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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

।। ग्यारहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

इन्दुमति जब होश में आई उसने अपने को एक अंधेरी जगह में पत्थर की चट्टान के ऊपर पड़े हुए पाया। उसके सिर में मोटे कपड़े की पट्टी बंधी हुई थी जो किसी दवा से तर थी। धीरे-धीरे उसे पूरा होश आ गया और पिछली तमाम बातें याद कर वह उठ बैठी।

यह तो उसे पूरी तरह से विश्वास था कि जिन लोगों ने उसे रोका और जिनके पास से भागते समय उसे डाल की चोट लगी थी, इस समय भी वह उन्हीं के कब्जे में है, मगर इस वक्त वह है कहाँ, शहर में या जंगल में, मकान में या किसी पहाड़ की कन्दरा में, इसका पता नहीं लगता था और न बहुत कुछ विचार करने पर भी वह यही जान सकती थी कि जिन लोगों ने उसके साथ ऐसा सलूक क्या वे कौन या किसके आदमी थे।

यद्यपि जहाँ इन्दु थी वहाँ घोर अंधकार था पर धीरे-धीरे इन्दु की आँखें इस लायक हुईं कि उस अँधेरे में भी जान सके कि वह पहाड़ की गुफा में है क्योंकि नीचे-ऊपर चारों तरफ सिर्फ अनगढ़ पत्थर ही मालूम हो रहे थे। बाई तरफ कुछ रोशनी-सी मालूम पड़ने से इन्दु ने खयाल किया कि शायद खोह का मुहाना उसी तरफ है अस्तु वह उठी और धीरे-धीरे कदम दबाती हुई उस तरफ चली। कुछ ही दूर जाने पर मुहाना आ पहुँचा और वहीं इन्दु को यह भी मालूम हुआ कि मोटे बाँसों की टट्टी से वह मुहाना मजबूती के साथ बन्द है जिसे तोड़ कर बाहर निकल जाना मुश्किल है। वह वहीं खड़ी हो गई और देखने लगी।

चन्द्रमा की निर्मल चाँदनी उस पहाड़ी की पूरी छटा दिखा रही थी जिसकी जड़ में यह तथा और भी कोई छोटी गुफाएँ थीं।

इन्दु के कैदखाने वाली गुफा के सामने कई मोटे-मोटे कुन्दे आग के सुलग रहे थे और पास ही एक आदमी पत्थर के ढोंके के साथ उठंगा हुआ था। गौर करने से मालूम हुआ कि वह बैठा रहने पर भी गहरी नींद की चपेट में है क्योंकि उसका सिर बार-बार उसकी छाती पर लुढ़क जाता था। कभी-कभी वह आँखें उठा कर अपने चारों तरफ देख भी लेता था मगर इस बात की तो उसे जरा भी खबर नहीं थी कि उसका वह कैदी जिसकी निगहबानी के लिए वह यहाँ बैठाया गया है उसके पास आ पहुँचा और निकल भागने की तर्कीब सोच रहा है।

इन्दु का ध्यान अपने ऐयारी के बटुए की तरफ गया और साथ ही यह जान उसकी प्रसन्नता की हद न रही कि वह बटुआ अभी तक उसके पास ही मौजूद है जिसे वह बहुत होशियारी से छिपा कर अपने कपड़ों के अन्दर दबाए थी। इन्दु ने धीरे-धीरे बटुआ खोला और अपने सामने रख उसमें से कुछ चीजें बाहर निकालने लगी।

पहिले तो उसने एक दवा की शीशी निकाली और उसका काग खोल कर उसे अच्छी तरह सूँघा, इसके बाद काग बन्द कर उसे बटुए के हवाले किया और किसी चीज के छोटे-छोटे टुकड़े निकाले जो देखने में राल या गूगल की तरह मालूम होते थे। इन टुकड़ों को उसने उस आग में फेंक दिया जो गुफा के मुहाने के पास पड़ने के साथ ही वे टुकड़े जलने लग गए और एक प्रकार की हलकी सुगन्ध चारों तरफ फैलने लगी।

मालूम होता है कि पहरेदार की नाक तक भी खुशबू पहुँची क्योंकि उसने एक बार आँख खोल चारों तरफ देखा, दो-चार लम्बी साँसें लीं और तब पुन: उसी तरह आँखें बंद कर लीं। थोड़ी देर बाद इन्दु ने पुन: उसी तरह के कुछ टुकड़े निकाले और आग में फेंका।

उस पहरेदार पर इन टुकड़ो की खुशबू का विचित्र असर पड़ा। उसकी गरदन झुक गई और इसके बाद ही धीरे-धीरे वह जमीन पर लेट गया, साथ ही साँस लेने के ढंग ने इन्दु पर यह भी जाहिर कर दिया कि उसकी कारीगरी काम कर गई और पहरेदार बेहोश हो गया। इन्दु ने एक खुशी भरी निगाह चारों तरफ डाली और पूरा सन्नाटा पा अपने बटुए से औजार निकाल बाँस की इस जाली को धीरे-धीरे काटना शुरू किया।

बहुत होशियार और आहिस्तगी के साथ धीरे-धीरे इन्दु ने उस जाली को काट कर इतना बड़ा रास्ता पैदा कर लिया जिसकी राह वह उस खोह के बाहर निकल आ सके, अभी तक चारों तरफ पूरा सन्नाटा था और कहीं से किसी तरह की आहट नहीं लग रही थी अस्तु इन्दु ने खुशी-खुशी अपना बटुआ कमर से लगाया और खोहके बाहर आ दबे पाँव मैदान की तरफ बढ़ चली जिधर बिल्कुल सन्नाटा था।

मगर पचास कदम से ज्यादा वह न गई होगी की पीछे से आवाज आई, ‘‘खड़ी रह, भागी कहाँ जाती है!’’

डर और चौंक कर इन्दु ने पीछे फिर देखा और उसी घनी दाढ़ी-मोछों वाले आदमी को अपनी तरफ आते पाया जिसे ऊपर के बयानों में हम कई बार सरदार के नाम से सम्बोधन कर चुके हैं।

सर० : (पास पहुँच कर) क्यों, क्या मज़े में भाग आई और इस बात की खबर ही नहीं मैं तेरी सब कार्रवाई देख रहा हूँ।

इन्दुमति घबड़ा कर रुक गई और उस आदमी का मुँह ताकने लगी। इसी समय उनके पास कोई हथियार भी नहीं था जिससे काम लेती क्योंकि उसके कैद करने वालों ने इस बात का ख्याल रक्खा था और उसके सब हथियार छीन लिए थे। वह बेचैनी और निराशा के साथ खड़ी सरदार का मुँह देखने लगी।

इन्दु० : आप लोग व्यर्थ ही मुझ बेकसूर को सता रहे हैं। मैंने आप लोगों का क्या बिगाड़ा है?

सर० : क्या तूने हम लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ा?

इन्दु० : मैं तो आपको पहिचानती तक नहीं...

सर० : ठीक है, इसी से यह बात कहती है, अगर जानती तो ऐसा कदापि न कहती।

इन्दु० : आखिर कुछ मालूम भी हो कि आप लोग कौन हैं?

सर० : (रुककर) हम लोग महाराज शिवदत्त के नौकर हैं और उन्हीं के हुक्म से तुम्हें और प्रभाकरसिंह को गिफ्तार करने के लिए यहाँ आये हैं। प्रभाकरसिंह हमारे फन्दे में पड़ ही चुके हैं, और तुम भी गिरफ्तार हो गईं, अब हम तुम्हें मालिक के पास ले चलेंगे और मनमाना इनाम पावेंगे।

यह बात सुनते ही इन्दु के नाजुक कलेजे में चोट-सी लगी। यह जानकर कि वह शिवदत्त के आदमियों के कब्जे में है उसे बेतरह रंज हुआ और उसने अपनी जिन्दगी की आशा बिल्कुल ही छोड़ दी मगर इससे भी ज्यादा रंज उसे उस आदमी के इन शब्दों पर हुआ कि प्रभाकरसिंह हमारे फन्दे में पड़ चुके हैं।

उसके दिल में तरह-तरह के ख्याल दौड़ने लगे और वह भयानक समा कुछ देर के लिए उसकी आँखों के सामने घूम गया जब शिवदत्त ने उसे अपने महल में कैद कर दिया था और प्रभाकरसिंह बड़ी बहादुरी के साथ बहुत-से आदमियों को मार उसे छुड़ा ले भागे थे। सच तो यह है कि इन्दु बिल्कुल ही निराश हो गई और उसकी आँखों से आँसू की बूँदे गिरने लगी, पर उस सरदार ने यह देख बेदर्दी से कहा, ‘‘अफसोस करने से क्या फायदा, यह कहो कि सीधी तरह से हमारे साथ चले चलना मंजूर है या जबर्दस्ती की जाय?’’

इन्दु० : चाहे जान चली जाय मगर तुम दुष्टों के कब्जे में पड़ना मंजूर नहीं!

इतना कहने के साथ ही इन्दु पलट पड़ी और तब तेजी के साथ एक तरफ को भागी, सरदार ने भी उसका पीछा किया। जहाँ तक हो सका इन्दु ने भागने में कसर न की मगर वह आदमी दौड़ने में उससे कहीं तेज़ और मज़बूत था।

इन्दु को विश्वास हो गया कि अपने को किसी तरह उसके हाथों से बचा नहीं सकती, लाचार होकर खड़ी हो गई और जमीन पर से पत्थर का टुकड़ा उठाकर उसने उस आदमी के ऊपर फेंका जो अब बहुत पास आ चुका था। ढोंका उसकी छाती में लगा और वह एक दफे लड़खड़ा गया। इन्दु को मोहलत मिली और उसने एक बगल हटकर दूसरा पत्थर उसके ऊपर मारा। यह उसके सिर में लगा मगर इस बार उस आदमी को भी क्रोध आ गया। उसके झपट कर इन्दु को पकड़ लिया और तब उठाकर जमीन पर पटक दिया।

इसी समय पीछे से एक बारीक जनानी आवाज आई, ‘‘हैं, यह तुम क्या कर रहे हो!’’ उस आदमी ने चौंककर पीछे की तरफ देखा, एक औरत पर नजर पड़ी जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी। उसने ताज्जुब के साथ पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’

औरत : मैं कोई भी होऊँ पर इसमें शक नहीं कि तुम लोगों की दोस्त हूँ।

सर० : तुम यहाँ किसलिए आई और क्या चाहती हो? तुम्हारा नाम क्या है?

औरत : इसका जवाब तुम्हें इससे मिलेगा।

इतना कह उस औरत ने चौकठे में जड़ी हुई एक छोटी-सी तस्वीर निकाली और आगे बढ़कर सरदार के हाथ में दे दी जो कुछ ताज्जुब तथा गौर के साथ सिर झुका कर उसकी तस्वीर को देखने लगा। उस औरत को मौका मिला। उसने एक चादर जो उसके बदन पर थी खोली और उसे फुर्ती से सरदार के सिर पर डाल कर लपेट दिया। जरूर उस कपड़े में बेहोशी की दवा लगी हुई थी जो इतनी तेज थी कि सरदार को बात करने या हाथ-पाँव हिलाने की भी मोहलत न मिली और वह बदहवास होकर जमीन पर गिर गया।

और उसने उस कपड़े को थोड़ी देर तक और उसके मुँह पर रहने दिया और तब तस्वीर पुन: ठिकाने कर इन्दु की तरफ बढ़ी जो अब उठकर बैठ गई थी और ताज्जुब के साथ यह सब हाल देख रही थी। उसने हाथ का सहारा देकर इन्दु को उठाया और कहा, ‘‘यहाँ बात करने की फुरसत नहीं है, तुम मेरे पीछे-पीछे चली आओ।’’

इन्दु का कमजोर दिमाग इस समय इस लायक नहीं था कि वह कुछ ज्यादा सोच-विचार कर सकती। उसने इस औरत का कहा करना ही मुनासिब समझा जिसने उसे बचाया था क्योंकि शिवदत्त के आदमियों के हाथ में पड़ने की बनिस्बत उसने मौत के मुँह में जाना भी लाख दर्जे अच्छा समझा हुआ था। वह बगैर कहे-सुने उठ खड़ी हुई और उस औरत के पीछे रवाना हुई।

कभी दौड़ती और तेजी से चलती हुई उस नकाबपोश औरत ने उस समय तक दम न लिया जब तक कि वह उस जगह से काफी दूर निकल न गई जहाँ शिवदत्त के आदमियों का डेरा था। बहुत दूर निकल जाने पर जब उसने यह समझ लिया कि अब किसी तरह का डर नहीं है तो वह रुक गई और खड़ी होकर इन्दुमति की राह देखने लगी जो बिल्कुल थक जाने के कारण पीछे छूट गई थी। पास पहुँचकर इन्दु ने कहा, ‘‘ओफ, अब मैं बिल्कुल थक गई और जरा भी नहीं चल सकती।’’

औरत : अब कोई डर की बात भी नहीं है क्योंकि हम लोग उन कम्बख्तों को दूर छोड़ आए हैं। आओ, (एक साफ जगह बताकर) इस जगह बैठ जाओ, सुस्ता लो, और तब बताओ कि तुम कौन हो और इन लोगों के हाथ में क्योंकर पड़ गई?

कुछ देर तक इन्दु इस लायक न थी कि बातचीत कर सकती या किसी सवाल का जवाब दे सकती मगर धीरे-धीरे उसके होश-हवास दुरुस्त हुए और वह बातचीत के इरादे से उस औरत की तरफ घूमी।

इन्दु० : तुमने मुझे बड़ी भारी दुश्मन के हाथ से बचाया।

औरत : वह आदमी कौन था जो तुमसे हाथापाई कर रहा था?

इन्दु० : वह महाराज शिवदत्त का कोई ऐयार था, उसी के आदमियों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, मैं किसी तरह छूट कर भाग रही थी जब उस कम्बख्त की निगाह पड़ गई और उसने मुझे पुन: पकड़ना चाहा, तुम्हारी बदौलत मुझे उसके हाथों से छुट्टी मिली।

औरत : (आश्चर्य से) तो क्या वे लोग शिवदत्त के आदमी थे! मैं आज कई दिनों से उन लोगों की कार्रवाई देख रही हूँ पर मुझे इसका गुमान न हुआ था कि शिवदत्त के आदमी होंगे। (कुछ देर चुप रहकर) अच्छा तुमको शिवदत्त से क्या सम्बन्ध?

यह एक ऐसा सवाल था कि जिसका जवाब देने के लिए इन्दुमति तैयार न थी क्योंकि ऐसा करने से उसे अपना सब हाल इस अजनबी औरत को बताना पड़ता जिसके विषय में वह कुछ भी नहीं जानती थी, अस्तु वह कुछ तरद्दुद में पड़ गई कि इस बात का क्या जवाब दे।

उधर वह औरत भी चन्द्रमा की रोशनी में बड़े गौर से इन्दुमति का चेहरा देख रही थी। यकायक चौक पड़ी और बोली, ‘‘हैं, तू इन्दु तो नहीं है!’’

इन्दु० : बेशक मेरा नाम इन्दुमति है, मगर क्या तुम मुझे जानती हो?

औरत : बखूबी, मगर बहिन इन्दु, आजकल तो तू इन्द्रदेवजी के यहाँ न रहती थी, फिर इन कम्बख्तों के फेर में कैसे पड़ गई?

इन्दु० : मैं अपने पति को छुड़ाने निकली और इस मुसीबत में पड़ गई।

औरत : ओह, मैं नहीं कह सकती कि तुझे देखकर आज मुझे कितनी प्रसन्नता हुई, आज वर्षों बाद तेरी सूरत देखने आई। ओह, वह दिन अभी तक मेरी आँखों के सामने है जब तेरी......

इन्दु० : मगर ताज्जुब की बात है कि आपकी आवाज से मैं बिलकुल नहीं जान पाती कि आप कौन हैं?

औरत : (अपनी नकाब पीछे की तरफ उलट कर) मैं समझती हूँ कि मेरी सूरत देखकर भी तू मुझे न पहिचान सकेगी जिसमें कैद की सख्तियों ने बहुत बड़ा फर्क डाल दिया है।

इन्दुमति ने बड़े गौर से औरत की सूरत देखी। यद्यपि चेहरा देखते ही इस बात में शक तक नहीं रह जाता था कि इसने भारी तकलीफ और मुसीबत उठाई है तथापि कमजोर और दुबली-पतली होने पर भी उस औरत की खूबसूरती और सुडौली गजब की थी। साफ गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, पतली नाक और सुडौल मुँह देखने से यह विश्वास होता था कि यदि वह औरत स्वतंत्रता और सुख की जिन्दगी बिता सकती तो खूबसूरती और नजाकत में अपना सानी आप होती।

न जाने क्यों इन्दुमति का दिल इस औरत की तरफ खिंच गया, शायद इसका सबब यह हो कि दो मुसीबतजदों के मिल बैठने से आपस में एक तरह का मेल हो ही जाता है।

इन्दु बड़ी देर तक गौर से इस औरत की सूरत देख रही थी। उसके दिल में यह बात तो बार-बार उठती थी मैंने नि:सन्देह इसे पहिले कभी देखा है, पर कब और कहाँ यह बिल्कुल याद नहीं आता था। आखिर इन्दु ने कहा--

इन्दु० : मैंने तुम्हें देखा तो जरूर है मगर कब और कहाँ यह बिल्कुल नहीं याद आता, हाँ अगर तुम परिचय दो बेशक पहिचान जाऊँ।

औरत : इस समय मैं इससे ज्यादा अपना और कोई परिचय नहीं दे सकती कि हम तुम दोनों ही पर मुसीबतों का पहाड़ गिरा है और हमारे भाग्यों का फैसला भी कदाचित एक ही जगह होने वाला है तथा इस तरह पर हम दोनों बहिनें हैं।

इस समय मैं लाचार हूँ कि न तो अपना परिचय दे सकती हूँ और न असली नाम ही बता सकती हूँ पर बहिन इन्दुमति, तू विश्वास रख कि मेरे साथ से सिवाय तेरी भलाई के बुराई कभी न होगी, और मुझे यह भी निश्चय है कि जिस समय तू मेरी परिचय पावेगी बहुत ही खुश होगी, मगर...।।

इन्दु० : मगर क्या?

औरत : मगर मुझे रंग-ढंग बहुत बुरे नजर आ रहे हैं। तेरी बहिनें जमना और सरस्वती तिलिस्म में फँस गईं। तेरे पति दूसरी ही मुसीबत में जा पड़े, इन्द्रदेव बेचारे अलग ही तरद्दुद में पड़े हुए हैं। हम लोगों के दुश्मनों की गिनती बढ़ती जा रही है, और उनके जाल इस मजबूती से चारों तरफ फैले हुए हैं कि बचकर निकल जाना असम्भव मालूम होता है!

इन्दु० : क्या तुम्हें उनका हाल मालूम है?

औरत : किसका, तेरे पति का?

इन्दु० : हाँ।

औरत : हाँ बहुत कुछ, बल्कि कहना होगा कि अभी कल ही परसों तक वे मेरे मेहमान थे, मगर अब कहाँ या किस हालत में हैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती।

इन्दु० : कल तक वे तुम्हारे मेहमान थे? तब तो तुम उनका बहुत कुछ हाल जानती होगी। मगर तुम कहती हो अब वे कहाँ या किस हालत में हैं यह नहीं कह सकती, तो क्या वे कहीं चले गए हैं?

औरत : हाँ, उन्होंने मुझसे रँज होकर मेरा मकान छोड़ दिया और मुझे गुमान होता है कि शायद वे पुन: दुश्मनों के कब्जे में पड़ गए।

इसी समय इन्दु को उस सरदार की वह बात याद आ गई जो उसने कही थी, अर्थात् ‘‘प्रभाकरसिंह तो हमारे फन्दे में पड़ चुके हैं, अब तुम्हें गिरफ्तार करके मालिक के पास ले चलेंगे!’’ उसने कहा–

इन्दु० : जिस आदमी के हाथ से तुमने अभी-अभी मुझे छुड़ाया है उसकी एक बात से मुझे मालूम होता है कि उन्हीं लोगों ने उनको भी गिरफ्तार कर लिया है।

औरत : क्या ऐसी बात है? (सोचकर) यद्यपि विश्वास तो नहीं होता फिर भी मैं बहुत जल्द इस बात का पता लगा लूंगी। क्या तुम कुछ ऐयारी भी जानती हो?

इन्दु० : बहुत थोड़ी, इन्द्रदेव से ही मैंने कुछ ऐयारी सीखी थी।

औरत : तो ठीक है, तुम्हें मेरी मदद करनी चाहिए।

इन्दु० : मैं दिलोजान से मदद करने को तैयार हूँ बल्कि मेरा एक साथी भी है जो तुम्हारी मदद करेगा।

औरत : वह कौन है?

इन्दु० : ठीक परिचय तो मैं नहीं जानती, मगर आदमी होशियार और विश्वासी है और इन्द्रदेवजी ने ही उसे मेरी मदद के लिए भेजा हुआ है, उसका नाम अर्जुन है।

औरत : वह इस समय कहाँ है?

इन्दु० : उनका पता लगाने जमानिया गया हुआ था। जब मैं शिवदत्त के कब्जे में पड़ गई तब के बाद का हाल नहीं मालूम कि अब कहाँ है या क्या कर रहा है, मगर ताज्जुब नहीं कि खुद ही मेरा पता लगाकर शीघ्र ही मुझसे मिल जाए क्योंकि वह बहुत होशियार है।

औरत : खैर देखा जाएगा, अच्छा अब यह कहो कि इस समय तुम्हारा क्या इरादा है! कहाँ जाओगी और क्या करोगी?

इन्दु : अब जो कहो सो करूँ।

औरत : मेरा स्थान इस जगह के पास ही है। मेरी राय है कि इस समय तुम वहाँ ही चलो और रात आराम करो, फिर सुबह को सलाह करके जो मुनासिब समझो करेंगे।

इन्दु० : मैं चलने को तैयार हूँ मगर तुम तो अपना कोई परिचय, यहाँ तक कि नाम बताना नहीं चाहतीं, ऐसी हालत में, जब कि तुम्हें मुझ पर विश्वास ही नहीं है...

औरत : नहीं-नहीं बहिन इन्दु, इस बात को तो तू स्वप्न में भी खयाल न कर कि मैं तुझे अविश्वास की नजर से देखती हूँ या देखूँगी, केवल कई कारण ऐसे पड़ गए हैं जिनसे लाचार होकर इस समय मुझे अपने को तुझसे छिपाना पड़ता है। तू निश्चय रख कि जब तू मेरा परिचय पावेगी तो तुझे प्रसन्नता होगी और इस समय मुझ पर विश्वास करने के कारण तुझे कभी अफसोस करना न पड़ेगा।

इन्दु० : आपने जिन दुष्टों के हाथों से मुझे बचाया है उनके कब्जे में रहने की बनिस्बत मैं मौत को हजार गुना अच्छा समझती हूँ अस्तु मैं अविश्वास तो आप पर कभी कर ही नहीं सकती, इसके सिवाय न जाने क्यों मेरा दिल आपकी तरफ खिंचता है, इसलिए जो कुछ आप कहें मैं करने को तैयार हूँ, मगर आप कम-से-कम ऐसा कोई नाम तो बता दें जिससे मैं आपको पुकारा करूँ। यदि असली नाम न बता सकें तो कोई बनावटी ही सही।

औरत : (मुस्कुराकर) तू जो चाहे मेरा नाम रख ले।

इन्दु० : तुमने मुझे बड़े भारी दुश्मन के हाथ से बचाकर मेरा कल्याण किया है इससे मैं तुम्हें ‘कल्याणी’ कहा करूँगी।

औरत : (हँसकर) अच्छी बात है, तू कल्याणी ही कह के मुझे पुकारा कर।

इन्दु० : बहुत ठीक।

औरत : तो बस उठो, देर करने की जरूरत नहीं, अब एकदम ठिकाने पर चलकर ही आराम किया जाएगा।

इतना कह वह औरत (कल्याणी) उठ खड़ी हुई, इन्दु भी खड़ी हो गई और तब कल्याणी इन्दु को लिए दक्षिण की तरफ चली।

थोड़ी देर के बाद दोनों उस टीले के पास जा पहुँची जिस पर लोहगढ़ी की विचित्र इमारत थी जिसका हाल ऊपर कई जगह लिख चुके हैं। इन्दु ने पूछा, ‘‘क्या यही तुम्हारा मकान है? कल्याणी : हाँ आजकल मैं अपना डेरा यहीं जमाए हुए हूँ।

इन्दु० : क्या यह तुम्हारे बुजुर्गों का बनवाया हुआ है?

कल्याणी : नहीं-नहीं, यह जमानिया के राजा का है और उन्हीं के बुजुर्गों का बनवाया हुआ है, पर आजकल बहुत दिनों से यों ही खाली पड़ा रहता था, इसीलिए मैंने इसमें अपना डेरा रक्खा है।

इन्दु० : तो इससे पहले तुम कहाँ रहा करती थीं?

कल्याणी : (कुछ रुकती हुई) कम से कम कुछ वर्षों तक तो जमानिया के दारोगा की कैद में?

इन्दु० : दारोगा की कैद में?

कल्याणी : हाँ, वर्षों तक मैं उसकी कैद में ही रही और इस बीच में जैसी तकलीफ मुझे उठानी पड़ी उसे मैं ही जानती हूँ।

इन्दु० : वह कम्बख्त है भी बड़ा ही कमीना, हम सभी को उसी के कारण तकलीफें उठानी पड़ी हैं। मगर तुम्हारी उसकी दुश्मनी का सबब क्या हुआ?

कल्याणी : वह बड़ी लम्बी कहानी है। इस समय कहने लायक नहीं।

इन्दु० : खैर जब मुनासिब समझना तभी कहना। अच्छा क्या यह बात बता सकती हो कि तुम दारोगा की कैद से छूटीं कब और किस तरह?

कल्याणी : मेरे एक बुजुर्ग ने मुझे छुड़ाया और फिर इस जगह के कुछ भेदों को बताकर यहीं रहने की सलाह दी। तब से मैं इसी जगह रहती हूँ और दारोगा से बदला लेने का मौका ढूँढ़ा करती हूँ।

इन्दु० : क्या यहाँ तुम्हारे दुश्मन नहीं पहुँच सकते?

कल्याणी : पहुँच तो जरूर सकते हैं मगर बहुत कठिनाई से, और फिर यहाँ छिप जाने की भी बहुत-सी जगहें हैं। इसी खयाल से मैं प्रभाकरसिंह जी को भी यहाँ ले आई थी पर उन्हें मुझ पर विश्वास न हुआ वे यहाँ से चले गए। तब से फिर उनका कोई पता नहीं कि कहाँ गये या क्या हुए।

इन्दु० : वे तुम्हें कहाँ और क्योंकर मिले?

उस कमरे के बगल ही में एक कोठरी थी और उस कोठरी में ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। वह बुड्ढा दोनों कुमारों को साथ-साथ लिये हुए उस कोठरी में और वहाँ से सीढ़ियों की राह चढ़कर उसके ऊपरवाली छत पर ले गया। उस मंजिल में भी छोटी-छोटी कई कोठरियाँ और कमरे थे।

बुड्ढे के कहे मुताबिक दोनों कुमारों ने एक कमरे की जालीदार खिड़की में से झाँककर देखा तो इस इमारत के पिछले हिस्से में एक और छोटा-सा बाग दिखायी दिया, जो बनिस्बत इस बाग के जिसमें कुमार एक दिन रात रह चुके थे, ज्यादे खूब सूरत और सरसब्ज नजर आता था। उसमें फूलों के पेड़ बहुतायत से थे और पानी का एक छोटा-सा झरना भी बह रहा था, जो इस मकान की दीवार से दूर और उस बाग के पिछले हिस्से की दीवार के पास था और उसी चश्में के किनारे पर कई औरतों को भी बैठे हुए दोनों कुमारों ने देखा।

पहिले तो कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को यही गुमान हुआ कि ये औरतें किशोरी, कामिनी और कमलिनी इत्यादि होंगी। मगर जब उनकी सूरत पर गौर किया तो दूसरी औरतें मालूम हुई, जिन्हें आज के पहिले दोनों कुमारों ने कभी नहीं देखा था।

इन्द्रजीत : (बुड्ढे से) क्या वे ये ही औरतें हैं, जिनका जिक्र तुमने किया था और जिनमें से एक औरत का नाम तुमने कमलिनी बताया था?

बुड्ढा : जी नहीं, उनकी तो मुझे कुछ भी खबर नहीं कि वे कहाँ गयी और क्या हुईं।

आनन्द : फिर ये सब कौन हैं?

बुड्ढा : इन सभों के बारे में इससे ज्यादे और मैं कुछ नहीं जानता कि ये सब राजा गोपालसिंह की रिश्तेदार हैं और किसी खास सबब से राजा गोपालसिंह ने इन लोगों को यहाँ रख छोड़ा है।

इन्द्रजीत : ये सब यहाँ कब से रहती हैं?

बुड्ढा : सात वर्ष से।

ये दोनों बातें करती हुई टीले पर चढ़ती जाती थीं यहाँ तक कि अब उस जगह आ पहुँची जहाँ से गढ़ी के भीतर का रास्ता था, अस्तु कल्याणी ने इन्दु से कहा, ‘‘अब हम लोग पहिले इस मकान के अन्दर हो जाएँ तो तुम्हारी बातों का जवाब दूँ।’’

इन्दु यह सुन चुप हो रही और कल्याणी के पीछे-पीछे जाने लगी जो इस मकान के अद्भुत दरवाजों को खोलती और बन्द करती हुई अँधेरे में ही बढ़ी जा रही थी।

इन्दु को इसके पहिले भी तिलिस्मी मकानों और घाटियों में जाने का मौका मिल चुका था अस्तु उसे निश्चय हो गया कि मकान भी जरूर तिलिस्म से संबंध रखता है, मगर इस समय इस विषय में कल्याणी से कुछ पूछना उसने उचित न समझा।

शीघ्र ही ये दोनों उस विचित्र मकान के अन्दर बल्कि कोठरी में जा पहुँची जहाँ कल्याणी का डेरा था। कल्याणी ने रोशनी की और दोनों औरतें जमीन पर बिछे हुए फर्श पर बैठ गई।

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