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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

पन्द्रहवाँ बयान


रात की पहली अंधेरी ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया था जब वह ऐयारा (सुन्दरी) नागर के मकान के बाहर निकली और तेजी के साथ शहर के बाहर की तरफ रवाना हुई। उसका घूम-घूमकर पीछे देखना जाहिर कर रहा था कि उसे अपना पीछा किये जाने का डर है और उसकी चाल यह भी बताती थी कि वह अपने और जमानिया के बीच में शीघ्र ही बहुत फासला डाल देना चाहती है।

मगर वास्तव में ऐसा न था, शहर के बाहर होते ही उसने अपनी चाल कम कर दी और एक ऊँचे जगत वाले कूएँ के पास पहुँच कर तो बिल्कुल ही रुक गई जो एक खेत के बीचोंबीच में बना हुआ था और जिसके पास ही में नीम का एक बहुत पुराना पेड़ था। वह कुछ देर तक तो नीचे खड़ी रही, तब कूएँ पर जाकर बैठ गई और सुस्ताने लगी।

पूरब तरफ आकाश में निकलते हुए चन्द्रमा की रोशनी पल भर में बढ़ती जा रही थी और शीघ्र ही इतनी हो गई कि वह औरत उस आदमी को देख सके जो तेजी के साथ उसकी की तरफ आ रहा था।

यद्यपि इस औरत की तरह उस आने वाले आदमी के चेहरे पर भी नकाब पड़ी हुई थी तथापि एक ने दूसरे को बाखूबी पहिचान लिया और उस आदमी ने पास आकर इससे पूछा, ‘‘क्यों काम हो गया?’’ जिसके जवाब में इसने कहा, ‘‘हाँ’’। इस पर उस आदमी ने पुन: कहा, ‘‘तो बस अब यहाँ रुकने की जरूरत नहीं, चली चलो।’’

यह औरत कूएँ से नीचे उतरी और दोनों बात करते पूरब की तरफ जाने लगे।

मर्द : दारोगा ने तुम्हारे मन के मुताबिक चीठी लिख दी?

औरत : जी हाँ, आपकी तरकीब बहुत अच्छा काम कर गई, दारोगा ने हेलासिंह के नाम चीठी लिख दी और मुझे उससे मिलने को कहा है। यदि आप कहें तो उसकी चीठी दिखाऊँ।

मर्द : हाँ दो तो सही, देखें क्या लिखा है।

औरत ने वह चीठी निकाल कर जो थोड़ी ही देर पहिले दारोगा ने लिख कर दी थी। चन्द्रमा की रोशनी इस लायक न थी कि वह चीठी पढ़ी जा सके इसलिए उस आदमी ने रोशनी का सामान किया और एक जगह रुककर उस चीठी को गौर से पढ़ा, इसके बाद रोशनी बुझा चीठी उस औरत को लौटाते हुए कहा, ‘‘बस अब हम लोगों का काम बाखूबी निकल जायगा।’’

औरत : जी हाँ, उम्मीद तो ऐसी ही होती है।

मर्द : मनोरमा को तुम पर किसी तरह का शक तो नहीं हुआ?

औरत : मेरी बात के आगे उसका शक ज्यादे देर तक टिक न सका।

मर्द : तुमने उससे क्या कहा?

औरत : मैंने उससे कहा कि मैं भूतनाथ के रिश्तेदारों में से हूँ, और किसी कारण विशेष से रंज होकर आपका साथ देना चाहती हूँ। मैंने उसे गौहर वाला हाल सुनाया जिसे न जाने किस प्रकार वह जान चुकी थी, और यह भी कहा कि मैं उस (गौहर) की सखी ‘गिल्लन’ का रूप धर कर कुछ समय से उसके साथ हूँ और कई भेद की बातों का भी पता लगा चुकी हूँ। मगर सच तो यह है कि अगर वह शेरअली वाली चीठी मेरे पास न होती और मैं उसको न दिखाती तो मनोरमा को मेरी बातों पर कभी विश्वास न होता। उस चीठी का उस पर बेढ़ब असर पड़ा और वह तुरन्त मुझे साथ ले दारोगा के पास चलने को तैयार हो गई।

मर्द : अब इस चीठी को इसके मालिक के पास पहुँचा देना चाहिए।

औरत : जरूर, और इस बारे में जैसा आप कहिए वैसा ही मैं करूँ।

मर्द : (कुछ सोचकर) बस इसे पुन: गौहर के पास पहुँचा दो वह बलभद्रसिंह को दे देगी, किसी और जरिये से इसका उन तक पहुँचना मुनासिब नहीं।

औरत : बहुत अच्छा, मगर यह तो कहिए कि अब मुझे क्या करना चाहिए। क्या यह दारोगा वाली चीठी लेकर मैं हेलासिंह के पास जाऊँ? किसी तरह का डर तो नहीं है?

: कोई नहीं। जब दारोगा और मनोरमा तुम्हें पहिचान न सके तो हेलासिंह कदापि नहीं पहिचान सकता।

औरत : बहुत अच्छा।

मर्द : उससे मिलकर जो कुछ कार्रवाई करना होगा वह मैं तुम्हें बता ही चुका हूँ, जिस तरह से हो सके उसके हाथ से गढ़ी की ताली ले लेना होगा। बिना उस ताली के हम लोग कुछ नहीं कर सकेंगे।

औरत : आप इस इमारत का पूरा हाल नहीं जानते?

मर्द : जितना तुम्हें बता चुका हूँ उससे ज्यादा कुछ नहीं जानता।

औरत : इस हेलासिंह को उसका हाल क्योंकर मालूम हुआ?

मर्द : वह और उसके पुरखे लोग बहुत समय तक जमानिया के दीवान रह चुके हैं। यद्यपि आजकल राजा गिरधरसिंह की नाराजगी के कारण हेलासिंह जमानिया से निकाल दिया गया है और दीवानी का पूरा काम दूसरे के सुपुर्द है तथापि वह हर तरह का बहुत कुछ हाल जानता है और खास तौर पर वह लोहगढ़ी तो बहुत दिनों तक उसके कब्जे में थी जिससे वह यहाँ का सब हाल बाखूबी जानता है, और लोहगढ़ी के कैदियों को छुड़ाने के लिए उसकी मदद अथवा उस ताली की जरूरत है जो उसके पास है।

औरत : ठीक है, मैं समझ गई, तो मैं हेलासिंह से मिलूँगी और किसी न किसी प्रकार वह ताली कब्जे से लेने का उद्योग करूँगी, मगर यह जो कहिए कि अगर वह हाथ न लगी तब क्या होगा?

मर्द : तब सिवाय इसके और कोई उपाय नहीं रहेगा कि जमानिया के राजा को इस बात की खबर पहुँचाकर उसकी मदद ली जाय।

औरत : मेरी समझ में तो पहले यही करना चाहिए। देर करने से न जाने क्या हो जाय।

मर्द : राजा गिरधरसिंह दारोगा के कब्जे में पूरी तरह पड़े हुए हैं। उनको जल्दी इन बातों पर विश्वास होना कठिन है।

लाचारी की हाल में तो फिर यह करना ही होगा मगर एक बार तुम कोशिश तो करो, कदाचित् मेहनत सुफल हो जाय! एक साथ ही बहुत से सबूत बटोरकर यदि राजा साहब के सामने पेश किए जायँगे तब दारोगा अपने को किसी तरह बचा न सकेगा!

औरत : बेशक यह तो सही है।

मर्द : अच्छा तुम जाओ, मैं एक दूसरे काम की फिक्र में लगता हूँ, यदि बन पड़ा तो कल तुमसे मिलूँगा।

औरत : तो क्या इस समय आप लोहगढ़ी न चलिएगा?

मर्द : नहीं, तुम जाओ, मैं यहीं से विदा होता हूँ।

औरत :कल किस समय मिलेंगे?

मर्द : हो सका तो संध्या को।

इतना कह वह आदमी रुक गया और चारों तरफ देख इस बात पर विचार करने लगा कि वह किस जगह पर है और उसे किधर जाना चाहिए। कुछ देर बाद उसने अपना मुँह उत्तर की तरफ किया और उस औरत से अलग हो तेजी के साथ उसी तरफ को रवाना हो गया। वह औरत पुन: अपने रास्ते पर चल पड़ी।

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