अच्छा होगा, और तुम्हें पूरा-पूरा हाल मालूम ही है, अस्तु तुम उसे सहज ही में गिरफ्तार भी कर सकती हो।

सुन्दरी : यह तो तरद्दुद की बात है, इस समय वह ऐसी जगह है जहाँ मैं क्या दारोगा साहब भी उसका कुछ नहीं कर सकते।

हेला० : सो क्यों, वह कहाँ है?

सुन्दरी : उसने इस समय अपने को लोहगढ़ी के अन्दर बन्द कर रक्खा है।

हेला० : लोहगढ़ी के अन्दर! वहाँ वह क्योंकर जा पहुँची!

सुन्दरी : न जाने किस तरह उसे उस जगह का कुछ भेद मालूम हो गया। उसने अपना डेरा उसी इमारत के अन्दर डाल रक्खा है बल्कि उसके साथ मैं भी कई दिन तक वहाँ रह चुकी हूँ। लोहगढ़ी के तहखानों का ठीक-ठीक भेद दारोगा साहब को भी नहीं मालूम है। अस्तु इस समय आपको ही वहाँ चलकर उसे गिरफ्तार करना पड़ेगा क्योंकि आप उस जगह के सब भेदों से बाखूबी वाकिफ हैं और उसकी ताली भी आपके पास है।

हेला० : (चौंककर) यह तुम्हें कैसे मालूम?

सुन्दरी : (मुस्कुराकर) मुझे खूब मालूम है कि वह इमारत बहुत दिनों तक आपके कब्जे में रह चुकी हैं।

हेला० : मगर मुझे उस पर से अपना कब्जा छोड़े भी कितने ही वर्ष हो गए।

सुन्दरी : ठीक है, मैं यह भी जानती हूँ। मगर यद्यपि महाराज की खफगी के कारण आपको वह स्थान छोड़ देना पड़ा फिर भी आपको वहाँ के भेद अच्छी तरह मालूम हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि वहाँ की ताली अभी भी आप ही के कब्जे में है।

हेला० : (कुछ सोचते हुए) न जाने तुम्हें ये बातें कैसे मालूम हुई, खैर तुम अपना मतलब पूरी तरह बयान करो कि तुम चाहती क्या हो?

सुन्दरी : मैं चाहती हूँ कि आप इसी समय मेरे साथ चले और लोहगढ़ी में घुसकर गौहर को गिरफ्तार कर लें, क्योंकि अगर वह वहाँ से निकल गई तो फिर किसी तरह कब्जे में नहीं आवेगी और तब आप लोग भारी मुसीबत में पड़ जायँगे। उसके गिरफ्तार करने में देर करना किसी तरह मुनासिब नहीं है।

हेला० : अगर वह इसी बीच में वहाँ से निकलकर बलभद्रसिंह के पास चली गई हो तो!

सुन्दरी : मैं अपने एक साथी को वहाँ छोड़ आई हूँ जो इस बात का खयाल रक्खेगा कि वह कहाँ जाती या क्या करती है!

हेला० : तो तुम्हारी राय है कि मैं इसी समय तुम्हारे साथ चलूँ और उसे गिरफ्तार करूँ!

सुन्दरी : बेशक।

सुन्दरी की बात सुनकर हेलासिंह कुछ देर के लिए गहरी चिंता में डूब गया, इस बीच वह ऐयारा छिपी निगाहें उस पर डालती हुई बराबर देख रही थी कि उसकी बातों का क्या असर हुआ है। आखिर कुछ देर के बाद एक लम्बी साँस लेकर हेलासिंह ने कहा, ‘‘इस समय मुनासिब तो तुम्हारी ही बात मालूम होती है मगर क्या तुम कह सकती हो कि दारोगा इस मामले में क्या सोचते हैं?’’

सुन्दरी : उन्हीं की आज्ञा से तो मैं आपके पास आई ही हूँ।

हेला० : तो क्या उनकी भी राय है कि गौहर गिरफ्तार कर ली जाय?

सुन्दरी: जी हाँ।

हेला० : मगर क्या वे यह नहीं सोचते कि ऐसा करने से शेरअलीखाँ से खटपट हो जायगी और वह अगर जान गया कि...।

सुन्दरी : दारोगा साहब इस बात को सोच चुके हैं। पहिले तो शेरअलीखाँ को इस बात का पता ही नहीं लगेगा, फिर अगर लगा भी तो देखा जायगा, पहिले अपने बचाव की फिक्र करनी चाहिए।

हेला० : कहीं कोई बुरा नतीजा न निकले!

सुन्दरी : अगर आप इस तरह से डर-डर कर काम कीजिएगा तो बस फिर हो चुका! खैर आप जानिए आपका काम जाने, मुझे इन झगड़ों से कोई मतलब नहीं। मैं तो दारोगा साहब और मनोरमा जी का हुक्म बजा ला रही हूँ।

आपको अगर साथ चलना नामंजूर है तो वैसा कह दीजिए मैं लौट जाऊँ मगर इतना आप समझ लीजिए कि अगर गौहर के कारण दारोगा साहब किसी आफत में पड़ गए तो फिर आप भी न बचने पाइएगा, और अपनी तरफ से मैं इतना कहे देती हूँ कि महाराजा साहब को आप पर और दरोगा साहब पर पूरा शक हो चुका है और वे अच्छी तरह समझ गए हैं कि आप लोग लक्ष्मीदेवी की शादी उनके लड़के के साथ होने नहीं दिया चाहते। ऐसी हालत में आप लोगों के बर्खिलाफ ऐसा पक्का सबूत पाकर वे जो न कर जाएं थोड़ा है।

हेला० : (देर तक कुछ सोचते रहकर) तुम ठीक कहती हो, खैर मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ, अपने साथ किसी और को भी लेता चलूँ?

सुन्दरी : कोई जरूरत नहीं। हम दो ही काफी हैं, बस आप वहाँ की ‘ताली’ ले लीजिए और कुछ हथियार लगा लीजिए, हाँ, घोड़ा तेज होना चाहिए क्योंकि सफर लम्बा है।

हेला० : अच्छा तो तुम जरा देर ठहरो, मैं थोड़े ही समय में तैयार होकर आता हूँ।

सुन्दरी : बहुत अच्छा, मैं फाटक पर चलती हूँ आप वहीं आइए।

दोनों आदमी नीचे उतरे, सुन्दरी फाटक की तरफ चली गई और हेलासिंह अपने मकान की तरफ बढ़ गया।

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