मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4 भूतनाथ - खण्ड 4देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण
सोलहवाँ बयान
बेचारी इन्दुमति के दिल की क्या हालत थी इसे बयान करना ही हमारी ताकत के बाहर है। यद्यपि अब तक उसकी बदकिस्मती उसे तरह-तरह के दु:ख दे चुकी थी पर इन्द्रदेव की छाया के नीचे आकर वह बदकिस्मती के साए को अपने सर पर से हट गया-सा समझने लगी थी। दयाराम के जिन्दा मिल जाने और अपने सास-ससुर को भी पुन: जिन्दा पाने पर वह समझ बैठी थी कि अब वह अपनी जिंदगी आराम के साथ बिता सकेगी, पर नहीं, यकायक अपने पति,दयाराम, जमना, सरस्वती, सभों के एक साथ गायब हो जाने ने उसे बता दिया कि उसका वह विचार गलत था अभी उसका अदृष्ट उसे और भी तमाशे दिखाया चाहता है।
इन्दुमति बुद्धिमान थी, चतुर थी, नीतिकुशल थी और जानती थी कि दु:ख और सुख कोई भी चिरस्थायी नहीं होता, वह समझती थी कि एक से दिन किसी के कभी नहीं बीतते, आज यदि रोकर तो कल हँसकर, आज यदि दु:ख के साथ तो कल प्रसन्नता के साथ, आज मुसीबत के साथ तो कल सुख के साथ जिन्दगी के दिन उसे काटने ही होंगे, पर तो भी, यह सब जानकर भी आज अपनी तबीयत को सम्हालना उसके लिए असम्भव हो रहा था। उसके सास-ससुर की समझाने-बुझाने वाली बातों ने, जो जमाना देखे हुए और बहुत कुछ सुख-दुख झेले हुए थे, उसे और भी दु:खी कर दिया था। दिवाकरसिंह और नन्दरानी भी यद्यपि लड़के के लिए उदास और चिन्तित हो रहे थे तो भी इन्दुमति के कारण उन्हें अपनी उदासी छिपानी और उसे दिलासा देना ही पड़ता था, मगर ये दमदिलासे की बातें इन्दुमति के क्षोभ को केवल बढ़ा ही रही थीं।
इन्दुमति को इन्द्रदेव ने थोड़ी ऐयारी सिखाई थी और अपने को इस विषय में पण्डित न समझने पर भी वह बहुत कुछ कर गुजरने के लायक समझती थी, यही कारण था कि वह कई बार इन्द्रदेव और उनके नाहीं करने पर अपने सास और ससुर से इस बात की आज्ञा माँग चुकी थी कि सूरत बदलकर बाहर निकले और अपने पति या बहिनों को खोज निकालने की कोशिश करे।
उसके बार-बार कहने, रोने और बिलखने से लाचार होकर आखिर इन्द्रदेव ने इस बात की इजाजत दे दी की घाटी के बाहर निकले और अपने पति को खोजने का उद्योग करे, मगर साथ ही यह भी कह दिया कि मैं तुम्हारी मदद के लिए एक विश्वासी ऐयार दूँगा, उसे हरदम साथ रखना और उसी की राय से सब काम करना। यद्यपि इन्दुमति ने इसे भी एक प्रकार का बन्धन की समझा तो भी लाचारी ही हालत में इन्द्रदेव की यह बात उसे माननी ही पड़ी। इन्द्रदेव ने उससे यह बी कह दिया कि जो आदमी उसकी मदद के लिए उसके साथ रहेगा वह अपनी सूरत और नाम छिपाये रहेगा, मगर इससे इन्दुमति को किसी प्रकार से घबराने या सन्देह करने की आवश्यकता नहीं।
आखिर एक दिन इन्दुमति अपने इसी साथी को लिए ऐयारी के सामान से दुरुस्त हो घाटी के बाहर निकली।
मुहाने ही पर उम्दे कसे-कसाये घोड़े लिए दो साईस खड़े थे जिन पर इन्दु और उसका साथी सवार होकर एक तरफ को रवाना हुए। घाटी के बाहर आने के पहिले ही इन्दु ने अपने साथी से सलाह करके यह तय कर लिया था कि क्या करना और पहले किधर चलना चाहिए। यहाँ यह कह देना जरूरी है कि इन्दु के इस साथी का नाम इन्द्रदेव ने अर्जुन बताया था और जिस तरह अर्जुन ने सूरत बदलने के सिवाय अपने तेहरे पर नकाब डाली हुई थी उसी तरह इन्दुमति ने भी सूरत बदलकर नकाब लगाई हुई थी। इन्दु को विश्वास था कि जमानिया जाने से अवश्य प्रभाकरसिंह का पता लगेगा, अस्तु, अर्जुन (इन्दु का साथी) और इन्दु दोनों तेजी के साथ जमानिया ही की तरफ रवाना हुए। इस समय इन्दु अपने किसी सोच में डूबी हुई थी और अर्जुन अपने ही किसी खयाल में डूबा हुआ था इसलिए दोनों में ज्यादा बातचीत न हुई।
इन्द्रदेव के मकान से जमानिया तीस-पैंतीस कोस से ज्यादा न होगा अस्तु कुछ दिन रहते ही दोनों जमानिया के पास जा पहुँचे, इन्दु का इरादा तो उसी समय जमानिया चले चलने और ऐयारी करके कुछ पता लगाने का था मगर अर्जुन ने इस बात को स्वीकार न किया और कहा कि हम दोनों ही थक गये हैं और हमारे घोड़े भी आराम माँगते हैं, इस समय शहर में जाना व्यर्थ और अनुचित होगा उत्तम यही है कि आज की रात शहर के बाहर ही किसी खण्डहर या पेड़ पर काट दी जाय और कल सुबह को सब तरह से लैस होकर जमानिया चलें, लाचार इन्दुमति को यह बात माननी पड़ी।
जमानिया के बाहर टूटे हुए मकानों और खण्डहरों की कमी न थी अस्तु, अर्जुन इन्दुमति को एक ऐसे मकान के अन्दर ले गया जो यद्यपि टूटा-फूटा था, पर तो भी दो-चार आदमियों के छिपकर रहने के लिए काफी और आम मुसाफिरों की निगाहों से दूर पड़ता था। अर्जुन ने दोनों घोड़ों को भी इस मकान के अन्दर ही छिपाने का बन्दोबस्त कर लिया और उनकी पीठ खाली करने के बाद कहीं से लाकर घास उनके सामने डाल दी।
इसके बाद वह अपने और इन्दुमति के लिए भोजन बनाने की फिक्र में लगा। मगर इन्दु ने इस समय कुछ मेवे पर ही सन्तोष करना मुनासिब समझा जो उसके साथ था। मकान के बाहर की तरफ एक कूँआ था और अर्जुन के पास लोटा-डोरी भी मौजूद था अस्तु दोनों ने मेवा खाकर जल पीया और तब कुछ जमीन साफ कर लेट के आराम करने लगे। इस समय रात हो गई थी। मालूम होता है कि फिक्र और तरद्दुद से कमजोर इन्दुमति को थकावट के कारण शीघ्र ही नींद आ गई। क्योंकि जब उसकी झपकी टूटी तो उसने चारों तरफ और अन्धकार और सन्नाटा पाया और गौर किया तो मालूम हुआ कि उसका साथी अर्जुन भी मीठी नींद में मदहोश हो रहा है।
इन्दु की नींद किसी प्रकार की आहट पाकर टूटी थी और जागने के साथ ही उसे पुन: वही आहट लगी। ऐसा मालूम हुआ कि मानो पास ही कहीं दो आदमी आपस में बातें कर रहे हैं। यह जानते ही इन्दु चैतन्य होकर उठ बैठी और यह जानने की कोशिश करने लगी कि यह आवाज किसकी है और किधर या कहाँ से आ रही है।
कुछ देर बाद इन्दु उठ खड़ी हुई और दबे पाँव उस कोठरी के बाहर निकल आई जिसमें पड़ी हुई थी। आवाज की सीध पर आहट लेती हुई वह उस खण्डहर के बाहर निकल आई और तब मालूम हुआ कि यह बातचीत की आवाज दो आदमियों की है जो मकान के बाहर की तरफ से एक टूटे दालान में बैठे हुए हैं। बड़ी होशियारी के साथ पैर दबाती हुई इन्दु उस दालान के पास पहुँची और एक मोटे खम्भे की आड़ देकर खड़ी हो उनकी बातें गौर से सुनने लगी।
एक : मालूम होता है आज इस खण्डहर में कोई टिका हुआ है क्योंकि मैं अन्दर गया तो कुछ आहट मालूम पड़ी थी।
दूसरा : अकसर रात के समय जमानिया पहुँचने वाले मुसाफिर इन्हीं खण्डहरो में रात बिता दिये करते हैं।
पहिला : मगर क्या ऐसा करना इनके लिए मुनासिब है?
दूसरा : क्यों? इसमें मुनासिब होने-न-होने की कौन-सी बात है?
पहिला : अब यह तो आप ही समझिए!
दूसरा : मैं क्या समझूँ, कुछ कहो भी तो!
पहिला : यहीं न उस गुप्त कमेटी की बैठक हुआ करती है जिसने जमानिया वालों के नाक में दम कर रक्खा है!
दूसरे आदमी ने इस बात का कुछ जवाब न दिया जिस पर वह पहिला आदमी पुन: बोला, ‘‘कहिए चुप क्यों हो गए! क्या मैं गलत कहता हूँ?’’
दूसरा : भाई, ऐसे स्थान पर ऐसी बातों का जिक्र न करना ही अच्छा है। न जाने किसके कान में हमारी कौन-सी बात पड़ जाय।
पहिला : (लापरवाही के साथ) ओह, इस रात के समय यहाँ कौन हमारी बात सुनने आता है!
दूसरा : क्यों अभी तुम ही न कह चुके हो कि इस खण्डहर में कोई मुसाफिर उतरा हुआ है।
पहिला : वह कहीं पड़ा खुर्राटे लेता होगा कि हमारी बातें सुनने को बैठा है। और फिर सुनकर ही हमारा क्या बिगाड़ लेगा?
दूसरा : हाँ सो तो ठीक है। (रुककर) क्या बतावें, अब तो इस शहर में रहने को जी नहीं चाहता, लाचारी जान मारती है नहीं तो कभी का शहर छोड़ दिए होते।
पहिला : मगर आखिर क्यों?
दूसरा : हमारे रहमदिल और सूधे महाराज की जान अब मुफ्त में जाया चाहती है।
पहिला : हैं, सो क्या?
दूसरा :कमेटी का यही हुक्म है।
पहिला : यह तो तुमने बड़ी बुरी खबर सुनाई! महाराज से तुम्हारी कमेटी इतना बड़ा रंज क्यों मान बैठी?
दूसरा : क्योंकि उन्हें इस कमेटी की कार्रवाइयों का पता लग गया और वे अब दारोगा साहब की चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं फँसते।
पहिला : मगर भाई, महाराज की जान तो अवश्य बचानी चाहिए! तुम उन्हें किसी तरह से होशियार नहीं कर सकते?
दूसरा : मुझे क्या अपनी जान भारी है जो ऐसा करूँ? एक बार कुछ कर बैठा तो जान बचानी कठिन हुई, अब पुन:...
पहिला : क्या कभी ऐसा मौका पड़ा था?
दूसरा : हाँ।
पहिला : कब? कहाँ?
दूसरा : अब यह सब पूछकर क्या करोगे?
पहिला : फिर भी!
दूसरा : एक दिन ठीक कमेटी के मौके पर एक विचित्र आदमी वहाँ पहुँचा दारोगा साहब ने उसे रोकने और गिरफ्तार करने का हुक्म दिया मगर उल्टे उसी ने कई आदमियों को बेकार कर दिया। उसके बदन पर एक ऐसा तिलिस्मी कवच था कि कोई आदमी उसे हाथ नहीं लगा सकता था।
पहिला : तब क्या हुआ?
दूसरा : दारोगा साहब ने उसे धोखा देकर गिरफ्तार करके बल्कि मार डालने का बन्दोबस्त किया। मैंने उसे सावधान कर दिया। जिससे वह निकल गया। इस बात का पता उनको न जाने किस तरह लग गया और वे मुझसे बेतरह नाराज हो बैठे, अखिर बड़ी-बड़ी कोशिशों से मन उनका शान्त हुआ। तभी से उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई करते मुझे डर मालूम होता है।
पहिला : वह कम्बख्त है भी बड़ा खोटा, अपने स्वार्थ के आगे किसी की जान तक को कुछ नहीं समझता। उसका कोई वारिस भी है या नहीं?
दूसरा : सुनते हैं एक भाई है मगर ठीक पता नहीं।
पहिला : मैंने तो सुना है कि इसने बाप को जहर दे दिया और कई रिश्तेदारों को मार डाला।
दूसरा : बेशक ऐसा ही है। रुपये की लालच में पड़कर इन्होंने बहुतों की जानें लीं और ले रहे हैं, अब प्रभाकरसिंह इनके कब्जे में आ पड़े हैं, देखो उनकी क्या दशा करते हैं।
पहिला : क्या प्रभाकरसिंह दारोगा की कैद में हैं?
दूसरा : हाँ, भूतनाथ उन्हें गिरफ्तार करके इनके सुपुर्द कर गया है।
पहिला : प्रभाकरसिंह तो महाराज के रिश्तेदारों में से हैं?
दूसरा : हाँ।
पहिला : मगर दारोगा उन पर भी हाथ साफ करने से बाज नहीं आता।
दूसरा : जब खास महाराज की जान लेना वह कोई चीज नहीं समझता तब उनके रिश्तेदारों को क्या समझता है।
पहिला : हाँ सो तो ठीक है, मगर भाई, यह तो तुमने बड़ी बुरी खबर सुनाई। मुझे तो सुनकर हौल-सा होने लग गया कि बेचारे महाराज गिरधरसिंह की जान मुफ्त जाया चाहती है।
दूसरा : क्या बताऊँ मैं खुद लाचार हूँ, कुछ कर नहीं सकता, दारोगा के...
इसी समय किसी प्रकार की आहट सुन यह आदमी रुक गया और गौर से सुनने लगा पुनः किसी प्रकार की आवाज न आयी मगर इन दोनों की बातों का सिलसिला टूट गया फिर देर तक किसी प्रकार की बातचीत न हुई। कुछ देर बाद उस दूसरे आदमी ने खड़े होकर कहा, ‘‘अब तो मैं अच्छी तरह सुस्ता चुका, चलना चाहिए क्योंकि मालिक के काम का ख्याल रखना जरूरी है।’’
पहिला : चलो मैं तैयार हूँ।
इतना कह वो भी उठ खड़ा हुआ और दोनों आदमी दालान के बाहर निकल गए। अन्धकार के कारण इन्दुमति को बिलकुल पता न लगा कि वे दोनों किधर गए या क्या हुए अस्तु वह अपने ठिकाने जाने के लिए लौटी और घूमी थी कि पास के एक दूसरे खम्भे की आड़ से एक और आदमी को निकलते देख चौंक पड़ी मगर शीघ्र ही मालूम हो गया कि यह उसका साथी अर्जुन ही है।
इन्दु० : आप भी यहाँ आ पहुँचे!
अर्जुन० : हाँ, उन दोनों के बातचीत की आवाज से मेरी नींद टूट गई। उठा तो तुम्हें न पा बेचैनी के साथ ढूँढ़ता हुआ यहाँ आ पहुँचा और इन दोनों की बातें सुनने लगा। इनकी बातों से प्रभाकरसिंह का पता तो लग गया मगर महाराज के विषय में सुनकर तबीयत घबड़ा गई। खैर अब अपने ठिकाने पर चलकर बातें होगी।
इन्दुमति को साथ ले अर्जुन पुन: अपने ठिकाने चला गया और वहाँ बैठकर सलाह होने लगी कि अब क्या करना चाहिए। आखिर बहुत कुछ बातचीत के बाद यह तय हुआ कि अर्जुन तो प्रभाकरसिंह की पूरी टोह लेने जमानिया जाय और इन्मुमति आज का दिन खण्डहर में छिपी रहकर बिता दे। इन्दु का भी इरादा जमानिया जाने और प्रभाकरसिंह को छुड़ाने के काम में मदद देने का था मगर अर्जुन की जिद्द से लाचार उसकी बात माननी ही पड़ी।
सवेरा होने पर जरूरी कामों से छुट्टी पा अर्जुन ने अपनी सूरत बदली और इन्दुमति को बड़ी होशियारी के साथ रहने की ताकीद कर जमानिया की तरफ रवाना हुआ।
अकेले बैठे-बैठे इन्दु का जी घबड़ाने और बेचैन होने लगा इसलिए उसने सोचा कि जब तक अर्जुन लौटकर आवे तब तक अपने घोड़े पर सवार हो इधर-उधर जरा घूम-फिरकर आवे। इन्दु की सूरत तो बदली हुई थी ही, नहाने-
धोने से जो कुछ फर्क पड़ गया था दुरुस्त करने के बाद उसने अपने चेहरे को नकाब से ढाँका और दोनों में से एक घोड़ा खोल (अर्जुन अपना घोड़ा वहीं छोड़ पैदल गया था) वह खण्डहर के बाहर निकली।
सूर्यदेव को उदय हुए बहुत समय नहीं हुआ था। सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा इन्दु के बदन को मसोस डालती थी और खूबसूरत चिड़ियों के गाने की आवाज उसके दिल पर बेढ़ब असर डाल रही थी जो किसी जुदाई से व्याकुल हो रहा था। खण्डहर के बाहर हो इन्दु घोड़े पर सवार हो गई, लगाम ढील दी और घोड़े को सरपट दौड़ाया। तेज घोड़ा सवार का इशारा पाते ही हवा से बातें करने लगा।
लगभग घण्टे भर इसी तेजी के साथ चले जाने के बाद इन्दु ने अपने घोड़े की चाल कम की। ‘‘अब अपने स्थान को लौटना चाहिए’’ यह सोच उसने घोड़ा रोका और पीछे की तरफ उसका मुँह घुमाया मगर उसी समय चौंक पड़ी क्योंकि उसके कानों में शेर के गरजने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने घोड़े का बाग खींची और गौर से चारों तरफ देखा। थोड़ी ही दूर पर एक झाड़ी की आड़ में बैठे हुए एक शेर का पिछला धड़ उसे दिखाई दिया।
क्या करूँ! रुकूँ या आगे चलूँ? सब बातें सोचने में कुछ ही देर इन्दु ने लगाई होगी कि आसपास पेड़ों की आड़ में छिपे हुए कई आदमी निकल आए और उन्होंने आगे बढ़कर इन्दु के घोड़े की लगाम थाम ली। इन्दु समझ गई कि उसे धोखा दिया गया और वह इन लोगों के पंजे में बेतरह पड़ गई मगर तो भी उसने हिम्मत न हारी और कमर से तलवार निकाल कड़ककर बोली, ‘‘तुम लोग कौन हो क्यों मुझे रोक रहे हो?
इन्दु की बात सुन उन आदमियों में से जो उसे घेरे हुए थे एक आदमी सामने आया जिसकी बड़ी-बड़ी और घनी दाड़ी और मोछों को देख ऐयारों को शक हो सकता था कि बनावटी है। इस आदमी ने इन्दु से कहा, ‘‘आप हम लोगों को नहीं जानती और हमीं लोग अपना परिचय दे सकते हैं पर अगर आप अपना ठीक ठीक नाम बता दें तो हम लोग आपको छोड़ देंगे।’’
इन्दु० : (कुछ क्रोध के साथ) सिर्फ नाम जानने की नीयत से एक भली औरत को इस तरह धोखा देकर रोक लेना सभ्यता के बाहर है!
आदमी : जी हाँ, मगर क्या किया जाय, लाचारी है, हम लोग बिना आपका नाम जाने आपको छोड़ नहीं सकते।
इन्दु० : (कुछ सोचकर) मेरा नाम चन्द्रकला है।
आदमी : (गर्दन हिलाकर) नहीं, यह नाम तो आपका नहीं जान पड़ता।
इन्दु० : क्यों?
आदमी : मेरे एक साथी ने मुझे विश्वास दिलाया है कि आपका नाम इन्दुमति है और आप प्रभाकरसिंह की स्त्री हैं!
इन्दु० : मैंने तो इन्दुमति का कभी नाम भी नहीं सुना, अगर आपके किसी साथी ने आपको मेरा यह नाम बताया है तो मेरे साथ बेहूदी दिल्लगी की है और या आपको किसी नीयत से पूरा धोखा दिया है क्योंकि मैं समझती हूँ कि आप लोग जरूर किसी इन्दुमति नामी औरत की तलाश में हैं। खैर जो कुछ हो, मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरा नाम चन्द्रकला है। अब आप लोग दया करके मेरे घोड़े की लगाम छोड़ दें और मुझे जाने दें क्योंकि मैं बहुत ही जरूरी काम से जमानिया जा रही हूँ और अगर देर होगी तो मेरा बहुत बड़ा हर्ज और नुकसान होगा।
आदमी : मगर मुझे आपकी बातों पर विश्वास नहीं होता।
इन्दु० : नहीं होता तो फिर मैं क्या कर सकती हूँ, लाचारी है।
आदमी : खैर आप नकाब हटाकर अपनी सूरत ही दिखाइए।
इन्दु० : (कुछ सोचकर) यद्यपि इस तरह हर एक को सूरत दिखलाना अपनी बेइज्जती कराना है तो भी खैर लीजिए, आप लोग मेरी सूरत देख लीजिए और मुझे जाने दीजिए।
इतना कहकर इन्दु ने अपने हाथ की तलवार म्यान में कर ली और चेहरे से नकाब हटा दी। सब लोग गौर के साथ उसकी सूरत देखने लगे। उस आदमी ने कुछ तरद्दुद के साथ कहा, ‘‘बेशक आपकी सूरत तो इन्दुमति से बिलकुल नहीं मिलती।’’
इतने ही में उस आदमी ने जो इन्दु के घोड़े की लगाम पकड़े हुए था, कहा, ‘‘मगर हमें कैसे विश्वास हो कि इसकी सूरत रंगी हुई नहीं है!’’
आदमी : बेशक यह बात ठीक है। (इन्दु से) आपको अपना चेहरा धोकर हम लोगों को विश्वास दिला देना चाहिए कि आपकी सूरत बनावटी नहीं है।
इन्दु० : (बिगड़कर) आप लोग पूरी तरह मेरी बेइज्जती करने पर उतारू हो गये हैं। क्या आप लोगों ने मुझे कोई बाजारू औरत समझा है कि मैं सभों के सामने अपना चेहरा धोती फिरूँ?
आदमी : (दृढ़ता के साथ) मगर हम लोग बगैर चेहरा धोये आपको किसी तरह जाने भी नहीं दे सकते, बस अब जल्दी कीजिए, अगर चेहरा धोना आप खुशी से मंजूर न करेंगी तो हम लोगों को लाचार होकर जबर्दस्ती करनी पड़ेगी।
इन्दु० : (कुछ सोचकर) खैर जब यही बात है तो लाचारी है, पानी मंगाइये, चेहरा भी धोकर दिखाये देती हूँ, मगर ख्याल रहे कि आप लोग व्यर्थ मुझे तंग कर रहे हैं और इसका नतीजा अच्छा न होगा।
उस आदमी ने दो आदमियों को पानी लाने का हुक्म दिया और दो को इधर-उधर से सूखे पत्ते और लकड़ियाँ बटोर कर पानी गर्म करने के वास्ते आग बालने को कहा। इस बीच इन्दु भी बेफिक्र न थी। गुप्त रीति से कपड़ों के अन्दर छिपा हुआ एक दुनाली तमंचा उसके पास इस समय भी मौजूद था। इस वक्त उसको घेरे हुए आदमी कुछ तितर-बितर हो रहे थे अस्तु अच्छा मौका समझ उसने वह तमंचा निकाल लिया और फुर्ती के साथ उस आदमी पर गोली चलाई जो उसके घोड़े की लगाम पकड़े खड़ा था।
गोली ठीक निशाने पर लगी और वह एक चीख मारकर एक तरफ लुढ़क गया, साथ ही इन्दु की दूसरी गोली दूसरी तरफ के आदमी को लगी और उसने भी लगाम हाथ से छोड़ दी इन्दु ने घोड़े को एड़ लगाई और देखते देखते इन आदमियों को पीछे छोड़ दिया। वे सब भौंचक की तरह इन्दु की तरफ देखते ही रह गये और जब वह दूर निकल गई तब जाकर कहीं उन लोगों को होश हुआ। उनमें से तीन आदमियों ने घोड़ों पर सवार होकर (जो उसी जगह कहीं मौजूद थे) इन्दु का पीछा किया।
इन्दु भागी तो सही मगर इन बदमाशों की तरह अपनी बदकिस्मती को भी पीछे न छोड़ जा सकी। भागने के धुन में उसने एक पेड़ की नीची डाल पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया जो उसके सिर में इस ज़ोर से लगी कि चक्कर आ गया और वह घोड़े की पीठ पर से गिरने के साथ ही बेहोश हो गई। वफादार घोड़ा उसी जगह रुक गया और इसके साथ ही पीछा करने वाले तीनों तीनों आदमियों ने भी वहाँ पहुँचकर उसे घेर अपने कब्जे में कर लिया।
।। दसवाँ भाग समाप्त ।।
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