मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4 भूतनाथ - खण्ड 4देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण
चौदहवाँ बयान
जब से मालती दारोगा की कैद से निकल गई है दारोगा की कुछ अजीब-सी हालत हो गई है। वह हरदम काँपता और डरता रहता है और किसी गहरे सोच में पड़ी हुई उसकी जान को दम मारना भारी पड़ गया है।
न मालूम उस पर कौन-सा तरद्दुद आ पड़ा है या मालती के कारण वह अपने को किस आफत में पड़ा हुआ समझने लगा है, मगर इतना जरूर है कि उसकी घबराहट बेसबब नहीं है।
इस समय वह अपने एकान्त के कमरे में बैठा हुआ है। उसका सिर चिन्ता के बोझ से झुका है और वह एक छोटी चौकी के ऊपर कोहनी रखे हथेली पर सिर दबाए सोच रहा है। उसके मन में जो कुछ दौड़ रहा है उसका कुछ आभास उन बातों से मिलता है जो बेमालूम तौर पर कभी-कभी उसके मुँह से निकल पड़ती हैं :-
‘‘इसमें तो जरा भी शक नहीं कि वह कम्बख्त जरूर लोहगढ़ी पहुँच गई है, मगर उसका भेद क्योंकर मालूम हुआ। और अगर मालूम हुआ भी तो क्या वह सारी बातें जानती है या अगर सब कुछ वह जानती है तो बड़ी ही मुश्किल होगी, मैं किसी तरह अपने को बचा न सकूँगा...।।लेकिन वह जब से मेरी कैद से भागी है तब से फिर कहीं दिखाई भी नहीं दी, नहीं तो बगैर कुछ न कुछ आफत लाए न रहती। यद्यपि दामोदरसिंह को, जो मेरे रास्ते का काँटा था मैंने दूर कर दिया तो भी अभी डर बना ही हुआ है। महाराज कदाचित उस भेद को जानते हैं और इन्द्रदेव...।
‘‘जब वह अभी तक किसी से मिली नहीं है तो दो में से एक ही बात हो सकती है, या तो वह स्वयं किसी मुसीबत में फंस गई है और या फिर मुझसे कोई बुरा बदला लेने का ढंग सोच रही है। उसका इस तरह अपने को छिपाये रखना मेरे लिए कोई शुभ लक्षण नहीं है। तब फिर क्या किया जाए!’’
‘‘तब किया क्या जाए’’ कहकर दारोगा ने बेचैनी के साथ सिर उठाया और उसी समय जैपाल को देखा जो कमरे के अन्दर आ रहा था।
जैपाल पर निगाह पड़ते ही दारोगा ने कहा, ‘‘कहो कुछ पता लगा?’’ जिस के जवाब में उसने सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं कुछ भी नहीं, मगर मैं यह कहने के लिए आया हूँ कि मनोरमाजी के भेजे हुए दो ऐयार यहाँ आए हैं जिनके बारे में शायद आपसे उन्होंने कुछ जिक्र किया था।’’
दारोगा : हाँ ठीक है, तुम उनको यहीं ले आओ।
‘‘बहुत खूब’’ कह जैपाल चला गया और थोड़ी ही देर में गोविन्द और माया सिंह को साथ लिए आ पहुँचा। हमारे पाठक इन दोनों ऐयारों को कई बार मनोरमा के साथ देख चुके हैं इसलिए यहाँ इनका परिचय देने की आवश्यकता नहीं।
दोनों ऐयार दारोगा को सलाम करके बैठ गए और जैपाल भी दारोगा का इशारा पाकर पास ही बैठ गया। गोविन्द ने अपने पास से एक चीठी निकालकर दारोगा की तरफ बढ़ाई और कहा, ‘‘मनोरमाजी ने यह चीठी दी है और जुबानी कहला भेजा है कि आज किसी समय वे आपसे मिलेंगी।’’
दारोगा ने वह चीठी लेकर गौर से पढ़ी और उसके चेहरे पर कुछ प्रसन्नता झलकने लगी। उसने उन दोनों ऐयारों की तरफ देखकर कहा, ‘‘इस चीठी से मालूम होता है कि तुम लोगों ने प्रभाकरसिंह का कुछ पता लगाया है।’’
माया० : हाँ, कुछ क्या मनोरमाजी के हुक्म से हम लोग बहुत कुछ पता लगा चुके हैं बल्कि उन्हें गिरफ्तार भी कर लिए होते पर जिस मकान में वे रहते हैं वह कुछ ऐसा बना हुआ है कि हमारी कोई तरकीब नहीं लगने पाई।
दारोगा : सो कहाँ?
माया० : अजायबघर के पूरब तरफ ऊँचे टीले पर जो इमारत है- शायद उसे लोहगढ़ी कहते हैं- उसी के अन्दर वे रहते हैं और कई बार एक औरत को भी उसके अन्दर आते-जाते हमलोगों ने देखा है पर वह कौन है यह नहीं कह सकते क्योंकि वह हमेशा नकाब से अपनी सूरत ढांके रहती है!
दारोगा : (जैपाल से धीमे स्वर में) मालती तो नहीं है!
जैपाल : हो सकता है।
माया० : आपका हुक्म हो तो हम लोग उस औरत को गिरफ्तार करने की कोशिश करें।
दारोगा : जरूर करो, अगर तुम लोग उसे गिरफ्तार करके मेरे पास ला सकोगे तो तुम लोगों के मुँहमाँगा इनाम दूँगा।
माया० : तब तो हम लोग दिलोजान से कोशिश करेंगे।
गोविन्द० : मगर एक बात अर्ज कर देना मालूम होता है।
दारोगा : वह क्या?
गोविन्द० : हम लोगों के सिवाय और भी कई आदमी उन लोगों का पीछा कर रहे हैं और आपके दोस्त भूतनाथ भी कई बार उस टीले के आस पास दिखाई पड़ चुके हैं। हम नहीं कह सकते कि वे दुश्मनी की नीयत से वहाँ जाते हैं या दोस्त की, पर जाते अवश्य हैं।
दारोगा : (कुछ सोचकर) खैर कोई हर्ज नहीं, तुम लोग अपना काम करो मगर इस सभी से अपने को बचाते हुए।
माया : बहुत खूब।
दारोगा : (जैपाल से) इधर कई दिनों से भूतनाथ नहीं मिला, न मालूम किस धुन में है?
जैपाल० : मुझे वह कल मिला था, कुछ परेशान और घबड़ाया-सा मालूम होता था।
माया० : जी हाँ, जब से शेरअलीखाँ की लड़की गौहर उनके कब्जे से निकल गई तब से न जाने कुछ परेशान से रहते हैं।
दारोगा : क्या गौहर को उसने गिरफ्तार किया था? यह कब की बात है?
माया० : कई दिन हो गए, क्या आपको यह हाल मालूम नहीं हुआ?
दारोगा : नहीं।
माया० : जिस दिन आप से शेरसिंह ने मुलाकात की या जिस रोज प्रभाकरसिंह आपकी कैद से छूटा उसी दिन की यह बात है।
इतना कह मायासिंह वह सब हाल कह गया। पाठकों को याद होगा कि सातवें बयान के अन्त में हम दो आदमियों का हाल लिख चुके हैं जो भूतनाथ का पीछा कर रहे थे। वे दोनों यही गोविन्द और मायासिंह थे जो मनोरमा की आज्ञानुसार भूतनाथ के पीछे लगे हुए थे।
कुछ देर तक और बातचीत करने और कई जरूरी बातें समझाने के बाद दारोगा ने मायासिंह और गोविन्द को बिदा किया और स्वयम् जैपाल को साथ ले कपड़े पहिन किसी तरफ को चल निकला।
संध्या हो गई थी जब दारोगा एक भारी लबादा ओढ़े और लोगों की निगाहों से अपने को छिपाता हुआ अकेला नागर के मकान पर पहुँचा। फाटक खुला था मगर दारोगा के अन्दर पहुँचते ही नौकरों ने उसे बन्द कर दिया। फौरन ही नागर भी वहाँ आ पहुँची और दारोगा का हाथ पकड़े मीठी बातें करती हुई घर के अन्दर ले गई।
कमरे में पहुँच नागर ने दारोगा को बड़े खातिर से बैठाया और कहा, ‘‘अभी कुछ ही देर हुई मनोरमाजी भी आई हैं और आपकी बेचैनी के साथ राह देख रही हैं।’’
दारोगा : उन्हीं से मिलने मैं आया हूं, तुम सीधे उन्हीं के पास मुझे ले चलो, वहीं बैठ कर तुमसे भी बातें होंगी।
‘‘‘बहुत अच्छा’’ कह कर नागर उठ खड़ी हुई और दारोगा को साथ लिये हुए मकान की सबसे ऊपरी मंजिल में पहुँची जहाँ एक बंगले में इस समय मनोरमा थी और उसके सामने एक दूसरी औरत भी बैठी हुई थी जिसका चेहरा नकाब से ढका हुआ था।
मनोरमा के साथ किसी औरत को देख दारोगा दरवाजे ही पर रुका मगर मनोरमा के यह कहने पर कि ‘कोई हर्ज नहीं चले आइए’ वह भीतर चला गया। नागर ने दरवाजा बन्द कर लिया जिसकी राह सीढ़ियां चढ़ इस मंजिल में आना होता था और तब वह खुद भी आकर इन लोगों के पास बैठ गई।
दारोगा : (नकाबपोश औरत की तरफ बता कर) ये कौन हैं? मनो० : यह मेरी एक नई साथिन हैं जो ऐयार भी हैं और जिन्हें मैं आप ही से मुलाकात कराने को ले आई हूँ।
दारोगा : मगर ये तो अपनी सूरत दिखाने से भी परहेज करती हैं।
मनो० : इसके लिए मैं लाचार हूँ कि जोर नहीं दे सकती क्योंकि ऐसा ही वादा करके लाई हूँ। हाँ इतना कह सकती हूँ कि इनके जरिए बहुत कुछ मदद मिलने की उम्मीद है और विश्वास करने में किसी तरह का हर्ज नहीं। इसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ।
दारोगा : खैर जब तुम इन पर विश्वास करती हो तो मुझे भी कहना ही पड़ेगा। (कुछ रुककर) तुम्हारे ऐयार गोविन्द और मायासिंह आज मुझसे मिले थे।
मनो० : उनकी जिक्र पीछे होगी पहिले आप इनकी बातें सुन लें। (नकाब पोश औरत से) अच्छा होगा कि तुम एक बार पुन: खुलासा कह जाओ।
औरत : सब हाल? पूरा-पूरा?
मनो० : हाँ हाँ, कोई भी बात छिपाने की जरूरत नहीं।
दारोगा : यदि ये सूरत न दिखावें तो न सही, कम से कम अपना नाम तो बता दें!
औरत : हाँ हाँ, वह आप जरूर जान सकते हैं, मेरा नाम ‘सुन्दरी’ है और मैं ऐयार हूँ। शायद आपने गदाधरसिंह ऐयार का नाम सुना होगा, मैं उन्हीं के रिश्तेदार में से हूँ, इसी सबब से (मनोरमा और नागर की तरफ बताकर) आप दोनों को भी बखूबी जानती हूँ, यद्यपि आज से कुछ दिन पहिले इन्होंने मेरी सूरत देखी नहीं थी। खैर अब मैं मतलब की तरफ झुकती हूँ।
इतना कह उस औरत (सुन्दरी) ने एक चीठी निकाली और उसे दारोगा की तरफ बढ़ा कर कहा, ‘‘यह चीठी पटने के शेरअली खाँ ने अपनी लड़की गौहर के हाथ आपके दोस्त बलभद्रसिंह के पास भेजी थी और इसके पढ़ने से आपको मालूम हो जायगा कि आपकी इधर की कार्रवाइयों का बहुत कुछ हाल इन्हें मालूम हो चुका है।
दारोगा ने चौंक कर वह चीठी ले ली और मन ही मन पढ़ गया। यह लिखा हुआ था :-
‘‘मेरे दोस्त बलभद्रसिंह, मुझे पक्की तौर से पता लगा है कि जमानिया के दारोगा साहब जिन्हें शायद आप अपना दोस्त समझते हैं आपके पूरे दुश्मन हो रहे हैं। उनका वार आप और आपकी लड़कियों पर होगा और मैंने सुना है कि आपकी बड़ी लड़की लक्ष्मीदेवी जिसे मैं बहुत प्यार करता हूँ बहुत जल्दी ही किसी मुसीबत में पड़ा चाहती है। मेरी लड़की गौहर ने जिसे ऐयारी का बहुत शौक है अपनी चालाकी से इन बातों का पता लगाया है इसलिए यह चीठी मैं उसी के हाथ आपके पास भेजता हूँ। खुलासा हाल आपको उसी की जुबानी मालूम होगा।’’
चीठी ने नीचे शेरअली खाँ का दस्तख़त था।
इस चीठी ने दारोगा को बदहवास कर दिया और उसने बेचैनी के साथ पूछा, ‘‘तो क्या यह चीठी बलभद्रसिंह के हाथों तक पहुँच चुकी है?’’
सुन्दरी : अगर मेरे हाथ न लग गई होती तो अवश्य पहुँच जाती।
दारोगा : तुम्हें यह क्योंकर मिली?
सुन्दरी : यह एक गुप्त बात है जिसे मैं बताना नहीं चाहती, हाँ अगर जोर दें तो लाचारी है।
दारोगा : नहीं नहीं, मैं जोर नहीं दे सकता। अच्छा यह बता सकती हो कि गौहर बलभद्रसिंह तक पहुँची या नहीं?
सुन्दरी : नहीं, अभी तक नहीं, मगर आज ही कल में जाने वाली है और जब ऐसा होगा तब किसी तरह आप अपनी कुशल न समझें।
दारोगा : क्यों?
सुन्दरी : उसे इस बात का पता लग चुका है कि आप हेलासिंह की लड़की के साथ गोपालसिंह की शादी करना चाहते हैं अस्तु वह इस फिक्र में पड़ी हुई है कि किसी तरह मुन्दर को पकड़ ले और अपने साथ लिए हुए तब उनसे मिले।
यह एक ऐसी बात थी जिसने दारोगा को बेचैन कर दिया और वह घबड़ा कर इस औरत का मुँह देखने लगा। कुछ देर बाद उसने कहा, ‘‘तुम्हें यह बात क्योंकर मालूम हुई?’’
सुन्दरी : गौहर की बातचीत और उसकी कार्रवाइयों से। मैं आज कई दिनों से उसका पीछा कर रही हूँ और जब से उस भूतनाथ की कैद से छूटकर निकली है तब से तो मैं बराबर उसके साथ हूँ। इसी से मैं यह बात इतने पक्के तौर पर आपसे कह सकती हूँ।
मनोरमा : (दारोगा की तरफ देखकर) तब तो गौहर को फौरन ही गिरफ्तार कर लेना चाहिए।
दारोगा : (कुछ सोचता हुआ) हाँ यही तो मैं भी सोच रहा हूँ, मगर।।
सुन्दरी : शायद आप सोचते हैं कि ऐसा करने से शेरअली खाँ से आपकी खटपट हो जायगी जो आजकल दिग्विजयसिंह का बहुत बड़ा दोस्त बना हुआ है।
दारोगा : (ताज्जुब से) बेशक मैं यही सोचता हूँ, मगर तुम यह बात कैसे जानती हो?
सुन्दरी : (खिलखिला कर) मैं कह चुकी हूँ कि ऐयार हूँ और सब तरफ की खबर रखती हूँ।
दारोगा : अगर शेरअली को मालूम हो गया कि मैंने उसकी लड़की के साथ कोई बुरा बर्ताव किया है तो वह अवश्य बिगड़ खड़ा होगा और खास कर ऐसी हालत में जब कि (चीठी की तरफ बताकर) इन सब बातों की उसे खबर है। अस्तु उनके साथ खुल्लमखुल्ला बिगाड़ करना मैं कैसे पसन्द कर सकता हूँ!
सुन्दरी : बेशक ऐसा ही है और यही सोचकर मैंने भी अभी तक गौहर को गिरफ्तार करने की कोई चेष्टा नहीं की है यद्यपि मैं जब चाहूँ ऐसा कर सकती हूँ।
मनोरमा : (कुछ देर चुप रह कर) मुझे एक बात सूझती है।
दारोगा : क्या?
सुन्दरी : गौहर मुन्दर और बन सके तो हेलासिंह को भी, गिरफ्तार करने की फिक्र में लगी हुई है, उसे ऐसा करने का मौका दिया जाय।
दारोगा : वाह खूब कही, तब तो सब किया-कराया ही चौपट हो जायगा!
सुन्दरी : नहीं, आप मेरी पूरी बात सुन लीजिए! मैं यह चाहती हूँ कि एक नकली मुन्दर और हेलासिंह बनाकर उसके हाथ में इस तरह पर दे दिये जायँ कि वह समझे कि उसने असली को ही गिरफ्तार कर लिया। यदि वह इन दोनों को काबू में कर सकी तो फिर जल्दी आगे कोई कार्रवाई न करेगी।
मनो० : क्योंकि वह यह समझेगी कि अब जब हेलासिंह और मुन्दर ही उसके कब्जे में...
सुन्दरी : बस बस, यही मेरा खयाल है।
दारोगा : हाँ तुम्हारी यह राय जरूर गौर करने के लायक है। मगर इस मामले में बिना हेलासिंह की राय लिए कुछ करना ठीक न होगा।
सुन्दरी : यदि आप मुझे अपने हाथ की लिखी एक चीठी दे दें तो मैं खुद जाकर हेलासिंह से मिलूँ और सब हाल कह समझा-बुझा उन्हें इस बात के लिए राजी करूँ।
दारोगा : हाँ यह बहुत ठीक होगा, तुम्हें सब हाल मालूम ही है, मैं अभी ऐसी चीठी लिखे देता हूँ।
सुन्दरी : मगर इस बात का ख्याल है कि मैं अपनी सूरत दिखाने पर मजबूर न की जाऊँ।
दारोगा : खैर जैसी तुम्हारी मर्जी, मगर एक बात तो बताओ, जब तुम हम लोगों की साथिन बताती हो और दु:ख दर्द में शरीक हो अपनी सूरत दिखाने से क्यों परहेज करती हो!
सुन्दरी : मैंने इसका पूरा-पूरा सबब मनोरमाजी के बयान से कर दिया है जो मेरी असली सूरत से भी बखूबी वाकिफ हैं। मेरे जाने के बाद आप इनसे दरियाफ्त कर सकते हैं, और फिर यह बात कुछ ज्यादा दिनों के लिए भी नहीं।
‘‘खैर’’ कहकर दारोगा ने एक भेद की निगाह मनोरमा पर डाली जिसने लापरवाही के साथ गरदन हिला दी, इस इशारे बाजी को उस औरत ने भी देखा मगर कुछ जाहिर नहीं किया।
दारोगा ने अपनी जेब से जस्ते की एक कलम और कागज का टुकड़ा निकाला और हेलासिंह के नाम का पत्र लिखकर सुन्दरी के हवाले कर दिया।
सुन्दरी : मैं इस समय उधर रवाना होती हूँ और लौटकर कल आपसे मिलूँगी, मगर किस जगह मिलूँ?
दारोगा : कल इस समय इसी जगह मैं रहूँगा, यहीं आना।
सुन्दरी : बहुत अच्छा, तो अब यदि आज्ञा हो तो मैं जाऊँ क्योंकि सफर लम्बा है और विलम्ब भी हो गया है।
दारोगा : अच्छी बात है, पर कल यहाँ मिलने का खयाल रखना।
सुन्दरी : अवश्य!
सुन्दरी उठ खड़ी हुई। दारोगा के इशारे से नागर उसके साथ गई और सदर दरवाजे तक पहुँचा आई।
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